विनय पत्रिका पद का शब्दार्थ सहित व्याख्या

इस पोस्ट में आपको विनय पत्रिका पद का शब्दार्थ सहित व्याख्या के बारे में जानकारी मिलेगी .

यदि कही त्रुटि दिखाई पड़े या अतिरिक्त जानकारी हो तो नीचे कमेंट बॉक्स में लिख भेजिए . हम पोस्ट को संशोधन कर शीघ्र अपडेट का प्रयास करेंगे ताकि अधिक से अधिक पाठक लाभान्वित हो सके और साहित्य इन के साथ बने रहने के लिए हमें निरंतर फॉलो करते रहिये ताकि परिक्षापयोगी हिंदी साहित्य के सम्पूर्ण पाठ्यक्रम की जानकारी आपको मिलती रहे.

Table of Contents

विनय-पत्रिका पद 1 (श्रीगणेश-स्तुति) का शब्दार्थ सहित व्याख्या


गाइये गनपति जगबन्दन । संकर – सुवन भवानी – नन्दन ॥१॥
सिद्धि-सदन, गजबदन, बिनायक । कृपा-सिन्धु, सुन्दर, सब लायक ॥:
मोदक-प्रिय, मुद – मंगल-दाता। विद्या – वारिधि, बुद्धि – विधाता ॥
माँगत तुलसिदास कर जोरे । बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥४॥


शब्दार्थ-

गनपति = गणोंके स्वामी । संकर = कल्याण करनेवाले, शिवजी । नन्दन = आनन्द बढ़ानेवाले या प्रसन्न करनेवाले । सिद्धि = एक अलौकिक शक्तिका नाम । यह आठ प्रकारको है-अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, ईशित्त्व, बशित्त्व, प्राकाम्य और प्राप्ति । मोदक – दूधसे गुंथे आटेमें मेवा आदि भर कर बनाया गया मिष्टान्नविशेष, लडडू ।

भावार्थ-

संसार के वन्दनीय, श्रीगणेशजी का गुणगान कीजिये। वह शिव- पार्वतीके पुत्र हैं, और उनको (माता-पिताको) प्रसन्न करनेवाले हैं ॥१॥

वह अष्टसिद्धियों के स्थान हैं; उमका मुख हाथीके समान है; वह समस्त विघ्नों के नायक हैं यानी उनकी कृपासे सब विघ्न-बाधाएँ दूर हो जाती हैं; वह कृपाके समुद्र हैं, सुन्दर हैं और हर तरहसे योग्य हैं ।।२।।

उन्हें मोदक अत्यन्त प्रिय है । वह आनन्द और कल्याणको देनेवाले हैं। वह विद्याके समुद्र और बुद्धिके विधाता हैं ।।३।

ऐसे मंगलमय गणेशजीसे यह तुलसीदास हाथ जोड़कर केवल यही वर माँगता है कि मेरे मानसमें श्रीराम-जानकी निवास करें ॥४॥

विनय-पत्रिका पद 2 (सूर्य-स्तुति) का शब्दार्थ सहित व्याख्या

दीनदयालु दिवाकर देवा । कर मुनि, मनुज, सुरासुर सेवा ॥१॥
हिम-तम-करि केहरि करमाली । दहन दोष-दुख-दुरित रुजाली ॥२॥
कोक-कोकनद-लोक-प्रकासी । तेज – प्रताप – रूप – रस – रासी ॥३॥
सारथि पंगु दिव्य रथ-गामी । हरि-संकर-विधि-मूरति खामी ॥४॥
वेद-पुरान प्रगट जस जागै। तुलसी राम-भगति बर माँगै॥५॥

शब्दार्थ-

दिवाकर = सूर्य । हिम= बर्फ । तम = अन्धकार । करि= हाथी । केहरि =सिंह । करमाली किरणों की माला धारण करनेवाले । दहन= अग्नि । दुरित = पाप । रुजाली = रोग-समूह । कोक = चकवा-चकवी । कोकनद = कमल ।

भावार्थ

हे दीनोंपर दया करनेवाले सूर्यदेव ! मुनि, मनुष्य, देवता और राक्षस सभी आपकी सेवा करते हैं ॥१॥

हे किरणों की माला धारण करनेवाले ! आप बर्फ और अन्धकाररूपी हाथियों को मारनेके लिए सिंह हैं। अर्थात् आपकी किरणोंसे बर्फ पिघल जाता है और अन्धकार दूर हो जाता है। दोप, दुःख, पाप और रोग-समूहको आप अग्निके समान जला डालनेवाले हैं ॥२॥

आप चकवा-चकवीको प्रसन्न करनेवाले हैं; अर्थात् उनका रात्रिके कारण उत्पन्न वियोग आपके उदय होते ही नष्ट हो जाता है। चकवा-चकवी सन्ध्या होते ही एक-दूसरेसे अलग हो जाते हैं और सबेरा होते ही फिर मिल जाते हैं। आप कमलको प्रफुल्लित करने वाले तथा समूचे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करनेवाले हैं । आप तेज, प्रताप, रूप और रसकी राशि हैं ॥३॥

आप हैं तो दिव्य रथपर चलनेवाले, पर आपका सारथी (अरुण) पंगु है। हे स्वामी ! आप विष्णु, शिव और ब्रह्मा इन त्रिदेवोंके रूप हैं ॥४॥

वेदों और पुराणों में आपका यश जगमगा रहा है । तुलसीदास आपसे राम-भक्तिका वर माँगता है ॥ ५ ॥

विनय-पत्रिका पद 3 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्या

(3) को जाँचिये सम्भु तजि आन
दीनदयालु भगत-आरति-हर, (सव प्रकार समरथ भगवान ॥१॥
कालकूट-जुर-जेरते सुरासुर, निज प्रन लागि किये विष-पान ।
दारुन दनुज, जगत-दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही वान ॥२॥
जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, कहत सन्त, स्रुति, सकल पुरान ।
सो गति मरनकाल अपने पुर, देत सदासिव सवहिं समान ॥३॥
सेवत सुलभ, उदार कलपतर, पारवती-पति परम सुजान ।
देहु काम-रिपु रामचरन रति, तुलसिदास कहँ कृपानिधान ॥४॥

शब्दार्थ

आन = दूसरा, और कोई । आरति = कष्ट । यशवान् = ऐश्वर्यवान् । काल- कृट = हलाहल विष । जुर-ज्वाला, ज्वर, ताप । कामरिपु-शिवजी।

भावार्थ

शिवजीको छोड़कर और किससे याचना की जाय ? आप दीनों- पर दया करनेवाले, भक्तोंका कष्ट हरण करनेवाले, हर तरहसे समर्थ और ऐश्वर्यवान् हैं ॥१॥

समुद्र-मंथनके बाद जब हलाहल विषकी ज्वालासे देवता और अमुर जलने लगे, तब आप अपनी दीन-दयालुताका प्रण निभानेके लिए उस विषको पान कर गये । संसारको दुःख देनेवाले भयंकर दानव त्रिपुरासुरको आपने एक ही बाणमें मार डाला था ॥२।।

सन्त, वेद और सब पुराण कहते हैं कि जिस गतिकी प्राप्ति महामुनियों के लिए अगम और दुर्लभ है, वही गति या मुक्ति आप अपने पुरमें अर्थात् काशीमें मृत्युके समय सदैव सबको समभावसे दिया करते हैं ॥ ३ ॥

सेवा करनेमें आप सुलभ हैं यानी सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं । हे पार्वतीके पति ! हे परमज्ञानी ! आप कल्पवृक्षके समान उदार हैं । हे कामदेवको भस्म करनेवाले ! हे कृपानिधान ! तुलसीदासको श्रीरामजीके चरणोंमें भक्ति दे दीजिये।

विनय-पत्रिका पद 4 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्या

दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।
दीनदयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं ॥१॥
मारिकै मार थप्यो जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं ।
ता ठाकुर को रीझि निवाजिबौ, कह्यो क्यों परत मो पाहीं॥२॥
जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं।
वेद-विदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं ॥३॥
ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं।
तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं ॥४॥

शब्दार्थ

दिबोई = देना ही । सोहाही = अच्छे लगते हैं । मार = कामदेव । थप्यो = स्थापित किया, रहने दिया। निवाजिबौ= कृपा करना । पुरारि-पुर-काशी। अनत = अन्यत्र । जाँचन-माँगने ।

भावार्थ

शिवजीके समान दानी कहीं (कोई) नहीं है। वह दीनदयालु हैं, देना ही उन्हें अच्छा लगता है। भिखमंगे उन्हें सदैव प्रिय लगते हैं ॥1॥

योद्धाओंमें अग्रगण्य कामदेवको भस्म करके फिर उसे संसारमें रहने दिया, ऐसे प्रभुका रीझकर कृपा करना मुझसे कैसे कहा जा सकता है ! ॥२॥

अनेक तरहसे योगाभ्यास करके मुनिगण जिस मोक्षको भगवान्से माँगनेमें संकोच करते हैं, उस मोक्षपदको शिवकी पुरी काशीमें कीट-पतंगतक पा जाते हैं, यह वेदोंमें विदित या प्रकट है ||३।।

ऐसे ऐश्वर्यवान् परम उदार शिवजीको छोड़ कर जो लोग अन्यत्र माँगने जाते हैं, वे मूर्ख हैं; तुलसीदास कहते हैं कि उन मूल्का पेट माँगनेसे कभी भी नहीं भरता ||४||

विशेष

१-जब शिवजीने कामदेवको भस्म किया, तब कामदेवकी स्त्री रति अत्यन्त दुःखिनी होकर विरह-विलाप करने लगी। इससे महाराज शिवजीको दया आ गयी और उन्होंने कामदेवको अनंग (बिना शरीर) रूपसे संसारमें रहने दिया । इससे उनकी दयालुताका परिचय मिलता है।

विनय-पत्रिका पद 5 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्या

बावरो रावरो नाह भवानी ।
दानि बड़ो दिन देत दये विनु, वेद वड़ाई भानी ॥१॥

निज घर की घर-चात दिलोकहु, हो तुम परम सयानी ।
सिव की दयी सम्पदा देखत, श्री सारदा सिहानी ॥२॥

जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुख की नहीं निसानी ।
तिन रंकन को नाक सँवारत, हौ आयो नकवानी ॥३॥

दुख दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी ।
यह अधिकार सौपिये औरहि, भीख भली में जानी ॥४॥

प्रेम-प्रसंसा-विनय-व्यंगजुत, सुनि बिधि की बरवानी ।
तुलसी मुदित महेस मनहि मन, जगत-मातु मुसुकानी ॥५॥

शब्दार्थ

बावरो= बावला, पागल । रावरो=आपके । नाह = स्वामी। सिहानी- सिहाती हैं । नाक-स्वर्ग । नकवानी-नाकों दम । भानी (यह भणित शब्द का अपभ्रंश है)

भावार्थ

(शिवजीकी अत्यधिक उदारता देखकर पार्वतीके पास जाकर ब्रह्मा कहने लगे) हे भवानी ! आपके पति पागल हैं। वह ऐसे दानी हैं कि जिन्होंने कभी कुछ भी नहीं दिया है, उन्हें भी वे प्रतिदिन दिया करते हैं; (तारीफ तो यह है कि) उनकी यह बड़ाई वेदने कही है ॥१॥

आप परम सयानी हैं, जरा अपने घरको घरेलू बातको देखिये (देते-देते अपना घर खाली करते जा रहे हैं)। शिवकी दी हुई सम्पत्तिको देखकर लक्ष्मी और सरस्वती भी सिहा रही हैं ॥२॥

जिन लोगोंके ललाटमें मैंने सुखका नाम-निशान तक नहीं लिखा था, उन कंगालों के लिए स्वर्गकी सजावट करते-करते मेरे नाकोंदम आ गया है ॥३॥


दुखियोंके दुःख और दीनता भी दुखी है; याचकता व्याकुल हो गयी है (क्योंकि अब दुःख, दीनता और याचकता को कहीं भी रहने के लिए ठौर नहीं है)। यह अधिकार किसी दूसरेको सौंप दीजिये; (मैं इसे नहीं ले सकता) मैं समझ गया कि इस पद का अधिकारी होनेकी अपेक्षा भीख अच्छी है ||४||

तुलसीदास कहते हैं कि प्रेम, प्रशंसा, विनय और – व्यंग्य-भरी ब्रह्माकी सुन्दर वाणी सुनकर शिवजी मन ही मन प्रसन्न हो उठे और जमीननी पार्वतीजी मसकराने लगीं ॥५॥

विशेष

१-इस पद में ‘ब्याज-स्तुति’ अलंकार है । जहाँ सीधे अर्थ को छोड़कर घुमाव-फिरावसे दूसरा भाव प्रकट किया जाता है, वहाँ व्याज या व्यंग्य होता है। निन्दामें स्तुति प्रकट करनेको ब्याज-स्तुति कहते हैं और स्तुतिमें निन्दा का भाव प्रकट करनेको ब्याज-निन्दा कहते हैं । ये ही इस अलंकारके दो भेद हैं। व्याज-स्तुतिका उदाहरण सामने है ।

विनय पत्रिका पद 6 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्या


जाँचिये गिरिजापति, कासी । जासु भवन अनिमादिक दासी ॥१॥

औढर-दानि द्रवत पुनि थोरे । सकत न देखि दीन कर जोरे ॥२॥

सुख संपति मति सुगति सुहाई । सकल सुलभ संकर-सेवकाई ॥३॥

गये सरन आरत के लीन्हे । निरखि निहाल निमिष महँ कीन्हे ॥४॥

तुलसिदास जाचक जस गावै । बिमल भगति रघुपति की पावै ॥५॥

शब्दार्थ-

अनिमादिक = अणिमा आदि आठ सिद्धियाँ । औदर-दानि = बिना समझे बूझे बड़ी से बड़ी वस्तु को दे डालने वाले । द्रवत= पिघल जाते है। सुगति = मोक्ष निमिष = पलभरमें।

भावार्थ

पार्वती के पति शिवजी से ही याचना करनी चाहिये। जिनका घर काशीमें है और अणिमा आदि आठो सिद्धियाँ जिनकी चेरी हैं ॥१||

एक तो शिवजी औढरदानी हैं, दूसरे थोड़ी ही सेवामें पिघल जाते हैं । वह दीनों को हाथ जोड़कर (अपने सामने) खड़े नहीं देख सकते ।।२।।

शंकरकी सेवासे मुख, सम्पत्ति, सुबुद्धि और सुन्दर गति आदि सब वस्तुएँ सुलभ हो जाती हैं ।।३।।

उन्होंने आर्त्त होकर शरणमें गये हुए जीवोंको अपना लिया और पलभर में ही देखते-देखते उन्हें निहाल कर दिया है ।।४॥

याचक तुलसीदास इसी आशा से उनका यश गाता है ताकि उसे श्रीरघुनाथजी की पवित्र भक्ति मिले ।।५।।

विशेष

अनिमादिक-आठ सिद्धियों में एक सिद्धि का नाम है। आठ सिद्धियाँ ये हैं-अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ।

विनय-पत्रिका पद 7 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्या

कस न दीन पर द्रवहु उमावर । दारुन विपति हरन, करुनाकर ॥१॥
बेद पुरान कहत उदार हर। हमरि बेर कस भयउ कृपिनतर ॥२॥
कवनि भगति कीन्ही गुननिधि द्विज । दै प्रसन्न दीन्हेहु सिव पद निज॥
जो गति अगम महामुनि गावहिं । तव पुर कीट पतंगहु पावहिं ॥४॥
देहु काम-रिपु, राम-चरन-रति । तुलसिदास प्रभु हरहु भेद-मति ॥५॥

शब्दार्थ

कृपिनतर = अधिक कृपण । भेदमति = भेदबुद्धि; ‘मैं और मेरा’ यही भेद-

भावार्थ

हे उमावर ! आप मुझ दीनपर क्यों नहीं दयार्द्र होते ? आप तो घोर विपत्तियोंको हरनेकी कृपा करनेवाले हैं ।।१।।

वेद और पुराण तो कहते हैं कि शिवजी अत्यन्त उदार हैं; किन्तु मेरी बारी आनेपर आप इतने अधिक कृपण क्यों हो गये ? ।।२।।

गुणनिधि नामक ब्राह्मणने कौन-सी भक्ति की थी, जिसे आपने प्रसन्न होकर कैवल्य पद दे डाला ? ||३||

बड़े-बड़े मुनि जिस मोक्षको दुर्लभ कहते हैं, आपके पुर (काशी) में वह मोक्ष कीट-पतंगोंको भी मिल जाता है।।४॥

हे कामदेवको दहन करनेवाले शिवजी ! तुलसीदासको श्रीराम चरणों की भक्ति दीजिये । हे प्रभो ! उसकी भेदबुद्धि हर लीजिये ।।५।।

विशेष

१-गोस्वामीजीने शिवजीके लिए उदार दानी तथा काशीमें कीट-पतंग को मुक्त करनेकी बात कई बार कही है। जैसे,

‘वेद-विदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं।’

‘तव पुर कीट पतंगहु पावहिं ।’

इससे तुलसीदासजीका यह भाव प्रकट होता है कि क्या शिवजी उन्हें कीट-पतंग समझ कर भी उनकी मनोभिलाषा पूरी न करेंगे ? शिवजी बड़े दानी हैं, क्या याचक की मांग पूरी न करेंगे? क्योंकि काशीमें ही तो गोस्वामीजी भी रहते थे !

२-गुणनिधि नामक ब्राह्मण चोर था। एक दिन वह घण्टा चुरानेके लिए शिव-मन्दिरमें गया । घण्टा ऊँचा था, अतः उसे खोलनेके लिए वह शिवमूर्तिके उपर चढ़ गया। शिवजीने प्रसन्न होकर कहा,-माँग वर। और लोग तो पत्र- पुष्प चढ़ाते हैं, पर तूने आज हमपर अपना शरीर ही चढ़ा दिया, इससे हम तुझपर बहुत प्रसन्न हैं। इस प्रकार शिवजीकी कृपासे वह कैवल्य-पदका अधि- कारी हो गया ।

विनय पत्रिका पद 8 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्या

देव बड़े, दाता बड़े, संकर बड़े भोरे।
किये दूर दुख सबनिके, जिन जिन कर जोरे ॥१॥
सेवा सुमिरन पूजिबो, पोत आखत थोरे ।
दियो जगत जहँ लगि सबै, सुख, गज, रथ, घोरे ॥२॥
गाँव बसत बामदेव, मैं कबहूँ न निहोरे ।
अधिभौतिक वाधा भई, ते किंकर तोरे ॥३॥
वेगि बोलि बलि बरजिये, करतूति कठोरे ।
तुलसी दलि सैंध्यो चहैं, सठ साखि सिहोरे ॥४॥

शब्दार्थ

भोरे = भोले । पात = देलपत्र । आखत = अक्षत । गज = हाथी । बामदेव = शिबजी । किंकर = दास । वरजिये = मना कर दीजिये । सिहोरे- धूहड़ का वृद्ध, सेहुइ ।


भावार्थ

हे शंकर ! आप महादेव हैं, महादानी हैं और बहुत भोले हैं । जिन-जिन लोगोंने आपके सामने हाथ जोड़े, आपने उन सबके दुःख दूर कर दिये ॥१॥

आपकी सेवा, स्मरण और पूजा थोड़े-से बेलपत्र और अक्षतसे ही हो जाती है । उसके बदले आप संसारकी सब सुख-सामग्री-हाथी, रथ, घोड़े इत्यादि दे डालते हैं ॥ २ ॥

हे बामदेव ! मैं आपके गाँव (काशी) में रहता हूँ, पर अब तक आपसे कुछ नहीं माँगा। अब मुझे आधिभौतिक बाधाएँ सता रही हैं, वे आधिभौतिक दुःख आपके दास हैं ॥ ३ ॥

इसलिए आप इन कठोर करतूत- वालों को शीघ्र बुलाकर मना कर दीजिये, मैं आपको बलैया लेता हूँ। क्योंकि ये दुष्ट तुलसीदल को थूहड़ की डालियों से सँधना चाहते हैं, तुलसीदासको आधि-भौतिक बाधाएँ कुचल डालना चाहती हैं ॥ ४ ॥

विशेष

१–’अधिभौतिक’-ताप तीन तरहके माने गये हैं, आधिदैविक, आधि-भौतिक और आध्यात्मिक । शारीरिक रोगादि आधिदैविक ताप हैं। किसी प्राणीसे जो कष्ट पहुँचता है, उसे आधिभौतिक ताप कहते हैं; इसी प्रकार प्रारब्ध व शान्देवेच्छा से जो कुछ भोगना पड़ता है उसे आध्यात्मिक ताप कहते हैं।
‘तुलसी’-यहाँ तुलसी शब्दसे तुलसीदास और तुलसी-वृक्ष दोनोंका ही बोध होता है।

विनय-पत्रिका पद 9 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्या

सिव सिव होइ प्रसन्न करु दाया।
करुनामय उदार कीरति, बलि जाउँ, हरहु निज माया ॥१॥
जलज-नयन, गुन-अयन मयन-रिपु, महिमा जान न कोई।
विनु तव कृपा राम-पद-पंकज, सपनेहुँ भगति न होई ॥२॥
ऋषय, सिद्ध, मुनि, मनुज, दनुज, सुर अपर जीव जग माहीं।
तव पद बिमुख न पार पाव कोउ, कलप कोटि चलि जाहीं ॥३॥
अहि-भूषन, दूषन-रिपु-सेवक, देव-देव, त्रिपुरारी ।
मोह-निहार-दिवाकर संकर, सरन सोक-भयहारी ॥४॥
गिरिजा-मन-मानस-मराल, कासीस, मसान-निवासी।
तुलसिदास हरि-चरन-कमल-बर, देहु भक्ति अविनासी ॥५॥

शब्दार्थ

मयन = कामदेव । अपर= दूसरे । अहि =सर्प । निहार = पाला । मराल=हंस । कासीस-काशीके ईश, शंकरजी ।

भावार्थ

हे शिव ! हे शिव ! प्रसन्न होकर दया करो। आप करुणामय हैं, आपकी यश-कीर्ति सब ओर फैली हुई है। मैं आपकी बलि जाता हूँ, अपनी माया हर लो ।। १ ॥

हे कमल-नेत्र ! आप सर्वगुण सम्पन्न हैं, और कामदेव को भस्म करनेवाले हैं; आपकी महिमा कोई नहीं जानता। आपकी कृपा के बिना रामचन्द्रजीके चरण-कमलों में, स्वप्नमें भी भक्ति नहीं हो सकती ॥ २ ॥

ऋषि, सिद्ध, मुनि, मनुष्य, दैत्य, देवता तथा संसारमै अन्य जितने जीव हैं, आपके चरणों से विमुख होकर भव-सागरका पार नहीं पाते-कल्प-कल्पान्त बीतता चला जाता है ॥ ३ ॥

सर्प आपके आभूषण हैं और दूषण दैत्यके मारने वाले श्रीराम जी के आप सेवक हैं। हे देवाधिदेव, आप त्रिपुरासुर के संहारकर्ता हैं ।
हे शंकर! आप अज्ञान-रूपी पाला के लिए सूर्य हैं, और शरणागतों का शोक और भय दूर करनेवाले हैं ॥ ४ ॥

हे काशीपुरी के स्वामी ! आप पार्वतीके मन-रूपी मानसरोवर के हंस हैं, और श्मशान-निवासी हैं। तुलसीदास को श्रीहरि के श्रेष्ठ चरणारविन्दों में अटल भक्ति दीजिये ॥ ५ ॥

विशेष

१-प्रारम्भ में दो बार ‘सिव सिव’ कहना आर्ति-सूचक है। इसे वीप्सा कहते हैं।

विनय-पत्रिका पद 10 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्या


मोह-तम तरनि, हर रुद्र संकर सरन, हरन मम सोक लोकाभिरामं ।
वाल-ससि भाल, सुविसाल लोचन-कमल, काम-सत-कोटि-लावन्य-धाम।।1।


कम्वु-कुन्देन्दु-कर्पूर-विग्रह रुचिर, तरुन-रबि कोटि तनु-तेज भ्राजै ।
भस्म सर्वांग अर्धाग सैलात्मजा, ब्याल-नृकपाल-माला विराजै ॥२॥


मौलि संकुल जटा-मुकुट विद्युच्छटा, तटिनि-वर-वारि हरि-चरन-पूर्त
स्रवन कुंडल, गरल कंठ, करुनाकन्द, सच्चिदानन्द बन्देऽवधूतं ॥३॥


सूल-सायक-पिनाकासि कर, सत्रु-चन,दहन इव धूमध्वज, वृषभ-जानं
व्यात्र-गज-चर्म-परिधान, विज्ञान-धन, सिद्ध-सुर-मुनि मनुज-सेव्यमानं।।4।


तांडवित-नृत्यपर, डमरु डिडिम प्रवर, असुभ इव भाति कल्यानरासी
महा कल्पान्त ब्रह्मांड मंडल दवन, भवन कैलास आसीन कासी ॥५॥


तज्ञ, सर्वश, जज्ञेस, अच्युत, विभो, विस्ख भवदस संभव पुरारी ।
ब्रह्मेन्द्र, चन्द्रार्क,वरुनाग्नि, वसु, मरुत, जम, अर्चि भवदंत्रि सर्वाधिकारी।।6।

अकल, निरुपाधि, निर्गुन, निरंजन ब्रह्म, कर्म-पथमेकमज निर्विकारं ।
अखिल विग्रह, उग्ररूप, सिव, भूप सुर, सर्वगत, सर्व, सर्वोपकारं ॥७॥


ज्ञान-वैराग्य धन-धर्म, कैवल्य-सुख, सुभग सौभाग्य सिव सानुकूलं ।
तदपि नर मूढ़ आरूढ़ संसार-पथ, भ्रमत भव विमुख तुव पाद मूलं॥८॥


नष्टमति, दुष्ट अति, कट-रत खेद-गत, दास तुलसी संभु सरन आया ।
देहि कामारि ! श्रीरामपदपंकजे, भक्ति अनवरत गत भेद माया ॥९॥


शब्दार्थ

मम = मेरा । लोकाभिरामं = समूचे संसारको प्रसन्न करनेवाले । बाल ससि = द्वितीयाके चन्द्रमा । कम्बु = शंख । कुन्देन्दु – कुन्द+इन्दु । विग्रह – शरीर । रुचिर – सुन्दर । व्याल = सर्प । मौलि = मस्तक । पूत = पवित्र किया हुआ। ता = ब्रह्मास्वरूप को जाननेवाले । भवदंत्रि-आपके चरणों की।


भावार्थ

हे हर, हे रुद्र, हे शंकर ! आप शरणागतजनोंके मोहान्धकारको दूर करनेके लिए सूर्य-स्वरूप हैं । इसलिए हे लोकाभिराम, मेरे शोक को आप दूर कीजिये। आपके ललाटपर दूजके बाल-चन्द्र हैं, आपकी बड़ी-बड़ी आँख कमल के समान हैं। आप करोड़ों कामदेव के समान सुन्दरता के घर हैं ॥१॥


आपका सुन्दर शरीर शंख, कुन्द, चन्द्रमा और कपूरके समान है । आपके शरीर- में करोड़ों मध्याह्नकालीन सूर्यके समान तेज विराजमान है। आप अंग-प्रत्यंगमें भस्म लगाये रहते हैं और आपके आधे शरीरमें हिमाचल कन्या पार्वती सुशोभित हैं । आपके गले में सौ और नर-मुण्डों की माला विराजमान है ।।२।।

मस्तकपर जटा-जूट का मुकुट है, उसपर विष्णु भगवान के चरणों से पवित्र हुई गंगाजी की छटा बिजली के समान चमक रही है। कानोंमें कुण्डल और कण्ठमें हलाहल विष धारण करने वाले करुणाकन्द, सत्-चित्-आनन्दस्वरूप अवधूत भगवान् शंकरजी, मैं आपकी बन्दना करता हूँ ॥३॥

आपके हाथमें त्रिशूल, बाण, धनुष और तलवार है । शत्रु-रूपी वनको जलानेके लिए आप अग्निस्वरूप हैं; बैल ही आपकी सवारी है। बाघ और हाथीका चमड़ा आपका वस्त्र है। आप ब्रह्मज्ञानकी वर्षा करनेवाले मेघ हैं। सिद्ध, देवता, मुनि, मनुष्यसे आप सेवित हैं॥४॥

तांडव नृत्यपर आप डमरू बजाते हैं। उसकी आवाज डिम-डिम-डिम- डिम होती है। (उसीसे व्याकरणके चौदहो सूत्र निकले हैं) आप अशुभके समान जान पड़ते हैं; पर हैं कल्याणमूर्ति । महाप्रलयके समय आप समूचे- विश्व-ब्रह्माण्डको भत्म कर डालते हैं; कैलास आपका घर है, और काशीमें आप बैठे रहते हैं ||५||

आप तत्त्वके जाननेवाले हैं, सर्वज्ञ हैं, यज्ञोंके स्वामी हैं, अच्युत हैं और व्यापक हैं। हे पुरारि, यह विश्व-ब्रह्मांड आपके ही अंशसे उत्पन्न हुआ है । ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, वरुण, अग्नि, अष्टवसु, उनचास पवन और यमराज आपके ही चरण को पूजा करके सब तरहके अधिकारी हुए हैं ॥६॥


आप कला-रहित (यानी घटते-बढ़ते नहीं), उपाधि-रहित, निर्गुण, माया-रहित साक्षात् ब्रह्म हैं । आप कर्म-पथमें एक हैं। आप जन्म-रहित और विकार-रहित हैं । हे शंकरजी, सारा ब्रह्माण्ड आपका शरीर है, आपका रूप बड़ा भयानक है ; आप देवताओंके स्वामी हैं । हे शिव ! आप सर्वगत और सबका उपकार करने- वाले हैं ॥७॥

हे शिवजी, आपके प्रसन्न रहनेपर ज्ञान, वैराग्य, धन, धर्म, मोक्ष और सुन्दर सौभाग्य यह सब प्राप्त हो जाते हैं। फिर भी मूर्ख मनुष्य आपके चरणारविन्दों से विमुख होकर सांसारिक मार्ग पर आरूढ़ हैं और संसार में ही भटक रहे हैं ।।८॥

