छायावाद अर्थ विशेषता

छायावाद का अर्थ

विद्वानों में मतभेद

  • मुकुटधर पाण्डेय – ‘रहस्यवाद’,
  • सुशील कुमार -‘अस्पष्टता’,
  • महावीर प्रसाद द्विवेदी – ‘अन्योक्ति पद्धति’,
  • रामचन्द्र शुक्ल – ‘शैली वैचित्र्य’,
  • नंद दुलारे बाजपेयी – ‘आध्यात्मिक छाया का भान’,
  • डॉ० नगेन्द्र – ‘स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह’
छायावादी युग
छायावादी युग

‘छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है जो 1918 ई० से लेकर 1936ई० (‘उच्छवास’ से ‘युगान्त’) तक लिखी गई’।

नामवर सिंह

किसी कविता के भावों की छाया यदि कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो वह ‘छायावादी कविता’ है।

पंत की  पंक्तियाँ

 नारी स्वातंत्र्य संबंधी :कहो कौन तुम दमयंती सी इस तरु के नीचे सोयी, अहा तुम्हें भी त्याग गया क्या अलि नल-सा निष्ठुर कोई।

छायावाद युग की विशेषताएँ :

  • आत्माभिव्यक्ति -उत्तम पुरुष (‘मैं’)शैली
  • आत्म-विस्तार/सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति
  • प्रकृति प्रेम
  • नारी प्रेम एवं उसकी मुक्ति का स्वर
  • अज्ञात व असीम के प्रति जिज्ञासा (रहस्यवाद)
  • सांस्कृतिक चेतना व सामाजिक चेतना/मानवतावाद
  • स्वच्छंद कल्पना का नवोन्मेष
  • विविध काव्य-रूपों का प्रयोग
  • काव्य-भाषा-ललित-लवंगी कोमल कांत पदावली वाली भाषा
  • मुक्त छंद का प्रयोग
  • प्रकृति संबंधी बिम्बों की बहुलता
  • भारतीय अलंकारों के साथ-साथ अंग्रेजी साहित्य के मानवीकरण व विशेषण विपर्यय अलंकारों का विपुल प्रयोग

छायावाद युग से जुड़े प्रमुख तथ्य:-

छायावाद के कवि चातुष्टय –

  • प्रसाद, निराला, पंत व महादेवी
  • छायावादी काव्य में प्रसाद ने यदि प्रकृति को मिलाया, निराला ने मुक्तक छन्द दिया, पंत ने शब्दों को खराद पर चढ़ाकर सुडौल और सरस बनाया, तो महादेवी ने उसमें प्राण डाले।
  • प्रसाद की प्रथम काव्य कृति -उर्वशी (1909ई०)
  • प्रसाद की प्रथम छायावादी काव्य कृति -झरना (1918 ई०)
  • प्रसाद की अंतिम काव्य कृति कामायनी (1937 ई०) -सर्वाधिक प्रसिद्ध काव्य कृति
  • कामायनी के पात्र -मनु, श्रद्धा व इड़ा
  • पंत की प्रथम छायावादी काव्य कृति -उच्छवास (1918 ई०)
  • पंत की अंतिम छायावादी काव्य कृति -गुंजन (1932 ई०)

