कबीरदास जी का साहित्यिक परिचय
कबीरदास का जन्म कैसे हुआ ?
कबीर की उत्पत्ति के संबंध में अनेक प्रकार के प्रवाद प्रचलित हैं। कहते हैं, काशी में स्वामी रामानंद का एक भक्त ब्राह्मण था, जिसकी किसी विधवा कन्या को स्वामीजी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद भूल से दे दिया। फल यह हुआ कि उसे एक बालक उत्पन्न हुआ, जिसे वह लहरतारा के ताल के पास फेंक आई। अली या नीरू नाम का जुलाहा उस बालक को अपने घर उठा लाया और पालने लगा। यही बालक आगे चलकर कबीरदास हुआ।
कबीरदास का जन्म कब हुआ ?
कबीर का जन्मकाल जेठ सुदी पूर्णिमा, सोमवार विक्रम संवत् 1456 माना जाता है।
कबीरदास का बचपन
कहते हैं कि आरंभ से ही कबीर में हिंदू भाव से भक्ति करने की प्रवृत्ति लक्षित होती थी, जिसे उसे पालने वाले माता- पिता न दबा सके। वे ‘राम-राम’ जपा करते थे और कभी-कभी माथे पर तिलक भी लगा लेते थे। इससे सिद्ध होता है कि उस समय स्वामी रामानंद का प्रभाव खूब बढ़ रहा था और छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, सब तृप्त हो रहे थे। अतः कबीर पर भी भक्ति का यह संस्कार बाल्यावस्था से ही यदि पड़ने लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
कबीरदास के गुरु कौन थे?
रामानंदजी के माहात्म्य को सुनकर कबीर के हृदय में शिष्य होने की लालसा जगी होगी। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक दिन वे एक पहर रात रहते ही उस (पंचगंगा) घाट की सीढियों पर जा पड़े, जहाँ से रामानंदजी स्नान करने के लिए उतरा करते थे। स्नान को जाते समय अँधेरे में रामानंदजी का पैर कबीर के ऊपर पड़ गया। रामानंदजी बोल उठे, ‘राम-राम कह’। कबीर ने इसी को गुरुमंत्र मान लिया और वे अपने को गुरु रामानंदजी का शिष्य कहने लगे। वे साधुओं का सत्संग भी रखते थे और जुलाहे का काम भी करते थे। कबीरपंथी में मुसलमान भी हैं। उनका कहना है कि कबीर ने प्रसिद्ध सूफी मुसलमान फकीर शेख तकी से दीक्षा ली थी। वे उस सूफी फकीर को ही कबीर का गुरु मानते हैं।।
कबीरदास का धर्म
आरंभ से ही कबीर हिंदू भाव की उपासना की ओर आकर्षित हो रहे थे। अतः उiजब कि रामानंदजी की बड़ी धूम थी, अवश्य वे उनके सत्संग में भी सम्मिलित होते रहे होंगे। जैसा आगे कहा जाएगा, रामानुज की शिष्य परंपरा में होते हुए भी रामानंदजी भक्ति का एक अलग उदार मार्ग निकाल रहे थे, जिसमें जाति-पाँति का भेद और खानपान का आचार दूर कर दिया गया था। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर को ‘राम-नाम’ रामानंदजी से ही प्राप्त हुआ। पर आगे चलकर कबीर के ‘राम’ रामानंद के ‘राम’ से भिन्न हो गए। अतः कबीर को वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत नहीं ले सकते।
कबीर ने दूर-दूर तक देशाटन किया, हठयोगियों तथा सूफी मुसलमान फकीरों का भी सत्संग किया। अतः उनकी प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की ओर दृढ़ हुई। अद्वैतवाद के स्थूल रूप का कुछ परिज्ञान उन्हें रामानंदजी के सत्संग से पहले ही था। फल यह हुआ कि कबीर के राम धनुर्धर साकार राम नहीं रह गए; वे ब्रह्म के पर्याय हुए-
दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम का मरम है आना॥