हे शम्भो ! नष्टबुद्धि, अत्यन्त दुष्ट, कष्टमें लीन और दुःखी तुलसीदास आपकी शरण आया है । हे कामारि ! माया-जनित भेद-बुद्धि दूर करके उसे श्रीरामचन्द्र के चरण-कमलों में अनन्य भक्ति दीजिये ॥१०॥


विशेष


1.’कम्बु कुन्देन्दु-कर्पूर’–चारोका तात्पर्य उज्ज्वलतासे है। शिवजी का शरीर शंख के समान उज्ज्वल और चिकना है, कुन्दपुष्पके समान कोमल है, चन्द्रमा के समान शीतल है और कपूरके समान सुगन्धित है । इसीसे गोस्वामी- जी ‘कम्बु-कुन्देन्दु कर्पूर विग्रह’ कहा है।


२-जिस समय विष्णु भगवान्ने बामनरूप धारण करके राजा बलिकी दी हुई तीन पैर भूमि नापनेके लिए अपना शरीर बढ़ाया था, उस समय ब्रह्माने पैरको धोकर चरणोदक को कमण्डल में रख लिया था। वही जल गंगा का मूल कारण है, इसीसे ‘हरिचरण-पूर्त’ कहा गया है।


३-‘निर्विकार’-जन्म, अस्ति, वृद्धि, विपरिणाम, अपक्षय और विनाश ये षट्-विकार हैं। भगवान् शिव इन पट्-विकारोंसे रहित हैं, इसलिए उन्हें निर्विकार कहा गया है।

विनय-पत्रिका भैरवरूप शिवस्तुति पद 11 का शब्दार्थ सहित व्याख्या


भीपणाकार भैरव भयंकर भूत-प्रेत-प्रमथाधिपति विपति-हरता।
मोह-मूपक-मार्जार, संसार-भय-हरन, तारन-तरन, अभय-करता ॥१॥


अतुल-बल विपुल विस्तार विग्रह गौर, अमल अनि धवल धरनीधगभं ।
सिरसि संकुलित-कल-जूटपिंगलजटा,पटल सत-कोटि विद्युच्छटा ॥२॥


भ्राज विवुधापगा आप पावन परम, मौलि-मालेव सोभा विचित्रं ।
ललित लल्लाटपर राज रजनीस-कल, कलाधर नौमि हर धनद मित्र॥३॥


इन्दु-पावक भानु-नयन मर्दन मयन, गुन-अयन ज्ञान-विज्ञान-रूपं ।
रखन-गिरिजा भवन भूधराधिप सदा, नवन कुंडल वदन छवि अनूप॥४॥


चर्म-असि-सूल घर,डमरु-सर-चाप कर, जान वृपनेस करूना-निधानं ।
जरत सुर-असुरनर-लोक सोकाकुलं,मृदुलचित अजित कृत गरलपानी॥५॥


भस्म तनुभूपनं, व्याघ्र चाम्वरं, उरग-नर-मौलि उर-मालधारी।
डाकिनी साकिनी खेचरं भूचरं जंत्र मंत्र भंजन प्रबल कल्मपारी ॥६॥


काल अतिकाल कलिकाल व्यालाद खग, त्रिपुर-मर्दन भीम कर्मभारी।
सकल लोकान्त-कल्पान्त सूलाग्रकृत, दिग्गजाब्यक्त गुन नृत्यकारी॥७॥


पाप-सन्ताप घनघोर-संसृति दीन भ्रमत जग-जोनि नहिं कोपि त्राता।
पाहि भैरव रूप राम रूपी रुद्र, बन्धु,गुरु, जनक जननी विधाना ||८||


यस्य गुन-गन गनति विमलमति सारदा,निगम नारद प्रमुख ब्रह्मचारी ।
सेस सर्वेस आसीन आनन्द-वन, दास तुलसी प्रनत त्रासहारी ॥९॥

शब्दार्थ

एक भैरव = शिवजीका एक वामन पुराणके ६७ वें अध्याय में अष्ट भैरव का उल्लेख है। विग्रह-शरीर । मार्जार-बिलाव । धरनीधर-शेषनाग अथवा हिमालय पर्वत । कल- सुन्दर । पटल == समूह, राशि । विबुधापगा= देवनदी गंगा । मौलि = मस्तक । धनद – कुबेर । मयन= कामदेव । स्रवन = कान । चर्म = ढाल । वृपम+ईस-बैलों में श्रेष्ठ नन्दी । खेचर-आकाश में विचरण करनेवाले । कल्मष+अरि= पापको भस्म करने- वाले । व्याल+आद = साँपको भक्षण करनेवाले । कोपि कोई भी। निगम = बेद ।

भावार्थ

हे भीषणाकार भैरव ! हे भयंकर भूत-प्रेत और गणोंके स्वामी ! आप विपत्तियोंको हरनेवाले हैं । आप अज्ञानरूपी चूहेका नाश करनेवाले बिलाव हैं; संसारका भय हरनेवाले हैं; संसारके जीवों को तारनेवाले और स्वयं मुक्त- स्वरूप तथा अभयदान करनेवाले हैं ॥१॥

आपके बलकी तुलना नहीं की जा सकती । आपका अत्यन्त विशाल गौर शरीर बहुत निर्मल है और उसकी उज्ज्वलता हिमालय पर्वतकी कान्तिके समान है। सिरपर पीले रंगका सुन्दर जटाजूट सुशोभित है जिसकी आभा करोड़ों बिजलियोंकी राशिके समान है ।।२।।

मस्तकपर मालाके समान गंगाजीका परम पवित्र जल विराजमान है, जिसकी शोभा ही विचित्र है। आपके सुन्दर ललाटपर निशानाथ चन्द्रमाकी कला शोभित है । ऐसे कुबेरके मित्र शिवजीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥३॥

चन्द्रमा, अग्नि और सूर्य आपके नेत्र हैं; आप कामदेवको जला चुके हैं; आप गुणोंके भण्डार हैं और ज्ञान-विज्ञानस्वरूप हैं। हे गिरिजा-रमण, आपका भवन कैलास-पर्वत है; आप सदैव कानों में कुण्डल धारण किये रहते हैं; आपके मुखकी छबि अनुपम है ।।४॥

आप अपने हाथमें ढाल, तलवार, शूल, डमरू, बाण और धनुष धारण किये रहते हैं। नन्दी नामक बैल आपकी सवारी है और आप करुणाके भण्डार हैं । (करुणा-निधान होनेके कारण ही आपने) विषकी अजेय ज्वालासे देव-दैत्य और मनुष्यलोकको जलते हुए तथा शोकमें व्याकुल देखकर उसे पान कर लिया था, ऐसे आप कोमल चित्तवाले हैं ॥५॥

भस्म ही आपके शरीरका आभूषण है, बाघका चमड़ा ही वस्त्र है; आप अपने हृदयपर सर्पो और नरमुण्डोंकी माला धारण किये हुए हैं । डाकिनी, शाकिनी, खेचर, भूचर तथा यन्त्र-मन्त्रका आप नाश करनेवाले हैं। बड़े-बड़े पापोंके तो आप शत्रु हैं ।।६।।

आप काल के महाकाल हैं, कलिकाल रूपी सर्प को भक्षण करनेके लिए गरुड़ हैं। आप त्रिपुरासुर को मारनेवाले तथा बड़े-बड़े भयंकर कर्म करने वाले हैं। आप सब लोकोंके नाशक, तथा महाप्रलयके समय अपने त्रिशूलकी नोकसे दिशारूपी हाथियोंको छेदकर निर्गुणरूपसे नृत्य करनेवाले हैं ॥७॥

इस पाप-सन्तापसे परिपूर्ण भयानक संसारकी चौरासी लाख योनियोंमें मैं दीन होकर भ्रमण कर रहा हूँ, मेरी रक्षा करनेवाला कोई भी नहीं है । हे भैरवरूप! हे रामरूपी रुद्र ! मेरी रक्षा कीजिये; क्योंकि मेरे बन्धु, गुरु, पिता, माता और विधाता आप ही हैं ॥८॥

निर्मल बुद्धिवाली सरस्वती, वेद और नारद के समान प्रधान ब्रह्मचारी तथा शेषनाग जिनकी गुणावली का वर्णन करते हैं, ऐसे सर्वेश्वर, आनन्दवन (काशी) में विराजमान भयको हरनेवाले शिवजीको तुलसीदास प्रणाम करता है ॥९॥

विशेष

1-शिवजी का भैरवरूप चतुर्भुजी कहा गया है कालिका पुराणके ६० वें अध्याय में लिखा है- भैरवः पाण्डुनाथश्च रक्तगौरश्चतुर्भुजः ।
किन्तु यहाँ गोस्वामीजीने उस रूपका वर्णन न करके किसी और ही रूप का वर्णन किया है।
२-धरनीधराभं-का अर्थ ‘शेषनागकी कान्तिके समान’ भी किया जा सकता है।
३-‘भैरवरूप रामरूपी रुद्र’ कहनेका आशय यह है कि भैरवरूप से संसार का भय दूर कीजिये और रामरूपसे मुझे अपनाइये। दनुज-वधके समय भगवान का रुद्ररूप था।

विनय-पत्रिका भैरवरूप शिवस्तुति पद 12 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

संकरं सम्प्रदं सजनानन्ददं, सैल-कन्या-वरं परम रम्यं ।
काम-मद-मोचनं तामरस-लोचनं, वामदेवं भजे भावगम्यं ॥१॥
कम्बु-कुन्देन्दु-कर्पूर-गौरं शिवं, सुन्दरं सच्चिदानन्द कन्दं ।
सिद्ध-सनकादि योगीन्द्र-वृन्दारका, विष्णु-विधि-वन्द्य चरनारविन्दं ॥२
ब्रह्म कुल बल्लभं, सुलभमति दुर्लभं, विकट वेषं विभु, वेदपारं।
नौमि करुनाकरं गरल गंगाधरं, निर्मलं निर्गुनं निर्विकारं ॥३॥
लोकनार्थ सोकसूल निर्मूलिनं, सूलिनं मोह-तम-भूरि-भानुं ।
कालकालं, कलातीतमजरं हरं, कठिन कलिकाल कानन कसानुं ॥४॥
तज्ञमशान-पाथोधि-घटसम्भवं, सर्वगं सर्वसौभाग्यमूलं ।
प्रचुर भव-भंजनं, प्रनत जनरंजन, दासतुलसी सरन सानुकूलं ॥५॥


शब्दार्थ-

तामरस कमल । कन्द – मेघ । वृन्दारका = देवता । विभु= व्यापक निर्विकार-विकाररहित । भानु = सूर्य । कृसानु अग्नि । ततस्ववेत्ता । पाथोधि= समुद्र । घट-सम्भव=घडे से उत्पन्न , अगस्त्य ऋषि ।

भावार्थ-

कल्याणकर्ता, कल्याणदाता, सजनोंको आनन्द देनेवाले, पार्वती- जीके स्वामी, अत्यन्त सुन्दर, कामदेवके मदको चूर्ण करनेवाले, कमलके समान नेत्रवाले भावगम्य शिवजीको मैं भजता हूँ ॥१॥

आपका सुन्दर शरीर शंख, कुन्द, चन्द्रमा और कपूरके समान गौर है। आप सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप हैं । आपके चरणारविन्दकी वन्दना सिद्ध, सनकादि (सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार), बड़े-बड़े योगी, देवता, विष्णु और ब्रह्मा करते हैं ।।२।।

आपको ब्राह्मण- कुल प्रिय है अथवा ब्रह्मवंशके आप परमप्रिय हैं; आपका प्राप्त होना सुलभ भी है और दुर्लभ भी । आपका वेष विकट है; आप व्यापक हैं और वेदोंके ज्ञानसे परे हैं। ऐसे करुणाकर, हलाहल विष और गंगाजीको धारण करनेवाले, निर्मल, निर्गुण और निर्विकार शिवजीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥३।।

आप सब लोकोंके स्वामी, शोकों और दुःखोंको निमूल करनेवाले, त्रिशूलधारी और मोहान्धकारको दूर करनेके लिए अनन्त सूर्यके समान हैं। आप कालके भी काल और कलातीत अर्थात् सदा एकरस और अजर हैं। शिवजी कठिन कलिकालरूपी वनको भस्म कर डालनेके लिए अग्नि-स्वरूप हैं ॥४॥

आप तत्त्ववेत्ता हैं और, अज्ञानरूपी समुद्रको पी जानेके लिए साक्षात् अगस्त्य हैं। आप सर्वान्तर्यामी हैं और सब प्रकारके सौभाग्यके मूल कारण हैं । आप संसारके जन्म-मरणरूपी दुःखोंका नाश करनेवाले, तथा शरणागतोंको आनन्द देनेवाले हैं। सेवक तुलसीदास आपकी शरण है-उसपर कृपा कीजिये ।।५।।

विशेष

‘पाथोधि-घट-सम्भवं’–

समुद्रके तटपर एक टिटिहा अपनी टिटिहरीके साथ निवास करता था । समुद्र उनके अण्डे बराबर बहा ले जाता था। इससे एक बार वे दोनों समुद्रपर बहुत क्रुद्ध हुए। दोनों ही चोंचमें बालू भर-भरकर लगे समुद्र में छोड़ने । इस प्रकार वे समुद्रको पाट डालना चाहते थे। अचानक वहाँ अगस्त्य ऋषि पहुँच गये। पक्षियोंका दुःख देखकर उनका दिल भर भाया । उन्होंने उन्हें सान्त्वना देते हुए ‘ॐ राम’ मन्त्रका उच्चारण कर तीन बार भाच- मन किया। तीन ही आचमनमें समुद्रका जल बिलकुल सूख गया। इससे जलमें रहनेवाले जीव व्याकुल हो उठे । देवताओंके विनय करनेपर महर्षिने मूत्र- द्वारा समुद्रको बाहर निकाला । तभीसे समुद्र अपेय (खारा) हो गया ।

विनय-पत्रिका भैरवरूप शिवस्तुति पद 13 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

सेवहु सिव-चरन-सरोज-रेनु । कल्यान-अखिल-प्रद कामधेनु ।।१।।

कर्पूर गौर करुना उदार । संसार-सार, भुजगेन्द्र हार ॥२॥
सुख-जन्म-भूमि, महिमा अपार । निर्गुन, गुन-नायक, निराकार ॥३॥

जय नयन, मयन-मर्दन महेस । अहंकार निहार उद्दित दिनेस ॥४॥
वर बाल निलाकर मौलि भ्राज । त्रैलोक-सोकहर प्रमथराज ॥५॥

जिन्ह कहँ बिधि सुगति न लिखी भाल। तिन्हकी गति कासीपति कृपाल||६||
उपकारी कोऽपर हर समान । सुर-असुर जरत कृत गरल पान ॥७॥

बहु कल्प उपायन करि अनेक । बिनु संभु कृपा नहिं भव-विवेक ॥८॥
विज्ञान-भवन, गिरिसुता-रवन । कह तुलसिदास मम त्रास समन ॥९॥

शब्दार्थ

रेनु= रज, धूल । अखिल = सब । भुजगेन्द्र = वासुकि नाग । निद्वार – कुहरा, पाला । दिनेस = सूर्य । निसाकर = चन्द्रमा । प्रमथनाथ = गणोंके स्वामी । कोऽपर – (क+अपर) दूसरा कौन । गरल = विष।

भावार्थ

शिवजीके चरण-कमलोंकी रजका सेवन करो, बह रज सर्व कल्याणदायिनी कामधेनु है ।।१।।

शिवजी कपूरके समान गौर हैं। वह करुणा करनेमें उदार हैं; संसारके सार हैं और वासुकि नागका हार धारण करने- वाले हैं ॥२॥

वह सुखके जन्म-स्थान हैं, उनकी महिमा अपार है। वह त्रिगुणातीत हैं, सब गुणों के स्वामी हैं और आकार रहित हैं ॥३॥

शिवजी तीन नेत्रवाले हैं, कामदेवको ध्वंस करनेवाले हैं और अहंकाररूपी कुहरेके लिए उगे हुए सूर्य हैं ॥४||

उनके मस्तकपर दूजके चन्द्रमा शोभा पा रहे हैं। वह तीनों लोकोंका शोक दूर करनेवाले हैं और गों के स्वामी हैं ॥५॥

ब्रह्माने जिन लोगोंके ललाटमें अच्छी गति नहीं लिखी, शिवजी ऐसे कृपालु हैं कि उन्हें भी मुक्ति दे देते हैं ॥६||

देवों और दैत्योंको जलते देखकर जिन्होंने हलाहल विष पान किया, ऐसे महादेवजीके समान उपकारी संसारमें दूसरा कौन है ! ॥७॥

कल्प-कल्पान्ततक अनेक तरहके उपाय क्यों न करो, शिवजीकी कृपा बिना संसारका विवेक यानी संसारके सत्-असत् आदिका ज्ञान नहीं हो सकता ||८||

तुलसीदास कहते हैं कि विज्ञानके घर तथा पार्वतीके पति शिवजी मेरे भयका नाश करनेवाले हैं ॥९॥

विशेष

१-निर्गुन’का अर्थ अशरीरी या निराकार भी है। किन्तु इस पदमें आगे निराकार भी कहा गया है, इसलिए यहाँ निर्गुनका अर्थ त्रिगुणातीत करना ही अधिक संगत है। सत्त्व-रज-तम ये ही तीन गुण हैं जिनसे सृष्टिकी उत्पत्ति होती है।

२-‘निराकार’-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच भूतोंसे बने शरीरसे रहित ।

३-‘भव-विवेक’–इसका शाब्दिक अर्थ है संसारके स्वरूपका निश्चय । आशय यह कि शिव-कृपाके बिना वास्तविक ज्ञान-सत् और असत्का बोध नहीं होता।

विनय-पत्रिका भैरवरूप शिवस्तुति पद 14 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

देखो देखो, वन बन्यो आजु उमाकन्त ।
मानो देखन तुमहि आयी ऋतु वसन्त ॥१॥
जनु तनुदुति चम्पक-कुसुम-माल । वर बसन नील नूतन तमाल ॥२॥
कल कलि जंघ पद कमल लाल । सूचत कटि केहरि, गति मराल ॥
भूषन प्रसून वहु विविध रंग । नूपुर किंकिनि कलरव विहंग ॥४॥
कर नवल बकुल-पल्लव रसाल । श्रीफल कुच, कंचुकि लता-जाल ॥५॥
आनन सरोज, कच मधुप गुंज । लोचन विसाल नवनील कंज ॥६॥
पिक बचन चरित वर बरहि कीरि । सित सुमन हास, लीला समीर
कह तुलसिदास सुनु सिव सुजान । उर बसि प्रपंच रचे पंचवान ॥८॥
करि कृपा हरिय भ्रम फन्द काम । जेहि हृदय वसहिं सुखरासि रामर||९||

शब्दार्थ

उमाकन्त-शिवजी । तनुदुति= शरीरको कान्ति । चम्पक = चम्पा । कदलि= केला । केहरि-सिंह । मराल = हस । प्रसून = पुष्प । विहँग = पक्षी। बकुल = मौलसिरी । रसाल = आम । श्रीफल – बेल । कंचुकि- चोली। कच = बाल । पिक % कोयल । वरहि = मोर । कीर=तोता । सित-सफेद । पंचबान-कामदेव ।

भावार्थ

हे शिवजी, देखिये, देखिये ! आज आप वन बने हैं। मानो आपको देखनेके लिए वसन्त ऋतु आयी है । (शिवजीके अर्दोगमें जो पार्वती- जी विराजमान हैं, वही मानो वसन्त ऋतु हैं ॥१॥

महारानीजीके शरीरकी कान्ति मानो चम्पाके फूलोको माला है और श्रेष्ठ नीले वस्त्र नवीन तमाल-पत्र हैं॥२॥

सुन्दर जंघाएँ केलेके वृक्ष और चरण लाल कमल हैं। कमर सिंहकी और चाल हंसकी सूचना दे रही है ||3||

गहने रंग-बिरंगे अनेक तरहके फूल हैं। नूपुर (पैजनी) और किंकिनि (करधनी) का मधुर शब्द पक्षियोंका शब्द है ॥४॥

हाथ मौलसिरी और आमकी नवीन कोपल हैं। स्तन ही बेल हैं और चोली लताओंका जाल है ॥५॥

जगन्माताका मुख कमल है और उनके सिरके बाल गुंजारते हुए भौंरे हैं। उनके बड़े-बड़े नेत्र नवीन नीले कमल हैं.॥६॥

मधुरवाणी कोयल है और चरित्र सुन्दर मोर तथा तोते हैं। हंसी सफेद फूल और लीला शीतल-मन्द-सुगन्ध त्रिविध वायु है ॥७॥

तुलसीदास कहते हैं कि हे परम शानी शिवजी ! सुनिये, इस कामदेवने मेरे हृदयमें वासकर बड़ा प्रपंच रच रखा है ॥८॥

इस कामके श्रम-फन्दको हटा दीजिये, जिसमें मेरे हृदयमें सुखकी राशि श्रीरामजी निवास करें ॥९॥

विशेष –

इस पदमें गोस्वामीजीने अर्द्धनारी-नटेश्वर शिव-पार्वतीका वर्णन बन और वसन्तका रूपक बाँधकर किया है । भक्तशिरोमणि गोस्वामीजीको मातेश्वरी पार्वतीजीका स्पष्टतया नख-शिख वर्णन करना अनुचित जान पड़ा, इसलिए उन्होंने इस अनूठे ढंगसे काम लिया है। इस रूपकमें कवि-कुल- चूड़ामणि तुलसीदासजीने कमाल किया है। बनकी कोई भी वस्तु छूटने नहीं पायी है। वृक्ष, लता, पत्र, पुष्प, सिंह, हंस, पक्षी, भ्रमर सब मौजूद हैं। अहाँतक कि कमलका लाल, पीला और नीला रङ्ग भी नहीं छूटने पाया है।

विनय-पत्रिका देवी स्तुति पद 15 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

दुसह दोष-दुख दलनि, करु देवि दाया।
विस्व-मूलाऽसि, जन-सानुकूलाऽसि, कर सूलधारिनि महामूलमाया ?
तड़ित गर्भाङ्ग सर्वाङ्ग सुन्दर लसत, दिव्य पट भव्य भूषन विराजै।
बालमृग-मंजु खञ्जन-विलोचनि, चन्द्रवदनि लखि कोटि रतिमार लार्जे
रूप सुख-सील-सीमाऽसि, भीमाऽसि, रामाऽसि,वामाऽसिवरबुद्धिबानी
छमुख-हेरंब-अंबासि, जगदंबिके, संभु-जायासि जय जय भवानी ॥३॥
चंड-भुजदंड-खंडनि, विहंडनि महिष, मुंड-मद-भंगकर अंग तोरे।
सुंभ निःसुंभ कुंभीस रन केसरिनि, क्रोध-वारीस अरि-वृन्द बोरे ॥४॥
निगम-आगम अगम गुर्वितवान-कथन,उर्विधर करत जेहि सहसजीहा
देहि मा, मोहि पन प्रेम यह नेम निज, राम घनस्याम तुलसी पपीहा ॥५


शब्दार्थ

मूलासि = (मूल+असि) जड़ हो। महामूल माया = मायाको उत्पन्न करनेवाली हो । तड़ित-विजली । भौमासि = दुर्गा हो । रामासि = लक्ष्मी हो । वामासि- खोस्वरूपा हो। छमुन्य = कात्तिकेय । हेरंब = गणेश नी । कुंभीस = गजराज । केसरिनि- सिंहिनी । गुपि-बहुन बड़ा । उविधर-शेषनाग ।

भावार्थ

हे असह्य दोषों और दुःखोंका नाश करनेवाली देवि ! मुझपर दया करो। तुम विश्व-ब्रह्माण्डकी आदिस्थान हो, भक्तोंपर कृपा करनेवाली हो, हाथमें त्रिशूल धारण किये रहती हो और मायाकी जन्मदात्री आद्या-शक्ति हो ॥२॥

तुम्हारे सुन्दर शरीरके अंग-प्रत्यंगमें बिजलीको-सी चमक शोभा पा रही है, तुम्हारे वस्त्र दिव्य हैं (अर्थात् वे वस्त्र न कभी गन्दे होते हैं और न पुराने ही) और भव्य आभूषण तुम्हारे शरीरपर विराजमान हैं।

हे मृगशावक और खंजनके समान मनोहर नेत्रवाली ! हे चन्द्रमुखी ! तुम्हें देखकर करोड़ों रति और कामदेव लज्जित होते हैं |सा तुम रूप, मुख और शीलकी सीमा हो। तुम्ही भीमा नाम दुर्गा हो और तुम्ही लक्ष्मी हो; तुम हो तो स्त्री-स्वरूपा, पर तुम वाणी और बुद्धिमें श्रेष्ठ हो। तुम कार्तिकेय और गणेशजीकी माता हो, जगज्जननी हो और शिवजीकी पत्नी हो। हे भवानी ! तुम्हारी जय हो, जय हो ! ॥३॥

तुम चंड नामक दैत्यके भुजदण्डोंको टुकड़े-टुकड़े करनेवाली हो और महिषासुरको मारनेवाली हो । मुण्ड नामक राक्षसके घमण्डको चूरकर तुमने उसके अंग-अंगको तोड़ डाला था। शुम्भ और निशुम्भ गजराजोंको युद्धमे मारनेके लिए तुम सिंहिनी हो। तुमने अपने क्रोधरूपी समुद्रमें शत्रुके झुंडको डुनो दिया है ||४||

वेद-शास्त्र और हजार जीभवाले शेष तुम्हारा गुण गाते हैं, किन्तु तुम्हारे अगम यानी अपार गुणका पार पाना बड़ा कठिन है। हे माता ! तुम मुझे ऐसा प्रण और प्रेम दो, जिसमें मैं अपना यह नेम बना लूं कि श्रीरामचन्द्रजी श्याम धन हैं और तुलसीदास पपीहा है।

विनय-पत्रिका देवी स्तुति पद 16 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जय जय जगजननि देवि, सुर-नर-मुनि-असुर-सेवि,
मुक्ति-मुक्ति-दायिनि, भय-हरनि कालिका ।
मंगल-मुद-सिद्धि-सदनि, पर्वसर्वरीस वदनि,
ताप-तिमिर तरुन तरनि-किरन मालिका ॥१॥

वर्म-चर्म कर कृपान, शूल-खेल धपुर वान,
धरनि, दलनि, दानब-दल, रन-करालिका
पूतना-पिताच-प्रेत-डाकिनि साकिनि समेत,
भूत-ग्रह-बेताल-खग-मृगालि-जालिका ॥२॥


जय महेस-भामिनी, अनेक-रूप-नामिनी,
समस्त-लोक स्वामिनी, हिमसैल-वालिका ।
रघुपति-पद परम प्रेम, तुलसी यह अचल नेम,
देहु है प्रसन्न पाहि प्रनत-पालिका ॥३॥

शब्दार्थ

मुक्ति = भौगैश्वर्य । पर्वसर्वरीस = (पर्व+शर्वरी+ईश) पूर्णिमाको रात्रिक स्वामी, चन्द्रमा । तरुन मध्याह्नकाल । तरनि= सूर्य । मालिकामाला । सेल = माँगी। मृगालि = मृगसमूह ! भामिनी पत्नी ।

भावार्थ

हे जगज्जननी ! हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो । देवता, मनुष्य, मुनि और असुर सभी तुम्हारी सेवा करते हैं । हे कालिके ! तुम भोग- सामग्री और मोक्ष दोनों देनेवाली हो। कल्याण, आनन्द और अष्टसिद्धियोंकी तुम स्थान हो । तुम तो पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान मुखवाली, पर त्रिताप- रूपी अन्धकारका नाश करनेके लिए मंध्याह्नकालीन सूर्यकी किरण-माला हो ॥१॥

तुम्हारे शरीरपर कवच है और हाथोंमें ढाल, तलवार, त्रिशूल, साँगी और धनुष-बाण है । तुम युद्ध में विकराल रूप धारण करके पृथ्वीके दानव-दलका संहार करनेवाली हो । पूतना, पिशाच, प्रेत, डाकिनी, शाकिनीके सहित भूत, ग्रह और बेतालरूपी पक्षी एवं मृग-समूहको पकड़नेके लिए तुम जालरूप हो ||२||

हे शिवे ! तुम्हारी जय हो । तुम्हारे नाम और रूप अनन्त हैं। तुम विश्व-ब्रह्मांड- की स्वामिनी और हिमाचलकी कन्या हो। हे भक्तोंका पालन करनेवाली ! तुलसीदास तुम्हारी शरणमें है। उसे तुम प्रसन्न होकर श्री रघुनाथजीके चरणोंमें परम प्रेम और अचल नेम दो।

विनय-पत्रिका गंगा स्तुति पद 17 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जय जय भगीरथ-नन्दिनि, मुनि-चय-चकोर-चन्दिनि,
नर-नाग-बिबुध-चन्दिनि, जय जह्व-बालिका।
विस्नु-पद-सरोज जासि, ईस-सीस पर विभासि,
त्रिपथगासि, पुन्य-रासि, पाप-छालिका ॥१॥


विमल-विपुल-चहसि वारि, सीतल त्रयताप-हारि,
भँवर वर विभंगतर तरंग-मालिका।
पुर जन पूजोपहार, सोभित ससि धवल धार,
भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका ॥२॥


निज तटवासी विहंग, जल-थल-चर पसु-पतंग,
कीट, जटिल तापस सब सरिस पालिका ।
नुलसी सब तीर तीर सुमिरत रघुबंस-वीर,
विचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका ॥३॥

शब्दार्थ

नन्दिनि-पुत्री । चय = समूह । त्रिपथगासि = पृथिवी, पाताल और स्वर्ग- लोकके मार्गोसे जानेवाली हो। चालिका-धोनेवाली। विभंगतर= अत्यन्त चञ्चल । थालिका= थाल्हा, खन्तोला ।