छायावाद युग की प्रसिद्ध पंक्तियाँ

निराला की प्रसिद्ध पंक्तियाँ

  • मैंने मैं शैली अपनाई
  • देखा एक दुःखी निज भाई। -निराला

व्यर्थ हो गया जीवन

मैं रण में गया हार। (‘वनवेला’) -निरालाा

धन्ये, मैं पिता निरर्थक था

कुछ भी तेरे हित न कर सका।

जाना तो अर्थागमोपाय

पर रहा सदा संकुचित काय

लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर

हारता रहा मैं स्वार्थ समर। (‘सरोज स्मृति’) -निराला

छोटे से घर की लघु सीमा में

बंधे है क्षुद्र भाव,

यह सच है प्रिय

प्रेम का पयोनिधि तो उमड़ता है

सदा ही निःसीम भू पर। (‘पंचवटी प्रसंग’) -निराला

ताल-ताल से रे सदियों के जकड़े हृदय कपाट

खोल दे कर-कर कठिन प्रहार

आए अभ्यन्तर संयत चरणों से नव्य विराट

करे दर्शन पाये आभार। -निराला

दिवसावसान का समय

मेघमय आसमान से उतर रही है

वह संध्या सुंदरी परी-सी

धीरे-धीरे-धीरे। (‘संध्या सुंदरी’) -निराला

भारति जय विजय करे। -निराला

शेरो की माँद में

आया है आज स्यार

जागो फिर एक बार। -निराला

वह आता

दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता। -निराला

वह तोड़ती पत्थर।

देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर। -निराला

विजय-वन-वल्लरी पर

सोती थी सुहाग भरी

स्नेह-स्वप्न-मग्न-अमल-कोमल तन तरुणी

जूही की कली

दृग बंद किए, शिथिल पत्रांक में। (‘जूही की कली’) -निराला

मुक्त छंद

सहज प्रकाशन वह मन का

निज भावों का प्रकट अकृत्रिम चित्र। -निराला

बाँधों न नाव इस ठाँव, बंधु !

पूछेगा सारा गाँव, बंधु ! -निराला

स्नेह निर्झर बह गया है -निराला

प्रिय के हाथ लगाए जागी, ऐसी मैं सो गई अभागी -निराला

पन्त की प्रसिद्ध पंक्तियाँ

हाँ सखि ! आओ बाँह खोलकर हम

लगकर गले जुड़ा ले प्राण

फिर तुम तम में, मैं प्रियतम में

हो जावें द्रुत अंतर्धान। -पंत

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया

तोड़ प्रकृति से भी माया

बाले तेरे बाल-जाल में

कैसे उलझा दूँ लोचन ? -पंत

स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार

चकित रहता शिशु सा नादान,

विश्व के पलकों पर सुकुमार

विचरते है स्वप्न अजान !

न जाने, नक्षत्रों से कौन ?

निमंत्रण देता मुझको मौन !!

(‘मौन निमंत्रण’) -पंत

राजनीति का प्रश्न नहीं रे आज

जगत के सम्मुख एक वृहत सांस्कृतिक समस्या जग के निकट उपस्थित -पंत

भारत माता ग्रामवासिनी। -पंत

वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान।

उमड़ कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।। -पंत

खुल गये छंद के बंध

प्रास के रजत पाश। -पंत

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि ! तूने कैसे पहचाना ? -पंत

हाय ! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन।

जब विषण्ण निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन।

(ताज -‘युगांत’) -पंत

कहो तुम रूपसि कौन, व्योम से उत्तर रही चुपचाप -पंत

शैया सैकत पर दुग्ध धवल तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विकल -पंत

प्रसाद की प्रसिद्ध पंक्तियाँ

बीती विभावरी जाग री !

अम्बर-पनघट में डूबो रही

तारा-घट-ऊषा-नागरी।

-प्रसाद

नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में

पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।

(‘कामायनी’) -प्रसाद

नील परिधान बीच सुकुमार

खुल रहा मृदुल अधखुला अंग

खिला हो ज्यों बिजली का फूल

मेघ बीच गुलाबी रंग।

(‘कामायनी’) -प्रसाद

ले चल वहाँ भुलावा देकर

मेरे नाविक ! धीरे-धीरे।

जिस निर्जन में सागर लहरी

अम्बर के कानों में गहरी

निश्छल प्रेम कथा कहती हो

तज कोलाहल की अवनी रे।

(‘लहर’) -प्रसाद
  • हिमालय के आंगन में जिसे प्रथम किरणों का दे उपहार -प्रसाद
  • छोड़ो मत ये सुख का कण है। -प्रसाद
  • आह ! वेदना मिली विदाई। (‘स्कंदगुप्त’) -प्रसाद
  • जिए तो सदा उसी के लिए यही अभिमान रहे यह हर्ष निछावर कर दे हम सर्वस्व हमारा प्यारा भारतवर्ष। (‘स्कंदगुप्त’) -प्रसाद