सारांश यह कि जो ब्रह्म हिंदुओं की विचारपद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरुपण था उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही विषय नहीं, प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया।
कबीरदास की कृति
कबीर की बानी में उपरोक्त सब अवयव स्पष्ट लक्षित होते हैं। यद्यपि कबीर की बानी ‘निर्गुण बानी’ कहलाती है, पर उपासना क्षेत्र में ब्रह्म निर्गुण नहीं बना रह सकता। सेव्य-सेवक भाव में स्वामी में कृपा, क्षमा, औदार्य आदि गुणों का आरोप हो ही जाता है। इसीलिए कबीर के वचनों में कहीं तो निरुपाधि निर्गुण ब्रह्म सत्ता का संकेत मिलता है, जैसे-
कहते हैं कि कबीर की वाणी का संग्रह उनके शिष्य धर्मदास ने संवत् 1521 में किया था जब कि उनके गुरु की अवस्था 64 वर्ष की थी कबीर की वचनावली की सबसे प्राचीन प्रति, जिसका अब पता लगा है, संवत् 1567 में लिखी है। कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ के नाम से प्रसिद्ध है, जिसके तीन भाग किए गए हैं-रमैनी, सबद और साखी।
साखी
संस्कृत ‘ साक्षी , शब्द का विकृत रूप है और धर्मोपदेश के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अधिकांश साखियाँ दोहों में लिखी गयी हैं पर उसमें सोरठे का भी प्रयोग मिलता है। कबीर की शिक्षाओं और सिद्धांतों का निरूपण अधिकतर साखी में हुआ है।
सबद
गेय पद है जिसमें पूरी तरह संगीतात्मकता विद्यमान है। इनमें उपदेशात्मकता के स्थान पर भावावेश की प्रधानता है ; क्योंकि इनमें कबीर के प्रेम और अंतरंग साधना की अभिव्यक्ति हुई है।
रमैनी
चौपाई छंद में लिखी गयी है इनमें कबीर के रहस्यवादी और दार्शनिक विचारों को प्रकट किया गया है।धर्म के प्रतिसाधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- ‘मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।’
पंडित मिथ्या करहु बिचारा। ना वह सृष्टि, न सिरजनहारा॥
जोति सरुप काल नहिं उहवाँ, बचन न आहि सरीरा॥
थूल अथूल पवन नहिं पावक, रवि ससि धरनि न नीरा॥
और कहीं सर्ववाद की झलक मिलती है, जैसे-
आपुहि देवा आपुहि पाती। आपुहि कुल आपुहि है जाती॥
और कहीं सोपाधि ईश्वर की, जैसे-
साईं के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय।
कबीरदास का दर्शन
कबीर में ज्ञानमार्गी की जहाँ तक बातें हैं वे सब हिंदू शास्त्रों की हैं, जिनका संचय उन्होंने रामानंदजी के उपदेशों से किया। माया, जीव, ब्रह्म, तत्त्वमसि, आठ मैथुन (अष्टमैथुन), त्रिकुटी, छह रिपु इत्यादि शब्दों का परिचय उन्हें अध्ययन द्वारा नहीं, सत्संग द्वारा ही हुआ, क्योंकि वे, जैसा कि प्रसिद्ध है, कुछ पढ़े-लिखे न थे। उपनिषद् की ब्रह्मविद्या के संबंध में वे कहते हैं-
तत्त्वमसी इनके उपदेसा। ई उपनीसद कहैं संदेसा॥
जागबलिक औ जनक संबादा। दत्तात्रेय वहै रस स्वादा॥
यहीं तक नहीं, वेदांतियों के कनक-कुंडल-न्याय आदि का व्यवहार भी इनके वचनों में मिलता है-
गहना एक कनक तें गहना, इन महँ भाव न दूजा।
कहन-सुनन को दुइ करि थापिन, इक निमाज, इक पूजा॥
इसी प्रकार उन्होंने हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद के कुछ सांकेतिक शब्दों (जैसे, चंद, सूर, नाद, बिंदु, अमृत औंधा कुआँ) को लेकर अद्भुत रूपक बाँधे हैं, जो सामान्य जनता की बुद्धि पर पूरा आतंक जमाते हैं; जैसे-