भावार्थ

हे भगीरथ-नन्दिनी गंगे ! तुम्हारी जय हो, जय हो । तुम मुनि- समूहरूपी चकोरोंके लिए चन्द्रिकारुप हो । मनुष्य, नाग और देवता तुम्हारी बन्दना करते हैं । हे जाह्नवी ! तुम्हारी जय हो । तुम विष्णु भगवान्के चरण- कमलोंसे उत्पन्न हुई हो; शिवजीके मस्तकपर शोभा पा रही हो; तुम आकाश, पाताल और मर्त्यलोक तीनों मार्गों में तीन धाराओंसे बहती हो । तुम पुण्य-राशि हो और पापोंको धो डालनेवाली हो ॥१॥

तुम शीतल और दैहिक-दैविक-भौतिक तीनों तापोंको हरनेवाला अथाह निर्मल जल धारण किये हो । तुम सुन्दर भँवर तथा अत्यन्त चंचल तरंगोंकी माला धारण किये रहती हो । पुरवासिषोंने तुम्हें पूजामें जो सामग्री भेंट की है, उससे चन्द्रमाके समान तुम्हारी उज्ज्वल धारा सुशोभित है। वह धारा संसारके भारको नाश करनेवाली तथा भक्तिरूपी कल्प- वृक्षके लिए थाल्हा है ॥२॥

तुम अपने किनारेपर रहनेवाले पक्षी, जलचर, थलचर, पशु, पतंग, कीड़े-मकोड़े तथा जटाधारी तपस्वी सबका समान रूपस पालन करती हो । हे मोहरूपी महिपासुरका वध करनेके लिए कालिकारूप गंगे ! मुझ तुलसीदासको ऐसी बुद्धि दो कि जिससे मैं श्रीरामजोका स्मरण करता हुआ तुम्हारे किनारे-किनारे विचरण कर सकें ॥३॥

विशेष :-

‘भगीरथ-नन्दिनि’—सूर्यवंशमें सगर नामके महापराक्रमी राजा थे । उनकी दो रानियाँ थीं । एकसे अंशुमान् पैदा हुए और दूसरीसे साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए । राजा सगरके प्रतापसे देवराज इन्द्र सदैव संत्रस्त रहा करता था । उसने ईष्यावश राजा सगरके अश्वमेध यज्ञका घोड़ा चुरा लिया और उसे ले जाकर योगेश्वर कपिलमुनिके आश्रमपर बाँध दिया । उस घोडेको दिने लिए सगरके साठ हजार पुत्र निकले । मुनिके आश्रमपर घोड़ेको बंधा देखकर उन्हें कटु वाक्य कहा। इससे कपिलदेवजीने क्रुद्ध होकर उन्हें भस्म कर दिया । महाराज अंशुमान्के पुत्र भगीरथ हुए। उन्होंने घोर तपस्या की और श्रीगङ्गाजीको पृथ्वीपर लाकर उन लोगोंका उद्धार किया। इसीसे श्रीगङ्गाजीको ‘भगीरथ नन्दिनी’ या भागीरथी’ कहा जाता ।

२–’जहु बालिका’-राजा भगीरथ अपने रथके पीछे-पीछे गंगाजी को भूलोक में ला रहे थे । मार्गमें जगु मुनि का आश्रम मिला । मुनिने कुपित होकर उस प्रवाहको पान कर डाला। जब राजा भगीरथ ने स्तुति द्वारा उन्हें प्रसन्न किया, तब मुनिने संसारके कल्याणार्थ गङ्गाजी को अपनी जङ्घा से निकाल दिया। इसी से गङ्गा जी का नाम ‘जहुसुता’ या ‘जाह्नवी’ पड़ा ।

लिखा है:-

जानु द्वारा पुरा दत्ता जगु सम्पीय कोपतः।

तस्य कन्यास्वरूपा च जाह्नवी तेन कीर्तिता ।।

-ब्रह्मवैवर्ते श्रीकृष्णजन्मखण्डम् ।

विनय-पत्रिका गंगा स्तुति पद 18 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जयति जय सुरसरी जगदखिल-पावनी ।
बिस्नु-पदका-मकरन्द इव अम्वुवर
वहसि, दुख दहसि अश्छन्द विद्राषिनी ॥१॥
मिलित जलपात्र-अज जुक्त-हरिचरन रज,
विरज-चर-वारि त्रिपुरारि सिर-धामिनी ।
राहु-कन्या धन्य, पुन्य कृत सगर-सुत,
भूधर द्रोनि-विदरनिबहु नामिनी ॥२॥
जच्छ, गन्धर्व, मुनि, किन्नरोरग, दनुज,
मनुज मजहिं सुकृत-पुज जुत-कामिनी ।
स्वर्ग-लोपान, विज्ञान-शानप्रदे,
मोह-मद-मदन-पाथोज-हिम यामिनी ॥३॥
हरित गम्भीर वानीर दुहुँ तीर वर,
मध्य धारा बिसद, विख-अभिरामिनी ।
नील-परजंक-कृत-लयन सस जनु,
सहस सीसावली स्रोत सुर-स्वामिनी ॥४॥
अमित-महिमा, अमित रूप, भूपावली,
मुकुट-मनिदंद्य त्रैलोक पथ गामिनी ।
देहि रघुवीर-पद-प्रीति निर्भर मातु,
दास तुलसी त्रास हरनि भव-भामिनी ॥५॥

शब्दार्थ-

पावनी पवित्र करनेवाली । मकरन्द = मधु । विद्राविनी = नाश करने- बालो । विरज= निर्मल । द्रौनि = कन्दरा । विहरनि-विदीर्ण करनेवाली। किन्नरोरग = (किन्नर+उरग) किन्नर और नाग | पाथोज = कमल । बानीर बेत वृक्ष । बिसद = उज्ज्वत । परक पर्यश, पलंग।

भावार्थ-

हे समूचे संसारको पवित्र करनेवाली गंगे ! तुम्हारी जय हो, जय हो । तुम विष्णु भगवान्के चरण-कमलों में मधुके समान सुन्दर जल धारण करनेवाली हो, दुःखोंको जला डालनेवाली हो और पाप-पुंजको नाश करनेवाली हो ॥१॥

विष्णु भगवानकी चरण-रजसे संयुक्त तुम्हारा निर्मल (रजोगुणका नाश करके सतोगुण उत्पन्न करनेवाला) और सुन्दर जल ब्रह्माके कमण्डलुमे भरा रहता है। तुमने शिवजीके मस्तकको ही अपना घर बना रखा है। हे अनन्त नामवाली जाह्नवी ! तुमने राजा सगरके साठ हजार पुत्रोंको धन्य और पवित्र कर दिया है। तुमने पहाड़ोंकी कन्दराओंको विदीर्ण कर डाला है ॥२॥

बड़े पुण्यके फलसे यक्ष, गन्धर्व, मुनि, किन्नर, नाग, दैत्य और मनुष्य अपनी स्त्रियों के सहित तुम्हारे जलमें स्नान करते हैं । तुम स्वर्गकी सीढ़ी हो और ज्ञान-विज्ञान- दायिनी हो । तुम मोह, मद और कामरूपी कमलोंके नाशके लिए शिशिर ऋतुकी रात हो ॥३।।

तुम्हारे दोनों सुन्दर किनारोंपर हरे और घने बैतके वृक्ष है और बीचमें संसारको प्रसन्न करनेवाली उज्ज्वल धारा है; यह दृश्य ऐसा प्रतीत होता है कि मानों नीले पलंगपर शेषनाग सो रहे हैं । हे देवताओंको स्वामिनी श्रीगंगाजी ! तुम्हारे हजारों स्रोत शेषनागके हजार मस्तकके समान हैं ॥४॥

हे त्रिपथगे ! तुम्हारी महिमा अपार है, रूप असंख्य हैं, तुम राजाओंकी मुकुट- मणियोंसे वन्दनीय हो । हे माता ! हे शिव प्रिये! तुम भयको हरनेवाली हो; तुलसीदासको श्रीरामजीके चरणों में पूर्ण प्रीति दो ॥५॥

विशेष –

‘1-नील पर्य’-इस पूरी पंक्तिमें उत्प्रेक्षालङ्कार है। दोनों किनारोंका हरित गम्भीर बेत वृक्ष ही नीला पलंग है; गङ्गाजीकी धवल धारा मानो शेषनाग है; क्योंकि शेषका वर्ण उज्ज्वल है और गङ्गाकी धारा भी उज्ज्वल है। गङ्गा भी हजारों धाराओंसे समुद्र में मिली हैं; अतः वे धाराएं ही मानो पोष- नागके हजार फन हैं।

२-भव-भामिनी’-हिमवानके दो कन्याएं हुईं। बड़ीका नाम गङ्गाजी और छोटीका नाम उमा था । गङ्गाजीको लोक-कल्याणार्थ देवता लोग माँग के गये और उमाका विवाह शिवजीके साथ हुआ । जब बहुत दिनोंतक उमासे कोई सन्तान नहीं हुई, तब शिवजीने सन्तानोत्पत्तिके लिए तेज छोड़ा। उस तेजको श्रीगङ्गाजीने धारण किया । उससे कार्तिकेयकी उत्पत्ति हुई । देवताओं- ने उनके दूध पिलानेका भार षट्कृत्तिकाको दिया । षट्कृत्तिकाने उनकेपालनका भार इस शर्तपर लिया कि वह षट्कृत्तिकाके ही पुत्र कहे जायें । देव- लोकने इस शर्तको स्वीकार कर लिया । फिर क्या था, षट्कृत्तिकाने स्वामिकार्तिकको दूध पिलाकर सयाना दिया। इसीसे उनका नाम कार्तिकेय पड़ा ।

यही कारण है कि गोस्वामीजीने गंगाजीको ‘भव-भामिनी’ अर्थात् सिव- प्रिया कहा है। महाराजाधिराज श्रीरघुराजसिंहने भी रामस्वयम्बरमें गंगाजीको शिव-प्रिया लिखा है।

यथाः-

“गंगा जेठी उमा दूसरी देवी शम्भु पियारी ।

जेहि विधि गमनी गंग सुराले सो सब दियो उचारी ॥

विनय-पत्रिका गंगा स्तुति पद 19 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

हरनि पाप त्रिविध ताप सुमिरत सुरसरित ।
बिलसति महि कल्प-बेलि मुद, मनोरथ फरित ॥१॥


सोहत ससि धवल धार सुधा-सलिल-भरित ।
विमलतर तरंग लसत रघुवर केसे चरित ॥२॥


तो बिनु जगदंब गंग कलिजुग का करित ?
घोर भव-अपार सिंधु तुलसी किमि तरित ॥३॥

शब्दार्थ-

सुर सरित =देवनदी गंगाजी। विलसति = शोभित । सलिल – जल। भरित= परिपूर्ण । तो= तुम्हारे ।

भावार्थ-

हे गंगाजी ! स्मरण करते ही तुम कायिक, वाचिक और मानसिक तीनों पार्पो और दैहिक, दैविक, भौतिक इन तीनों दुःखों को हर लेती हो । आनन्द और मनोरथ रूपी फलों से लदी हुई कल्पलता के समान तुम पृथ्वी पर सुशोभित हो ॥१॥

अमृतरूपी जलसे परिपूर्ण चन्द्रमाके समान तुम्हारी जो उज्ज्वल धारा शोभायमान है, उसमें राम-चरितके समान अत्यन्त निर्मल तरंगें शोमा पा रही हैं ॥२॥

हे जगज्जननी गंगे! यदि तुम न होतीं, तो कलियुग न-जानें क्या कर डालता ! उस अवस्थामें तुलसीदास इस भयंकर और अपार संसार-सागरसे कैसे तरता ! ॥३॥

विशेष

१-यहाँ प्रारम्भमें लिखा है कि गंगाजीके स्मरणमायसे ही तीनों तरहके ताप दूर हो जाते हैं। अतः गुबाईजीने आगे ‘सोहत ससि चरित’ में ही स्मरण के लिए गंगाजी का स्वरूप भी दिखा दिया है। भविष्य पुराणमें गंगाजी का ध्यान करनेके लिए उनके स्वरूप का बृहद् वर्णन है।

विनय-पत्रिका गंगा स्तुति पद 20 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

ईस-सीस वससि, त्रिपथ लससि, नम-पताल-यगनि ।
सुर-नर-मुनि-नाग-सिद्ध-सुजन-मंगल-करनि ॥१॥


देखत दुख-दोष-दुरित-दाह-दारिद-
सगर-सुवन-साँसति-समनि, जलनिधि जल-भरनि ॥२॥


महिमा की अवधि करसि बहु विधि-हरि-हरनि ।
तुलसी करु बानि विमल, विमल बारि बरनि ॥३॥

शब्दार्थ

ईस-शिवजी। दुरित = पाप । दाह – त्रिताप । दरनि = न करने वाली । साँसति = क्लेश । बरनिवर्ण या रङ्ग ।


भावार्थ

तुम शिवजीके मस्तकपर रहती हो और आकाश, पाताल तथा पृथिवी-इन तीनों मार्गोंमें सुशोभित हो । देवता, मनुष्य, मुनि, नाग, सिद्ध और सुजनों का तुम कल्याण करनेवाली हो ॥१॥

तुम्हारे दर्शनमात्रसे ही दुःखों,दोषों, पापों, तापों और दरिद्रताका नाश हो जाता है। तुम सगर-पुत्रोंके क्लेशों- का नाश करनेवाली और समुद्र में जल भरनेवाली हो ।।२।।

तुमने ब्रह्मा, विष्णु और महेश की महिमा की सीमा बहुत बढ़ा दी है। हे मातेश्वरी गंगे ! जिस प्रकार तुम्हारे जलका वर्ण निर्मल है, उसी प्रकार तुलसीदासकी वाणीको भी तुम निर्मल कर दो जिससे वह श्रीरामजीके चरितका गान कर सके।

विशेष

१-‘विधि-हरि-हरनि’–ब्रह्माके कमण्डलुमें रहने के कारण गंगाजी ब्रह्म कमण्डली, विष्णुके चरणों से निकलनेके कारण विष्णुपदी तथा शिवजीके मस्तकपर रहनेके कारण शिवजटा-बिहारिणी नाम धारण किया। इससे तीनों देवताओं का महत्त्व चरम सीमा पर पहुँच गया है।

विनय-पत्रिका यमुना स्तुति पद 21 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जमुना ज्या ज्या लागी बाढ़न ।
त्या त्यों सुकृत-सुभट कलि-भूपर्हि, निदरि लगे बहु काढ़न ॥१॥


ज्यों ज्यों जल मलीन त्यो त्यों जमगन मुख मलीन है आढ़न।
तुलसिदास जगदध जवास ज्यो अनघ मेध लागे डाढ़न ॥२॥

शब्दार्थ

सुकृत = पुण्य । सुभट = अच्छे योद्धा । निदरि = अपमान करके । आद = भाव । जगदध – (जगत्+अघ) संसारका पाप । जवास-जवासा या हिंगुआ। अनघ = (अन्+अघ) पाप-रहित । डादन- जलाने लगे।

भावार्थ

वर्षाकालमें यमुनाजी ज्यों-ज्यों बढ़ने लगीं, त्यों-त्यों पुण्यरूपी योद्धा कलिकालरूपी राजाका अत्यन्त निरादर करते हुए उसे निकालने लगे ।।१।।

बाढ़के कारण ज्यों-ज्यों यमुनाजी का जल मैला होने लगा, त्यो त्यो यमदूत का मुख भी मलिन होने लगा; अन्तमें उन्हें किसीकी भी आड़ न रही । तुलसीदास कहते हैं कि जैसे पुण्यरूपी मेध संसारके पापरूपी हिंगुएको जलाने लगे ॥२॥

विशेष

‘जमगन मुख मलीन’ पर ग्बाल कवि ने कहा है:-

भाष चित्रगुप्त सुनि लीजै अर्ज यमराज कीजिये हुकुम अब मूंदें नर्क द्वारे को ।

अधम अभागे औं कृतघ्नी कुर कलहिन करत कन्हैया कर्न-कुंडल समारे को ।।

विनय-पत्रिका काशी स्तुति पद 22 का शब्दार्थ सहित व्याख्या


सेय सहित सनेह देह-भरि, कामधेनु कलि कासी।
समनि सोक-संताप-पाप-रुज, सकल सुमंगल-रासी ॥१॥


मरजादा चहुँ ओर चरन वर, सेवत सुरपुर-चासी।
तीरथ सव सुभ अंग रोम सिवलिंग अमित अविनासी ॥२॥


अंतरऐन ऐन भल, थन फल, बच्छ वेद-विवासी।
गलकंबल बरुना विभाति जनु, लूम लसति सरिताऽसी ॥३॥


दंडपानि भैरव विषान, मलरुचिखलगन-भयदा-सी।
लोलदिनेस त्रिलोचन लोचन, करनघंट घंटा-सी ॥४॥


मनिकनिका बदन-ससि सुन्दर, सुरसरि-सुख सुखरा-सी।
खारथ परमारथ परिपूरन, पंचकोसि महिमा-सी ॥५॥


विखनाथ पालक कृपालु चित, लालति नित गिरिजा-सी।
सिद्धि, सची, सारद पूजहिं, मन जोगवति रहति रमा-सी॥६॥


पंचाच्छरी प्रान, मुद माधव, गव्य सुपंचनदा-सी।
ब्रह्म-जीव-सम रामनाम जुग, आखर बिख-विकासी ॥७॥


चारितु चरति करम कुकरम करि, मरत जीवगन घासी।
लहत परम पद पय पावन, जेहि चहत प्रपंच-उदासी ॥८॥


कहत पुरान रची केसव निज कर-करतूति कला-सी।
तुलसी बसि हरपुरी राम जपु, जो भयो चहै सुपासी ॥९॥


शब्दार्थ

अन्तर अयन =अन्तरर्गृही। बच्छ = बछड़ा । गलकंबल = गाय के गले में लटकती हुई खाल, यानी ललरी। बिभाति = शोभित । लूम =पूँछ। विषान = सींग ।लोल दिनेस = लोलार्क कुण्ड । त्रिलोचन – काशी में एक तीर्थ का नाम । मणिकर्णिका = एक स्थान का नाम है। लालति प्यार करती है। सची= इन्द्राणी। माधव = बिन्दुमाधव । गव्य = पंचगव्य; गोबर, गौमत्र, गोदधि, गोदुग्ध और गोघृतका मिश्रण । चारितु =चारा । प्रपंच-संसार । सुपासी-समीप वासी या कल्याण ।

भावार्थ

कलियुगमें काशीपुरी कामधेनुके समान है। शरीरकी अवधितक काशीरूपी कामधेनुका सेवन करना चाहिये । यह शोक, सन्ताप, पाप और रोगका नाश करनेवाली तथा कल्याणों की खान है ||१||

काशीके चारों ओर की मर्यादा अर्थात् चौहद्दी ही कामधेनु के श्रेष्ठ चरण हैं; देवलोक-वासी उन चरणोंकी सेवा करते हैं । यहाँके सब तीर्थस्थान ही इसके पवित्र अंग हैं, और अविनाशी अगणित शिवलिंग ही रोम हैं ॥२॥

अंतही इसके रहने के लिए बढ़िया घर है, अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष-ये चारों फल ही चार थन हैं, और वेदपर विश्वास रखने- वाले लोग ही बछड़े हैं (अर्थात् जिस प्रकार बछड़ेसे गाय पेन्हाकर दूध देती है, उसी प्रकार वेद-वचनमें जो विश्वास है, उस विश्वासरूपी बछरूसे यह गाय ईश्वर- प्राप्तिरूप दूध देती है) । वरुणा नदी ही मानों ललरी होकर सुशोभित हो रही है और असी नदी पूँछके रूपमें विराजमान है ||३||

दण्डपाणि और भैरव इसके दो सींग हैं । यह कामधेनु अपने इन दोनों सींगोंसे पापमें रुचि रखनेवाले दुष्टों- को भयभीत करती रहती है। लोलार्क कुण्ड और त्रिलोचन (एक तीर्थ) ये दो नेत्र हैं कर्णघंटा नामका स्थान इसके गलेमें बँधा हुआ घंटारूप है ।।४।।

मणिकर्णिका नामका स्थान चन्द्रमाके समान सुन्दर मुख है और गंगाजीसे जो सुख प्राप्त हो रहा है, वही इसकी शोभा है। स्वार्थ और परमार्थसे परिपूर्ण पंचकोसीकी परिक्रमा ही महिमा है ।।५॥

कृपालुचित्त विश्वनाथजी इसका पालन करनेवाले हैं और पार्वती जैसी देवी इसका सदैव लालन करती रहती हैं। अष्टसिद्धियाँ, इन्द्राणी ओर सरस्वती इसकी पूजा करती हैं और लक्ष्मी-सरीखी तीनों लोककी स्वामिनी इसका रुख देखती रहती हैं ॥६॥

पंचाक्षरी मन्त्र ही इसका पंचप्राण है, भगवान् बिन्दुमाधव आनन्द हैं और पंचनदी (पंचगंगा) पंचगव्यरूप हैं। संसारको विकसित करनेवाले रामनामके दोनों अक्षर ब्रह्म और जीवके समान हैं ॥७॥

यहाँ सुकर्म और कुकर्म करके जितने प्राणी मरते हैं, उनका वह शुभ-अशुभ कर्मरूपी घास ही इसका चारा है-उसीको यह चरा करती है। उस चारेको खाकर यह कामधेनु मोक्ष-रूपी पवित्र दूध देती है। उसे वे मरनेवाले प्राणी पीते हैं । वह मोक्षरूपी दूध इतना दुर्लभ है कि उसके लिए संसारमें उदासीन महात्मागण झीखते हैं ।।८।

पुराणों का कथन है कि भगवान् बिन्दुमाधवने अपने हाथोंसे इसकी रचना की है, उनकी यह कारीगरी कलारूप है। तुलसीदास कहते हैं कि यदि तू अपना कल्याण चाहता है तो काशीमें रहकर श्रीरामजीका नाम जप ॥९॥

विशेष

‘अंतर्गृही’-पद्मपुराणमें काशीके चार विभाग किये गये हैं। काशी, वाराणसी, अविमुक्त और अन्तर्गृही । मध्यमेश्वर और देहली विनायकके बीच मण्डलाकार भूमिको काशी कहा गया है। यहाँ मृत्यु होनेसे सालोक्य (शिवलोक) मुक्ति प्राप्त होती है । उत्तरमें वरुणा, दक्षिणमें असी नदी, पूरबमें गङ्गाजी और पश्चिममें पाशपाणि गणेशके बीचकी भूमिको वाराणसी कहते हैं। यहाँ मृत्यु होनेसे सारूप्य मुक्ति होती है। विश्वनाथजीके चारों ओर दो सौ धन्वा (एकधन्वा = ४ हाथ) का दायरा अविमुक्त कहलाता है। यहाँकी मृत्युसे सान्निध्य (सामीप्य) मुक्ति प्राप्त होती है । पश्चिम गोकर्णेश, पूरब गङ्गा, उत्तर भारभूत और दक्षिण ब्रह्मेश, इसके बीचकी भूमिको शिवजीका अन्तर्गृह माना गया है। यहाँकी मृत्युसे साक्षात् कैवल्य अर्थात् शिवस्वरूप की प्राप्ति होती है। गोस्वामी जी ने यहाँ उसी अन्तर्गृही का उल्लेख किया है।

२-करनघंट’-काशीमें एक शिव-भक्त ब्राह्मण था । वह शिवजीके सिवा दूसरे किसी भी देवताका नाम नहीं सुनना चाहता था। इसीसे उसने अपने दोनों कानोंमें घंटे लटका रखे थे ताकि उसे किसी दूसरेका नाम सुनाई न पड़े। यदि कोई मनुष्य उसके सामने किसी दूसरेका नाम लेता तो वह घंटा बजाते हुए दूर भाग जाता । इसीसे उसका नाम ‘करनघंट’ पड़ गया था। जिस स्थानपर वह रहता था, वह स्थान काशीमें आज श्री कर्णघंटाके नामसे प्रसिद्ध है।

३-पंचाच्छरी’-‘नमः शिवाय’ यही पंचाक्षरी मन्त्र है। ,-‘प्राण’-पाँच हैं:-प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान ।

विनय-पत्रिका चित्रकूट स्तुति पद 23 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

सव सोच-विमोचन चित्रकूट । कलिहरन, करन कल्यान बूट ॥१॥
सुचि अवनि सुहावनि आलवाल । कानन विचित्र, बारी बिसाल ॥२॥

मंदाकिनि-मालिनि सदा सींच । वर बारि, विषम नर नारि नीच ॥३॥
साखा सुसुंग, भूरुह-सुपात । निरझर मधुवर, मृदु, मलय वात ॥४॥
सुक पिक, मधुकरमुनिवर-विहारु । साधन प्रसून, फल चारि चारु ॥५॥
भव-घोर घाम-हर सुखद छाँह । थप्यो थिर प्रभाव जानकी-नाह ॥६॥
साधक-सुपथिक बड़े भाग पाइ । पावत अनेक अभिमत अघाइ ॥७॥
रस एक, रहित-गुन-करम-काल । सिय राम लखन पालक कृपाल ॥८॥
तुलसी जो रामपद चहिय प्रेम । सेइय गिरि करि निरुपाधि नेम ॥९॥

शब्दार्थ-

बूट = हरा वृक्ष । वारी =दगीचा । भूरुह = पेड़ । मलय = चन्दन । बात = हवा । नाह = स्वामी । अघाइ = तृप्त होना या पूर्ण होना।

भावार्थ-

सब शोकोंसे छुड़ानेवाला चित्रकूट (पर्वत) कलिका नाश करने- वाला और कल्याण करनेवाला हरा वृक्ष है ॥१॥

वहाँकी पवित्र भूमि उस वृक्षके लिए सुहावना थाहा है। बगीचों में अपूर्व वृक्ष हुआ करते हैं। चित्रकूटके चारों ओर जो विचित्र वन है, वही बड़ा बगीचा है ॥२॥

जिस प्रकार मालिन जल-सिंचनके समय किसी खास वृक्षके प्रति पक्षपात नहीं करती और न तो किसीकी उपेक्षा, उसी प्रकार मन्दाकिनी नदी रूपी मालिन अपने श्रेष्ठ जलसे, वहाँ निवास करनेवाले सभी अच्छे-बुरे (ऊँच-नीच) नर-नारियोंका हमेशा समान भावसे पोषण करती है ॥३॥

चित्रकूट पर्वतके सुन्दर शिखर ही उस वृक्षकी शाखाएँ हैं और उसके ऊपरके वृक्ष उत्तम पत्ते हैं । झरनोंसे झरनेवाला श्रेष्ठ और मीठा जल ही मृदु मल्य वायु है, और हवा ही उसकी कोमलता है ॥४॥

वहाँ बिहार करनेवाले मुनीश्वर ही तोता, कोयल और भौरे हैं। उन मुनीश्वरोंकी नाना प्रकारकी साधनाएँ ही उस वृक्षके पुष्प हैं और अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष- ये ही चार सुन्दर फल हैं ।।५।।

उस वृक्ष की सुखदायिनी छाया संसारकी जन्ममृत्यु- रूपी कड़ी धूपको हरनेवाली है। जानकी-वल्लभ श्रीरामने वहाँ निवास करके उसके प्रभावको और भी स्थायी कर दिया है ॥६॥

साधक रूपी उत्तम बटोही बड़े भाग्यसे उसे प्राप्त करते हैं और पाते ही उनकी नाना प्रकारकी आकांक्षाएँ पूर्ण हो जाती हैं ।।७।

वह गुण, कर्म और कालसे रहित एवं एकरस रहनेवाला है। कृपालु सीता, राम और लक्ष्मण उनके रक्षक हैं। तुलसीदास कहते हैं कि यदि तू श्रीरामजीके चरणों में प्रेम चाहता है, तो उपाधि-रहित नेमसे चित्रकूट पर्वतका सेवन कर।

विशेष

१-‘बारी’ शब्दका प्रयोग विहार, संयुक्तप्रान्त और अवधमें बगीचेके अर्थ में ही किया जाता है। यथा ‘बारी बगीचा’ ‘खेती-वारी’ । वास्तव में यह शब्द ऐसे बगीचोंके लिए आता है, जिनमें श्रेणी-बद्ध वृक्ष क्यारियोंमें नहीं लगे रहते; अथवा कुछ वृक्ष श्रेणीबद्ध लगे हुए होते हैं, और कुछ यत्र-तत्र लगे रहते हैं। ऐसे बगीचेको भी ‘बारी’ ही कहते हैं। ‘वियोगी हरि’ ने ‘बारी’ शब्दका अर्थ किया है, ‘खेतों या वृक्षोंके चारों तरफ लगाये हुए कांटेदार पेड़, जिनसे पशु आदिसे उनकी रक्षा रहती है।’ यह अर्थ करने में आपने बुन्देलखंडी भाषा- की शरण ली है।

२-‘थप्यो थिर प्रभाव’-श्रीरामजीके निवाससे चित्रकूटकी महिमा बहुत बढ़ गयी, इसीसे वाल्मीकिजीने श्रीरामजीसे चित्रकूटमें रहनेकी प्रार्थना की थी। यथाः- ‘चलहु सफल सुभ सबकर करहू । राम देहु गौरव गिरिवरहू ।’ जहाँ-जहाँ श्रीरामजीका चरण पड़ा, वह भूमि धन्य हो गयी। जैसे:- ‘धन्य भूमि वन पंथ पहारा । जहँ-जहँ नाथ पाउँ तुम्ह धारा ॥’

३-‘मंदाकिनि-मालिनि ‘बात’ सब टीकाकारोंने इसका अर्थ बड़ा ही विचित्र किया है। मालिनके ही जलसे चित्रकूट वृक्षका सिंचन कराया है। वियोगी हरिजी भला कब चूकने लगे? इन्होंने तो ऐसा अर्थ लिखा है जिससे कोई बात ही सष्ट नहीं होती।

विनय-पत्रिका चित्रकूट स्तुति पद 24 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

अब चित चेति चित्रकूटहि चलु ।
कोपित कलि, लोपित मंगल मगु, विलसत बढ़त मोह-माया-मलु ॥१॥


भूमि बिलोकु राम-पद अंकित, वन विलोकु रघुबर-विहार-थलु ।
सैल-सुंग भवभंग-हेतु लखु, दलन कपट-पाखंड-दंभ-दलु ॥२॥