अरुण यह मधुमय देश हमारा।

जहाँ पहुँच अनजान झितिज को मिलता एक सहारा। (‘चन्द्रगुप्त’) -प्रसाद

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से

प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयंप्रभा समुज्जवला

स्वतंत्रता पुकारती

अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो,

प्रशस्त पुण्य पंथ है-बढ़े चलो, बढ़े चलो।

(‘चन्द्रगुप्त’) -प्रसाद

तुमुल कोलाहल में

मैं हृदय की बात रे मन। (‘कामायनी’) -प्रसाद

जो घनीभूत पीड़ा थी

मस्तक में स्मृति-सी छाई,

दुर्दिन में आँसू बनकर

वह आज बरसने आई।

(‘आँसू’) -प्रसाद
  • अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है (स्कंदगुप्त’) -प्रसाद
  • औ वरुणा की शांत कछार -प्रसाद

अधरों में राग अमंद पिये, अलकों में मलयज बंद किये

तू अब तक सोई है आली, आँखों में भरे विहाग री -प्रसाद

महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध पंक्तियाँ

मैं नीर भरी दुःख की बदली -महादेवी

तुमको पीड़ा में ढूँढा

तुमको ढूँढेगी पीड़ा -महादेवी

तोड़ दो यह झितिज, मैं भी देख लूं उस ओर क्या है ?

  • जा रहे जिस पंथ से युग कल्प, उसका छोर क्या है ? -महादेवी
  • सजनि मधुर निजत्व दे कैसे मिलू अभिमानिनी मैं -महादेवी वर्मा

छायावाद युग पर कथन

  • ‘प्रसाद पढ़ाने योग्य हैं, निराला पढ़े जाने योग्य है और पंतजी से काव्यभाषा सीखने योग्य है’ । -अज्ञेय
  • छायावादी कविता का गौरव अक्षय है उसकी समृद्धि की समता केवल भक्ति काव्य ही कर सकता है। -डॉ० नगेन्द्र
  • ‘निराला से बढ़कर स्वच्छंदतावादी कवि हिन्दी में नहीं है’। -हजारी प्रसाद द्विवेदी
  • ‘मैं मजदूर हूँ, मजदूरी किए बिना मुझे भोजन करने का अधिकार नहीं’। -प्रेमचंद्र
  • ‘यदि प्रबंध काव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक चुना हुआ गुलदस्ता’। -रामचन्द्र शुक्ल
  • साहित्य, राजनीति के पीछे चलनेवाली सच्चाई नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सच्चाई है’। -प्रेमचंद (प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष पद से बोलते हुए, 1936)

छायावादयुगीन रचना एवं रचनाकार

छायावादी कालधारा 

  • उर्वशी, वनमिलन, प्रेमराज्य, अयोध्या का उद्धार, शोकोच्छवास, बभ्रूवाहन, कानन कुसुम, प्रेम पथिक, करुणालय, महाराणा का महत्व; झरना, आँसू, लहर, कामायनी ( छायावादी कविता) जयशंकर प्रसाद
  • अनामिका, परिमल, गीतिका, तुलसीदास, सरोज स्मृति (कविता), राम की शक्ति पूजा (कविता) – सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
  • उच्छवास, ग्रन्थि, वीणा, पल्लव, गुंजन (छायावादयुगीन); युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि, रजतशिखर, उत्तरा, वाणी, पतझर, स्वर्ण काव्य, लोकायतन   –  सुमित्रानंदन पंत
  • नीहार, रश्मि, नीरजा व सांध्य गीत (सभी का संकलन ‘यामा’ नाम से)-महादेवी वर्मा
  • रूपराशि, निशीथ, चित्ररेखा, आकाशगंगा –  राम कुमार वर्मा
  • राका, मानसी, विसर्जन, युगदीप, अमृत और विष  –उदय शंकर भट्ट
  • निर्माल्य, एकतारा, कल्पना-   ‘वियोगी’
  • अन्तर्जगत  – लक्ष्मी नारायण मिश्र
  • अनुभूति, अंतर्ध्वनि-  जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’

राष्ट्रवादी सांस्कृतिक काव्यधारा

  • कैदी और कोकिला, हिमकिरीटिनी, हिम तरंगिनी, पुष्प की अभिलाषा (क०)-माखन लाल चतुर्वेदी
  • मौर्य विजय, अनाथ, दूर्वादल, विषाद, आर्द्रा, पाथेय, मृण्मयी, बापू, दैनिकी-  सिया राम शरण गुप्त
  • त्रिधारा, मुकुल, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी (क०), वीरों का कैसा हो वसंत –सुभद्रा कुमारी चौहान