सूर समाना चंद में दहूँ किया घर एक। मन का चिंता तब भया कछू पुरबिला लेख॥
आकासे मुखि औंधा कुआँ पाताले पनिहारि। ताका पाणी को हंसा पीवै बिरला आदि बिचारि॥
कबीर के राम
कबीर के राम तो अगम हैं और संसार के कण-कण में विराजते हैं। कबीर के राम इस्लाम के एकेश्वरवादी, एकसत्तावादी खुदा भी नहीं हैं। इस्लाम में खुदा या अल्लाह को समस्त जगत एवं जीवों से भिन्न एवं परम समर्थ माना जाता है। कबीर नाम में विश्वास रखते हैं, रूप में नहीं। हालाँकि भक्ति-संवेदना के सिद्धांतों में यह बात सामान्य रूप से प्रतिष्ठित है कि ‘नाम रूप से बढ़कर है’, लेकिन कबीर ने इस सामान्य सिद्धांत का क्रांतिधर्मी उपयोग किया। दरअसल उन्होंने अपने राम को शास्त्र-प्रतिपादित अवतारी, सगुण, वर्चस्वशील वर्णाश्रम व्यवस्था के संरक्षक राम से अलग करने के लिए ही ‘निर्गुण राम’ शब्द का प्रयोग किया–‘निर्गुण राम जपहु रे भाई।’ इसे उन्होंने ‘रमता राम’ नाम दिया है। अपने राम को निर्गुण विशेषण देने के बावजूद कबीर उनके साथ मानवीय प्रेम संबंधों की तरह के रिश्ते की बात करते हैं।
कबीरदास का सामाजिक पक्ष
वैष्णव संप्रदाय से उन्होंने अहिंसा का तत्त्व ग्रहण किया, जो कि पीछे होनेवाले सूफी फकीरों को भी मान्य हुआ। हिंसा के लिए वे मुसलमानों को बराबर फटकारते रहे-
दिन भर रोजा रहत हैं राति हनत हैं गाय। यह तो खून वह बंदगी, कैसे खुसी खुदाय॥
अपनी देखि करत नहिं अहमक, कहत हमारे बड़न किया। उसका खून तुम्हारी गरदन, जिन तुमको उपदेश दिया।
बकरी पाती खाति है ताको काढ़ी खाल। जो नर बकरी खात हैं तिनका कौन हवाल॥
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञानमार्ग की बातें कबीर ने हिंदू साधु- संन्यासियों से ग्रहण की जिनमें सूफियों के सत्संग से उन्होंने ‘प्रेमतत्त्व’ का मिश्रण किया और अपना एक पंथ चलाया।
उपासना के बाह्य स्वरुप पर आग्रह करनेवाले और कर्मकांड को प्रधानता देनेवाले पंडितों और मुल्लों दोनों को उन्होंने खरी-खरी सुनाई और राम-रहीम की एकता समझकर हृदय को शुद्ध और प्रेममय करने का उपदेश दिया। देशाचार और उपासनाविधि के कारण मनुष्य-मनुष्य में जो भेदभाव उत्पन्न हो जाता है उसे दूर करने का प्रयास उनकी वाणी बराबर करती रही।
कबीरदास की शिक्षा
यद्यपि वे पढ़े-लिखे न थे पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी, जिससे उनके मुँह से बड़ी चुटीली और व्यंग्य-चमत्कारपूर्ण बातें निकलती थीं। इनकी उक्तियों में विरोध और असंभव का चमत्कार लोगों को बहुत आकर्षित करता था, जैसे-
है कोई गुरुज्ञानी जगत महँ उलटि वेद बूझौ। पानी महँ पावक बरै, अंधहि आँखिन्ह सूझै॥
गाय तो नाहर को धरि खायो, हरिना खायो चीता। अथवा नैया बिच नदिया डूबति जाय।
अनेक प्रकार के रूपकों और अन्योक्तियों द्वारा ही इन्होंने ज्ञान की बातें कही हैं, जो नई न होने पर भी वाग्वैचित्र्य के कारण अनपढ़ लोगों को चकित किया करती थीं।
कबीरदास की रचना में कलापक्ष