जहँ जनमे जग-जनक जगतपति, विधि-हरि-हर परिहरि प्रपंच छलु ।
सकृत प्रबेस करत जेहि आस्रम, बिगत-विषाद भये पारथ नलु ॥३॥


न करु विलम्ब विचारु चारुमति, बरष पाछिले सम अगिले पलु ।
मंत्र सो जाइ जपहि जो जपि भे, अजर अमर हर अचइ हलाहलु ॥४॥


रामनाम-जप-जाग करत नित, मजत पय पावन पीवत जलु ।
करिहैं राम भावतो मन को, सुख-साधन, अनयास महाफलु ॥५॥


कामद मनि कामता-कलप तरु, सो जुग जुग जागत जगतीतलु ।
तुलसी तोहि बिसेषि बूझिये, एक प्रतीति-प्रीति एकै वलु ॥६॥

शब्दार्थ-

भवभंग= संसार-बन्धनसे छुटकारा । सकृत= एक बार । पारथ = पृथाके पुत्र युधिष्ठिर आदि । नलु राजा नल । अचई = पीकर । कामद= सब इच्छाएं पूरी करनेवाला । जगती तलु-पृथिवी तल पर।

भावार्थ-

हे चित, अब तू चेतकर चित्रकूटको चल। कलिने कुपित होकर कल्याण-मार्गों (ज्ञानं, भक्ति, वैराग्यादि) का लोप कर दिया है । इससे मोह, माया और पापोंकी वृद्धि विशेषरूपसे शोभा पा रही है ॥१॥

चल, रे चित्त, तू श्रीरामजीके चरणोंसे अंकित भूमिको देख; श्रीरघुनाथजीके विहार-स्थल वनका अवलोकन कर | वहाँ कपट, पाखंड और दम्भके समूहका नाश करनेवाले तथा संसार-बन्धनसे मुक्त करनेके कारणस्वरूप पर्वतके शिखरोंको देव ॥२॥

जहाँ जगत्पिता जगदीश्वर ब्रह्मा, विष्णु और महेशने छल-प्रपंच छोड़कर जन्म लिया है, जिस आश्रममें एक बार प्रवेश करते ही युधिष्ठिरादि पाण्डवों तथा राजा नलका दुःख दूर हो गया था ॥३॥

बहाँ चलनेमें देर न कर और अच्छी बुद्धिसे विचार तो कर कि शेष आयुका प्रत्येक पल बीती हुई आयुके वर्पके समान है । वहाँ जाकर तू उस मन्त्रको जप जिसे जपकर शंकरजी हलाहल विष पीनेपर भी अजर और अमर हो गये ॥४॥

यदि तू वहाँ नित्यप्रति रामनामका जपरूपी यज्ञ करता रहेगा, तपस्विनी नदीके पवित्र जलमें स्नान करता रहेगा तथा उसका जल पीता रहेगा, तो श्रीरामजी तेरी मनोवाञ्छा पूरी कर देंगे और इस सुखमय साधनसे तुझे अनायास ही महाफल (अपने चरणोंमें भक्ति) प्रदान करेंगे ॥५॥

चित्रकूटमें कामतानाथ पर्वत ही सब इच्छाएं पूरी करनेवाला कल्पवृक्ष और चिन्तामणि है; वह युग-युगसे पृथिवीतलपर प्रकाशमान है। यों तो चित्रकूटका प्रभाव प्रत्येकमनुष्यको जानना चाहिए, पर हे तुलसीदास, तुझे विशेषरूपसे समझना चाहिए; क्योंकि तुझे उस एकहीका विश्वास, प्रेम और भरोसा है ॥६॥

विशेष

1-‘जहँ जनमे हरिहर’-चित्रकूटमें महर्षि अत्रि और उनकी पतिव्रता धर्मपत्नी अनुसूया देवीने पुत्र-कामनासे घोर तपस्या की। ब्रह्मा, विष्णु और महादेवजीने प्रसन्न होकर उनसे वर माँगनेको कहा। अनुसूयाने यह वर माँगा कि मेरे गर्भसे तुम्हारे समान पुत्र उत्पन्न हों। तीनों देवता ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्धान हो गये। उसके बाद ब्रह्माने चन्द्रमाके रूपमें, विष्णुने दत्तात्रेयके रूपमें और शिवने दुर्वासाके रूपमें अनुसूयाके गर्भसे जन्म लिया।

२–’परिहरि प्रपंच छलु’-का आशय यह है कि ब्रह्मा, विष्णु और शिवने अपना-अपना निर्दिष्ट कार्य (उत्पत्ति, पालन और संहार) छोड़कर निश्छल भावसे जन्म लिया।

३–’पारथ नलु’-जुएमें हारकर राजा नल और युधिष्ठिरादि पाण्डव वन-वन भटकते हुए चित्रकूटमें पहुँचे थे। उन लोगोंने कामतानाथकी पूजा की थी और अपनी मनोभिलाषा पूर्ण करनेके लिए प्रार्थना की थी। उस समय पाण्डवोंने यह संकल्प किया था कि यदि हम लोग युद्ध में दुर्योधनको हरा देंगे तो फिर आकर कामतानाथगिरिका पूजन करेंगे। परिणाम यह हुआ कि राजा नल और धर्मराज युधिष्ठिरकी मनोभिलाषा पूरी हो गयी। यह कथा चित्रकूट- माहात्म्यमें विस्तारपूर्वक है।

४–’महाफलु’ का अर्थ है ‘राम-पद-प्रेम’ । क्योंकि अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष-ये चारों फल हैं । यदि यहाँ इसका अर्थ केवल मोक्ष किया जाय, जैसा कि अधिकांश टीकाकारोंने किया है तो भी ठीक नहीं। क्योंकि गोस्वामीजी मोक्षके भूखे नहीं थे। भक्त तो कभी ‘राम-पद-प्रेम’ के सिवा दूसरी वस्तु चाहता ही नहीं । देखिये भरतजी क्या कहते हैं:- ‘अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहउँ निरबान । जनम जनम रति रामपद, यह वरदानु न आन ॥’ इसके सिवा गोस्वामीजीने जिन-जिन देवताओंकी स्तुति की है, सबसे राम-पद-प्रेम’ ही माँगा है-मोक्ष नहीं । इससे सिद्ध होता है कि ग्रन्थकारको ‘महाफलु’का अर्थ ‘राम-पद-प्रेम’ ही अभिप्रेत है।

विनय-पत्रिका हनुमत स्तुति पद 25 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जयति-अंजनी-गर्भ-अंभोधि-संभूत-विधु, विवुध-कुल कैरवानन्दकारी।
केसरीचारु-लोचन-चकोरक-सुखद, लोकगन सोक-संतापहारी ॥१॥


जयति जय बालकपि कलि-कौतुक उदित चंडकर-मंडल-ग्रास-कर्ता।
राहु-रवि-सक पवि-गर्व-खीकरन सरन भयहरन जय भुवन-भत॥२॥


जयति रनधीर, रघुबीर-हित, देवमनि, रुद्र-अवतार, संसार-पाता।
विप्र-सुर-सिद्ध-मुनि-आशिषाकारवपु,विमलगुन, दुद्धि-कारिधि-विधाता॥३॥

जयति सुग्रीव सिच्छादिरच्छन-निपुन, बालि-वल-सालि-वध-मुख्यहेतू।
जलधि-लंघन सिंह सिंहिका-मद-मथन, रजनिचर-नगर-उत्पात-केतू॥४॥


जयति भूनन्दिनी-सोच-मोचन विपिन-दलन घननादवस विगत संका ।
लूम लीला अनल-ज्वालमाला-कुलित, होलिकाकरन लंकेस-लंका॥५॥


जयति सौमित्रि-रघुनंदनानंदकर, ऋच्छ-कपि कटक-संघट-विधायी।
बद्ध-वारिधि-सेतु, अमर-मंगल हेतु, भानुकुल-केतु-रनविजयदायी ॥६॥


जयति जय वज्र तनु दसन नख मुख विकट,चंड-भुजदंडतरु-सैल-पानी।
समर-तैलिक-यंत्र तिल-तमीचर-निकर, पेरिडारे सुभट घालि घानी॥७॥


जयति दसकंठ-घटकरन-वारिद-नाद-कदन-कारन, कालनेमि-हता।
अघट घटना-सुघट सुघट-विघटन विकट,भूमि-पाताल-जल-गगन-गंता॥८॥


जयति विस्व-विख्यात वानैत-विरुदावली,विदुष वरनत वेद विमल वानी।
दास तुलसी-त्रास-समन सीतारमन, संग सोभित राम-राजधानी ॥९॥

शब्दार्थ-

विबुध = देवता । कैरवानन्दकारी = कुमुदिनीको विकसित करनेवाले। चंड-कर-प्रचण्ड किरण वाले सूर्य । ग्रासकर्त्ता-निगल जानेवाले। सक-इन्द्र । पवि= बज ।खवींकरन = तोड़नेवाले । पाता= रक्षक । वपु = शरीर । भूनन्दिनी-जानकीजी । अकुलित =आत । विधायी-विधानकर्ता । तैलिक यन्त्र – कोल्हू । तमीचर =राक्षस। यालि – डालकर । घटकरन = कुम्भकर्ण । कदन = नाश । सुघट विघटन =सम्भवको असम्भव करने- वाले । विख्यात प्रसिद्ध । विदुष= पण्डित ।

भावार्थ-

हे हनुमानजी, तुम्हारी जय हो। तुम अंजनी के गर्भरूपी समुद्र से उत्पन्न होकर चन्द्रमा के समान देवकुल रूपी कुमुद को विकसित करने वाले हो । तुम अपने पिता के शरीर के सुन्दर नेत्र रूपी चकोरों को सुख देने वाले और समस्त लोकों का शोक-सन्ताप हरने वाले हो ॥१॥

तुम्हारी जय हो, जय हो। तुमने बचपन में उदयकालीन प्रचण्ड रवि-मण्डल को लाल खिलौना समझकर निगल लिया था । उस समय तुमने राहु, सूर्य, इन्द्र और उनके वज्र का गर्व तोड़ दिया था । हे शरणागतों का भय हरनेवाले ! हे चौदह भुवनके स्वामी ! तुम्हारी जय हो ॥२॥

हे युद्धक्षेत्र में धैर्य धारण करने वाले महावीरजी, तुम्हारी जय हो ! तुम श्रीरामजी के हितार्थ देव-शिरोमणि रुद्र के अवतार हो और संसार के रक्षक हो । तुम्हारा शरीर ब्राह्मण, देवता, सिद्ध और मुनियों के आशीर्वाद का साकार रूप है। तुम निर्मल गुण और बुद्धिसागर तथा विधाता हो ॥३॥

हे उचित शिक्षा आदि से सुग्रीवको रक्षा करने में चतुर हनुमानजी, तुम्हारी जय हो । तुम महा पराक्रमी बालि के मरवाने के मुख्य कारण हो । तुम समुद्र लाँधते समय सिंहिका नाम- की राक्षसी का मद-मर्दन करने वाले सिंह हो । निशाचरों की लंकापुरी में उत्पात करने के लिए केतु हो ॥४॥

हे जानकी जी को चिन्ताओं को दूर करने वाले, अशोक वन को उजाड़ने की नीयत से निःशंक होकर अपने को मेघनाद के ब्रह्मास्त्र में बँधवाने- वाले, तुम्हारी जय हो। तुमने अपनी पूँछ की लीला द्वारा आग की ज्वालमाला से आर्त रावण की लंकापुरी में होली-दहन-सा मचा दिया था ॥५॥

हे राम और लक्ष्मण को आनन्दित करनेवाले, तुम्हारी जय हो ! तुम रीछ और बन्दरों की सेना संघटित करने के विधायक होकर समुद्र पर पुल बाँधने वाले हो, देवताओं का कल्याण करने वाले हो और सूर्यकुल-केतु (ध्वजा) श्रीराम जी को संग्राम में विजय-लाभ कराने- वाले हो ॥६॥

तुम्हारी जय हो, जय हो। तुम्हारा शरीर, दाँत, नख और विकट मुँह वज्र के समान हैं । तुम्हारे भुजदंड बड़े प्रचंड हैं। तुम वृक्षों और पर्वतों को हाथों से उठानेवाले हो। तुमने समर-रूपी तेल पेरने के कोल्हू, राक्षस-समूह और बड़े-बड़े योद्धा रूपी तिलो की घानी डालकर पेर डाला है ।।७।।

हे रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद के नाश के कारण, तथा कालनेमि राक्षस को मारने वाले, तुम्हारी जय हो। तुम असम्भव को सम्भव और सम्भव को असम्भव कर दिखाने में बड़े ही विकराल हो । तुम पृथ्वी, पाताल, जल और आकाश में गमन करने- वाले हो ॥८॥

हे जगत्प्रसिद्ध वाणैत, तुम्हारी जय हो । पण्डित और वेद विमल वाणी से तुम्हारी गुणावली का वर्णन करते हैं। तुम तुलसीदास के भय को नाश करने वाले श्रीसीतारमण के साथ अयोध्यापुरी में सदा शोभायमान रहते हो॥९॥

विशेष

१-‘जयति अंजनी गर्भ-अंभोधि में रूपक अलङ्कार है.


२–’केसरी’ नामक बानर की पत्नी का नाम अंजनी था । एक दिन अंजनी शृङ्गार किये खड़ी थी। इतने में पवनदेव वहाँ आये और उसके रूपलावण्य पर मुग्ध हो गये। उन्हीं के वीर्य से अंजनी के गर्भ से हनुमानजी का जन्म हुआ। इसी से इन्हें ‘केसरी-नन्दन’ भी कहते हैं ? यहाँ उसी केसरी का नाम आया है।

३-‘ग्रासकर्ता’-आमावस्या का दिन था और प्रातःकाल का समय । हनुमान- जी को बहुत भूख लगी थी। वह उगते हुए सूर्य को लाल फल जानकर उनकी ओर लपके और देखते-देखते पकड़कर निगल गये। उस दिन ग्रहण भी था। सूर्य को न देखकर राहु बहुत निराश हुआ और इन्द्र के पास पहुँचकर बोला, आज मैं क्या खाऊँगा ? सूर्य को किसी दूसरे ने ही खा डाला। यह सुनते ही इन्द्र दौड़े। उन दोनों को आते देखकर हनुमानजी ने उनको भी निगलने के लिए हाथ बढ़ाया । इतने में इन्द्रने उनपर वज्र चलाया, पर वज्र उनकी ठुड्डी में लगा। इससे वह मूर्ञ्छित हो गये और वज्र भी टूट गया । तभी से महावीर जी का नाम हनुमान पड़ा । यह कथा वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड में लिखा है।

४-‘राहु रवि “खर्वीकरन’-जिस समय राहु देवराज इन्द्र के साथ आ रहा था, उस समय हनुमानजी उसको काला फल समझकर उसकी ओर लपके थे। इससे राहु भयभीत होकर भाग गया था। सूर्यको वह पहले ही निगल चुके थे। उनका प्रभाव देखकर इन्द्र भी दर गये थे । जो वज्र पहाड़ों को  तोड़ डालता। उससे महावीर जी की केवल दाढ़ी मात्र जरा-सी टेढ़ी हो गयी, इससे वज्र का भी गर्व चूर हो गया ।

५–’रुद्र अवतार’-शिवजी ने श्रीरामजी से दासभाव से सेवा करने के लिए वर माँगा था। तदनुसार ही समय पाकर वे हनुमान के रूप में श्रीरामजी के सेवक बने । इसी से हनुमान जी एकादश रुद्र माने जाते हैं।

६-‘आशिषाकार वपु’-जिस समय इन्द्र के वज्र से हनुमानजी मूछित हो गये थे, उस समय उनके पिता पवन ने कुपित होकर अपनी गति बन्द कर दी थी । इससे विश्व-ब्रम्हाण्ड थर्रा उठा । इन्द्रादिक देवताओं के प्रार्थना करने पर ब्रह्मा बहुत-से देवताओं और मुनियोंको साथ लेकर वायु के पास गये और महावीर के मस्तक पर हाथ फेरा । उनकी कृपासे महावीर की मूर्छा दूर हो गयी। उसके बाद देवताओं और मुनियों ने हनुमानजी को आशीर्वाद दिया। इसीसे उन्हें ‘आशिषाकार वपु’ कहा गया है। यह कथा भी वाल्मीकीय-रामायण के उत्तरकाण्ड में है।

७–’बालिबधमुख्यहेतू’-जब भगवान् सीता को ढूँढ़ते हुए ऋष्यमूक पर्वत के पास पहुंचे तो पहले हनुमान जी उनसे मिले और उनको ले जाकर सुग्रीव से मैत्री करायी। वह मैत्री बालि-बध का कारण हुई।

८-‘सिंहिका-मद-मथन’-सिंहिका राक्षसी समुद्र में रहती थी और आकाश मार्ग से जानेवाले जीवों की परछाई जल में देखकर उन्हें पकड़कर खा जाती थी। उसने हनुमानजी को भी पकड़कर निगलना चाहा। किन्तु हनुमानजी ने एक मुक्का मारकर उसका प्राण लिया ।

९-‘दसकंठ कारन’-यदि हनुमानजी महारानी जानकी जी की खबर श्रीरामजी को न सुनाते तो रावणादिका बध न होता। इसी से रावणादि के बधके कारण कहे गये हैं। दूसरी बात यह भी है कि युद्ध के समय जब रावण विजय प्राप्त करने के लिए यज्ञ का अनुष्ठान करने लगा, तो विभीषगने रामचन्द्र की सेनामें इसकी सूचना दी। कहा कि यदि रावण इस अनुष्ठान में सफल हो जायगा तो उस पर विजय पाना अत्यन्त कठिन हा जायगा । इसलिए उसके यज्ञको विध्वंस करना चाहिए। इस कामका भार हनुमानजीने अपने ऊपर लिया और थोड़ी-सी सेना साथ ले जाकर उस यज्ञको विध्वंस कर दिया। पश्चात् रावण युद्ध-क्षेत्रमें आकर मारा गया । इस प्रकार हनुमानजी उसकी मृत्यु के कारण बने। रण में कुम्भकर्ण को बलहीन करने के भी मूल कारण हनुमान जी ही थे।-लक्ष्मण जी को शक्तिबाण से मूञ्छित देखकर हनुमान जी संजीवनी बूटी लानेके लिए धौलागिरि- को ही उठा लाये थे । उस बूटी के द्वारा मूर्छा दूर होनेपर लक्ष्मणजी ने दूसरे ही दिन मेघनाद को मारा था। इससे वह नेघनाद भी वध के कारण माने जाते हैं।

१०-‘कालनेमिहंता’-यह रावण के पक्ष का बड़ा ही मायावी राक्षस था। जब हनुमान जी लक्ष्मण जी के लिए संजीवनी लाने गये थे तो इसने मार्ग में साधु का वेष धारण करके उन्हें छलने का विचार किया। हनुमानजी को उसकी माया मालूम हो गयी और तुरन्त ही उन्होंने उसकी जान ले ली, इसी से वह कालनेमि हंता कहलाते हैं।

११-‘अघट घटना “विघटन’-समुद्र को लाँघना असम्भव है, किन्तु हनुमानजी ने उसे सम्भव कर दिखाया था । पूंछ की आग से हनुमान जी के भस्म हो जाने की पूरी सम्भावना थी, पर उन्होंने उस सम्भव कार्यको असम्भव कर दिया और उस आग से लंकापुरी को जलाकर असम्भव को सम्भव भी कर दिया।

विनय-पत्रिका हनुमत स्तुति पद 26 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जयति मर्कटाधीस, मृगराज-विक्रम,
महादेव, मुद-मंगलालय, कपाली ।
मोद-मद-कोह-कामादि-खल-संकुला,
घोर संसार-निसि किरनमाली ॥१॥


जयति लसदंजनाऽदितिज, कपि-केसरी-
कश्यप-प्रभव, जगदार्तिहर्ता।
लोक-लोकप-कोक कोकनद-सोकहर,
हंस हनुमान कल्यान कर्ता ॥२॥


जयति सुविसाल-विकराल विग्रह,
वनसार सर्वांग भुजदंड भारी।
कुलिसनख, दसनवर लसत,
बैरि-सस्त्रास्त्रधर कुधरधारी ॥३॥


बालधि वृहद,जयति जानकी-सोच-संताप मोचन,
राम-लछमनानंद-वारिज-विकासी ।
कीस-कौतुक-केलि लूम-लंका दहन,
दलन कानन तरुन तेजरासी ॥४


जयति पाथोधि-पाषान-जलजानकर,
जातुधान-प्रचुर-हर्ष-हाता।
दुष्ट रावन-कुंभकग्न-पाकारिजित-
मर्मभित्, कर्म-परिपाक-दाता ॥५॥


जयति भुवनैकभूषन, विभीषन-वरद,
विहित कुंत राम-संग्राम साका।
पुष्पकारूढ़ सौमित्रि-सीता-सहित,
भानु-कुल-भानु-कीरति-पताका ॥६॥


जयति पर-जंत्रमंत्राभिचार-प्रसन,
कारमन-कूट-कृत्यादि-हता।
साकिनी-डाकिनी-पूतना-प्रेत-
बैताल-भूत-प्रमथ-जूथ-जंता ॥७॥


जयति वेदांतविद् विविध-विद्या-विसद,
वेद-वेदांगविद ब्रह्मवादी।
ज्ञान-विज्ञान-वैराग्य-भाजन विभो,
विमल गुन गनसि सुक नारदादी ॥८॥


जयति काल-गुन-कर्म-माया-मथन,
निश्चल ग्यान व्रत-सत्यरत, धर्मचारी ।
सिद्ध-सुरवृंद-जोगींद्र सेवित सदा,
दास तुलसी प्रनत भय-तमारी ॥९॥

शब्दार्थ-

मर्कटाधीश = बन्दरोंके राजा । मृगराज सिंह । कपाली-शिवजी । कोह- क्रोध । किरनमाली सूर्य । लसदंजनाऽदितिज = (लसत्+अंजना+अदिति+ज) अंजनी- रूपी अदितिसे जायमान होकर सुशोभित । कोक-चकवा । कोकनद = कमल । हंस= सूर्य । वालधि = पूँछ । कुधर = पहाड़ । पयोधि = समुद्र । जातुधान = राक्षस । हाता = हन्ता ।पाकारिजित = पाक नामक दैत्यके शत्रु इन्द्रको जीतनेवाला मेघनाद । मर्मभित् = मर्म स्थानको भेदनेवाला । परिपाक = फल । बरद= वर देनेवाले । साका= यश । अभिचार – मोहन उच्चाटन आदि प्रयोग तथा जादू-टोना । कारमन = किसीको जंत्र-मंत्र द्वारा मार डालनेके लिए प्रयोग । कृत्यादि प्राणनाशिनी देवी आदि । जंता- जीतनेवाले। विभो समर्थ । तमारी= सूर्य ।

भावार्थ-

हे बन्दरोंके राजा हनुमानजी, तुम्हारी जय हो। तुम सिंहके समान पराक्रमी, देवताओंमें श्रेष्ठ, आनन्द और कल्याणके स्थान तथा कपाल- धारी शिवके अवतार हो । मोह, मद, क्रोध, काम आदि दुष्टोंसे परिपूर्ण घोर संसाररूपी रात्रिके लिए तुम सूर्य हो ॥१॥

हे अंजनीरूपी अदिति (देव-माता) से उत्पन्न होकर सुशोभित होनेवाले, तुम्हारी जय हो। तुम्हारा जन्म बन्दर केशरीरूपी कश्यप प्रजापतिसे हुआ है। तुम संसारके दुःखोंको हरनेवाले हो । हे कल्याणकारी हनुमानजी ! तुम लोक और लोकपालरूपी चकवा तथा कमल- का शोक हरनेवाले सूर्य हो ।॥२॥

तुम्हारी जय हो । तुम्हारा शरीर बड़ा विशाल और विकराल है; तुम्हारे भारी भुजदण्ड और सर्वोगकी रचना वज्रके सार पदार्थसे हुई है । वज्रके समान तुम्हारे सुन्दर नख और दाँत सुशोभित हो रहे हैं । तुम्हारी पूँछ बहुत लम्बी है; तुम शत्रुओंका संहार करनेके लिए अस्त्र-शस्त्र धारण किये रहते हो; तुम पर्वतको भी हाथमें लिये रहते हो ॥३॥

हे सीताजीकी चिन्ताओं और दुःखोंको हरनेवाले, तुम्हारी जय हो। तुम राम-लक्ष्मणके आनन्दरूपी कमलको प्रफुल्लित करनेवाले हो। तुम बन्दर स्वभावसे हँसी-खेलमें ही अपनी पूँछसे लंका-दहन करने तथा अशोक-वनको बर्बाद करनेके लिए. मध्याह्नकालीन सूर्य हो ॥४॥

तुम्हारी जय हो ! तुम समुद्रपर पत्थरका जहाज (पुल) तैयार करके राक्षसोंके बड़े भारी हर्षके हंता हो । तुम दुष्ट रावण, कुम्भकर्ण और मेघनादके मर्मस्थानोंको भेदकर उन्हें उनके कर्मों का फल देनेवाले हो ॥५॥

हे त्रिभुवनके अपूर्व भूषण ! तुम्हारी जय हो! तुम विभीषणको वर देनेवाले और संग्राममें श्रीरामजाके साथ यशःपूर्ण कार्य करनेवाले हो । तुम पुष्पक विमानपर बैठे हुए लक्ष्मण और सीताके सहित सूर्यवंशके सूर्य श्रीरामचन्द्रकी कीर्ति-पताका हो ॥६॥

तुम्हारी जय हो ! तुम दूसरों के द्वारा किये गये यन्त्र-मन्त्र अभिचार (मोहन-उच्चा- टन) प्रयोगोंको ग्रसनेवाले तथा किसीको मार डालनेके लिए गुप्त प्रयोगों तथा प्राणघातिनी कृत्या आदि देवियोंका हनन करनेवाले हो । तुम शाकिनी, डाकिनी, पूतना, प्रेत, बैताल, भूत और प्रमथ आदिके समूहको जीतनेवाले हो ॥७॥

तुम्हारी जय हो ! तुम वेदान्त शास्त्रके ज्ञाता, अनेक विद्याओंमें पारंगत, चारों वेद (ऋक् , यजु, साम, अथर्वण) और वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष) के जानकार तथा ब्रह्म-निरूपण करनेवाले हो। हे विभो ! तुम ज्ञान-विज्ञान और वैराग्यभाजन हो। शुकदेव और नारद आदि तुम्हारे निर्मल गुणोंका गान करते हैं ॥८॥

तुम्हारी जय हो । तुम काल (क्षण, दिन, मास, वर्ष आदि), गुण (सत्त्व, रज, तम), कर्म (कायिक, वाचिक, मान- सिक अथवा संचित, प्रारब्ध, और क्रियमाण, या शुभ और अशुभ अथवा कर्म, अकर्म और विकर्म) तथा मायाको दूर करनेवाले हो । तुम्हारा ज्ञान और व्रत अचल है । तुम सत्यमें रत रहते और धर्मपर चलते हो । सिद्ध, देव-समूह तथा बड़े-बड़े योगी तुम्हारी सदा सेवा किया करते हैं । हे भव-भयरूपी निशाका नाश करनेके लिए सूर्यरूप हनुमानजी ! तुलसीदास तुम्हें प्रणाम करता है ॥९॥

विशेष

१-‘विभीषण-वरद’-लंका-दहनके समय विभीषणने अपनी दुःख-गाथा श्रीहनुमानजीको सुनायी थी, उसे सुनकर हनुमानजीने विभीषणको आशीर्वाद- रूप वरदान देते हुए कहा था कि परम कृपालु श्रीरामचन्द्रजी तुम्हारा दुःख अवश्य दूर करेंगे।

२-‘माया’-क्या है, इसे गोस्वामीजीके ही शब्दोंमें देखिये:-

मैं अरु मोर तोर तैं माया ।

जेहि बस कीन्हें जीव निकाया ॥

गो गोचर जहँ लगि मन जाई ।

सो सब माया जानेहु भाई ॥

(रामचरितमानस)

विनय-पत्रिका हनुमत स्तुति पद 27 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जयति मंगलागार संसार-भारापहर, बानराकार विग्रह पुरारी ।
राम रोषानल-ज्वालमाला-मिष ध्यांतचर-सलभ-संहारकारी ॥१॥


जयति मरुदंजनामोद-मंदिर, नतग्रीव सुग्रीव-दुःखैक-बंधो ।
जातुधानोद्धत-क्रुद्ध-कालाग्निहर, सिद्ध-सुर-सजनानंद-सिंधो ॥२॥

जयति रुद्राग्रनी, विख-विद्याननी, विस्व विख्यात-भट चक्रवर्ती ।
सामगाताग्रनी कामजेतामनी, रामहित, ससानुबई ॥३॥


जयति संग्राम-जय, रामसंदेसहर, कौसला-कुसल-कल्यानभाषी ।
राम-विरहाक-संतप्त-भरतादि, नरनारि शीतल करन कल्पसाषी॥४॥


जयति सिंहासनासीन सीतारमन, निरखि निर्भर हरष नृत्यकारी।
राम संभ्राज सोभा-सहित सर्वदा तुलसिमानस रामपुर-बिहारी ॥५॥

शब्दार्थ

मिष – बहानेसे । ध्वांतचर -राक्षस । सलभ पतङ्ग, पतिंगे । मरुदंजना- मोद (मरुत+अंजन+आमोद) पवन और अंजनीको प्रमुदित करनेवाले । नतग्रीव= गर्दन झुकाये हुए। भट= योद्धा । चक्रवर्ती सम्राट् । सामगाताननी-सामवेदका गान करने- वालोंमें श्रेष्ठ । संदेसहर-संदशिया या संदेशा कहनेवाला । विरहार्क-बिरहरूपी सूर्य । निर्भर = पूर्ण, अत्यन्त । संम्राज- सुशोभित ।

भावार्थ

हे मंगलके गृह तथा संसारका भार हरनेवाले हनुमानजी, तुम्हारी जय हो ! तुम्हारे शरीरका आकार बन्दरकी तरह है, पर हो तुम साक्षात् विश्व- स्वरूप | तुम श्रीरामजीके क्रोधरूपी अग्निकी ज्वालमालाके बहाने निशाचर-रूपी पतंगोंका संहार करनेवाले हो ॥१॥