छायावाद से जुड़ी अन्य बातें

  • नामवर सिंह ने अपनी किताब ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’ के ‘छायावाद’ शीर्षक अध्याय में छायावाद की सीमा तय करते हुए ईसवी सन 1918 से 1936 (‘उच्छ्वास’ से ‘युगान्त’) तक सुमित्रानंदन पंत के दो काव्य-संग्रहों के प्रकाशन वर्ष का उल्लेख किया है ।
  • उनके अनुसार ‘छायावाद हिन्दी साहित्य के “रोमांटिक” उत्थान की काव्यधारा है ।
    असहयोग आंदोलन के आरंभ से लेकर प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना तक का कालखंड छायावाद का समय माना जा सकता है ।
  • जयशंकर प्रसाद ने ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती/ स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती/ अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो/ प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो बढ़े चलो ।’ जैसा प्रयाण गीत लिखा ।
  • निराला ने आध्यात्मिक रंग लिए हुए ‘जागो फिर एक बार’ जैसी कविताओं या ‘वर दे वीणावादिनि वर दे’ जैसे गीतों में ‘प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव/ भारत में भर दे’ कहकर देश की बात की ।
  • महादेवी के ‘पंथ रहने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला’ जैसे गीत में ओज और उत्साह का स्रोत स्वाधीनता आंदोलन ही है ।
  • जयशंकर प्रसाद ने कहा कि मोती की तरलता को उसकी छाया कहा जाता है । इसी तरह जब कविता में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ में एक तरल कांति उत्पन्न हो जाती है यानी जब कविता में प्रयुक्त शब्दों में उनके सामान्य अर्थ के अतिरिक्त अर्थ पैदा होने लगते हैं तो ऐसी कविता को छायावादी कविता कहना चाहिए ।
  • ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’ में नामवर सिंह ने बताया है कि ‘छायावाद’ संज्ञा का प्रचलन 1920 ईसवी तक हो चुका था ।
  • इसका प्रमाण जबलपुर की पत्रिका ‘श्री शारदा’ में मुकुटधर पांडेय की लेखमाला ‘हिंदी में छायावाद’ के प्रकाशन से मिलता है ।
  • ज्योति प्रसाद मिश्र निर्मल ने जून 1924 की मनोरमा में ‘हिंदी कविता की गति’ शीर्षक लेख में लिखा ‘जिन दिशाओं से यह नूतन लालिमा दृष्टिगोचर हो रही है, वह बंगला और अंग्रेजी है, और यदि हम इतना कहने का साहस करने के लिए क्षमा किए जाएं तो यह स्पष्ट निवेदन करेंगे कि हमारे अधिकांश परिवर्तनवादी कवि बंगला के उत्कृष्ट कवियों की प्रतिभा से प्रतिभायुक्त, तपस्या से तपस्वी और साधना से साधक बन रहे हैं ।’
  • निर्मल जी ने निराला की कविता का उदाहरण दिया था इसलिए यह बहस बहुत तीखे ढंग से चली कि निराला ने रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता की नकल की है ।
  • ‘मतवाला’ में 1924 में ही नवजादिक लाल श्रीवास्तव ने इस प्रसंग में निराला की ओर से लिखा ‘जब कविता धाराप्रवाह निकलने लगती है उस समय कवि का ध्यान तुक की ओर नहीं रहता, वह भावों का ही अनुसरण करता है । तुकबंदी कविता की नक्काशी है, वह मुक्त काव्य नहीं । मुक्त काव्य ही कविता का सच्चा स्वरूप है ।’
  • खुद निराला ने 1925 के कवि में प्रकाशित ‘कवि और कविता’ शीर्षक लेख में इस सिलसिले में लिखा ‘जिस तरह मुक्त पुरुष संसार के किसी नियम के वशीभूत नहीं रहते, किंतु उन नियमों की सीमा पार कर सदा मुक्ति के आनंद में विहार करते रहते हैं, उसी तरह मुक्त कवि भी अपनी कविता को पिंगल के बंधन में नहीं रखना चाहते ।’
  • 1926 में सुमित्रानंदन पंत के काव्य संग्रह ‘पल्लव’ के प्रकाशन के बाद उसकी कविताओं तथा उसकी भूमिका के चलते छायावाद हिंदी में स्थापित हो गया ।
