हिन्दी साहित्य का काल विभाजन

प्रस्तुत पोस्ट में हिन्दी साहित्य के इतिहास का अध्ययन किया जाएगा। इसके अतिरिक्त हिन्दी साहित्य का काल विभाजन पर विस्तृत चर्चा इस पोस्ट में की गयी है। काल विभाजन व नामकरण के संबंध में विभिन्न विद्वानों और आचार्यों के मत भी इस पोस्ट में दिये गये हैं।

हिन्दी साहित्य का काल विभाजन

किसी भी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन करने की सर्वाधिक उपयुक्त प्रणाली उस साहित्य में प्रवाहित साहित्य धाराओं, विविध प्रवृत्तियों के आधार पर उसे विभाजित करना है। युग की परिस्थितियों के अनुकूल साहित्य की विषय तथा शैलीगत प्रवृतियाँ परिवर्तित होती रहती है। हिन्दी साहित्य के विषय में भी यही बात युक्तियुक्त प्रतीत होती है। एक विशेष काल में समाज की विशेष परिस्थितियाँ एवं तत्सम्बन्धी विचारधाराएँ रही है और उन्हीं के अनुरुप साहित्यिक रचनाएँ प्रस्तुत हुई है।

हिन्दी साहित्य का इतिहास
हिन्दी साहित्य का इतिहास

हिन्दी साहित्य का काल विभाजन

काल- विभाजन करते समय स्वयं आचार्य शुक्लजी ने विभाजन के आधार के सम्बन्ध में अपना मत स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने कहा है-

“जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियोंकी परम्परा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।”

  • हिन्दी साहित्य के इतिहास की सामग्री ‘भक्तमाल’, ‘चौराशी वैष्णवन की वार्ता’ और ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ आदि ग्रन्थों में मिलती है किंतु कालविभाजन और नामकरण की ओर कोई दृष्टि नहीं की गई थी।
  • हिन्दी साहित्य का इतिहास सर्वप्रथम लिखने का श्रेय एक फ्रेंच विद्वान गार्सा द तासी को दिया जाता है। इन्होंने फ्रेन्च भाषा में ‘इसबार द ला सितरेत्युर रहुई ए हिन्दुस्तानी’ नामक ग्रन्थ में अंग्रेजी वर्ण क्रमानुसार हिन्दी और उर्दू भाषा के अनेक कवियों का परिचय दिया है। परन्तु उन्होंने भी कलविभाजन और नामकरण की ओर ध्यान नहीं दिया था।
  • इस परम्परा का दूसरा महत्वपूर्ण ग्रन्थ हिन्दी विद्वान शिवसिंह सेंगर का ‘शिवसिंह सरोज’ है। इसमें लगभग एक हजार भाषा-कवियों के जीवन चरित्र और इनकी कविताओं के उदाहरण संग्रहित किये है किंतु काल विभाजन का इसमें कोई संकेत नहीं है।

डॉ. जार्ज ग्रियर्सन के विभाजन

  • इस सम्बन्ध में सबसे पहला प्रयास करने का श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को है। पर जैसा कि उन्होंने स्वयं अपने ग्रन्थ की भूमिका में स्वीकार किया है, उनके सामने अनेक ऐसी कठिनाइयाँ थी जिससे वे काल-क्रम एवं काल विभाजन के निर्वाह में पूर्णत: सफल नहीं हो सके। उन्होंने लिखा है –

“सामग्री को यथा संभव कालक्रमानुसार प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। यह सर्वत्र सरल नहीं रहा है और कतिपय स्थलों पर तो यह असंभव सिद्ध हुआ है। इन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास को निम्नलिखित ग्यारह शीर्षकों के अंतर्गत विभाजित किया है। –

जार्ज ग्रियर्सन

(१) चारण-काल 1702 -1300 ई.)

(२) पन्द्रहवीं शती का धार्मिक पुनर्जागरण

(३) जायसी की प्रेम कविता

(४) ब्रज का कृष्ण-सम्प्रदाय,

(५) मुगल दरबार

(६) तुलसीदास

(७) रीति काव्य

(८) तुलसीदास के अन्य परवर्ती

(९) अट्ठारहवीं शताब्दी

(१०) कम्पनी के शासन में हिन्दुस्तान और

(११) महारानी व्हिक्टोरिया के शासन में हिन्दुस्तान।

डॉ. जार्ज ग्रियर्सन के विभाजन में अनेक असंगतियाँ, न्यूनता एवं त्रुटियाँ होते हुए भी प्रथम प्रयास होने के कारण इसका अपना महत्व है। आगे चलकर मिश्र बन्धुओं ने अपने ‘मिश्र बन्धु-विनोद’ (1913) में काल-विभाजन का नया प्रयास किया जो प्रत्येक दृष्टि सें जार्ज ग्रियर्सन के प्रयास से बहुत अधिक प्रौढ़ एवं विकसित कहा जा सकता है। इनका विभाजन इस प्रकार है-