हे पवन और अंजनीके आमोद-मन्दिर ! तुम्हारी जय हो ! नीची गर्दन किये हुए सुग्रीवके दुःखके तुम अद्वितीय साथी थे। तुम उद्धत राक्षसोंके क्रुद्ध कालाग्निका नाश करनेवाले तथा सिद्धों, देवताओं और सजनों के लिए आनन्दके सभद्र हो ॥२॥

तुम्हारी जय हो! तुम एकादश रुद्रमें अग्रणी, समस्त संसारकी विद्यामें अग्रगण्य तथा संसार-प्रसिद्ध योद्धाओंके चक्रवर्ती राजा (सम्राट् ) हो। तुम सामवेदका गान करनेवालों में अग्रणी हो, कामदेवको जीतनेवालोंमें सबसे पहले गिने जाने योग्य हो। तुम श्रीरामजीके हितकारी और रामभक्तोंको रक्षा करनेवाले हो ॥३॥

तुम्हारी जय हो ! तुम समरमें विजय-लाभ करनेवाले, श्रीरामजीका सन्देशा (जानकीके पास) ले जाने- वाले, अयोध्याकी कुशल और कल्याण (भरतजी तथा अयोध्यापुर-वासियोंसे) कहनेवाले हो । तुम रामचन्द्र के विरह-रूपी सूर्यसे सन्तप्त भरत आदि स्त्री-पुरुषोंको शीतल करनेके लिए कल्पवृक्ष हो ॥४॥

हे राज्यसिंहासनपर सुशोभित जानकीनाथ श्रीरामजीको देखकर अत्यन्त हर्षके साथ नृत्य करनेवाले ! तुम्हारी जय हो! हेरामकी पुरी अयोध्यामें बिहार करनेवाले हनुमानजी ! तुम रामचन्द्रकी शोभाके सहित (समाज-सहित) इस तुलसीदासके अन्तःकरणमें सदा विराजमान रहो ।

विशेष

1-‘रुद्र’-एकादश रुद्रके नाम ये हैं:-अज, एकपात् ,अहिवन, पिनाकी, अपराजित, त्र्यम्बक, महेश्वर, वृषाकपि, शम्भु, हरण, ईश्वर ।

२–’रामभक्तानुवर्ती–इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि हनुमान जी राम-भक्तोंकी अधीनता में रहनेवाले हैं; अर्थात् वह अपनेको रामभक्तों के हाथ में बिका हुआ समझते हैं।

विनय-पत्रिका हनुमत स्तुति पद 28 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जयति यात-संजात, विख्यात विक्रम, वृहद्-
घाहु, बलविपुल, वालधि बिसाला ।।
जातरूपाचलाकार विग्रह, लसल्लोम
विद्युल्लता ज्वालमाला ॥१॥


जयति बालार्क वर-बदन, पिंगल-नयन,
कपिस-कर्कस-जटाजूटधारी ।
विकट भृकुटी, बन दसन नख, बैरि-मद-
मत्त-कुंजर-पुंज-कुंजरारी ॥२॥


जयति भीमार्जुन-ज्याल सूदन-गर्व-
हर, धनंजय-रथ-त्राण- केतू ।
भीष्म द्रोण-कर्णादि-पालित, काल-
दृक सुयोधन चमू-निधन-हेतू ॥३॥


जयति गतराजदातार, हन्तार
संसार-संकट, दनुज-दर्पहारी।
इति अति भीति-ग्रह-प्रेत-चौरानल-
व्याधि-बाधा-शमन-घोरमारी ॥४॥

जयति निगमागम व्याकरन करन लिपि,
काव्य कौतुक-कला-कोटि-सिंधो ।
साम-गायक, भक्त-कामदायक,
वामदेव, श्रीराम-प्रिय-प्रेम-बंधो ॥५॥


जयति धर्मासु-संदग्ध-संपाति,
नवपच्छ-लोचन-दिव्य-देहदाता ।
कालकलि-पाए संताप-संकुल सदा,
प्रनत तुलसीदास तात-माता ॥६॥

शब्दार्थ-

चात= पवन । संजात= उत्पन्न। बालधि= पूँछ । जातरूपाचलाकार = (जातरूप+अचल+अकार) सुवर्णके पर्वत (सुमेरु) का आकार । लसल्लोम (लसत्+ लोम) रोम सुशोभित है। पिंगल = पीला । कपिस = भूरा । जूट = जूड़ा । ब्यालसूदन- गरुड़ । धनंजय = अर्जुन । ईति= खेतीकी छ बाधाएँ–अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिजी, चूई, पक्षी और राजाका भाक्रमण । घोरमारी= महामारीकी बीमारी । धर्मासु (धर्म+अंश) प्रखर किरणवाले । नवपच्छ-नया पंखा । तात-पिता ।

भावार्थ-

हे पवन-कुमार ! तुम्हारी जय हो ! तुम्हारा पराक्रम विख्यात है, भुजाएँ विशाल हैं, बल असीम है और पूँछ बड़ी लम्बी है । तुम्हारा शरीर सुमेरु पर्वतके आकारका है, उसपर विद्युल्लताकी ज्वालमालाके समान रोम सुशोभित हो रहे हैं ॥१॥

जय हो ! तुम्हारा श्रेष्ठमुख प्रभातकालीन सूर्य के समान है, नेत्र पीले हैं और तुम भूरे रंगका कठोर जटाजूट धारण किये रहते हो। तुम्हारी भौहें टेढ़ी हैं, दाँत और नख वज्रके समान हैं। तुम शत्रुरूपी मदमत्त हाथियों के लिए सिंहके समान हो ॥२।।

तुम्हारी जय हो ! तुम भीम, अर्जुन और गरुड़के गर्वको चूर्ण करनेवाले तथा अर्जुनके रथकी पताकापर बैठकर उसकी रक्षा करने- वाले हो । तुम भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण आदिसे रक्षित, कालकी दृष्टिके समान दुर्योधनकी सेनाका संहार करनेके मुख्य कारण हो ।।३।।

जय हो ! तुम सुग्रीवके गये हुए राज्यको दिलानेवाले, सांसारिक संकटों का नाश करनेवाले और दानवों- के दर्पको कुचल डालनेवाले हो । ईति, अत्यन्त डर, ग्रह, प्रेत, चोर, आग तथा रोगकी बाधाओं एवं महामारीका नाश करनेवाले हो ॥४||

तुम्हारी जय हो ! तुम वेद, शास्त्र और व्याकरणको लिपिबद्ध करनेवाले (अथवा उनपर भाष्य लिम्बने-वाले) तथा काव्यके दस अंगों एवं करोड़ों कलाओंके समुद्र हो । तुम सामवेदका गान करनेवाले तथा भक्तोंकी कामना पूरी करनेवाले शिवरूप हो और रामजीके प्रिय प्रेमी बन्धु हो ।।५।।

तुम्हारी जय हो ! तुम सूर्यकी प्रखर किरणोंसे जले सम्पाति नामक गीधको नवीन पर (पंखे) नेत्र और दिव्य शरीर देनेवाले हो । कलिकालके पाप-सन्तापोंसे सदा परिपूर्ण यह तुलसीदास तुम्हें प्रणाम करता है; क्योंकि पिता-माता तुम्ही हो ! ॥६॥

विशेष

१-‘जटाजूटधारी’-हनुमानजी भगवान् शिवजीके अवतार हैं, इसीसे उन्हें जटाजूटधारी कहा गया है । अन्यथा बानर रूपके लिए जटाजूटधारी कहना असंगत होता।

२–’भीमार्जुन-ध्यालसूदन गर्वहर’-महाभारतमें कथा है कि पाण्डवोंके वनवासकालमें एक दिन भीम अपने बलके मदमें मस्त कहीं जा रहे थे। रास्तेमें उन्हें एक बन्दर मिला । भीमने उससे रास्ता छोड़नेके लिए कहा। बन्दरने कहा, मैं बूदा हूँ, उठने बैठनेमें कष्ट होता है, तुम्हीं मेरी पूंछ हटाकर चले जाओ ।

भीमसेनने कुद्ध होकर उसे घसीटकर रास्तेसे दूर कर देना चाहा । पर पूरी शक्ति लगानेपर भी उस बन्दरकी पंछ नहीं हिली । इससे भीमको मन ही मन बहुत लज्जित होना पड़ा। पीछे जब उन्हें यह मालूम हुआ कि यह बन्दर हनुमान है, तो उन्होंने उन्हें नम्रतापूर्वक प्रणाम किया। इसी प्रकार एक बार भीमने हनुमानजीसे कहा कि आपने जिस रूपसे राम-रावण युद्ध में भाग लिया था, उस रूपका मुझे दर्शन दें।

हनुमानने कहा, मेरा वह रूप बड़ा ही विकराल है, अतः तुम उसे देखकर डर जाओगे । यह सुनकर भीमने गर्वके साथ फिर आग्रह किया । तुरन्त ही हनुमानजीने बह रूप धारण कर लिया। भयके कारण भीमसेनकी आँखें बन्द हो गयीं। वह थर-थर काँपने लगे। बार हनुमानजीकी महिमा देखकर उनका गर्व मिट गया ओर वह हाथ जोड़कर उनके चरणोंपर गिर पड़े। इसी प्रकार एक बार अर्जुनका गर्व भी चूर हुआ था । महाभारत-युद्धमें जब अर्जुन महापराक्रमी कर्णके रथपर बाण चलाते, तब उसका रथ बहुत दूर चला जाता था, किन्तु कर्णके बाणसे अर्जुनका रथ कई अंगुलमात्र हटकर रह नाता था ।

इसपर सारथी रूपमें बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्ण हर बार कहा करते, धन्य हो कर्ण ! भगवान्का यह वचन अर्जुनके लिए असह्य हो उठा। उन्होंने सोचा कि मेरे बाणसे कर्ण का रथ इतनी दूर चला जानेपर भी श्रीकृष्णने मुझे एक बार भी शाबासी नहीं दी, किन्तु उनके बाणसे मेरा रथ कुछ अंगुल खिसकनेपर ही यह हर बार उसकी प्रशंसा करते हैं। अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनका यह भाव समझ गये। उन्होंने हनुमानजीसे ध्वजा छोड़कर हट जानेके लिए इशारा किया। हनुमानजीके हटते ही कर्णके बाणसे अर्जुनका रथ बहुत दूर जा गिरा । अर्जुनने व्याकुल होकर भगवान्से इसका कारण पूछा ।

भगवान्ने कहा, हनुमानजीके पराक्रमसे तुम्हारा रथ स्थिर रहता है, इस समय वह ध्वजाके ऊपरसे हट गये हैं । कुशल थी कि मैं बैठा हुआ था; नहीं तो तुम्हारा स्थ न-जाने कहाँ जाकर गिरता । भगवान्की बात सुनकर अर्जुनका अभिमान दूर हो गया। स्कन्दपुराणमें लिखा है कि एक बार विष्णु भगवान्ने हनुमानजीको बुलाने- के लिए गरुड़से कहा । हनुमानने गरुड़से कहा,-आप चलें, मैं थोड़ी देरके बाद यहाँसे चलूंगा । गरुड़ने साथ ही चलनेके लिए कहा । हनुमानने कहा,- पीछे चलनेपर भी मैं आपसे पहले वहाँ पहुँच जाऊँगा । गरुड़को यह बात बहुत बुरी लगी, क्योंकि उन्हें अपनी तीव्र गतिका बड़ा गर्व था । वह शीघ्र पहुँचनेके लिए बड़ी तेजीसे चले । उन्होंने भगवान्के पास पहुँचकर देखा :-हनुमानजी विराजमान हैं। यह देखकर वह बहुत लजित हुए ।

३–’करनलिपि’-हनुमानजीने सूर्य भगवान्से विद्याध्ययन किया था। इन्होंने वेदों और शास्त्रोंपर भाष्य, पिंगलकी टीका तथा वेदांगोंपर भी कई ग्रंथ लिखे थे।

हनुमन्नाटक, हनुमत् ज्योतिष आदि कई ग्रंथ आज भी संस्कृत साहित्यमें उपलब्ध हैं। -चित्रकाव्यके आदि आविष्कारक भी यही थे।

५-‘सम्पाति’—यह गीधराज जटायुका छोटा भाई था। एक दिन दोनों भाई होड़ लगाकर सूर्यको छूनेके लिए आकाशमें उड़े। जटायु बुद्धिमान् था, इसलिए वह सूर्यमण्डलके समीप जाकर उनका तेज न सह सकनेके कारण लौट आया-; परन्तु अभिमानी सम्पाति आगे ही बढ़ता गया। परिणाम यह हुआ कि सूर्यकी उत्तप्त किरणों से उसके पर जल गये और वह माल्यवान पर्वत- पर आ गिरा । उसी समय सुग्रीवकी आज्ञासे बानर और रीछ महारानी सीता- जीकी खोजमें निकले थे। सम्पातिने जानकीजीका पता बतलाया। हनुमानजी- की कृपासे उसे नये पंख, नवीन नेत्र प्राप्त हो गये और साथ ही उसका शरीर भी दिव्य हो गया।

विनय-पत्रिका हनुमत स्तुति पद 29 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जयति निर्भरानंद-संदोह कपिकेसरी,
केसरी- सुवन भुवनैकमा ।
दिव्य भूम्यंजना-मंजुलाकर-मने,
भक्त-संताप-चिंतापहर्ता ॥१॥


जयति धर्मार्थ-कामापवर्गद विभो,
ब्रह्मलोकादि-वैभव-विरागी।
वचन-मानस-कर्म सत्य-धर्मवती,
जानकीनाथ-चरनानुरागी ॥२॥


जयति विहगेस-बलवुद्धि-बेगाति-
मद-मथन, मनमथ-मथन, ऊर्ध्वरेता।
महानाटक-निपुन, कोटि-कविकुल-
तिलक, गान गुन-गर्व-गंधर्वजेता ॥३॥


जयति मंदोदरी-केस-कर्षन,
विद्यमान दसकंठ भट-मुकुट मानी ।
भूमिजा दुःख-संजात-रोषांतकृत
जातना जंतु कृत जातुधानी ॥४॥


जयति रामायन-स्रवन-संजात-रोमांच,
लोचन सजल, सिथिल बानी ।
रामपदपद्म-मकरंद-मधुकर, पाहि,
दास तुलसी सरन, सूल पानी ॥५॥

शब्दार्थ-

संदोह – समूह । मंजुलाकरमने = (मंजुल+आकर-मने) खानसे निकली हुई मनोहर मणि । कामापवर्गद = (काम+अपवर्ग+द) काम और मोक्षके दाता । कर्षन खींचनेबाले । विद्यमान = मौजूदगीमें । भूमिजा- जानकीजी । रोषांतकृत= (रोष+ अन्तकृत) क्रोधके कारण प्रलय करनेवाले (अन्तकृत) यम । जातुधानी-राक्षसी । मकरंद-पुष्परस, मधु । मधुकर-भ्रमर । पाहि-त्राहि या रक्षा करो।

भावार्थ-

तुम्हारी जय हो ! तुम अतिशयानन्दके समूह, बानरोंमें साक्षात् सिंह, केशरीके पुत्र और संसारके एकमात्र स्वामी हो। तुम अंजनीरूपी दिव्य पृथिवीकी खानसे निकली हुई मनोहर मणि हो और भक्तोंके सन्तापों और चिन्ताओंको हरनेवाले हो ॥१॥

हे विभो ! तुम्हारी जय हो ! तुम धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके देनेवाले हो और तुम्हें ब्रह्मलोक आदिके वैभवसे भी विराग है। तुमने मन, वचन और कर्मसे सत्यको ही अपना धर्मव्रत बना रखा है। तुम श्रीरामजीके चरणों में अनुराग रखनेवाले हो ॥२॥

जय हो ! तुम गरुड़के बल, बुद्धि और वेगके बड़े भारी गर्वको हरनेवाले तथा कामदेवका नाश करनेवाले ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी हो । तुम महानाटकके निपुण रचयिता और अभिनेता हो, करोड़ों महाकवियोंके कुल-तिलक हो और गान-विद्याके गुणका गर्व करनेवाले गन्धवोंको जीतनेवाले हो ॥३॥

जय हो! तुम वीरोंके सिरमौर महा अभिमानी रावणकी उपस्थितिमें उसकी स्त्री मन्दोदरीका केश पकड़कर खींचनेवाले हो । नुमने जगज्जननी जानकीजीके दुःखसे उत्पन्न क्रोधके वश हो राक्षसियोंकी ऐसी यातना की थी, जैसी यमराज तमाम प्राणियोंकी किया करता है ॥४॥

तुम्हारी जय हो ! रामायण सुननेसे तुम्हारा शरीर पुलकित हो जाता है, नेत्र सजल हो जाते हैं और कंठ गद्गद हो जाता है। हे श्रीरामजीके चरण-कमलोंके रसके भ्रमररूप हनुमानजी ! त्राहि, त्राहि ! हे त्रिशूलधारी रुद्ररूप हनुमानजी ! तुलसी- दास तुम्हारी शरण है।

विशेष

1-‘ऊर्ध्वरेता’-ऋग्वेदमें दो तरहके ब्रह्मचारियोंका उल्लेख है; उद्ध- रेतस् और अमोधवीर्य । जिस ब्रह्मचारीका वीर्य नीचेकी ओर न आकर उर्ध्व- गामी हो जाता है, उसे उर्ध्वरेता कहते हैं । यह साधना सर्वश्रेष्ठ और दुर्लभ है। अमोधवीर्य उसे कहते हैं जिस ब्रह्मचारीका वीर्य कभी भी निष्फल न जाय । अर्थात् उससे गर्माधान अवश्य हो जाय। हनुमानजी सर्वोच्च कोटिके अखंड ब्रह्मचारी माने जाते हैं।

२–’महानाटक’-हनुमानजीने एक बृहद्नाटकमें राम-चरित वर्णन किया था । कोई अधिकारी न मिलनेके कारण उन्होंने उसे समुद्र में डाल दिया । दामोदर मिश्रने उसके रहे-सहे अंशका संकलन करके वर्तमान हनुमन्नाटक निर्माण किया ।

३–’मन्दोदरी केस-कर्षन’-हनुमानजीके आदर्श-चरितके वर्णनमें यह प्रसंग यानी एक स्त्रीका केश पकड़कर खींचना खटकता है । पर वास्तवमें यहाँ खटकनेकी कोई बात नहीं है। क्योंकि वह प्रभुकी आज्ञासे रावणका यज्ञ भंग करने गये थे और उसीपर रावणका परास्त होना निर्भर था। जब उन्होंने यज्ञ भंग करनेकी और कोई सूरत न देखी, तो यह काम करनेके लिए उन्हें विवश होना पड़ा । उन्होंने सोचा कि रावण अपनी स्त्रीका अपमान कदापि न देख सकेगा और यज्ञ छोड़कर अवश्य उठ खड़ा होगा। वही हुआ भी। विवश होनेपर अनन्य भक्तके लिए अनुचित और उचितका विचार छोड़कर प्रभुकी आज्ञा-पालन करना स्वाभाविक है। इसके सिवा कहींपर यह उल्लेख पाया जाता है कि हनुमानजीने जिस मन्दोदरीका केस कर्षण किया था, वह मायाकी बनी हुई कल्पित मन्दोदरी थी।

विनय-पत्रिका हनुमत स्तुति पद 30 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जाके गति है हनुमान की।
ताकी पैज पूजि आई, यह रेखा कुलिस पषान की ॥१॥


अघटित-घटन, सुघट-विघटन; ऐसी विरुदावलि नहिं आन की।
सुमिरत संकट-सोच विमोचन, मूरति मोद निधान की ॥२॥


तापर सानुकूल गिरिजा, हर, लषन, राम अरु जानकी ।
तुलसी कपि की कृपा विलोकनि, खानि सकल कल्यान की ॥३॥

शब्दार्थ-

गति= भरोसा, सहारा । पैज=प्रतिशा । रेखा = लकीर, लोक । अघटित =असम्भव । सुघटसम्भव । विघटन – बिगाड़ देनेवाले । विरुदावलि = गुणावली । आनकी = दूसरेको । चितवन -विलोकनि ।

भावार्थ-

जिसे केवल हनुमानजीका ही सहारा है, जिसकी प्रतिज्ञा सदासे पूरी होती आयी है; यह सिद्धान्त बज्र या पत्थरके ऊपरकी लकीरके समान अमिट है ॥१||

हनुमानजी अघटित या असम्भव घटनाको सम्भव और सम्भवको असम्भव करनेवाले हैं; ऐसी गुणावली दूसरे किसीकी नहीं है। आनन्द-निधान श्रीहनुमानजीकी मूर्तिका स्मरण करते ही तमाम संकट और शोक नष्ट हो जाते हैं ॥२॥

हे तुलसीदास ! हनुमान्जीकी कृपापूर्ण चितवन सब प्रकारके कल्याणोंकी खानि है; क्योंकि (जिसपर इनकी कृपा-दृष्टि रहती है) उसपर पार्वती, शिव, लक्ष्मण, राम और जानकीकी कृपा रहती है ॥३॥

विनय-पत्रिका हनुमत स्तुति पद 31 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

ताकिहै तमकि ताकी ओर को।
जाको है सब भाँति भरोसो कपि केसरी-किसोर को ॥१॥


जन-रंजन अरिगन-गंजन मुख-भंजन खल बरजोर को।
वेद-पुरान-प्रगट पुरुषारथ सकल-सुभट-सिरमोर को ॥२॥


उथपे-थपन, थपे उथपन पन, बिबुध बृन्द बंदिछोर को ।
जलधि लाँघि दहि लंक प्रबल बल दलन निसाचर घोर को ॥३॥


जाको बाल-विनोद समुझि जिय डरत दिवाकर भोर को।
जाकी चिवुक चोट चूरन किय रद-मद कुलिस कठोर को ॥४॥


लोकपाल अनुकूल विलोकिबो चहत विलोचन-कोर को।
सदा अभय, जय, मुद-मंगलमय जो सेवक रनरोर को ॥५॥


भगत-काम तरु नाम राम परिपूरन चंद चकोर को।
तुलसी फल चारों करतल जस गावत गई बहोर को ॥६॥

शब्दार्थ-

ताकिहै – देखेगा । तमकि= क्रुद्ध होकर । जनरंजन = भक्तोंको प्रसन्न करने- वाला । अरिगन= शत्रुओं। गंजन = नाश करनेवाला । बरजोर बलवान । को-कौन । उथपे- उखड़े हुए। रददाँत । विलोचन-कोर – हनुमानजी। रनरोर-युद्धक्षेत्रमें शोर करनेवाले रणबांकुरे । गयी-बहोर = गयी हुई वस्तुको फिरसे दिलानेवाले ।

भावार्थ-

जिसे सब प्रकारसे केशरी-कुमार हनुमानजीका ही भरोसा है, उसकी ओर होकर कौन देखेगा ? ॥१॥

भक्तोंको प्रसन्न करने, शत्रुओंका संहार करने तथा दुष्टों का मुँह तोड़ने योग्य बलवान् और कौन है ? इनका पुरुषार्थ वेदों और पुराणों में प्रकट है। सब शूरवीरोंमें शिरोमणि इनके समान और कौन है ? ॥२॥

इनके सिवा उखड़े हुए (सुग्रीव, विभीषण-सरीखे) लोगोंको राज्यसिंहासनपर स्थापित करनेवाला, सिंहासनपर स्थित (बालि, रावण आदि) महा बलवान् राजाओंको राज्यच्युत करनेवाला, प्रणपूर्वक बन्दी देवताओंको छुड़ानेवाला कौन है ? समुद्र लाँधकर लंकाको जलानेवाला तथा बड़े बलवान् एवं भयानक राक्षसोंका नाश करनेवाला कौन है ? ॥३॥

जिनके बाल-विनोदका मन ही मन स्मरण करके अब भी प्रातःकालीन सूर्य डरा करते हैं और जिनकी ठुड्डीकी चोटने कठोर बज्रके दाँतोंका घमण्ड चूर कर दिया था ऐसा और कौन है ? ॥४॥

लोकपाल भी उन हनुमानजीकी कृपादृष्टि चाहा करते हैं। रणमें हल्ला करनेवाले हनुमानजीका जो सेवक है, वह सदा निर्भय रहता तथा आनन्द मंगलमय विजय-लाभ करता है ॥५॥

पूर्णचन्द्रवत् श्रीरामजीकी मुखच्छविको चकोरकी भाँति निहारनेवाले हनुमानजीका नाम भक्तों के लिए कल्पवृक्षके समान है । हे तुलसीदास ! गयी हुई वस्तुको फिरसे दिला देनेवाले श्रीहनुमानजीका जो यश गाता है, उसकी हथेलीपर चारों फल (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) धरे रहते हैं ॥६॥

विशेष

‘विलोचन कोर’–यह हनुमानजी के लिए कहा गया है । इसका शाब्दिक अनुवाद कोरदार आँखोंवाले किया जा सकता है। पर इसमें रसका वह परिपाक कहाँ जो ‘विलोचन कोर’ में है ? साहित्य-रसज्ञ ही कविके इस प्रयोगका ठीक-ठीक रसास्वादन कर सकते हैं।

विनय-पत्रिका हनुमत स्तुति पद 32 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

ऐसी तोहि न बूझिये हनुमान हटीले ।
साहेब कहूँ न राम से, तोसे न उसीले ॥१॥


तेरे देखत सिंह के सिसु मेढक लीले ।
जानत ही कलि तेरेऊ मन गुनगन कीले ॥२॥


हाँक सुनत दसकन्ध के भये बन्धन ढीले ।
सो बल गयो किधौं भये अब गरब गहीले ॥३॥


सेवक को परदा फटे तू समरथ सीले ।
अधिक आपुते आपुनो सुनि मान सहीले ॥४॥


साँसति,तुलसीदास की सुनि सुजस तुही ले।
तिहूँकाल तिनको भलौ जे राम रँगीले ॥५॥

शब्दार्थ-

उसीले -बसीला, सेगा जिसके द्वारा राजाके पास किसीको पहुँच होती है, वह उसका वसीला कहलाता है । कोले = कोल दिया, बाँध दिया । वंधन-अोंके जोड़ । सोले =सी दो, टाँके लगा दो। साँसति = कष्ट । कथा-प्रसंग-जब गोस्वामीजी चिरकालतक अंजनी-ललाका भजन करते रह गये, किन्तु उनपर श्रीरामजीकी कृपा न हुई, तब उन्होंने खिन्न होकर ऊपरके पदको रचना की थी।

भावार्थ-

हे हठीले हनुमान ! तुझे ऐसा नहीं चाहिये। रामजीके समान कहीं स्वामी नहीं हैं और तेरे समान वसीला नहीं है ।।१।।

तेरे देखते-देखते मुझ सिंह-शावकको कलियुगरूपी मेढक निगले जा रहा है। मैं जानता हूँ कि कलिने तेरे मन और गुणोंको भी कील दिया है ॥२॥

तेरी हुंकार सुनते ही रावणके बन्धन ढीले पड़ गये थे; कह नहीं सकता कि अब तुझमें वह बल रहा ही नहीं अथवा त् गर्वीला हो गया ॥३॥

सेवकका पर्दा फटनेपर तू उसे सी लेनेमें समर्थ है; अर्थात् सेवकको पोल खुलती देखकर तू उसकी रक्षा कर सकता है; क्योंकि तू अपनेसे अधिक अपने सेवककी सुनता और उसका मान सहनेवाला है ||४||

तुलसीदासका कष्ट सुनकर उसे दूर करनेका यश तू ही ले । क्योंकि जो रामके रँगीले हैं, उनका तो तीनों कालमें कल्याण ही है अर्थात् अब मैं रामके रंगमें रँग गया हूँ, इसलिए मेरा भला तो कभी-न-कभी अवश्य ही होगा-हाँ, यश लेना हो तो तू ले ले ॥५॥

विशेष:-

सुना जाता है कि एक बार उस समयके बादशाहने गुसाईजीसे कुछ करामात दिखानेके लिए कहा । गुसाईजीने उत्तर दिया कि मैं राम-नामके सिवा और कोई करामात नहीं जानता । बादशाहने समझा कि यह गुस्ताखी कर रहा है। अतः उसने इन्हें जेलमें बन्द कर दिया। उसी समय गोस्वामीजीने यह पद बनाया था। किन्तु हम इससे सहमत नहीं हैं। इस सम्बन्धमें हम अपनी राय ऊपर कथा-प्रसंगमें व्यक्त कर चुके हैं।

विनय-पत्रिका हनुमत स्तुति पद 33 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

समरथ सुअन समीर के, रघुवीर-पियारे।
मोपर कीवी तोहि जो करि लेहि भिया रे ॥१॥


तेरी महिमा ते चलें चिंचिनी-चिंया रे।
अँधियारो मेरी बार क्यों, त्रिभुवन उजियारे ॥२॥


केहि करनी जन जानि के सनमान किया रे।
केहि अघ औगुन आपने करि डारि दिया रे ॥३॥


खाई खोंची माँगि मैं तेरो नाम लिया रे।
तेरे बल, वलि आजु लो जग जागि जिया रे ॥४॥


जो तोसों होतो फिरौ मेरो हेतु हिया रे ।
तो क्यों वदल देखावती कहि वचन इया ॥५॥


तोसो शान-निधान को सरवग्य विया रे।
हौं समुझत साई-द्रोह की गति छार छिया रे ॥६॥


तेरे स्वामी राम से, स्वामिनी सिया रे।
तहँ तुलसी के कौन को काको तकिया रे ॥७॥

शब्दार्थ-

भिया= भैया। चिचिनी-इमली । चिया = बीज । खोंची = बाजारों या देहातों में किसी व्यक्ति-विशेष, साधु-अभ्यागत अथवा मन्दिर के पुजारी के भोजन के लिएघरघरसे थोड़ा-थोड़ा अन्नादि देनेका जो प्रबन्ध किया जाता है उसे खोंची कहते है इया = यार अथवा दोस्त । बिया= दूसरा । छार राख । छिया छिः छिः, टोलालेदर, नरक ।