  • द्विवेदी युग से थोड़ा खड़ी बोली में कविता लिखने की कोशिश शुरू हुई लेकिन मैथिलीशरण गुप्त और अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के लेखन में स्वाभाविक काव्य प्रवाह खड़ी बोली में नहीं आ सका था । छायावाद की कविता ने व्यावहारिक धरातल पर भी खड़ी बोली में प्रवाहयुक्त रसमय कविता का मानक स्थापित कर दिया ।
  • श्री शारदा में प्रकाशित ‘छायावाद क्या है’ में मुकुटधर पांडेय ने छायावाद के लिए प्रयुक्त धारणा रहस्यवाद की भी नींव रख दी थी ।
  • नामवर सिंह ने आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां में शामिल ‘छायावाद’ शीर्षक उक्त लेख में कहा है कि ‘पंत के ‘पल्लव’ और प्रसाद के ‘झरना’ आदि संग्रहों की कविताओं को 1927 ईसवी तक अंग्रेजी में ‘मिस्टिसिज्म’ और हिंदी में कभी ‘छायावाद’ और कभी ‘रहस्यवाद’ कहा जाता था ।
  • ‘ छायावाद और रहस्यवाद को समानार्थी समझने के कारण ही महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1927 की ‘सरस्वती’ में ‘सुकवि किंकर’ के छद्म नाम से लिखे लेख ‘आजकल के हिंदी कवि और कविता’ में लिखा ‘आजकल जो लोग रहस्यमयी या छायामूलक कविता लिखते हैं
  • द्विवेदी जी ने छायावाद के समर्थकों को अपने इस लेख से उत्तेजित कर दिया था । जिन लोगों ने छायावाद के समर्थन में लिखा उनमें कृष्णदेव प्रसाद गौड़ और अवध उपाध्याय ने छायावादी कविता को रहस्यवादी मानकर उसका पक्ष लिया । इसी कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 1929 में एक गंभीर लेख लिखा ‘काव्य में रहस्यवाद’ ।
  • नामवर सिंह का कहना है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा किए गए विवेचन में ‘तात्विक दृष्टि से उन रचनाओं को “रहस्यवाद” कहा जाता था और रूप-विधान की दृष्टि से “छायावाद” ‘ । कहने का मतलब कि शुक्ल जी इन कविताओं की अंतर्वस्तु को रहस्यवाद कहते थे और रूप को छायावाद । शुक्ल जी के इस लेख के बाद छायावाद के दो ऐसे समर्थक सामने आए जिन्होंने सहानुभूति के साथ छायावाद का विवेचन-विश्लेषण किया । ये थे नंद दुलारे वाजपेयी और शांतिप्रिय द्विवेदी ।
  • ‘विशाल भारत’ के दिसंबर 1929 में श्री ठाकुर प्रसाद शर्मा का लेख ‘छायावाद’ छपा ।
    निराला ने कविता में ‘नए पत्ते’ संग्रह में नई जमीन तोड़ी । उन्होंने गद्य में भी इस बदलाव को स्वर दिया और ‘कुल्ली भाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ जैसे यथार्थवादी उपन्यास लिखे । जयशंकर प्रसाद का उपन्यास ‘कंकाल’ भी इसी नए चेतना का परिचायक था ।
  • सामाजिक राजनीतिक हालात में बदलाव तथा वैचारिक वातावरण में परिवर्तन के चलते छायावाद का अतिक्रमण करके हिंदी साहित्य में कुछ नई साहित्यिक प्रवृत्तियों का आगमन हुआ जिनकी चरम परिणति प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और प्रगतिवाद की स्थापना में हुई ।
  • शांतिप्रिय द्विवेदी ने 1934 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘हमारे साहित्य निर्माता’ में छायावाद को ‘लौकिक अभिव्यक्ति’ माना और रहस्यवाद को ‘अलौकिक’ । इस तरह उन्होंने इन दोनों के बीच अंतर माना और कहा ‘जिस प्रकार ‘मैटर आफ़ फ़ैक्ट’ के आगे की चीज छायावाद है, उसी प्रकार छायावाद के आगे की चीज रहस्यवाद है । छायावाद में यदि एक जीवन के साथ दूसरे जीवन की अभिव्यक्ति है अथवा आत्मा के साथ आत्मा का सन्निवेश है, तो रहस्यवाद में आत्मा का परमात्मा के साथ ।’ शांतिप्रिय द्विवेदी ने रहस्यवाद को न केवल छायावाद से भिन्न माना बल्कि रहस्यवाद का समर्थन भी नहीं किया ।

