हिन्दी पद्य साहित्य के आधुनिक काल

हिन्दी पद्य साहित्य के आधुनिक काल

आधुनिक काल में लिखी जाने वाली कविता को निम्न भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • नवजागरण काल (भारतेन्दु युग) – 1850 ई. से 1900 ई. तक
  • सुधार काल (द्विवेदी युग) – 1900 ई. से 1920 ई. तक
  • छायावादी युग – 1920 ई. से 1936 ई. तक
  • प्रगतिवाद-प्रयोगवाद – 1936 ई. से 1953 ई. तक
  • नई कविता व समकालीन कविता – 1953 ई. से अब तक

नवजागरण काल (भारतेन्दु युग)


इस काल की कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पहली बार जन-जीवन की समस्याओं से सीधे जुड़ती है। इसमें भक्ति और श्रंगार के साथ साथ समाज सुधार की भावना भी अभिव्यक्त हुई। पारंपरिक विषयों की कविता का माध्यम ब्रजभाषा ही रही, लेकिन जहाँ ये कविताएँ नवजागरण के स्वर की अभिव्यक्ति करती हैं, वहाँ इनकी भाषा हिन्दी हो जाती है। कवियों में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का व्यक्तित्व प्रधान रहा।

सुधार काल (द्विवेदी युग)


हिन्दी कविता को नया रंगरूप देने में श्रीधर पाठक का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्हें ‘प्रथम स्वच्छंदतावादी कवि’ कहा जाता है। उनकी ‘एकांत योगी’ और ‘कश्मीर सुषमा’ खड़ी बोली की सुप्रसिद्ध रचनाएँ हैं।

रामनरेश द्विवेदी ने अपने ‘पथिक मिलन’ और ‘स्वप्न’ महाकाव्यों में इस धारा का विकास किया।

अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के ‘प्रिय प्रवास’ को खड़ी बोली का पहला महाकाव्य माना गया है।

महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से मैथिलीशरण गुप्त ने खड़ी बोली में अनेक काव्यों की रचना की। इन काव्यों में ‘भारत भारती’, ‘साकेत’, ‘जयद्रथ वध’, ‘पंचवटी’ और ‘जयभारत’ आदि उल्लेखनीय हैं।

इस काल के अन्य कवियों में सियाराम शरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, नाथूराम शंकर शर्मा तथा गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

छायावादी युग

कविता की दृष्टि से इस काल में एक दूसरी धारा भी थी, जो सीधे-सीधे स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी थी। इसमें माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, नरेन्द्र शर्मा, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, श्रीकृष्ण सरल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

इस युग की प्रमुख कृतियों में जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ और ‘आँसू’, सुमित्रानंदन पंत का ‘पल्लव’, ‘गुंजन’ और ‘वीणा’, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘गीतिका’ और ‘अनामिका’, तथा महादेवी वर्मा की ‘यामा’, ‘दीपशिखा’ और ‘सांध्यगीत’ आदि कृतियाँ महत्वपूर्ण हैं। ‘कामयनी’ को आधुनिक काल का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य कहा जाता है।

छायावादी काव्य में आत्मपरकता, प्रकृति के अनेक रूपों का सजीव चित्रण, विश्व मानवता के प्रति प्रेम आदि की अभिव्यक्ति हुई है। इसी काल में मानव मन सूक्ष्म भावों को प्रकट करने की क्षमता हिन्दी भाषा में विकसित हुई।

प्रगतिवाद


वर्ष 1936 के आस-पास से कविता के क्षेत्र में बड़ा परिवर्तन दिखाई पड़ा। प्रगतिवाद ने कविता को जीवन के यथार्थ से जोड़ा। प्रगतिवादी कवि कार्ल मार्क्स की समाजवादी विचारधारा से प्रभावित हैं।

युग की मांग के अनुरूप छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपनी बाद की रचनाओं में प्रगतिवाद का साथ दिया। नरेंद्र शर्मा और दिनकरजी ने भी अनेक प्रगतिवादी रचनाएँ कीं।

प्रगतिवाद के प्रति समर्पित कवियों में केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, रामविलास शर्मा, त्रिलोचन शास्त्री और गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ के नाम उल्लेखनीय हैं।

इस धारा में समाज के शोषित वर्ग मज़दूर और किसानों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गयी। धार्मिक रूढ़ियों और सामाजिक विषमता पर चोट की गयी और हिन्दी कविता एक बार फिर खेतों और खलिहानों से जुड़ी गई।

प्रयोगवाद

प्रगतिवाद के समानांतर प्रयोगवाद की धारा भी प्रवाहित हुई। अज्ञेय को इस धारा का प्रवर्तक स्वीकर किया गया। सन 1943 में अज्ञेय ने ‘तार सप्तक’ का प्रकाशन किया। इसके सात कवियों में प्रगतिवादी कवि अधिक थे। रामविलास शर्मा, प्रभाकर माचवे, नेमिचंद जैन, गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’, गिरिजाकुमार माथुर और भारतभूषण अग्रवाल ये सभी कवि प्रगतिवादी हैं। इन कवियों ने कथ्य और अभिव्यक्ति की दृष्टि से अनेक नवीन प्रयोग किये। अत: ‘तार सप्तक’ को प्रयोगवाद का आधार ग्रंथ माना गया। अज्ञेय द्वारा संपादित ‘प्रतीक’ में इन कवियों की अनेक रचनाएँ प्रकाशित हुई थीं।

नई कविता और समकालीन कविता


सन 1953 ई. में इलाहाबाद से ‘नई कविता’ पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इस पत्रिका में नई कविता को प्रयोगवाद से भिन्न रूप में प्रतिष्ठित किया गया। दूसरा सप्तक (1951), तीसरा सप्तक (1951) तथा चौथे सप्तक के कवियों को भी नए कवि कहा गया। वस्तुत: नई कविता को प्रयोगवाद का ही भिन्न रूप माना जाता है। इसमें भी दो धराएँ परिलक्षित होती हैं-

वैयक्तिक धारा –

इसमें अज्ञेय, धर्मवीर भारती, कुंवर नारायण, श्रीकांत वर्मा, जगदीश गुप्त प्रमुख हैं।

प्रगतिशील धारा –

जिसमें गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’, रामविलास शर्मा, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन शास्त्री, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह तथा सुदामा पांडेय धूमिल आदि उल्लेखनीय हैं।

समकालीन कविता में गीत, नवगीत और ग़ज़ल की ओर रुझान बढ़ा है। आज हिन्दी की निरंतर गतिशील और व्यापक होती हुई काव्य धारा में संपूर्ण भारत के सभी प्रदेशों के साथ ही साथ संपूर्ण विश्व में लोकिप्रिय हो रही है। इसमें आज देश विदेश में रहने वाले अनेक नागरिकताओं के असंख्य विद्वानों और प्रवासी भारतीयों का योगदान निरंतर जारी है।

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