भावार्थ-

हे सामर्थ्यवान पवनकुमार ! हे रघुनाथजीके प्यारे ! तुम्हें मुझपर जो । कुछ करना हो सो भैया कर लो ॥१॥

तुम्हारी महिमासे इमलीके चिये भी सिक्केकी जगह चल जाते हैं। फिर मेरे ही लिए हे तीनों लोकके उजागर, तुमने इतना अन्धेर क्यों कर रखा है ॥२॥

पहले तुमने मेरी किस करनीसे अपना भक्त जानकर मेरा सम्मान किया था, और अब किस पाप और अवगुणसे मुझे अपने हाथसे छोड़ दिया ? ||३||

मैंने तो तुम्हारा ही नाम लेकर खोंचीका अन्न माँगा और खाया । तुम्हारी बलैया लेता हूँ, मैं तो तुम्हारे ही बलपर आजतक संसारमें उजागर होकर जीवित रहा हूँ ॥४॥

यदि तुमसे विमुख होनेका कारण मेरा हृदय होता, तो फिर मैं यह वचन कहकर तुम्हें अपना मुँह कैसे दिखाता है ||५||

तुम्हारे समान महाज्ञानी ओर सर्वज्ञ दूसरा कोन है, मैं जानता हूँ कि स्वामी के ‘साथ शत्रुता करनेका परिणाम बर्बाद होना है ॥६॥

तुम्हारे स्वामी रामजी और स्वामिनी जानकीजी सरीखी हैं । वहाँ (उनके दरवारमें) तुलसीदासको तुम्हारे सिवा किसका और किस बातका सहारा है ||७||

विशेष

१-‘भिया’-यह बनारसी और मिर्जापुरी बोलीका ठेठ शब्द है।

२-खोंची’ का अर्थ शब्दार्थ में लिखा गया है । कई टीकाकारोंने इसका अर्थ ‘भीख’ लिखा है । पर वास्तवमें यह शब्द उक्त अर्थसे कुछ भिन्न है।

विनय-पत्रिका हनुमत स्तुति पद 34 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

अति आरत, अति खारथी, अति दीन-दुखारी।
इनको बिलगुन मानिये, बोलहिं न बिचारी ॥१॥


लोक-रीति देखी सुनी, ब्याकुल नर-नारी ।
अति बरषे अनबरषे हूँ, देहिं दैवहिं गारी ॥२॥


नाकाहि आये नाथ सों, साँसति भय भारी।
कहि आयो कीबी छमा, निज ओर निहारी ॥३॥

समै साँकरे सुमिरिये, समरथ हितकारी ।
सो सव विधि ऊवर करै, अपराध बिसारी ॥४॥


विगरी सेवक की सदा, साहबहिं सुधारी।
तुलसी पर तेरी कृपा, निरुपाधि निनारी ॥५॥

शब्दार्थ

विलगु-वुरा । नाकहिं नाकोंदम । निहारी= देखकर। साँकरे = कष्टकर । ऊवर करे = उबारता या उद्धार करता है। निरुपाधि= उपाधि-रहित, विघ्न-बाधा-रहित । निनारी-स्पष्ट ।

भावार्थ

अत्यन्त आर्त, अत्यन्त स्वार्थी, अति दीन और अति दुखिया, इनकी बातोपर बुरा नहीं मानना चाहिए, क्योंकि ये सोच-विचारकर नहीं बोलते ॥१॥

लोककी यह रीति देखने और सुननेमें आयी है कि व्याकुल स्त्री-पुरुष अधिक वर्षा होनेपर और बिलकुल ही वर्षा न होनेपर दैवको गालियाँ देते हैं ||२||

हे नाथ, विशेष कष्ट और भयसे नाकोंदम आ जानेपर ही मैंने तुम्हें इतनो (खरी- खोटी) सुनायी है। अब तुम अपनी दयालुताकी ओर देखकर मुझे क्षमाकर दो ॥३॥

कष्टकर समयमें लोग अपने हितू और सामर्थ्यवान्का स्मरण किया करते हैं, और वह हितू सब अपराधोंको भूलकर उसकी सब प्रकारसे रक्षा करता है ॥४॥

सेवककी बिगड़ी हुई बातोंको सदैव स्वामीको ही सुधारना पड़ता है । फिर तुलसीदासपर तो तुम्हारी कृपा स्पष्ट है, उसमें किसी तरहको विघ्न-बाधा नहीं है, यह स्पष्ट है ॥५॥

विनय-पत्रिका हनुमत स्तुति पद 35 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

कटु कहिये गाढ़े परे, सुनि समुझि सुसाई।
करहिं अनभलेउ को भलो, आपनी भलाई ॥१॥


समरथ सुभ जो पाइये, धीर पीर-पगई ।
ताहि तक सब ज्यो नदी, वारिधि न बुलाई ॥२॥


अपने अपने को भलो चहैं लोग-लुगाई ।
भावै जो जेहि तेहि भजै, सुभ-असुभ सगाई ॥३॥


बाँह वोलिदै थापिये, जो निज बरिआई ।
विन सेवा सो पालिये, सेवक की नाईं ॥४॥

चूक चपलता मेरियै, तू बड़ो वड़ाई ।
होत आदरे ढीठ है, अति नीच निचाई ॥५॥


बंदिछोर विरुदावली, निगमागम गाई ।
नीको तुलसी दासको, तोरियै निकाई ॥६॥

शब्दार्थ-

सुभ = मंगलरूप । पीर पराई = दूसरोंकी व्यथा । लोग = पुरुष । लुगाई-स्त्री (राजस्थानका शब्द है)। सगाई सम्बन्ध । बोलिदै = बल या सहारा देकर । बरिआई = जबर्दस्ती।

भावार्थ-

अच्छा स्वामी सुन और समझ कर ही क्लेशके समय कठोर वचन कहा जाता है, और अच्छे स्वामी अपने स्वभावानुसार बुरे सेवकका भी भला कर देते हैं ॥१॥

यदि समर्थ, मंगलरूप और दूसरोंक व्यथा दूर करनेमें बहादुर स्वामी मिल जाते हैं, तो उन्हें सब लोग वैसे ही देखते हैं जैसे नदी बिना बुलाये ही समुद्र की ओर दौड़ती है (अर्थात् जैसे नदियाँ समुद्रसे मिलनेकी स्वाभाविक ही इच्छा करती हैं, वैसे ही सबलोग अच्छे स्वामीका सेवक होनेके इच्छुक होते हैं) |२|

जितने स्त्री-पुरुष हैं, सब अपनी-अपनी भलाई चाहते हैं। जिसे जो अच्छा लगता है, शुभ और अशुभके सम्बन्धसे वह उसीको भजता है। तात्पर्य यह कि जो जैसी शुभ-अशुभ कामना करता है, वैसे ही देवताकी वह पूजा करता है ||३||

जब तुमने जबर्दस्ती अपनी भुजाओंका सहारा देकर मुझे रख लिया है, तो सेवा न करनेपर भी तुम्हें सेवकहीकी तरह उसका पालन करना चाहिये ॥४॥

भूल-चूक और चंचलता सब मेरी ही है, तुम तो बड़े और बड़ाईके योग्य हो । आदर करनेसे नीच लोग नीचता करनेमें ढीठ हो जाते हैं ।।५।।

हे बन्दियोंको छुड़ानेवाले हनुमान्जी ! वेद और शास्त्रने तुम्हारी गुण-गाथा गायी है। तुलसी दासको केवल तुम्हारी ही अच्छाई भली है। यानी तुम दयालु हो, अतः तुलसी दासका कल्याण हो जायगा॥६॥

विनय-पत्रिका हनुमत स्तुति पद 36 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

मंगल-मूरति मारुत-नंदन । सकल-अमंगल-मूल-निकंदन ॥१॥

पवनतनय संतन हित-कारी । हृदय विराजत अवध-विहारी ॥२॥

मातु-पिता, गुरु, गनपति, सारद । सिवा-समेत संभु, सुक, नारद ॥३॥

चरन बंदि बिनवौं सब काहू । देहु रामपद-नेह-निबाहू ॥४॥

वंद राम-लखन-चैदेही । जे तुलसी के परम सनेही ॥५॥

शब्दार्थ

निकंदन- उखाड़नेवाला । सिवा- पार्वती । सुक – शुकदेवजी। निवाहू = निर्वाह।

भावार्थ

हे पवनकुमार ! तुम मंगलमूर्ति हो और सब संकटोंको जड़से उखाड़ देनेवाले हो ॥१||

हे हनुमानजी ! तुम साधु पुरुषों का हित करनेवाले हो । तुम्हारे हृदयमें रामचन्द्रजी सदा निवास करते हैं ।।२।।

माता, पिता, गुरु, गणेश, सरस्वती, पार्वतीके सहित शिव, शुकदेव तथा नारदके ||३||

चरणोंकी वन्दना करके सब लोगोंसे मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि रामजीके चरणों में मेरा जो प्रेम है, उसका निर्वाह हो जाय ||४||

मैं राम, लक्ष्मण और जानकीजीकी बन्दना करता हूँ, क्योंकि ये तुलसीदासके परम स्नेही हैं ।।५।।

विशेष –

गुसाईजीने इस पदमें हनुमानजी, माता-पिता, गुरु, गणेश, शारदा, शिवपार्वती, शुकदेव, नारदादिके चरणों की वन्दना करके रामपद-प्रेम माँगा है। अन्तमें उन्होंने राम-लक्षण-सीताकी भी वन्दना कर सूचित किया है कि अव आगेके पदोंमें केवल लक्ष्मण, जानकी और रामकी वन्दना की जायगी ।

विनय-पत्रिका लक्ष्मण स्तुति पद 37 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

लाल लाडिले लखन, हित हौ जनके ।
सुमिरे संकटहारी, सकल सुमंगलकारी,
पालक कृपालु अपने पनके ॥१॥

धरजी-धरनहार संजन-भुवनभार,
अवतार साहसी सहसफन के।
सत्यसंध, सत्यव्रत, परम धरमरत,
निरमल करम वचन अरु मनके ॥२॥


रूप के निधान, धनु-बान पानि, तून कटि,
महावीर विदित, जितैया बड़े रन के।
सेवक-सुख-दायक, सबल, सब लायक,
गायक जानकीनाथ गुनगनके ॥३॥


भावते भरत के, सुमित्रा-सीता के दुलारे,
चातक चतुर राम स्याम घनके।
बल्लभ उर्मिला के, सुलभ सनेह बस,
धनी धन तुलसी से निरधन के ॥४॥

शब्दार्थ-

लाडिले = दुलारे । सहसफन= शेषनाग । तून- तरकस । धन= बादल । बल्लम-पति।

भावार्थ-

हे लाड़ले लखनलाल ! तुम राम-भक्तोंका हित करनेवाले हो । याद करनेपर संकट हर लेते हो और सब तरहसे कल्याण करते हो। तुम अपनी प्रतिज्ञाको पालनेवाले तथा कृपालु हो ॥१॥

तुम पृथिवीको धारण करनेवाले तथा चौदहो भुवनॊका भार दूर करनेवाले पराक्रमी शेषनागके अवतार हो। तुम अपने प्रण और व्रतको सत्य करनेवाले, धर्ममें अत्यन्त रत तथा निर्मल मन,वचन और कर्मवाले हो ||२||

तुम सुन्दरताके घर हो, हाथमें धनुष-बाण लिये रहते हो, कमरमें तरकस कसे रहते हो, विख्यात महायोद्धा हो और बड़े-बड़े युद्धोंमें विजय-लाभ करनेवाले हो | तुम सेवकोंको सुख देनेवाले, महा बलवान् , प्रकारसे योग्य तथा जानकीनाथके गुणोंका गान करनेवाले हो ॥३।।

तुम भरतजीके प्रिय, सुमित्रा और सीताजीके दुलारे तथा रामरूपी श्यामघनके चतुर चातक हो । तुम महाराणी उर्मिलाके पति हो, प्रेमसे सहजमें मिलनेवाले हो और तुलसीदास-जैसे निर्धनको राम-पद-प्रेमरूपी धन देनेके लिए बड़े धनी हो ॥४॥

विशेष

1-‘धरनी-धरनहार-लक्ष्मणजी शेषावतार हैं। पुराणों में लिखा है कि यह पृथिवी वासुकिनागके फनपर स्थित है। इसीसे लक्ष्मणजीको ‘धरनी-धरन- हार’ कहा गया है।

२–’रूपके निधान’–इनकी सुन्दरताके सम्बन्धमें लिखा है:-

कहा एक मैं आजु निहारे । जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे ।

भरत रामहीको अनुहारी । सहसा लखि न सकहि नर-नारी ॥

रुखन सत्रुसूदन इक रूपा | नख सिखतें सब अंग अनूपा ।

मनभावहिं मुख बरनि न जाहीं । उपमा कहँ त्रिभुवन कोउ नाहीं ।

-रामचरितमानस !

विनय-पत्रिका लक्ष्मण स्तुति पद 38 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जयति लछमनानंत भगवंत भूधर, भुजग-
राज भुवनेस, भूभारहारी।
प्रलय-पावक-महाज्वालमाला-वमन,
समन-संताप लीलावतारी ॥१॥


जयति दासरथि, समर-समरथ, सुमित्रा-
सुवन, सत्रुसूदन, राम-भरत बंधो।
चारु-चंपक-वरन वसन-भूषन-धरन,
दिव्यतर, भव्य, लावन्य-सिन्धो ॥२॥


जयति गाधेय-गौतम-जनक-सुख-जनक,
विस्व-कंटक-कुटिल-कोटि-हंता ।
वचन-चय-चातुरी-परसुधर गरब-हर,
सर्वदा राम भद्रानुगंता ॥३॥


जयति सीतेस-सेवा सरस, विषय रस-
निरस, निरुपाधि धुरधर्मधारी ।

विपुलवलमूल सार्दूल विक्रम जलद-
नाद-सर्दन, महावीर भारी ॥४॥


जयति संग्राम-सागर-भयंकर-तरन,
रामहित-करन
वरबाहु-सेतू ।
उर्मिला-रवन, कल्याण-मंगल-भवन,
दास तुलसी-दोष-दवन-हेतू ॥५॥

शब्दार्थ-

ज्वालमाला = लपटें । वमन – उगलना। दासरथि = दशरथके पुत्र । गाय-गाधिके पुत्र विश्वामित्र । जनक = उत्पन्न करनेवाले । कंटक = काँटा । कुटिल = चय – समूह । परसुधर = परशुराम । भद्र= कल्याणरूप। अनुगंता= पीछे-पीछे चलनेवाले । सरस = रत । निरस= उदासीन । सार्दुल =सिंह । तरन = पार करनेवाले ।

भावार्थ-

जय हो ! हे लक्ष्मणजी, आप अनन्त, ऐश्वर्यवान् , पृथिवीको धारण करनेवाले शेषनाग, समस्त संसारके स्वामी, पृथ्वीका भार उतारनेवाले, प्रलयकालकी अग्निकी विकराल लपटें उगलनेवाले तथा लीलापूर्वक अवतार लेकर संसारके दुःखोंका नाश करनेवाले हैं ॥१॥

हे दशरथके पुत्र लक्ष्मणजी ! आपकी जय हो । आप युद्ध में समर्थ, सुमित्रा के पुत्र, शत्रुघ्न, राम और भरतके भाई हैं । हे सौन्दर्यके समुद्र लक्ष्मणजी ! आपके सुन्दर शरीरका रंग चम्पा-गुष्पके समान है; आप अत्यन्त दिव्य वस्त्र और आभूषण धारण किये रहते हैं ॥२॥

आपकी जय हो ! आप विश्वामित्र, गौतम, महाराज जनकको आनन्द देनेवाले, संसारके कंटकस्वरूप करोड़ों कुटिलोंका हनन करनेवाले, चातुरीपूर्ण बातोंसे ही परशुरामजीका गर्व हरनेवाले तथा सर्वदा कल्याणरूप रामजीके पोछे-पीछे चलने- वाले हैं ।।३।।

जय हो ! आप रामचन्द्र जीकी सेवामें रत तथा विषय-रससे उदा- सीन रहनेवाले, उपाधि-रहित या कामना-रहित धर्मकी धुरीको धारण करनेवाले, अपार बलके मूल स्थान, सिंहवत् पराक्रमबाले, मेघनादका मर्दन करनेवाले तथा बहुत बड़े महावीर हैं ॥४॥

जय हो ! आप भयंकर युद्धरूपी समुद्रको पार करने- वाले, रामजीकी भलाई करनेके लिए आपकी श्रेष्ठ भुजाएँ पुलस्वरूप हैं। हे उर्मिलानाथ ! आप कल्याण और मंगलके घर हैं तथा तुलसीदासके दोषोंको नाश करनेके मुख्य कारण हैं | ॥५॥

विशेष

१-‘गाधेय गौतम ‘जनक’-लक्ष्मणजीने सुबाहु आदि राक्षसोंको मार- कर विश्वामित्रको, रामचन्द्र द्वारा अहल्याको शापमुक्त कराकर गौतमको तथा जनकपुरमें धनुष-यज्ञके समय निराश महाराज जनकको साहस देकर आनन्द प्रदान किया था।

२–सीतेस सेवा निरस’-लक्ष्मणजी भगवान् रामचन्द्रकी सेवामें इस प्रकार तल्लीन रहते थे कि उन्होंने संसारमें और किसीको कुछ समझा ही नहीं। उन्होंने वनवासके समय १४ वर्षतक अखंड ब्रह्मचर्य निभाया था । विषय- वासनाओंसे वह किस प्रकार उदासीन रहते थे, उनमें कितनी अपूर्व निष्ठा थी, इसका मुख्य प्रमाण नीचेकी कथा है-

मेघनादको वर था कि जो आदमी बारह वर्ष अन्न, नींद और स्त्री-प्रसंग त्याग किये रहेगा, वही उसका वध कर सकेगा। उसने इस वरदानकी बात अपनी स्त्री सुलोचनासे कही थी । अतः जब उसकी कटी हुई भुजा सुलोचनाके सामने आकर गिरी, तब उसने विलापके साथ कहा, यह क्या हो गया? उस समय मेघनादकी भुजाने लिख दिया कि मेरा वध लक्ष्मणजीने किया है। वह अगणित वर्षतक ब्रह्मचर्यका पालन कर चुके हैं । उनकी महिमाका वर्णन करना शेष और शारदाके लिए भी असम्भव है।

विनय-पत्रिका भरत स्तुति पद 39 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जयति भूमिजारमन-पदकंज-मकरंद-रस-रसिक-मधुकर भरत भूरिभागी
भुवन-भूषन-भानु-बंस-भूषन, भूमिपालमनि रामचन्द्रानुरागी ॥१॥


जयति विवुधेस-धनदादि दुर्लभ महाराज-सम्राज-सुख-प्रद-विरागी।
खड्ग-धारावती-प्रथम रेखा प्रगट सुद्धमति-जुवति पति-प्रेमपागी ॥२॥


जयति निरुपाधि भक्तिभाव-जंत्रित-हृदय,बंधु-हित चित्रकूटादिचारी
पादुका नृप-सचिव-पुहुमि-पालक परम धरम-धुर-धीर वरवीर भारी३

जयति संजीवनी-लमय-संकट हनूपान धनुवान-महिमा वखानी ।
बाहुबल विपुल परमिति पराक्रम अतुल, गूढ़ गति जानकी-जान जानी

जयति-रन-अजिर गंधर्व-गन-गर्वहर फिर किये राम गुनगाथ-गाता ।
मांडवी-पित्त-शतक-गमकुव-धरल, सरन तुलसीदास अभय-दाता॥५॥

शब्दार्थ-

भूरि- =बहुत । विबुधेस = इन्द्र । धनदादि = कुरेर इत्यादि । महाराज सम्राज = महासाम्राज्य । प्रेमगामी = तल्लीन । जंत्रित= वशीभूत । चित्रकूटाद्रि (चित्रकूट+ अद्रि) =चित्रकूट पर्वत । पादुका खड़ाऊँ। पुहुमि= पृथिवी । परमिति-प्रमाण जानको- जान= रामचन्द्र । रन-अजिर= रणांगण, युद्धभूमि । गाता= गानेवाला, गायक । मांडवी = भरतजीकी अर्धाङ्गिनी । नवांबुद (नव+अम्बुद) = नवीन मेघ ।

भावार्थ-

श्रीरामजीके चरणारविन्दोंका मकरन्द पान करनेके रसिक भ्रमर तथा अत्यन्त भाग्यशाली भरतलालकी जय हो ! आप संसारके भूपणस्वरूप सूर्य- वंशके आभूषण हैं, और राजाओंमें शिरोमणि रामचन्द्रजीके प्रेमी हैं ॥१

आपकी जय हो ! आपने ऐसे सुखप्रद महासाम्राज्यको छोड़ दिया, जो इन्द्र और कुबेर आदिके लिए भी अत्यन्त दुर्लभ है। आप तलवारकी धारके समान व्रतो महात्मा ओं- में सर्वश्रेष्ठ समझे जाते हैं, और आपको शुद्ध बुद्धि-रूपी युवती स्त्री रामरूपी पतिके प्रेममें तल्लीन है ||२||

आपकी जय हो ! आप निष्काम भक्तिभावके वशी- भूत हृदयसे प्रिय भाई रामचन्द्र के लिए चित्रकूट पर्वतपर पैदल गये, रामजीके पादुका-रूपी राजाके मंत्री बनकर पृथिवीका पालन करते रहे तथा परमधर्मके धुरीको धारण करनेवाले एवं बड़े भारी वीर हैं ।।३||

जय हो ! संजीवनी बूटी लाते समय संकट आनेपर हनुमान्जीने आपके धनुषबाणकी महिमाका बखान किया था, आपके बाहुबलकी अधिकता और अतुलित पराक्रमका यही प्रधान प्रमाण है। आपकी गुढगति केवल जानकी वल्लभ रामजी जानते हैं ॥४॥

आप युद्ध-स्थानमें गन्धौंका गर्व हरनेवाले तथा फिरसे उन्हें भी रामजीकी गुणावलीके गायक बनानेवाले हैं। आप महाराणी मांडवीके चित्त-चातकके लिए नवीन मेघवर्ण हैं और शरणागत तुलसीदासको अभयदान देनेवाले हैं। आपकी जय हो!

विशेष –

‘पादुका नृप साचिव’-भरतजी प्रतिदिन श्रीरामजीकी पादुकाका पूजन करते थे और जबतक रामजी वनवास समाप्त करके अयोध्यापुरी, नहीं आये तबतक उस पादुकासे आज्ञा लेकर मन्त्रीकी भाँति राज्यकार्य करते रहे।

२-‘संजीवनी-समय-संकट’-हनुमान्जी मूछित लक्ष्मणजीके लिए संजीवनी बूटी लेकर आकाश मार्गसे लौट रहे थे। भरतजीने उन्हें देखकर यह अनुमान किया कि कोई मायावी राक्षस जा रहा है। इसलिए उन्होंने हनुमान्- जीपर एक बाण चला दिया ।

बाण लगते ही वह ‘हा राम ! हा राम !’ कहते हुए जमीनपर गिर पड़े। राम शब्द सुनते ही भरतजीको बड़ा दुःख हुआ । उन्होंने सोचा कि यह तो राक्षस नहीं, कोई रामभक्त है । अतः तुरन्त ही उन्होंने दौड़कर हनुमान्जीको उठाकर हृदयसे लगा लिया। उसी समय हनुमान्जीने उनके बाणकी महिमा कही थी।

३-‘गूदगति “जानी’-इस विषयमें जनकजीने महाराणी सुनयनासे भात महामहिमा सुनु रानी । जानहिं राम न सकहिं बखानी ॥ (रामचरितमानस)

४-गन्धर्व गन गर्वहर’-एक बार गन्धवौंने भरतजीके ननिहाल केकय देशपर जिसे आजकल कश्मोर कहते हैं-आक्रमण किया था। भरतजीने जाकर उन्हें हराया और उन गन्धोंको-जो कि रामचन्द्रजीके विमुख थे-रामगुण- गायक बना दिया।

विनय-पत्रिका शत्रुघ्न स्तुति पद 40 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जयति जय सत्रु-करि-केसरी सत्रुहन, सत्रुतम-तुहिनहर किरनकेतू ।
देव-महिदेव-महि-धेनु-सेवक सुजन-सिद्ध-मुनि-सकल-कल्यान-हेतू ॥१॥


जयति सर्वांग सुन्दर सुमित्रा-सुवन, भुवन विख्यात-भरतानुगामी ।
वर्म चर्मासि-धनु-बान-तूनीर-धर सत्रु-संकट-समन यत्प्रनामी ॥२॥

जयति लवनाम्बुनिधि कुंभ-संभव महादनुज-दुर्जन दवन, दुरितहारी।
लक्ष्मणानुज, भरत-राम-सीताचरन-रेनु-भूपित-भाल-तिलकधारी॥३॥


जयति तिकीर्ति-वल्लभ सुदुर्लभ सुलभ नमत नर्मद मुक्ति मुक्तिदाता
दास तुलसी चरन-सरन सीदत विभो पाहि दीनार्त-संताप-दान ॥४॥

शब्दार्थ-

करि-हाथी । किरन-केतू = किरणोंकी ध्वजा यानी सूर्य । महिदेव = ब्राह्मण । वर्म = कबच । चर्मासि= (चर्म+असि) ढाल और तलवार । लवनाम्बुनिधि= (लवण+ अम्युनिधि) लवणासुररूपी समुद्र । कुंभ संभव = अगस्त्य ।दुरित = पाप । श्रुतिकीति- शत्रुघ्न- जीकी स्त्री । नर्मद-सुखदाता। सीदत-दुख पा रहा है।

भावार्थ-

शत्रुरूपी हाथियोंका नाश करनेके लिए सिंहवत् नजीकी जय हो, जय हो ! आप शत्रुरूपी अन्धकार और पालेका हरण करनेके लिए साक्षात् सूर्य हैं | आप देवता, ब्राह्मण, पृथिवी, गऊ, भक्त, संत, सिद्ध और मुनियों का कल्याण करनेवाले हैं। ॥१॥

आपका अंग-प्रत्यंग सुन्दर है; आप सुमित्राके पुत्र हैं और भरतजीकी आज्ञाके अनुसार चलनेवाले हैं यह बात जगत् विख्यात है । जय हो ! आप कवच, ढाल, तलवार, धनुप, बाण और तरकस धारण करनेवाले तथा शत्रुओं द्वारा आये हुए संकटका नाश करके उनसे प्रणाम करानेवाले या उन्हें अपने पैरोंपर गिरानेवाले हैं ॥२॥

आप लवणासुररूपी समुद्रको पान कर जानेवाले अगस्त्यके समान हैं । आप बड़े-बड़े राक्षसों और दुष्टोंका संहार करनेवाले तथा पापोंका हरण करनेवाले हैं। आपकी जय हो ! आप लक्ष्मण- जीके छोटे भाई तथा भरत, राम और सीताकी चरण-रजका तिलक अपने सुन्दर मस्तकपर धारण करनेवाले हैं ।।३।।

हे श्रुतिकीर्ति-वल्लभ ! आपकी जय हो । आप ईश्वर-विमुखों के लिए दुर्लभ और भक्तों के लिए सुलभ हैं, प्रणाम करते ही सुख देनेवाले तथा भोगैश्वर्य और मुक्ति देनेवाले हैं । हे विभो ! तुलसीदास आपके चरणों की शरणमें आनेपर दुःख पा रहा है। हे दीनों और आत्तोंका दुःख दूर करनेवाले शत्रुघ्नजी मेरी रक्षा कीजिये ॥४॥

विशेष

1-लवणासुर मथुराका राजा था। इसके अत्याचारोंसे गो-ब्राह्मण तथा संत-महात्मा तंग आ गये थे। शत्रुघ्नने उसका वध करनेके लिए रामचन्द्रजीसेआज्ञा माँगी, आज्ञा पाते ही उन्होंने मथुरामें जाकर उसका वध करके प्रजाकी दुश्चिन्ता दूर कर दी।

२-‘यत्प्रणामी श्री वियोगीहरिने इसका अर्थ किया है ‘उस शत्रुघ्नजीको मैं प्रणाम करता हूँ।’ किन्तु इसका शाब्दिक अर्थ है ‘जिसमें प्रणाम करनेकी क्षमता हो । जैसे नाम और नामी है, वैसे ही प्रगाम और प्रगामी है।

विनय-पत्रिका श्री सीता स्तुति पद 41 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

कबहुँक अंब, अवसर पाइ।
मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन-कथा चलाइ ॥ १ ॥


दीन, सब अँगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ ॥ २॥


बूझिहैं ‘सो है कौन’, कहिबी नाम दसा जनाइ।
सुनत राम कृपालु के मेरी बिगरिऔ बनि जाइ ॥ ३ ॥


जानकी जगजननि जन की किये वचन सहाई।
तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ ॥ ४॥

शब्दार्थ-

अंब = माता । घाइदी = दिलाना। अघी = पापी । अघोइ = परिपूर्ण । विगरिऔ-बिगड़ी हुई बात भी । जनदास । तब = तुम्हारे ।

भावार्थ-

कभी अवसर मिलनेपर कुछ कारुणिक बात चलाकर प्रभुजीको मेरी भी याद दिलाना ॥१॥

कहना, एक दीन, सर्वसाधनोंसे रहित, कृश, मलिन और पूरा पापी मनुष्य अपनेको आपकी दासी (तुलसी) का दास (तुलसीदास) कहलाकर आपका नाम लेकर यानी आपका भक्त बननेका ढोंग रचकर पेट भरता है ॥२॥

किन्तु यदि प्रभुजी पूछे कि वह कौन है, तब तुम मेरा नाम और (ऊपर कहे अनुसार) मेरी दशा उन्हें बताना । कृपालु प्रभुजीके इतना सुन लेनेसे ही मेरी बिगड़ी हुई बात भी बन जायगी ॥३॥

हे जगज्जननी हे माता,जानकीजी ! यदि आप इस दासको वचन द्वारा इतनी सहायता कर देंगी, तो तुलसीदास आपके स्वामोकी गुण-गाथा गा-गाकर भव-सागरसे पार हो जायगा- तर जायगा ||४||

