राधाचरण गोस्वामी का साहित्यिक परिचय
राधाचरण गोस्वामी का साहित्यिक परिचय
- राधाचरण गोस्वामी का जन्म 25 फ़रवरी, 1859 को हुआ था।
- उनके पिता गल्लू जी महाराज अर्थात् गुणमंजरी दास जी (1827- 1890 ई.) एक भक्त कवि थे।
- 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बनारस, इलाहाबाद, पटना, कलकत्ता और वृन्दावन नवजागरण के पाँच प्रमुख केन्द्र थे। वृन्दावन केन्द्र के एकमात्र सार्वकालिक प्रतिनिधि राधाचरण गोस्वामी ही थे।
![राधाचरण गोस्वामी का साहित्यिक परिचय - गोस्वामी जी ने मौलिक नाटकों की रचना की और बांग्ला भाषा की अनेक पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया। उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएं इस प्रकार हैं- राधाचरण गोस्वामी का साहित्यिक परिचय - Screenshot 2024 04 21 045901 - हिन्दी साहित्य नोट्स संग्रह](https://sahity.in/wp-content/uploads/2024/04/Screenshot-2024-04-21-045901.png)
साहित्यिक योगदान
- गोस्वामी राधाचरण के साहित्यिक जीवन का उल्लेखनीय आरम्भ 1877 में हुआ था। इस वर्ष उनकी पुस्तक ‘शिक्षामृत’ का प्रकाशन हुआ था। यह उनकी प्रथम पुस्तकाकार रचना है।
- उन्होंने राधा-कृष्ण की लीलाओं, प्रकृति-सौन्दर्य और ब्रज की संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर काव्य-रचना की।
- कविता में उनका उपनाम ‘मंजु’ था।
कृतियाँ
गोस्वामी जी ने मौलिक नाटकों की रचना की और बांग्ला भाषा की अनेक पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया। उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएं इस प्रकार हैं-
- सती चंद्रावती
- अमर सिंह राठौर
- सुदामा
- तन मन धन श्री गोसाई जी को अर्पण
राधाचरण जी ने समस्या प्रधान मौलिक उपन्यास लिखे। ‘बाल विधवा’ (1883-84 ई.), ‘सर्वनाश’ (1883-84 ई.), ‘अलकचन्द’ (अपूर्ण 1884-85 ई.) ‘विधवा विपत्ति’ (1888 ई.) ‘जावित्र’ (1888 ई.) आदि। वे हिन्दी में प्रथम समस्यामूलक उपन्यासकार थे, प्रेमचन्द नहीं। ‘वीरबाला’ उनका ऐतिहासिक उपन्यास है। इसकी रचना 1883-84 ई. में उन्होंने की थी। हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास का आरम्भ उन्होंने ही किया।
ऐतिहासिक उपन्यास ‘दीप निर्वाण’ (1878-80 ई.) और सामाजिक उपन्यास ‘विरजा’ (1878 ई.) उनके द्वारा अनूदित उपन्यास है। लघु उपन्यासों को वे ‘नवन्यास’ कहते थे। ‘कल्पलता’ (1884-85 ई.) और ‘सौदामिनी’ (1890-91 ई.) उनके मौलिक सामाजिक नवन्यास हैं। प्रेमचन्द के पूर्व ही गोस्वामी जी ने समस्यामूलक उपन्यास लिखकर हिन्दी में नई धारा का प्रवर्त्तन किया था।
मृत्यु
दिसंबर 1925 में राधाचरण गोस्वामी जी का निधन हो गया। राधाचरण जी भारतेंदु युग के साहित्यकार, नाटककार के होने के साथ-साथ संस्कृत भाषा के उच्च कोटि के विद्वान थे। आपने सदा सामाजिक बुराईयों का कड़ा विरोध किया और इस कारण आप ब्रह्म समाज की ओर भी आकृष्ट हुए थे।