अनूठी अन्योक्तियों द्वारा ईश्वर प्रेम की व्यंजना सूफियों में बहुत प्रचलित थी। जिस प्रकार कुछ वैष्णवों में माधुर्य’ भाव से उपासना प्रचलित हुई थी उसी प्रकार सूफियों में भी ब्रह्म को सर्वव्यापी प्रियतम या माशूक मानकर हृदय से उद्गार प्रदर्शित करने की प्रथा थी। इसको कबीरदास ने ग्रहण किया। कबीर की बानी में स्थान-स्थान पर भावात्मक रहस्यवाद की जो झलक मिलती है, वह सूफियों के सत्संग का प्रसाद है। कहीं इन्होंने ब्रह्म को खसम या पति मानकर अन्योक्ति बाँधी है और कहीं स्वामी या मालिक, जैसे-
मुझको तूं क्या ढूँढे बंदे मैं तो तेरे पास में। अथवा साईं के संग सासुर आई।
संग न सूती, स्वाद न जाना, गा जीवन सपने की नाई॥
जना चारि मिलि लगन सुधायो, जना पाँच मिलि माड़ो छायो।
भयो विवाह चली बिनु दूलह, बाट जात समधी समझाई॥
कबीर अपने श्रोताओं पर यह अच्छी तरह भासित करना चाहते थे कि हमने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, इसी से वे प्रभाव डालने के लिए बड़ी लंबी-चौड़ी गर्वोक्तियाँ भी – कभी कहते थे।
बीजक में वेदांततत्त्व, हिंदू-मुसलमानों को फटकार, संसार की अनित्यता, हृदय की शुद्धि, प्रेमसाधना की कठिनता, माया की प्रबलता, मूर्तिपूजा, तीर्थाटन आदि की असारता, हज, नमाज, व्रत, आराधना की गौणता इत्यादि अनेक प्रसंग हैं। सांप्रदायिक शिक्षा और सिद्धांत के उपदेश मुख्यतः ‘साखी’ के भीतर हैं, जो दोहों में हैं। इसकी भाषा सधुक्कड़ी अर्थात् राजस्थानी, पंजाबी मिली खड़ी बोली है, पर ‘रमैनी’ और ‘सबद’ में गाने के पद हैं, जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली का भी व्यवहार है।
नोट:- कबीर ने अपनी रचनाओं में राजस्थानी, पंजाबी, खड़ी बोली आदि पंचमेल भाषाओं का प्रयोग किया है, जिसे ‘सधुक्कड़ी’ भाषा कहा जाता है| कबीर की भाषा को यह नाम सर्वप्रथम आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा प्रदान किया गया था|-डॉ. श्याम सुंदर दास ने कबीर की भाषा को पंचमेल खिचड़ी भाषा कहा है|
कबीर के काव्य की प्रमुख विशेषताएं:-
- कण-कण में ईश्वर की व्याप्ति
- विरह की व्याकुलता- ” अंखिणियां झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि |जीभणियां छाला पड्या, नाम पुकारि-पुकारि ||”
- मूर्ति पूजा का विरोध- ” पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार |ताते यह चाकी भली, पीस खाय संसार ||”
- धार्मिक आडंबरों का विरोध
- अहिंसा का संदेश
- गुरु का महत्व
- नारी की निंदा- ” नारी की झांई परत, अंधा होत भुजंग|कबीरा तिनकी कौन गति, नित नारी के संग||”
- अवतारवाद का खंडन
- माया की भर्त्सना
- निर्गुण ब्रह्म की उपासना
- रहस्यवाद
- पुस्तकीय ज्ञान का परिहास ” पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय|एकै के आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय ||”
- ब्रह्म की सौंदर्य भावना
- बौद्धों के महायान का प्रभाव (क्षणिकवाद)
- सदाचार की शिक्षा
- ईश्वर के प्रति अनयन भाव
- रूपात्मक प्रतीकों का प्रयोग
कबीरदास का शरीर त्याग
कबीर ने मगहर में जाकर शरीर त्याग किया, जहाँ इनकी समाधि अब तक बनी है। इनका मृत्युकाल संवत् 1575 में माना जाता है, जिसके अनुसार इनकी आयु 120 वर्ष की ठहरती है।
विशेष तथ्य:-
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- कबीर तथा अन्य निर्गुण पंथी संतों के द्वारा अंतः साधना में’ रागात्मिका भक्ति’ और ‘ज्ञान’ का योग तो हुआ पर ‘कर्म’ की दशा वही रही जो नाथ पंथियों के यहां थी|