विशेष

१-किये वचन सहाई’–में गोस्वामीजीका गूढ़ रहस्य भरा हुआ है। वास्तवमें महारानीजीके कहनेमात्रसे ही मनुष्यको परमात्माकी समीपता प्राप्त हो जाती है। क्योंकि वह किसी के सम्बन्धमें श्रीरमजीसे तभी कहेंगी, जब उनमें उसके प्रति दया उत्पन्न होगी, और उनमें दया उत्पन्न होनेपर श्रीरामजी- के हृदयमें दया उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

कारण यह कि श्रीसीता और रामका अभेदसम्बन्ध है। देखियेः- गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न । बंटौं सीताराम पद, जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न । -रामचरितमानस । इस पदमें करुण-रसकी अपूर्व और अटूट धारा है।

विनय-पत्रिका श्री सीता स्तुति पद 42 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

कवहुँ समय सुधि द्याइबो, मेरी मातु जानकी
जन कहाइ नाम लेत हो किये पन चातक ज्यों, प्यास प्रेम-पान को ॥१॥


सरल प्रकृति आपु जानिये करुना निधान की।
जिन गुन, अरिकृत अनहितो,दास-दोष सुरति चित रहत न दिये दानकी

बानि बिसारनसील है मानद अमान की।
तुलसीदास न बिसारिये, मन करम बचन जाके,सपनेहुँ गति न आनकी

शब्दार्थ-

अरिकृत- शत्रु द्वारा किया हुआ। अनहितौ = अनिष्ट भी। मुरति = स्मरण । विसारनसील = भूलनेको । मानद = मान देनेवाले । अमान = निराहत ।

भावार्थ-

हे मातेश्वरी जानकी, कभी समय पाकर भगवान् को मेरी सुध कराना । मैं चातक की भाँति प्रणपूर्वक उनका दास कहाकर उनका नाम जप रहा हूँ। मुझे उनका प्रेम-रस पीने की प्यास है ॥१॥

करुणा-निधान श्रीराम- जी के सरल स्वभाव को आप जानती हैं । उन्हें अपना गुण, सेवक का अपराध दिये हुए दान तथा शत्रु द्वारा किये हुए अनिष्टों का भी स्मरण नहीं रहता ॥२॥

उनकी आदत ही भूल जाने की है। जो प्राणी कहीं भी सम्मान नहीं पाता, उसे भी वह मान दिया करते हैं । जिस तुलसीदास को मन, वचन और कर्म से स्वप्न में भी दूसरे का सहारा नहीं है, उसे वह (अपने भुलक्कड़ स्वभावानुसार) भूल न जाय ॥३॥

विशेष –

‘अनहितौ’-इस शब्द में कवि ने भगवान् के करुणानिधानत्व की सार्थकता दिखलायी है। इसी से उसने इस पर विशेष जोर देने के लिए ‘अरिकृत अनहितौ’ यानी ‘शत्रु द्वारा किये हुए अनिष्टों को भी’ लिखा है । ‘भी’ से सूचित हो रहा है कि और बातों का भूल जाना तो साधारण बात है, पर शत्रु द्वारा किये अनिष्टों को भूल जाना कारुणिकता को पराकाष्ठा है।

विनय-पत्रिका श्रीराम स्तुति पद 43 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जयति सच्चिद्व्यापकानन्द परब्रह्म-पद, विग्रह-व्यक्त लीलावतारी ।
विकल ब्रह्मादिसुर सिद्ध संकोचबस, विमल गुन-गेह नर-देह-धारी ॥१॥


जयति कोसलाधीस-कल्यान कोसलसुता,कुसल कैवल्य-फल चारुचारी
वेद बोधित करम-धरम-धरनी-धेनु, विप्र सेवक साधु-मोदकारी ॥२॥


जयति ऋषि-मखपाल,समन सजन-साल, सापबस मुनि-वधू पापहारी।
भंजि भव-चाप, दलि दाप भूपावली, सहित भृगुनाथ नतमाथ भारी॥३


जयति धारमिक-धुर, धीर रघुवीर गुरु-मातु-पितु-बंधु-वचनानुसारी ।
चित्रकूटाद्रि विन्ध्याद्रि दंडक विपिन, धन्यकृत पुन्यकानन बिहारी ४


जयति पाकारिसुत-काक करतूति-फलदानि खनि गर्त्त गोपित विराधा
दिव्य देवी वेष देखि लखि निसिचरी जनु विडंबित करी विस्ववाधार

जयति खर-त्रितिर-दूएन चतुर्दस-सहस-सुभट-मारीच-संहारकर्ता ।
गृध्र-सवरी-भगति-विवस करुनासिंधु,चरित निरुपाधि, त्रिविधार्तिहर्ता


जयति मद-अंध कुकवंधवधि, वालि वलसालि बधि, करन सुग्रीव राजा
सुभट सर्कट भालु-कटक संघट सजत, नमत पद रावनानुज निवाजा॥७

जयति पाथोधि-कृत-सेतु कौतुक हेतु, काल-मन-अगम लइ ललकि लंका
सकुल, सानुज,सदल दलित दसकंठ रन, लोक-लोकप किये रहित-संका


जयति सौमित्रि-सीता-सचिव-सहित चले पुष्पकारूढ़ निज राजधानी ।
दास तुलसी मुदित अवधवासी सकल, राम भे भूप वैदेहि रानी ॥९॥

श्री राम स्तुति
श्री राम स्तुति

शब्दार्थ-

व्यक्त-प्रकट । कोसलाधीस-दशरथ । कोसलसुता कौशल्या । बोधित = विहित । मखपाल = यशकी रक्षा करनेवाले । साल = पीड़ा देनेवाले, चुभनेवाले । पाकारिसुत= इन्द्रका पुत्र जयन्त । काक = को भा । खानिखोदकर । विराधा (विराध) = एक राक्षस । मर्कट-बन्दर । कटक सेना। सजत= सुसज्जित करना। निबाजा-निहाल किया । ललकि धुनमें आकर । सकुल = कुलके सहित । वैदेहि = जानकीजी ।

भावार्थ-

सत्, चित्, व्यापक और आनन्दस्वरूप परब्रह्म उपाधिधारी श्री रामजीकी जय हो ! आपने लीला करने के लिए ही व्यक्त अर्थात् साकार शरीरमें अवतार लिया है । आप व्याकुल ब्रह्मा आदि देवताओं तथा सिद्धोंके संकोचवश विशुद्ध गुणविशिष्ट मानव-शरीर धारण करनेवाले हैं ॥१॥

आपकी जय हो ! आप महाराज दशरथके कल्याणार्थ तथा महारानी कौशल्याकी कुशलके लिए मोक्षके सुन्दर चार फल हैं। (अर्थात् राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न चारों भाई सारूप्य, सामीप्य, सायुज्य और सालोक्य मुक्तियों के रूपमें उत्पन्न हुए हैं।) आप वेद-विहित धर्म-कर्म तथा पृथिवी, गो, ब्राह्मणके सेवकों और साधुओंको आनन्दित करनेवाले हैं ॥२॥

आपकी जय हो ! आप ब्रह्मर्षि विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षा करनेवाले, साधु-महात्माओंके पीड़कोंका नाश करनेवाले तथा शापके कारण पत्थरके रूपमें पड़ी हुई गौतम-पत्नी अहिल्याको पापमुक्त करनेवाले हैं। आप शिवजीके धनुषको तोड़कर राजाओंके दर्पको चूर्ण करनेके साथ ही परशुरामके उन्नत मस्तकको नीचे झुकानेवाले हैं ॥३।।

आपकी जय हो ! आप गुरु, माता, पिता और भाईके वचन माननेवाले, धार्मिकताके धुरा, धीर और रघुकुलमें असाधारण वीर हैं। आपने चित्रकूटपर्वत और विन्ध्य पर्वतको धन्य कर दिया है और दंडक बनमें विहार करके उसे पुनीत बना दिया है ॥४॥

हे काकवेषी इन्द्रके पुत्र जयन्तको उसकी करनीका फल देनेवाले, गड्ढा खोदकर विराध राक्षसको गाड़नेवाले तथा दिव्य देवीके वेधमें सूर्पणखाको देखते ही पहचानकर मानो संसारके बाधास्वरूप रावणको अपमानित करनेवाले (सूर्पणखा-की नाक और कान काटनेवाले) श्रीरामचन्द्रजी ! आपकी जय हो ! ॥५॥

आप खर, त्रिशिरा, दूषण, उनकी चौदह हजार सेना तथा मारीचके संहारकर्ता हैं । आप गृद्ध और शबरीकी भक्तिके वशमें हो जानेवाले, करुणाके समुद्र, निष्कलंक चरित्रबाले तथा तीन प्रकारके (दैहिक, दैविक, भौतिक) दुःखोंको हरनेवाले हैं ॥६॥

आपकी जय हो ! आपने मदान्ध और दुष्ट कबन्धको माग तथा महाबलवान् बालिका वध करके सुग्रीवको राजा बनाया। आपने अच्छे-अच्छे योद्धा बन्दरों और रीछोंकी सेना संघटित करके सजायी और पैरोंपर गिरते ही बिभीषणको निहाल कर दिया ||७||

जय हो ! आपने लीलाके ही लिए समुद्रपर पुलका निर्माण किया, जो लंकापुरी कालके मनके लिए भी अगम थी, उसे आप धुनमें आकर ले बीते और कुल-सहित, भाई-सहित और दल-बल-सहित रावणको रणभूमिमें कुचलकर तीनों लोकों एवं इन्द्र-कुबेरादि लोकपालोंको निःशंक कर दिया ||८||

श्रीरामजीकी जय हो ! (उसके बाद) आप लक्ष्मण, सीता और सुग्रीव हनुमान् आदि मंत्रियों सहित पुष्पक विमानपर बैठकर अपनी राजधानी अयोध्या- को चले । तुलसीदास कहते हैं कि रामचन्द्रजीके राजा होनेपर तथा सीताजीके रानी होनेपर समस्त अयोध्यानिवासी आह्लादित हो गये ॥९॥

विशेष —

गुसाईंजीने इस पदमें रामावतारके चरित्र का आद्योपान्त स्मरण किया है। यहाँ रामावतारकी एक भी मुख्य घटना छूटने नहीं पायी है।

२-‘ऋषि-मखपाल’–विश्वामित्र के आश्रमके पास राक्षसोंने इतना उत्पात मचा रखा था कि वह बेचारे निर्विन तपस्या ही नहीं करने पाते थे। अतः वह यज्ञकी रक्षाके लिए राम-लक्ष्मणको अयोध्यासे अपने आश्रममें ले गये । रामजी- ने लक्ष्मणको साथ लेकर मुनिके यज्ञकी रक्षा की और बहुत-से उत्पाती राक्षसों- को मार डाला।

३-‘मुनिवधू पापहारी’-परम सुन्दरी अहिल्या गौतम ऋषिकी स्त्री थी। एक दिन सन्ध्याके समय जब कि गौतम ऋषि सन्ध्यावन्दनके निमित्त बाहर गये थे, देवराज इन्द्र गौतमका रूप धारण करके अहिल्याके पास पहुँचा । वह उसके सौन्दर्यपर मुग्ध था। उसके रतिदान माँगनेपर पहले तो अहिल्यानेकुसमय समझकर अस्वीकार कर दिया, पर पातिव्रत धर्म समझकर पीछे उसे उसके प्रस्तावसे सहमत होना पड़ा । सम्भोगके बाद ही गौतम ऋपि आ गये। उन्होंने योगबलसे सब रहस्य जान लिया और शुद्ध होकर इन्द्रको शाप दिया कि तेरे एक सहस्र भग हो जाय, तथा अहिल्याको शाप दिया कि तू पत्थर हो जा। पश्चात् जब उनका क्रोध शान्त हुआ तो उन्होंने दोनोंके शापका प्रतिकार बतलाया । कहा, जब श्रीरामजी शिव-धनुपको तोड़ेंगे, तब इन्द्र के सहन भग सहस्र-नेत्रोंके रूपमें परिणत हो जायेंगे और श्रीरामजीके चरणस्पर्शसे अहिल्या- का उद्धार हो जायगा।

४-‘भृगुनाथ नतमाथ’-रामजीके धनुष तोड़नेपर परशुरामने आकर बहुत क्रोध किया था। उन्हें अपने वल-वीर्यका बड़ा घमण्ड था । उन्होंने इक्कीस बार क्षत्रिय राजाओंको जीतकर समूची पृथिवीका दान कर दिया था। किन्तु रामजीके सामने अन्तमें उन्हें भी सिर झुकाना पड़ा था।

५-‘पाकारिसुत’–इन्द्रका पुत्र जयन्त कौएका वेष धारण करके श्रीरामजीका बल देखने आया और सीताके चरणों में चोंच मारकर भागा। श्रीरामजीने सींकका धनुष-बाण बनाकर उसे मारा । उसने नकली वेष धारण किया था, इसलिए श्रीरामजीने उसपर नकली बाण चलाकर ही अपने बाणके प्रभुत्वका दिग्दर्शन कराना उचित समझा। अभागा जयन्त व्याकुल होकर भागने लगा, पर जब पीछे फिरकर देखता तो बाण उसके पीछे लगा रहता । ब्रह्मलोक, शिवलोक, इन्द्रपुर तथा और तमाम लोकोंमें घूम आया, किन्तु कहीं उसे शरण न मिली । अन्तमें उसे श्रीरामजीकी शरण लेनी पड़ी। भगवानको दया आ गयी, अतः उन्होंने उसके प्राण नहीं लिये, केवल एकाक्ष करके छोड़ दिया । कहते हैं तभीसे कौओंके एक ही पुतली होती है।

६-विराध और कबन्ध ये दोनों राक्षस थे। भगवान्ने इनका वध किया था।

O ७-‘दिव्य देवी वेष देखि लखि निसिचरी’ में ‘देखि’ ‘लखि’ ये दोनों शब्द एक ही अर्थके बोधक होनेके कारण पुनरुक्तिसे दूषित दिखाई पड़ते हैं; किन्तु यहाँ पुनरुक्ति-दोष नहीं है। देखना, बाह्य चक्षुका विषय है और ‘लखने में मनश्चक्षुके विषयकी झलक है। श्रीरामजीने सूर्पणखाको देवी रूपमें देखा,इसके लिए तो कविने देखि लिखा और यह देवी नहीं सूर्पणखा राक्षसी है, यह जान लिया, इसके लिए उन्होंने ‘लखि’ शब्दका प्रयोग किया । –’करुना’-भक्तवर बैजनाथजी ने ‘करुणा के सम्बन्धमें लिखा है:- सेवक दुखतें दुखित द्वै, स्वामि विकल कै जाइ । दुःख निवारे सीघ्र ही, ‘करुना’ गुन सों आइ ॥

विनय-पत्रिका श्रीराम स्तुति पद 44 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

जयति राज-राजेन्द्र राजीवलोचन, राम,
नाम कलि – कामतरु, साम साली।
अजय-अंशोधि-कुंभज, निसाचर – निकर-
तिमिर घनघोर खर किरनमाली ॥१॥


जयति मुनिदेव नरदेव दशरथके,
देव-मुनिवंद्य किय अवध-वासी ।
लोकनायक-कोक-सोक-संकट-समन,
भानुकुल-कमल-कानन – विकासी ॥२॥


जयति सिंगार-सर तामरस-दामदुति-
देह, गुनगेह, विस्वोपकारी।
सकल सौभाग्य-सौदर्य सुषमारूप,
मनोभव कोटि गर्वापहारी ॥३॥


जयति सुभग सारंग सुनिखंग सायक सक्ति,
चारु चर्मासि वर वर्मधारी।
धर्मधुरधीर, रघुवीर, भुज-बल अतुल,
हेलया दलित भूभार भारी ॥४॥


जयति कलधौत मनि-मुकुट, कुंडल, तिलक,
झलक भलिभाल, विधु-वदन-सोभा।
दिव्य भूपन, बसन पीत, उपवीत,
किय ध्यान कल्यान-भाजन न को भा ॥५॥

जयति भरत-सौमित्रि-सत्रुघ्न-सेवित, सुमुख,
सचिव-सेवक-सुखद, सर्वदाता।
अधम, आरत, दीन, पतित, पातक-पीन
सकृत नतमात्र कहि पाहि पाता ॥६॥


जयति जय भुवन दसचारि जस जगमगत,
पुन्यमय, धन्य जय राम राजा।
चरित-सुरसरित कवि-मुख्य गिरि निःसरित,
पिवत, मज्जत मुदित सँत-समाजा ॥७॥


जयति वर्नास्रमाचारपर नारि-नर,
सत्य – सम-दम-दया-दानसीला ।
विगत दुख – दोष, संतोष सुख सर्वदा,
सुनत, गावत राम राजलीला ॥८॥


जयति वैराग्य-विज्ञान-वारांनिधे,
नमत नर्मद, पाप-ताप-हर्ता ।
दास तुलसी चरन सरन संसय-हरन,
देहि अवलंव वैदेहि-भर्ता ॥९॥

शब्दार्थ-

राजीवलोचन = कमलनेत्र । अनय = अनीति । निकर= समूह । खर- तीक्ष्ण । कोक – चकवा । तामरस-कमल । दाम= माला । मनोभव = कामदेव । सारंग- धनुष । सुनिखंग- सुन्दर तरकस । हेलया= लीलापूर्वक । कलधौत = सुवर्ण । को-कौन । भा= हुआ । पीन= मोटा, पुष्ट । पाता= उद्धार करनेवाले । कविमुख्य = मुख्य कवि बानी आदिकवि महर्षि वाल्मीकि । दानसीला=दानी स्वभाववाले । वारांनिधे = समुद्र । नर्मद = आनन्ददाता।

भावार्थ-

हे श्रीरामजी ! आपकी जय हो! आप राजराजेश्वरों में इन्द्र हैं, आप कमलनेत्र हैं, आपका नाम ‘राम’ कलियुगके लिए कल्पवृक्ष है, आप साम्य भाव रखनेवाले, अनीतिरूपी समुद्रको सोख जानेके लिए अगस्त्य हैं और दानव- दल-रूपी सघनान्धकारका नाश करनेके लिए मध्याह्नकालीन सूर्य हैं ॥१॥

हे मुनि, देवता और मनुष्यों के स्वामी दशरथ-लला! आपकी जय हो! आपने अपनी विभूतिसे अवधवासियोंको ऐसा बना दिया कि देवता और मुनि भी उनकी वन्दना करने लगे । आप लोकपाल-रूपी चक्रवाकोंके शोक-सन्तोपका नाश करनेवाले तथा सूर्यवंश-रूपी कमल-वनको विकसित करनेवाले हैं ।।२।।

जय हो ! आपके शरीरकी शोभा शृंगार-रूपी सरोवरमें उत्पन्न हुए नीले कमलों- को आमाके समान है। आप गुणोंके धाम हैं और संसारका उपकार करनेवाले तथा सब प्रकारके सौभाग्य, सौन्दर्य एवं शोभायुक्त रूपसे करोड़ों कामदेवोंका गर्व हरनेवाले हैं ।। ||

जय हो ! आप सुन्दर धनुष, तरकस, बाण, शक्ति, ढाल, तलवार और श्रेष्ठ कवpचधारी, धर्मका भार वहन करनेमें धीर तथा रघुवंशमें सर्वश्रेष्ठ वीर हैं । आपकी भुजाओंमें अतुलित बल है जो कि लीलापूर्वक पृथिवीके भारी भारस्वरूप राक्षसोंको दलित करनेवाला है ||४||

श्रीरामजीकी जय हो ! आप मणि-जटित सुवर्णका मुकुट और मकराकृति कुण्डल धारण किये हैं। आपके सुन्दर ललाटपर तिलक झलक रहा है। आपके मुखकी शोभा चन्द्रमाके समान है। आप दिव्य आभूषण, पोताम्बर और यज्ञोपवीत धारण किये रहते हैं । आपके इस स्वरूपका ध्यान करके ऐसा कौन है जो कल्याणका भागी नहीं हुआ ॥५॥

जय हो ! आप भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्नसे सेवित एवं सुमुख-सुमंत आदि मन्त्रियों और भक्तोंको सुखदायिनी सब वस्तुएँ देनेवाले, अधम, दुखी, दीन, पतित और महान् पापियोंके केवल एक बार ‘रक्षा करो’ कहकर प्रणाम करनेसे ही उद्धार करनेवाले हैं ||६||

जय हो ! जिनका यश चौदहो भुवनोंमें जगमगा रहा है, जो पुण्यमय और धन्य हैं, उन महाराज श्रीरामजीकी जय हो ! जिनकी कथा-रूपी गंगा आदिकवि महर्षि बाल्मीकि-रूपी पर्वतसे निकली है और जिसे पान करके तथा जिसमें स्नान करके सन्त-समाज हर्षित होता है, उन रामजीकी जय हो ॥७॥

हे रामजी ! आपकी जय हो ! आपके शासनकालमें चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) और चारों आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ, संन्यास) अपने-अपने आचारपर चलनेवाले थे, समस्त स्त्री-पुरुष सत्य, शम, दम, दया और दानी स्वभाववाले, दुःखों और दोपोंसे रहित, सदा सन्तोषी और सुखी थे तथा आपके राज्यकी लीला सुना और गाया करते थे ||८||

हे वैराग्य और विज्ञान के समुद्र श्रीरामजी ! आपकी जय हो ! हे पाप-सन्तापहर्ता ! आप प्रणाम करते ही आनन्द देनेवाले हैं। अतः हे संशयको दूर करनेवाले जानकी- नाथ ! यह तुलसीदास आपकी शरणमें है, इसे अपने चरणोंका सहारा दीजिये ॥

विशेष

१-‘कलधौत मनि-मुकुट’-से सिद्ध होता है कि गोस्वामीजी राज्यसिंहा- सनासीन प्रभुमूर्तिका ही ध्यान करते थे; क्योंकि मुकुट उसी अवस्थाका द्योतक है। उनकी यह भावना अन्य स्थलोंपर भी प्रकट होती है । कविने और भी कई जगह रूपका वर्णन किया है, पर मुकुट-रहित । किन्तु ध्यानके लिए भक्तोंको यही रूप अधिक प्रिय है।

२–’शम-दम-दया दान’-राम नाम है अन्तःकरण, मन, बुद्धि आदिके निग्रहका, दम नाम है बाह्येन्द्रियों (कान आँख आदि) के निग्रहका, दया नाम है मन-वचन-कर्मसे जीवमात्रको पीड़ा न पहुँचाने का और दान नाम है अन्न बस्वादि देनेका ।

३-वारांनिधे-शब्दपर वियोगी हरिजीने यह टिप्पणी दी है:-‘यह पद संस्कृत व्याकरणसे अशुद्ध है। ‘वारिगाम् निधि’ अथवा ‘वारिनिधि’ शुद्ध है…’ (प्रथम संस्करण हरितोषिगी टीका); किन्तु वियोगी हरिजीके इस भ्रमको आचार्य पं० रामचन्द्रजी शुक्लने पुस्तक परिचयमें दूर कर दिया है । ‘वारांनिधि’ शब्द व्याकरणसे अशुद्ध नहीं है । संस्कृतमें ‘वारि’ और ‘वार’ दोनों शब्द जल- वाचक हैं। इस ‘वार’ शब्दका सम्बन्धका रूप ‘वारां’ होगा, जिसमें अलुक् समासकी रीतिसे ‘निधि’ शब्द जोड़ा गया है।

विनय-पत्रिका श्रीराम स्तुति पद 45 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरन भव-भय दारुनं ।
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद कंजारुनं ॥१॥


कंदर्प अगनित अमित छबि, नवनील नीरद सुंदरं ।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि सुचि नौमि जनक-सुतावरं ॥२॥


भजु दीनबंधु दिनेस दानव-दैत्य-स-निकंदनं ।
रघुनंद आनंदकंद कोसलचंद दसरथ-नंदनं ॥३॥

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषनं ।
आजानुभुज सर-चाप-धर, संग्राम-जित-खर दूषनं ॥४॥


इति वदति तुलसीदास संकर-सेष मुनि-मन रंजनं ।
मम-हृदय-कंज-निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ॥५॥

शब्दार्थ-

कंजारुन = (कंज+अरुन) लाल कमल । कन्दर्प= कामदेव । नौरद = बादल । उदारु = सुन्दर । आजानुभुज= घुटनोंतक लम्बी भुजाबाले । रंजन प्रसन्न करने वाले । गंजन – नाशकर्ता।

भावार्थ-

रे मन ! संसारके भयंकर भयको हरनेवाले कृपालु श्रीरामचन्द्रको भज | उनके नेत्र नव-विकसित कमलके समान हैं; मुख कमल-सदृश है; हाथ और चरण भी लाल कमलके सदृश हैं ॥१॥

उनकी छबि अगणित कामदेवोंसे बढ़- कर है और शरीर नवीन नीले मेघ जैसा सुन्दर है। मेघ-रूपी शरीरपर पीताम्बर मानो बिजलीकी तरह चमक रहा है, ऐसे पवित्ररूप जानकीनाथ श्रीरघुनाथजीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥२॥

रे मन ! दीनोंके बन्धु, सूर्य के समान तेजस्वी, दैत्य- दानव-वंशका मूलोच्छेद करनेवाले, आनन्दकन्द कोशलदेश-रूपी आकाशमें चन्द्रमाके समान दशरथ-नन्दन श्रीरामजीका भजन कर ।

वह सिरपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल, मस्तकपर सुन्दर तिलक और मनोहर अंग-प्रत्यंगमें आभूषण धारण करनेवाले, आजानुबाहु, धनुष-बाणधारी तथा संग्राममें खर-दूषणको जीतने- वाले हैं ॥४॥

तुलसीदास इतना ही कहता है कि शंकर, शेष और मुनियोंके मनको प्रसन्न करनेवाले तथा काम-क्रोधादि दुष्टोंका नाश करनेवाले हे रघुनाथ- जी! आप मेरे हृदयकमलमें निवास कीजिये ॥५॥

विशेष

१-‘मम हृदय-कंज””गंजन’-कहनेका आशय यह है कि आप कामादि खल-दल-गंजन हैं, अतः मेरे हृदयसे इन दोषोंको निकाल दीजिये । इनका नाश होते ही मेरा हृदय विकसित हो जायगा। इसीले कवि ने हृदय-कंज का प्रयोग किया है.