जयशंकर प्रसाद

  • जयशंकर प्रसाद में काव्य लेखन की शुरुआत ब्रजभाषा से करने के बावजूद ‘कामायनी’ के रूप में उन्होंने सबसे लंबी काव्य-यात्रा तय की । बीच में उनका खंड-काव्य ‘आंसू’ है जिसकी प्रसिद्धि गेयता के चलते उस दौर में बहुत थी । इसमें प्रेम की असफलता से पैदा उदासी ऐसी चित्रात्मक भाषा में व्यक्त की गई थी कि युवकों को बेहद आकर्षित करती थी । ऐसे बांध लेने वाले टुकड़े ‘कामायनी’ में भी हैं लेकिन उसका सौंदर्य आधुनिक जीवन की विडंबना-‘ज्ञान-क्रिया-इच्छा’ के बीच के संबंध-विच्छेद- को उठाने में निहित है । अकेले इसी महाकाव्य का विश्लेषण अनेक आलोचनात्मक और व्याख्यात्मक पुस्तकों में किया गया है । श्रद्धा का उद्बोधन ‘शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त/विकल बिखरे हैं हो निरुपाय/ समन्वय उनका करे समस्त/विजयिनी मानवता हो जाय’ नवजागरण का घोष प्रतीत होता है । किसी मनोभाव को पात्र बनाकर उसकी मूर्ति खड़ी कर देने के मामले में ‘कामायनी’ का लज्जा सर्ग अप्रतिम है । काव्य-व्याख्या के लिए जयशंकर ‘प्रसाद’ न केवल चुनौतीपूर्ण हैं, बल्कि मन लगाने वाले भी । उनकी बिंबात्मक भाषा ठहरकर अर्थ खोलने की मांग करती है ।
  • अंतिम नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ में तो तलाक लेने का अधिकार स्त्री को दिया गया है ।
    ‘आकाशदीप’ में प्रेम और स्वाधीनता के टकराव को जितनी तीक्ष्णता से उन्होंने उठाया है वह उनकी आधुनिक दृष्टि का परिचायक है ।
    प्रगतिवाद को ‘लघुता की ओर दृष्टिपात’ कहकर उन्होंने इसकी संक्षिप्ततम परिभाषा की । नाटक और रंगमंच के रिश्ते को उन्होंने यह कहकर सूत्रबद्ध किया कि ‘रंगमंच नाटक के लिए होता है’ ।
  • ‘रस’ तथा ‘अलंकार’ को ही मूल धारा मानते हुए अन्य संप्रदायों को इन्हीं के मिश्रण से उत्पन्न बताया ।
  • कविता को ‘आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति’ कहना अब भी व्याख्या की दरकार रखता है ।
  • जयशंकर प्रसाद के बारे में यह धारणा सही है कि वे दार्शनिक कवि थे । मुक्तिबोध ने यह बात कही है ।
  • उदाहरण के लिए ‘आंसू से भीगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा/ तुमको अपनी स्मिति रेखा से यह संधि पत्र लिखना होगा’ में लग सकता है कि वे इसकी ताईद कर रहे हैं लेकिन थोड़ा ध्यान देते ही आंख में आंसू और चेहरे पर मुस्कान की मजबूरी की विडंबना सामने आ जाती है ।
  • रामस्वरूप चतुर्वेदी ने काम के प्रेम और रति के लज्जा में रूपांतरण को मनुष्य की सांस्कृतिक परिष्कृति के रूप में परिभाषित किया है ।
  • आचार्य शुक्ल ने संकेत किया है कि प्रसाद जी साम्यवादी विचारों से प्रभावित थे ।

