उद्भट संस्कृत काव्यशास्त्री

उद्भट संस्कृत काव्यशास्त्री

उद्भट कश्मीर राजा जयापीड़ के सभा-पण्डित थे। इनका समय नवम शती का पूर्वार्द्ध है। यह अलंकार वादी सिद्धांत से संबंध आचार्य हैं। इनकी तीन ग्रंथ प्रसिद्ध हैं- ‘काव्यालंकारसारसंग्रह’, ‘भामह-विवरण’ और ‘कुमारसम्भव’। इनमें से केवल प्रथम ग्रंथ उपलब्ध है जिसमे अलंकारो़ का आलोचनात्मक एवं वैज्ञानिक ढंग से विवेचन काया गया है।

sanskrit-aacharya
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दण्डी के सामान ये भी रस, भाव आदि को रसवदादि अलंकारों के अंतर्गत मानते हैं। इन अलंकारों को सर्वप्रथम व्यवस्थित रूप देने का श्रेय इनको है।अनुप्रास अलंकार के अंतर्गत उप-नागरिका आदि वृत्तियों के निरूपण करने की जो शैली आगे चलकर मम्मट ने चलायी, उसका मूलाधार भी यही ग्रन्थ काव्यालंकारसारसंग्रह है।

उद्भट के विशिष्ट सिद्धांत

उद्भट के विशिष्ट सिद्धांत निम्नलिखित हैं–
1) अर्थ भेद से शब्द भेद की कल्पना।
2) श्लेष को सभी अलंकारों में श्रेष्ठ मानते हुए श्लेष के दो प्रकार– शब्द श्लेष तथा अर्थ श्लेष की कल्पना तथा दोनों को अर्थालंकारों में ही परिगणित करना।
3) अर्थ के दो भेदों की कल्पना– विचारित-सुस्थ तथा अविचारित रमणीय।
4) काव्य गुणों को संघटना का धर्म मानना।

सन्दर्भ सामग्री
1) भारतीय काव्यशास्त्र:- डॉ विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
2) भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका :- योगेंद्र प्रताप सिंह
3) भारतीय काव्यशास्त्र के नए छितिज:- राम मूर्ति त्रिपाठी
4) भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांत:- डॉ. गणपति चंद्र गुप्त

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