विनय-पत्रिका श्रीराम स्तुति पद 46 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

सदा राम जपु, राम जपु, राम जपु, राम जपु,
राम जपु, मूढ़ मन, वार वारं।
सकल सौभाग्य-सुख-खानि जिय जानि सठ,
मानि विस्वास वद वेदसारं ॥ १ ॥


कोसलेन्द्र नव-नीलकंजामतनु,
मदन-रिपु-कंज हृदि-चंचरीकं ।
जानकीरचन सुखभवन भुवनैकप्रभु,
समर-भंजन, परम कारुनीकं ॥२॥


दनुज-धन-धूमधुज पीन आजानुभुज,
दंड-कोदंड वर चंड वानं ।
अरुन कर चरन मुख नयन राजीव,
गुन-अयन, वहु-मयन-सोभा-निधानं ॥३॥


वासनावृंद-कैरव-दिवाकर, काम-
क्रोध-मद-कंज कानन-तुषारं ।
लोभ अति मत्त नागेन्द्र पंचाननं
भक्तहित हरन संसार-भारं ॥४॥


केसवं, क्लेसहं, केस-वन्दित पद-
ढुंद मन्दाकिनी-मूलभूतं ।।
सर्वदानंद-संदोह, मोहापहं
घोर-संसार-पाथोधि-पोतं ॥५॥


सोक-सन्देह-पाथोदपटलानिलं,
पाप-पर्वत-कटिन-कुलिसरूपं ।
संतजन-कामधुक-धेनु, विश्रामपद,
नाम कलि-कलुष-भंजन-अनूपं ॥ ६ ॥

धर्म-कल्पद्रुमाराम, हरिधाम-पथि-
संवलं, मूलमिदमेव एकं ।।
भक्ति-वैराग्य-विग्यान-सम-दान-दम,
नाम आधीन साधन अनेकं ॥ ७॥


तेन तप्तं, हतं, दत्तमेवाखिलं,
तेन सर्व कृतं कर्मजालं।
येन श्रीरामनामामृतं पानकृत-
मनिसमनवद्यमवलोक्य कालं ॥ ८॥


सुपच, खल, भिल्ल, जमनादि हरिलोकगत,
नाम बल विपुल मति मलिन परसी।
त्यागि सब आस, संत्रास, भवपास असि
निसित हरिनाम जपु दास तुलसी ॥९॥

शब्दार्थ-

बद= कह । नव-नीलकंजाभ = नवीन नीले कमलके समान आभा । हृदि = हृदयमें । चंचरीक=भ्रमर । चंड =प्रचंड । कैरव = कुमुदिनी । नागेन्द्र = गजेंद्र । पंचाननं सिंह । क्लेसह = क्लेशहन्ता । केसक+ईश) ब्रह्मा और शिव । संदोह % समूह । पोतं- जहाज । पाथोदपटलानिलं = मेघ समूह के लिए पवनरूप। कल्पद्रुम+ आराम = कल्पवृक्षका बगीचा । संवल = कलेवा, राहखर्च । मूलमिदमेव = (मूलम् इदम् + एव) यही मूल है। पानकृतम् +अनिशं (बारम्बार)+अनवद्यम् (अखंड)+ अवलोक्य दिखने योग्य) । निसित = तीक्ष्ण, पैनी ।

भावार्थ-

रे मूढ मन ! हमेशा और बारम्बार राम-नामका जप कर । रे शठ ! यह जप सब सौभाग्य और सुखोंकी खानि है, ऐसा जीमें जानकर तथा यही ‘वेदोंका सार है, इसपर विश्वास मानकर राम राम कहा कर ॥१॥

कोश- लेन्द्र श्रीरामजीके शरीरकी आभा नवीन नीले कमलके समान है । वह शिवजीके हृदयमें विचरण करनेवाले भ्रमर हैं। वह सीता-वल्लभ, आनन्द-निधान, विश्व- ब्रह्मांडके एकमात्र स्वामी, युद्ध में खलोंके नाशकर्ता तथा अत्यन्त कारुणिक हैं ॥२॥

वह दैत्य-समूहरूपी वनके लिए अग्निके समान हैं और पुष्ट आजानु-भुज-दंडोंमें सुन्दर धनुष एवं तीखे बाण धारण किये हुए हैं। उनके हाथ, पैर, मुख और नेत्र लाल कमलके सदृश हैं; वह सर्वगुण-निधान तथा अनेक कामदेवोंकी शोभा के घर हैं ॥३॥

वह वासना-समूहरूपी कुमुदिनीको मुरझानेके लिए सूर्य हैं और काम-क्रोध-मदादिरूपी कमलवन के लिए पाला है। वह अत्यन्त मदोन्मत्त लोभरूपी गजेंद्रके लिए सिंह तथा भक्तों के हितार्थ संसारका भार उतारनेवाले हैं ॥४॥

उनका नाम केशव है, वह क्लेशोंका नाश करनेवाले हैं, उनके चरण ब्रह्मा और शिवसे वंदित तथा गंगाजीके उद्गमस्थान हैं। वह सर्वदा आनन्द-समूह, मोह- विनाशक और घोर संसार-समुद्रको पार करनेके लिए जहाज-स्वरूप हैं ॥५॥

बह शोक और संदेहरूपी मेघ-समूहको तितर-बितर करनेके लिए वायुरूप तथा पाप- रूपी कठिन पर्वतको तोड़ने के लिए वज्ररूप हैं। उनका नाम संतोंके लिए काम- धेनुके समान मनवांछित फल देनेवाला विश्रामप्रद और कलिकालके पापोंका नाश करनेमें अनुपम है ॥६॥

रामका नाम धर्मरूपी कल्पवृक्षका बगीचा है और प्रभुधाममें जानेवाले पथिकों के लिए राह-खर्चके समान यही एक मूल आधार है। भक्ति, वैराग्य, विज्ञान, शम, दम, दान प्रभृति मुक्ति के अनेक साधन सब इस नामके ही अधीन हैं ||७||

अखंड कलिकालको देखकर जिसने बारम्बार श्रीराम- नामरूपी अमृतका पान किया, उसने तप कर लिया, यज्ञ कर लिया, सर्वस्व दान दे दिया और सब उत्तम कर्म कर डाला ||८||

बड़े-बड़े मलिन बुद्धिवाले चांडाल, खल, भील, यवन आदि नामके ही बलसे विष्णुलोकमें चले गये। अतः सारी आशाओं और भयको छोड़कर हे तुलसीदास, तू संसार-बंधनको काटनेके लिए तेज धारकी तलवारके समान भगवान्के नामका जप कर ॥९॥

विशेष

1’कोसलेंद्र’ वियोगी हरिजीने इस चरणमें, छन्दोभङ्ग बतलाते हुए टिप्पणीमें ‘जयति कुसलेन्द्र’ कर देनेकी सम्मति प्रकट की है। हम भी उनकी इस सम्मतिका समर्थन करते हैं; किन्तु यथार्थतः विनय-पत्रिकाके समस्त पद गीत-काव्य हैं, अतः इनमें छन्दोभंग देखनेकी आवश्यकता नहीं ।

२–’वासना-वृन्द’-सारे कष्टोंकी जड़ है। २–’काम-धुक-धेनु’ कलियुगमें राम-नामके प्रतापसे सब-कुछ प्राप्त हो सकता है । गोस्वामीजीने रामचरितमानसमें लिखा है:-

ब्रह्म राम ते नाम बड़, घर-दायक वर-दानि ।
रामचरित सत कोटि महँ, लिय महेस जिय जानि ।।
x
X
x
नाम कामतरु काल कराला । सुमिरत समन सकल जगजाला ॥
राम नाम कलि अभिमत दाता । हित परलोक लोक पितुमाता।
नहिं कलि करम न भगति विवेकू । राम-नाम अवलम्बन एकू॥
अथवा
कलियुग केवल नाम अधारा । जानि लेहि जो जाननि हारा ।


४-‘कर्मजालं’ यों तो कर्मके कई भेद हैं और उनका उल्लेख भी पीछे किया जा चुका है, किन्तु यहाँ कर्मसे अभिप्राय है वेद-विहित कर्म ।


4-‘जमन’-यवन । एक मुसलमानके मुखसे मरते समय ‘हराम’ शब्द
निकला था । उसमें ‘राम’ शब्द आ जानेके कारण उसकी मुक्ति हो गयी।

विनय-पत्रिका श्रीराम स्तुति पद 47 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

ऐसी आरती राम रघुबीर की करहि मन ।
दुखदुंद गोविन्द आनंदघन ॥१॥


अचरचर रूप हरि, सर्वगत, सर्वदा
वसत, इति वासना धूप-दीजै।
दीप निजबोध गत-कोह-मद मोह-तम,
प्रौढ अभिमान चितवृत्ति छीजै ॥२॥


भाव अतिसय विसद प्रवर नैवैद्य सुभ
श्रीरमन परम संतोषकारी।
प्रेम तांबूल गत सूल संसय सकल,
विपुल भव-वासना-बीजहारी ॥३॥


असुभ-सुभकर्म-घृतपूर्न दस बर्तिका,
त्याग-पावक, सतोगुनप्रकासं।
भक्ति-वैराग्य-विज्ञान दीपावली,
अर्पि नीराजनं जग-निवासं ॥४॥

विमल हृदि-भवन कृत सांति परजंक सुभ,
सयन विनाम श्रीराम राया ।
छमा-करुना प्रमुख तत्र परिचारिका,
यत्र हरि तत्र नहिं भेद, माया ॥५॥


पहि आरती-निरत सनकादि, ति, सेष, सिव,
देवऋषि, अखिल मुनि तत्व-दरसी।
करै सोइ तर, परिहरै कामादि मल,
वदति इति अमल-मति दास तुलसी ॥६॥

शब्दार्थ-

गोविंद = इन्द्रियोंके स्वामी । वासना=इच्छा, सुगन्ध । छोजै = नष्ट कर दे । प्रवर = श्रेष्ठ । ताम्बूल = पान । बर्तिका = बत्ती । नीराजनं = आरती। परजंक = पलँग । प्रमुख प्रधान । निरत= तत्पर ।

भावार्थ-

हे मन ! रघुकुलमें वीर श्रीरामजीकी आरती इस प्रकार कर । वह दुःख-द्वन्द्वों (रागद्वेषादि) के नाशक, इन्द्रियों के स्वामी और आनन्दघन हैं ॥१॥

जड़-चेतन सब रूप परमात्माका है, वह सर्वगत आर एकरस हैं-इस वासना (सुगन्ध) की धूप दे। धूपके बाद दीप चाहिये । सो आत्मज्ञानरूपी दीपकसे क्रोध-मद-मोहरूपी अन्धकारको दूर करके अभिमानभरी चित्तकी वृत्ति- योंको नष्ट कर दे ॥२॥

पश्चात् तू मङ्गलमूर्ति लक्ष्मीपति भगवान्को परम सन्तोष- कारी अपने अत्यन्त निर्मल और श्रेष्ठ भावका नैवेद्य चढ़ा । फिर, दुःख और संशयों से रहित होकर अपार संसारके वासनारूपी बीजको नाश करनेवाले ‘प्रेम’- का ताम्बूल अर्पण कर ।।३।।

उसके बाद शुभ और अशुभ-कर्मरूपी घीसे तर की हुई दस इन्द्रियरूपी बत्तियोंको त्यागरूपी आगसे जलाकर सतोगुण-रूपी प्रकाश कर । इस प्रकार भक्ति, वैराग्य और विज्ञानरूपी दीपावलीकी आरती अर्पित करके संसारमें निवास कर ||४||

आरती करने के बाद अपने निर्मल हृदयरूपी गृहमें शान्तिरूपी कल्याणकारी पलँगके ऊपर महाराज रामचन्द्रजोको सुलाकर विश्राम करा । वहाँ क्षमा और करुणा सरीखो प्रमुख सेविकाओंको नियुक्त कर । जहाँ प्रभुजी रहते हैं, वहाँ न तो भेद-बुद्धि रहती है और न माया ही ।।५।

सनक-सनन्दन-सनातन-सनत्कुमार, वेद, शेष, शिव, नारद और समस्त तत्त्वदर्शी मुनि इस आरतीमें तत्पर रहते हैं । तुलसीदास कहते हैं कि जो कोई ऐसी आरती करता है वही तर जाता है और कामादि पापोंसे मुक्त हो जाता है-ऐसा निर्मल
बुद्धिवाले तत्त्ववेत्ताओका कथन है ॥६॥

विशेष

१-इस पदमें रूपक अलंकार है।
२-इस पदमें आरतीके छ अंग (धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, आरती और शयन) दिखलाये गये हैं।

३-‘धूप’-धूपके ५,६,८,१२,१६ अंग हैं। प्रत्येकपर भिन्न-भिन्न अर्थ निकलता है उदाहरणार्थ, पाँच अंगकी धूप लेनेपर यहाँ नियम (१ शौच,२ सन्तोष, ३ तप, ४ स्वाध्याय, ५ ईश्वर प्रणिधान) की धूपका बोध होगा।

४-‘चितवृत्ति’-चित्तकी वृत्तियोंके निरोध अथवा समूल नाश कर डालनेका ही नाम योग है-‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।

५-‘दस वर्तिका’–महाकवि तुलसीदासजीने दस इद्धियोंको ही दस बत्ती कहा है। उन दस इन्द्रियोंमें श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा और घाण ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा वाक् , पाणि, पाद, उपस्थ और गुद ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं।

विनय-पत्रिका श्रीराम स्तुति पद 48 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

हरति सब आरती आरती राम की।
दहन दुख-दोप, निर्मूलिनी काम की ॥१॥


सुभग सौरभ धूप दीपवर मालिका।
उड़त अघ-विहँग सुनि ताल करतालिका ॥२॥


भक्ता-दि-भवन, अज्ञान-तम-हारिनी।
विमल विज्ञानमय तेज-वित्तारिनी ॥३॥


मोह-मद – कोह-कलि – कंजहिमजामिनी ।
मुक्ति की दूतिका, देह-दुति दामिनी ॥४॥


प्रनत-जन-कुमुद्-वन-इन्दु-कर-जालिका ।
तुलसि अभिमान-महिषेस बहु कालिका ॥५॥

शब्दार्थ

आरती = क्लेश । सुभग= सुन्दर । सौरभ- सुगन्ध । विस्तारिनी = फैलाने- वाली । जामिनी रात । दूतिका =दूती । प्रनत= शरणमें आये हुए। महिपेस = महिषासुर ।

भावार्थ

श्रीरामजी की आरती सब क्लेशों को हर लेती है। यह दुःख- दोषों को जला डालती तथा कामनाओं या इच्छाओं को निर्मूल कर डालती है ॥१॥

वह सुन्दर सुगन्ध युक्त धूप श्रेष्ठ दीपकों को माला है । उस आरती के समय हाथों की ताली का शब्द सुनकर पाप रूपी पक्षी उड़ जाते हैं ॥२॥

वह भक्तों के हृदय-मन्दिर से अज्ञानान्धकार को दूर करने वालो तथा (हृदय में) निर्मल विज्ञान- मय प्रकाश को फैलाने वाली है ।।३||

वह मोह, मद, क्रोध, कलिरूपी कमलों को मुरझाने के लिए बर्फीली रात है, मुक्ति-रूपी नायिका से मिलाने के लिए बिजली के समान चमकदार शरीर वाली दूती है ॥४॥

वह शरणागत भक्त-रूपी कुमुदिनी के वन को विकसित करने के लिए चन्द्रमा की किरण-माला है । तुलसीदास कहते हैं कि वह अभिमान रूपी महिषासुर के लिए अगणित कालिका देवी के समान है ।।५।।

विशेष –

१-आरती आरती’ में यमकालंकार है । जब एक ही शब्द भिन्न-भिन्न अर्थ में कई बार आता है, तो वहाँ यमकालंकार होता है ।

यथा :-

मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ विदेह विदेह विसेखी ॥

यहाँ एक विदेह तो जनकजी के लिए आया है और दूसरा ‘शरीरज्ञान-शून्य’ के लिए।

२–’देह-दुति दामिनी’-मुक्ति के पास पहुंचाने वाली दूती के शरीर की कान्ति बिजली के समान कही गयी है। क्योंकि अज्ञान अन्धकारमय है और विज्ञान प्रकाशमय । मुक्ति ऐसी वस्तु नहीं, जो विज्ञानका प्रकाश हुए बिना प्राप्त हो सके। वेद-वाक्य है “ऋते ज्ञानान्न-मुक्तिः” अर्थात् ज्ञान हुए बिना मुक्ति नहीं होती। इसीसे ग्रंथकार ने आरती रूपी दूती के शरीर को तीक्ष्ण प्रकाशपूर्ण कहा है।

३-‘महिषेस बहु कालिका’-भगवती कालिकाने प्रमादी महिषासुर नामक दैत्यका वध करके संसारमें शान्ति स्थापित की थी। यह कथा देवी- भागवतमें विस्तारपूर्वक है।

विनय-पत्रिका श्रीराम स्तुति पद 49 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

देव-दनुज-वन-दहन, गुन-गहन, गोविंद-
नंदादि-आनंद-दाताऽविनासी ।
संभु, सिव, रुद्र, संकर, भयंकर, भीम,
घोर, तेजायतन, क्रोध-रासी ॥१॥


अनंत, भगवंत, जगदंत-अंतक-त्रास-
समन, श्रीरमन, भुवनाभिरामं ।
भूधराधीस जगदीस ईसान,
विज्ञानधन, ज्ञान-कल्यान-धामं ॥२॥


वामनाव्यक्त, पावन, परावर विभो,
प्रगट परमातमा, प्रकृति-स्वामी ।
चन्द्रसेखर, सूलपानि, हर, अनध, अज,
अमित, अविछिन्न, वृषभेस-गामी ॥३॥


नील जलदाम तनु स्याम, बहुकाम छवि,
राम राजीव लोचन कृपाला।
कंबु-कर्पूर-वपु, धवल, निर्मल मौलि,
जटा, सुर-तटिनि, सित सुमनमाला ॥४॥


वसन किंजल्कधर, चक्र-सारंग-दर-
कंज-कौमोदकी अति विसाला ।
मार-करि मत्त मृगराज, नैन हर,
नौमि अपहरन संसार-जाला ॥५॥


कृष्ण, करुनाभवन, दवन कालीय खल,
विपुल कंसादि निर्वंसकारी ।
त्रिपुर-मद-भंगकर, मत्त गज-चर्मधर,
अन्धकोरग-ग्रसन पन्नगारी ॥६॥

भावार्थ:-

हे देव ! आप कैलाशगिरिके मालिक, जगत्के स्वामी, ईशान, विज्ञानघन और ज्ञान तथा कल्याणके स्थान हैं ॥२॥ हे देव ! आप वामनरूप, अव्यक्त, पवित्र, जड़ चैतन्यके स्वामी, साक्षात् परमात्मा और प्रकृतिके स्वामी हैं। हे देव ! आप चन्द्रमाको मस्तकपर और त्रिशूलको हाथमें धारण करनेवाले, सृष्टिके संहारकर्ता, निष्पाप, अजन्मा, सीमा-रहित, अखंड और नन्दीपर सवार होकर चलनेवाले हैं ॥३॥

हे देव ! आपके श्यामल शरीरकी आभा नीले मेघके समान है, शोभा अनेक कामदेव-सदृश है, आप राम कमलनेत्र हैं और कृपालु हैं। हे देव ! आपका उज्ज्वल शरीर शंख और कपूर के समान निर्मल है; आपके मस्तकपर जटा-जूट और गंगाजी हैं।

आप सफेद फूलोंकी माला पहने हुए हे देव ! आप कमल-केसरके समान पीताम्बर तथा चक्र, धनुप, शंख और अत्यन्त विशाल गदा धारण किये हैं। हे देव ! आप कामदेवरूपी हाथीके लिए सिंह, तीन नेत्रवाले और संसारका कष्ट दूर करनेवाले हैं । अतः हे हर, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥५॥

हे देव ! आप कृष्ण हैं अर्थात् अपने रूप-माधुर्यसे सबको आकर्षित करने- वाले हैं, करुणाके स्थान हैं, कालिय नागका नाश करनेवाले हैं तथा कंस आदि बहुत-से दुओंका निवेश करनेवाले हैं। हे देव ! आप त्रिपुर दैत्यका घमण्ड तोड़नेवाले, मतवाले हाथीका चमड़ा धारण करनेवाले तथा अन्धकासुररूपी सर्पको निगलनेके लिए गरुड़ हैं ।।६।।

हे देव ! आप ब्रह्म, सबमें व्याप्त, कला-रहित, सबसे परे, हितैषी, साधारण ज्ञान और इन्द्रियोंसे न्यारे तथा मायिक वृत्तियोंको हरनेवाले हैं। हे देव ! आप जलन्धरके गर्वरूपी पर्वतको चूर्ण करनेके लिए वज्ररूपी, पार्वती के पति, संसारकी उत्पत्तिके स्थान और दक्ष प्रजापतिके सम्पूर्ण यज्ञका विध्वंस करनेवाले हैं ॥७॥

हे देव ! आपको भक्ति बहुत प्रिय है, आप अपने भक्तोंकी इच्छा पूरी करने-के लिए कामधेनुके समान हैं, आप हरि हैं और दुर्घट, विकट तथा महान् विपत्तियोंको हरनेवाले हैं। हे देव आप सुखदाता, आनन्ददाता, इच्छित वरदाता, विरक, तमाम विकारों और दोपोंसे रहित एवं आनन्द-वन काशीकी गलियों में विहार करने- वाले हैं ॥८॥

हे देव ! इस मनोहर हरिशंकरीके नाम-मंत्रोंकी पंक्तियाँ राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे उत्पन्न दुःखको हरनेवाली तथा आनन्दकी खानि हैं । तुलसीदास शुद्ध वाणीसे कहता है कि ये विष्णु तथा शिवलोकमें जानेके लिए सदैव सीढ़ीके समान हैं ||९||

विशेष

१-‘वामन’-विष्णु भगवान्ने राजा बलिसे तीन पैर पृथिवी लेनेके लिए वामन (बौना) रूप धारण किया था।

२–’कालिय’ नामक एक भयंकर सर्प था जो कि यमुनामें रहता था। उसके विषकी ज्वालासे वहाँका पानी हमेशा खौला करता था। भगवान् श्रीकृष्णने उसे नाथकर अपने वशमें कर लिया, पीछे वह यमुनाको छोड़कर समुद्र में चला गया। यह कथा श्रीमद्भागवतमें है।

३–’अन्धक’ नामक एक दैत्य था । वह बहुत ही उपद्रवी और बलवान् था। वह हिरण्याक्षका पुत्र था। उसने ब्रह्मासे यह वर प्राप्त किया था कि ज्ञान प्राप्त हुए बिना मेरी मृत्यु कदापि न हो। यह वर मिलने के बाद उसने तीनों लोकोंको जीत लिया । देवता लोग उसके भयसे मन्दराचल पहाइपर चले गये । वह दुष्ट वहाँ भी पहुँचकर उन्हें दुःख देने लगा। देवताओंने आर्त स्वरमें शिवजीको पुकारा । शिवजीने आकर उसे मार डाला। यह कथा शिव- पुराणमें है।

४–’सिंधु-सुत’- ‘-या जलन्धर बड़ा प्रतापी राजा था। इसने देवलोकको जीत लिया था। शिवजीने इसे मारना चाहा, पर उन्हें सफलता नहीं मिली, क्योंकि जलन्धरकी स्त्री वृन्दा पतिव्रता थी। जब विष्णुने बलपूर्वक वृन्दाका सतीत्त्व नष्ट किया, तब शिवजीने जलन्धरको परास्त किया। उस समय वृन्दाने विष्णुको शाप दिया कि किसी समय मेरा पति रावणका अवतार लेकर तुम्हारी स्त्रीका हरण करेगा।

५-दच्छमख’-दक्ष प्रजापतिकी एक कन्याका नाम सती था । उनका विवाह शिवजी के साथ हुआ था। एक बार ब्रह्माके यहाँ दक्ष पहुँचा। सब देवताओंने उठकर उसकी अभ्यर्थना की, पर शिवजी नहीं उठे। इससे दक्ष बहुत नाराज हुआ। इसका बदला लेनेके लिए उसने खूब धूमधामसे यज्ञ किया, और उसमें सब देवताओंको आमन्त्रित किया, पर शिवको नहीं पूछा। यज्ञका हाल सुनकर सती बिना बुलाये ही अपने पिताके घर चली गयीं । वहाँ उन्हें शिवजीका भाग दिखलाई नहीं पड़ा। इससे वह क्रुद्ध होकर अपने पिता- को कटु वाक्य कहने लगी और योगाग्निमें जलकर भस्म हो गयीं। यह समाचार पाकर शिवजीने वीरभद्रको भेजा और उसने वहाँ जाकर शिवजीकी आज्ञासे दक्ष प्रजापतिका यज्ञ भंग कर दिया। पीछे शिवजीने प्रसन्न होकर यज्ञका पुनरुद्धार किया । यह कथा शिवपुराणमें विस्तारपूर्वक है।

५-विष्णु और शिवमें अभेदसम्बन्ध है । लिखा है:- सदैव देवो भगवान् महादेवो न संशयः । मन्यन्ते ये जगद् योनि विभिन्नं विष्णुमीश्वरात् । -इति कौम्मे, १३ अध्यायः

६-‘संभु सिव रुद्र संकर’-पर्यायवाची शब्द हैं, पर सबका भिन्न-भिन्न आशय है। -‘भयंकर भीम घोर’ का आशय भी अलग-अलग है। यथा ‘भयंकर’ का अर्थ ‘भयजनक’, ‘भीम’ का अर्थ ‘भयके हेतु’, ‘धोर’ का अर्थ ‘विष’ अर्थात् ‘हलाहल पान करके आश्चर्यजनक भीषण काम करनेवाले’ इत्यादि ।

विनय-पत्रिका श्रीराम स्तुति पद 50 का शब्दार्थ सहित व्याख्या

अरुन राजीव दल-नयन, सुषमा-अयन,
स्याम तन-कांति घर वारिदाभं ।


कांचन-वन, सस्त्र-विद्या-निपुन,
सिद्ध-सुर-सेव्य, पाथोजनाभं ॥२॥


अखिल लावन्य-गृह, विस्व-विग्रह, परम
प्रौढ़, गुनगृढ़, महिमा उदारं ।
दुर्धर्ष, दुस्तर, दुर्ग, स्वर्ग-अपवर्ग-पति
मग्न संसार-पादप-कुठारं ॥३॥


सापवस मुनिवधू-मुक्तकृत, विप्रहित,
जग्य-रच्छन-दच्छ पच्छकर्ता।
जनक-नृप-सदसि सिवचाप-भंजन, उग्र
भार्गवागर्व-गरिमापहर्ता
गुरु-गिरा-गौरवामर-मुदुस्त्यज राज्य,
त्यक्त श्री सहित सौनिधि-माता।
संग जनकात्मजा, मनुजमनुसृत्य अज,
दुप-बध-निरत,त्रैलोक्यत्राता ॥५॥


दंडाकारन्य कृतपुन्य पावन चरन,
हरन मारीच-मायाकुरंग।
बालि बलमत्त गजराज इव केसरी,
सुहृद-सुग्रीव-दुख-रासि-भंग
ऋच्छ, मर्कट विकट सुभट उद्भट समर,
सैल-संकास रिपु त्रासकारी।
बद्धपाथोधि सुर-निकर-मोचन, सकुल
दलन दससीस-भुजबीस मारी ॥७॥


दुष्ट विवुधारि-संघात, अपहरन महि-
भार, अवतार कारन
अमल, अनवद्य, अद्वैत, निर्गुन, सगुन,
ब्रह्म सुमिरामि नरभूप-रूपं ॥८॥


अनूपं सेष-सुति-सारदा-संभु-नारद-सनक
गनत गुन अंत नहिं तव चरित्रं ।
सोइ राम कामारि-प्रिय अवधपति सर्वदा
दास तुलसी – त्रास – निधि – वहितं ॥९॥

शब्दार्थ-

वैनतेय = गरुड़ । तून- तरकस । विसिख = वाण । पायोजनाभं जिसकी नाभिसे कमल उत्पन्न हुआ हो अर्थात् विष्णु । अपवर्ग= मोक्ष । पादप-वृक्ष । कुठार- टाँगा, कुल्हाड़ा । सदसि सभा । भार्गवागर्व = (भार्गव+आगर्व) परशुरामका गर्व । श्री- लक्ष्मी, सम्पत्ति । मनुजमनुसृत्य = (मनुजं+अनुसत्य) मनुष्योंको अनुकरण करके । अज= अजन्मा । कुरंग- मृग । सुहृद = मित्र । उद्भट = श्रेउ वीर । संकास- समान । अनवद्य = दोषरहित । बहिनौका ।

भावार्थ-

हे देव ! आप सूर्य-कुलरूपी कमलके लिए सूर्य, करोड़ों कामदेव- के समान शोभावाले, कलिकालरूपी सर्प के लिए गरुड़, बलवान् हाथों में प्रचंड धनुष धारण करनेवाले, तरकसमें सुन्दर बाण धरे और अनुपम बलशाली हैं|१||

आप लाल कमलके समान नेत्रवाले, सौन्दर्यके निधान, मेघकी सुन्दर आमाके सदृश कान्तिमय श्यामल शरीरवाले, तपे हुए सुवर्णके समान पीताम्बरधारी, शस्त्र-विद्यामें कुशल, सिद्धों और देवताओंके पूज्य तथा पाथोजनाभ हैं अर्थात् आपकी नाभिसे कमल उत्पन्न हुआ है ||२||

आप सम्पूर्ण सुन्दरताके घर हैं, विश्व ब्रह्माण्ड आपका शरीर है, आप अत्यन्त चतुर, गूढ़ गुणवाले, अपार- महिम, निभीक, दुस्तर, दुर्गम, स्वर्गापवर्गके स्वामी, तथा संसार-वृक्षको काटनेके लिए कुठाररूप हैं ॥ ३ ॥

आपने गौतमकी स्त्रीको शापमुक्त किया है, आप आह्मणों का हित करनेवाले (ब्रह्मण्य), विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षा करनेमें सुदक्ष, वजनोंका पक्ष लेनेवाले, राजा जनककी सभामें शिव-धन्वाको खंड-खंड करने- वाले तथा उग्ररूप परशुरामजीकी महान् गर्व-गरिमाका हरण करनेवाले हैं ॥४॥

आपने गुरुजनों (पिता-माता) के वचनोंका गौरव रखनेके लिए ऐसे राज्य और धनको त्याग दिया जिसे देवता लोग भी कठिनाईसे भी नहीं त्याग सकते हैं; आप अजन्मा होनेपर भी अपने भाई लक्ष्मण और जानकीजीको साथ लेकर मनुष्योंकी तरह लीला करते हुए दुष्टोंका वध करनेमें तत्पर तथा तीनों लोकोंकी रक्षा करनेवाले हैं ॥५॥

आपने अपने पवित्र चरणोंसे दंडक वनको पुण्यमय स्थान बना दिया, आप मृगरूपी मारीचकी माया हरनेवाले, बलवान् बालिरूपी मतवाले हाथ के लिए सिंहरूप और सुहृद सुग्रीवके दुःखोंको दूर करनेवाले हैं ॥६॥

आप विकट योद्धाओंमें श्रेष्ठवीर रीछ और बन्दरोंको साथ लेकर पर्वताकार शत्रुओंको संग्राममें भयभीत करनेवाले, समुद्रको बाँधनेवाले, देवताओंक समूहको मुक्त करनेवाले, तथा दस सिर और बीस विशाल भुजाओंवाले रावणको उसके कुल-सहित नष्ट करनेवाले हैं ॥७॥

आप देवताओंके दुष्ट शत्रु-समूहका नाश करके पृथिवीका भार उतारनेके लिए अवतार लेनेवाले और अनुपम कारणस्वरूप हैं । आप निर्मल, दोषरहित, अद्वैत, त्रिगुणों से रहित, सगुण तथा राजाके रूपमें साक्षात् ब्रह्म हैं । मैं आपका स्मरण करता हूँ ॥८॥

शेष, वेद, सरस्वती, शिवजी, नारद और सनकादि आपका गुणानुवाद गाते हैं, पर आपके चरित्रका अन्त नहीं होता । वही ‘राम’ जो कि शिवजीके प्रिय और अयोध्याके राजा हैं- तुलसीदासको त्राम-सागरसे उबारनेके लिए सर्वदा नौका-रूप हैं ॥९॥

विशेष

१-‘गुनगूड’-रामजीका गुन कितना है इसे शिवजीने जगजननी पार्वतीजीसे इस प्रकार कहा है- उमा रामगुन गूढ, पण्डित मुनि पावहिं विरति । पावहिं मोह विमूढ़, जे हरि विमुख न धर्मरति ॥ -रामचरितमानस ।

२-‘पाथोजनाभं’-सृष्टिकी उत्पत्तिके प्रकरणमें ऐसा उल्लेख है कि समुद्र में शेषशायी भगवान् विष्णुकी नाभिसे कमल उत्पन्न हुआ और उस कमलके ऊपर ब्रह्माजी पैदा होकर सृष्टिकी रचना करनेमें तत्पर हुए। इसीसे भगवान् विष्णु पाथोजनाभ कहे जाते हैं।

३–’दुर्ग’-धास्तवमें का अर्थ अर्थ है “जहाँ दुःखसे पहुंचा जा सके।”

४-भार्गव’–परशुराम जी भृगुवंश के थे, इससे उन्हें भार्गव कहा जाता है।

५—‘दण्डकारन्य कृतपुन्य’—दण्डकारण्य को शाप था। अतः इस धन में कोई नहीं जाता था । भगवान् रामचन्द्र ने इसे पवित्र कर दिया ।

६-‘कारण’—जिससे कोई वस्तु उत्पन्न होती है, उसे उस वस्तु का कारण कहते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति ईश्वर से हुई, अतः परमात्मा कारण-स्वरूप हैं और सृष्टि कार्य रूप । जैसे घटका कारण मिट्टी है और मिट्टीका कार्य घट है।

You might also like
Leave A Reply