१ आरम्भिक काल / पूर्वारम्भिक काल (600-1343 वि.) उत्तरारम्भिक काल (1344-1444 वि.)
२. माध्यमिक काल/पूर्व माध्यमिक काल (1445-1560 वि.) प्रौढ़ माध्यमिक काल (1561 – 1580 a.)
३. अलंकृत काल / पूर्वालंकृत काल (1681-1790 वि.) उत्तरालंकृत काल (1791-1889वि.)
४. परिवर्तन काल – (1890 – 1925 वि.)
५. वर्तमान काल (1926 वि.से अब तक)

आचार्य रामचन्द्र शुक्लजी का काल-विभाजन

मिश्र बन्धुओं के पश्चात् आचार्य रामचन्द्र शुक्लजी ने सन् 1929 में हिन्दी साहित्य का इतिहास’ प्रस्तुत करते हुए काल-विभाजन का नया प्रयास किया। इनके काल-विभाजन में अधिक सरलता, स्पष्टता एवं सुबोधता है। अपनी इसी विशेषता के कारण वह आज तक सर्वमान्य एवं सर्वत्र प्रचलित है। उनका काल-विभाजन इस प्रकार है-


१. आदिकाल (वीरगाथा काल) संवत् 1050 से 1375
२. पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल) संवत् 1375 से 1700
३. उत्तर मध्यकाल (रीतिकल) संवत् 1700 ते 1900
४. आधुनिक काल (गद्यकाल) संवत् 1900 से अब तक।

डॉ. रामकुमार वर्मा का काल विभाजन

आ. शुक्लजी के पश्चात् डॉ. रामकुमार वर्मा का नाम इस प्रसंग में उल्लेखनीय है, जिन्होंने अपना नया- काल विभाजन प्रस्तुत किया जो इसप्रकार है –
१. सन्धिकाल (750-100 वि.)
२. चारण काल (1000- 1375 वि.)
३. भक्तिकाल (1375-1700 वि.)
४. रीतिकाल (1700 – 1900 वि.)
५. आधुनिक काल (1900 से अब तक)

डॉ. वर्मा के विभाजन के अंतिम तीन काल-विभाजन आचार्य शुक्लजी के ही विभाजन के अनुरूप है, केवल ‘वीरगाथाकाल’ के स्थान पर ‘चारणकाल’ एवं ‘सन्धिकाल’ नाम देकर अपना नयापण स्थापित किया है। इस परम्परा में बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया हुआ काल-विभाजन भी उल्लेखनीय है। उनके काल-विभाजन में आ. शुक्लजी से कोई अधिक भिन्नता नहीं है। उनका काल-विभाजन इस प्रकार है-

बाबू श्यामसुन्दर दास का काल-विभाजन

१. आदिकाल (वीरगाथा का युग संवत् 1000 से संवत् 1400 तक)
२. पूर्व मध्ययुग (भक्ति का युग, संवत् 1400 से संवत् 1700 तक)
३. उत्तर मध्ययुग (रीति ग्रन्थों का युग, संवत् 1700 से, संवत् 1900 तक)
४. आधुनिक युग (नवीन विकास का युग, संवत् 1900 से अब तक)

उपर्युक्त काल-विभाजन की परम्परा में आ. शुक्लजी के बाद कुछ विद्वानों ने थोड़ा-बहुत परिवर्तन करके अपना काल-विभाजन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। परंतु शुक्लजी का इतिहास लेखन का आधार ही अधिक वैज्ञानिक, तर्कसंगत और उपयुक्त प्रतीत होता है।

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त का काल-विभाजन

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ में उसका अनुमोदन किया है। उनका काल-विभाजन इस प्रकार है-

१. प्रारम्भिक काल (1184-1350 ई.)
२. पूर्व मध्यकाल (1350 – 1600 $.)
३. उत्तर मध्यकाल (1600 – 1857.)
४. आधुनिक काल (1857 ई. अब तक)

डॉ. नगेन्द्र का काल-विभाजन

इस परम्परा में डॉ. नगेन्द्र का नाम भी उल्लेखनीय है। उन्होंने हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन तथा नामकरण इस प्रकार किया है –

  1. आदिकाल- 7वीं शती के मध्य से 14 वीं शती के मध्य तक।
  2. भक्तिकाल 14वीं शती के मध्य से 17 वीं शती के मध्य तक।
  3. रीतिकाल- 17 वीं शती के मध्य से 19 वीं शती के मध्य तक।
  4. आधुनिक काल – 19वीं शती के मध्य से अब तक।
    1. अ) पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु काल) सं. 1877 – 1900 ई.
    2. ब) जागरण-सुधार काल (द्विवेदी काल) सं. 1900 – 1918 ई.
    3. क) छायावाद काल सं.1918-1938 ई.
    4. ड) छायावादोत्तर काल
      • प्रगति-प्रयोग काल – सं. 1938-1953 ई.
      • नवलेखन काल सं. 1953 ई. से अब तक।

उपर्युक्त सभी विद्वानों के काल-विभाजन में आ. शुक्लजी का काल-विभाजन ही सर्वसम्मत एवं उपर्युक्त माना गया है।

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