निराला

  • रामविलास शर्मा की लिखी तीन खंडों में प्रकाशित ‘निराला की साहित्य साधना’ इनके जीवन और साहित्य की समझ के लिए सर्वोत्तम पुस्तक है ।
  • निराला के प्रत्येक काव्य संग्रह में काव्य-बोध के बदलाव तथा काव्य-कला की नई ऊंचाई पर अनेक आलोचकों ने टिप्पणी की है ।
  • नागार्जुन के पहले निराला ही थे जिन्होंने कविता के सीमांत छुए और वहां भी कविता को संभव किया ।
  • ‘राम की शक्तिपूजा’ शीर्षक कविता में उन्होंने माइकेल मधुसूदन दत्त की ‘मेघनाथ वध’ की तरह संस्कृतनिष्ठ पदावली की झड़ी लगा दी ।
  • ‘सरोज स्मृति’ शीर्षक कविता उन्होंने अपनी पुत्री के देहांत पर शोकगीत के ढांचे में लिखी ।
  • इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कवि पिता ने अपनी पुत्री का सौंदर्य वर्णन किया है । यह वर्णन कविता की दुनिया में दुर्लभ है ।
  • ‘तुलसीदास’ शीर्षक कविता भक्तिकाल के इस महान कवि के सांस्कृतिक उन्मेष की रचनात्मक व्याख्या है ।
  • ‘कुकुरमुत्ता’ शीर्षक कविता अभिजात सौंदर्याभिरुचि पर प्रहार है
  •  आचार्य शुक्ल ने ठीक ही उनकी प्रतिभा को ‘बहुवस्तुस्पर्शिनी’ कहा था ।

महादेवी वर्मा

  • महादेवी वर्मा ने ‘श्रृंखला की कड़ियां’ भारतीय स्त्री पर आरोपित व्यवस्थित सामाजिक बंधनों का विश्लेषण है ।

सुमित्रानंदन पंत

  • सुमित्रानंदन पंत की कविताओं ने प्रकृति चित्रण के नाते लोकप्रिय भाषा में ‘प्रकृति का सुकुमार कवि’ कहा जाता है । प्रकृति चित्रण के अतिरिक्त गांधीवाद, मार्क्सवाद से लेकर अरविंद दर्शन तक को उन्होंने काव्य का विषय बनाया । हिंदी में उत्तर छायावादी दौर में प्रचलित हालावाद का भी उन्होंने अनुकरण करने की कोशिश की ।
  • हिंदी कहानी की दुनिया में प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद को विरोधी प्रवृत्तियों का लेखक माना जाता है और इसी आधार पर इन दोनों के नाम पर दो स्कूलों की कल्पना की जाती है ।

रामचंद्र शुक्ल

  •  छंद को ध्वनि आवर्तों का पैटर्न मानने में छायावादी काव्य संस्कारों की गूंज है ।
  • ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में रीतिकालीन कवियों में बिहारी के मुकाबले देव की कविता का पक्ष लेने तथा रीतिमुक्त काव्यधारा में घनानंद की प्रतिष्ठा के पीछे छायावादी काव्य संस्कारों का प्रभाव बताते है ।

छायावाद युग (1918ई० – 1936 ई०)

  • छायावाद का अर्थ मुकुटधर पाण्डेय ने ‘रहस्यवाद’, सुशील कुमार ने ‘अस्पष्टता’, महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘अन्योक्ति पद्धति’, रामचन्द्र शुक्ल ने ‘शैली वैचित्र्य’, नंद दुलारे बाजपेयी ने ‘आध्यात्मिक छाया का भान’, डॉ० नगेन्द्र ने ‘स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह’ बताया है।
  • नामवर सिंह के शब्दों में, ‘छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है जो 1918 ई० से लेकर 1936ई० (‘उच्छवास’ से ‘युगान्त’) तक लिखी गई’।
  • सामान्य तौर पर किसी कविता के भावों की छाया यदि कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो वह ‘छायावादी कविता’ है।
  • उदाहरण के तौर पर पंत की निम्न पंक्तियाँ देखी जा सकती है जो कहा तो जा रहा है छाँह के बारे में लेकिन अर्थ निकल रहा है नारी स्वातंत्र्य संबंधी :