- हजारी प्रसाद दिवेदी के अनुसार- ” ऐसी थी कबीर सिर से पैर तक मस्त मौला, आदत से फक्कड़, स्वभाव से फक्खड., दिल से तर,दिमाग से दुरूस्त,भक्तो के लिए निरीह, भेषधारी के लिए प्रचंड|”
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को ‘वाणी का डिक्टेटर’ (भाषा का तानाशाह) कह कर पुकारा|
- कबीर सिकंदर लोदी के समकालीन माने जाते हैं|
- रामचंद्र शुक्ल ने इन की प्रशंसा में एक जगह लिखा है – प्रतिभा उन्मे बड़ी प्रखर थी| – हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इनको भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार की प्रतिमूर्ति माना है|
- गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित कबीर की साखियों को ‘सलोकु या श्लोक’ कहा गया है| इसमें 227 पद 17 राग 237 श्लोक संकलित हैं|
कबीर से संबंधित कुछ ग्रंथो के नाम
- – डॉ.श्यामसुन्दर दास की ‘कबीर ग्रंथावली’,
- – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की ‘कबीर-वचनावली’,
- – रामकुमार वर्मा का ‘संत कबीर’ तथा ‘कबीर पदावली’,
- – मुंगेर इंटर का ‘कवीर मंसूर’ (जो कि कबीर पर सबसे पहली पुस्तक है)
- – सुखदेव प्रसाद का ‘कबीर ज्ञान’,
- – बाबू लहना सिंह की ‘कबीर कसौटी’, ‘कबीर साहब का जीवन-चरित्र’ तथा ‘कबीर चरित्र बोध ग्रन्थ’
- – जुतशी साहब का ‘कबीर साहब’
- – शिवव्रत लाल का ‘कबीर पंथ’
- – कवीन्द्र रविन्द्र का ‘हंड्रेड पोयम्स ऑफ कबीर’,
- – मनमथनाथ गुप्त का ‘प्रोफेसर ऑफ इंडिया’,
- – रेवरेंड जी.जी.एच. वेस्टकाट का ‘कबीर ऐंड कबीर-पन्थ’, रेवरेंड की ‘कबीर ऐंड हिस फॉलोवर्स’,
- – पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल का ‘निर्गुण स्कूल ऑफ हिन्दी पोयट्री’
- – मोहन सिंह का ‘कबीर ऐंड हिज बायोग्राफी’ और ‘कबीर ऐंड दि भक्ति मूवमेंट’।
- – डेनमार्क देश के बिशप मुंटर द्वारा लिखित इटालियन भाषा का ‘रिलीज सेक्टर ऑफ द हिन्दूज’
- – गुजराती भाषा में किशन सिंह द्वारा लिखित ‘कबीर सम्प्रदाय’
- – आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का ‘कबीर’,
- – पंडित पारसनाथ तिवारी की ‘कबीर की विचारधारा’,
- – आचार्य परशुराम चतुर्वेदी की ‘कबीर साहित्य की परख’, ‘उत्तर – भारत की सन्त-परम्परा’ तथा ‘कबीर साहित्य चिन्तन’,
- – डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल का ‘हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय’,
- – डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत के ‘कबीर की विचारधारा’ तथा ‘कबीर और जायसी का रहस्यवाद’,
- – डॉ. केदारनाथ द्विवेदी का ‘कबीर और कबीर-पंथ’,
- – डॉ.शुकदेव सिंह का ‘कबीर बीजक’,
- – डॉ. रामकुमार वर्मा का ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ तथा ‘कबीर का रहस्यवाद’,
- – डॉ. सरनाम सिंह शर्मा के ‘कबीर : एक विवेचन’ तथा ‘कबीर : व्यक्तित्व, कृतित्व और सिद्धान्त’,
- – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’,
- – डॉ. विलियम द्वायर का ‘कबीर की भक्तिभावना’,
- – डॉ. शुकदेव सिंह तथा गंगाशरण शास्त्री द्वारा सम्पादित ‘कबीर साहब’,
- – डॉ. रामधारी सिंह दिनकर का ‘संस्कृति के चार अध्याय’