कहो कौन तुम दमयंती सी इस तरु के नीचे सोयी,

अहा तुम्हें भी त्याग गया क्या अलि नल-सा निष्ठुर कोई।

छायावाद युग की विशेषताएँ :
(1) आत्माभिव्यक्ति अर्थात ‘मैं’ शैली/उत्तम पुरुष शैली
(2) आत्म-विस्तार/सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति
(3) प्रकृति प्रेम
(4) नारी प्रेम एवं उसकी मुक्ति का स्वर
(5) अज्ञात व असीम के प्रति जिज्ञासा (रहस्यवाद)
(6) सांस्कृतिक चेतना व सामाजिक चेतना/मानवतावाद
(7) स्वच्छंद कल्पना का नवोन्मेष
(8) विविध काव्य-रूपों का प्रयोग
(9) काव्य-भाषा-ललित-लवंगी कोमल कांत पदावली वाली भाषा
(10) मुक्त छंद का प्रयोग
(11) प्रकृति संबंधी बिम्बों की बहुलता
(12) भारतीय अलंकारों के साथ-साथ अंग्रेजी साहित्य के मानवीकरण व विशेषण विपर्यय अलंकारों का विपुल प्रयोग

प्रेम, नारी प्रेम, मानवीकरण, सांस्कृतिक जागरण, कल्पना की प्रधानता आदि छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएं हैं।

  • छायावाद के कवि चातुष्टय -प्रसाद, निराला, पंत व महादेवी
  • छायावादी काव्य में प्रसाद ने यदि प्रकृति को मिलाया, निराला ने मुक्तक छन्द दिया, पंत ने शब्दों को खराद पर चढ़ाकर सुडौल और सरस बनाया, तो महादेवी ने उसमें प्राण डाले।
  • प्रसाद की प्रथम काव्य कृति -उर्वशी (1909ई०)

  • प्रसाद की प्रथम छायावादी काव्य कृति -झरना (1918 ई०)

  • प्रसाद की अंतिम काव्य कृति –कामायनी (1937 ई०)

  • पंत की प्रथम छायावादी काव्य कृति -उच्छवास (1918 ई०)

  • पंत की अंतिम छायावादी काव्य कृति -गुंजन (1932 ई०

  • गीति काव्य’- करुणालय’ (प्रसाद),’पंचवटी प्रसंग’ (निराला),’शिल्पी’ व ‘सौवर्ण रजत शिखर’ (पंत)
  • प्रबंध काव्य’-कामायनी’ व ‘प्रेम पथिक’ (प्रसाद),

‘ग्रंथि’, ‘लोकायतन’ व ‘सत्यकाम’ (पंत),’तुलसीदास’ (निराला)

  • लंबी कविता- ‘प्रलय की छाया’ व ‘शेर सिंह का शस्त्र समर्पण’ (प्रसाद) ‘सरोज स्मृति’ व ‘राम की शक्ति पूजा’ (निराला), ‘परिवर्तन’ (पंत)
  • रोमांटिक उत्थान की वह काव्य-धारा
  • छायावाद नामकरण का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है।

मुकुटधर पाण्डेय ने 1920 ई में जबलपुर से प्रकाशित श्री शारदा पत्रिका में एक निबंध प्रकाशित किया जिस निबंध में उन्होंने छायावाद शब्द का प्रथम प्रयोग किया | मुकुटधर पांडेय जी द्वारा रचित कविता “कुररी के प्रति” छायावाद की प्रथम कविता मानी जाती है ।

छायावाद ने हिंदी में खड़ी बोली कविता को पूर्णतः प्रतिष्ठित कर दिया।
इसे ‘साहित्यिक खड़ीबोली का स्वर्णयुग’ कहा जाता है।

द्विवेदी युग की कविता नीरस उपदेशात्मक और इतिवृत्तात्मक थी। छायावाद में इसके विरुद्ध विद्रोह करते हुए कल्पनाप्रधान, भावोन्मेशयुक्त कविता रची गई।

यह भाषा और भावों के स्तर पर अपने दौर के बांग्ला के सुप्रसिद्ध कवि और नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजली से बहुत प्रभावित हुई। यह प्राचीन संस्कृत साहित्य (वेदों, उपनिषदों तथा कालिदास की रचनाओं) और मध्यकालीन हिंदी साहित्य (भक्ति और श्रृंगार की कविताओं) से भी प्रभावित हुई। इसमें बौद्ध दर्शन और सूफी दर्शन का भी प्रभाव लक्षित होता है। छायावादयुग उस सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरण का सार्वभौम विकासकाल था जिसका आरंभ राष्ट्रीय परिधि में भारतेंदुयुग से हुआ था।

छायावाद युग के प्रतिनिधि कवि हैं- प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, रामकुमार। पूर्वानुगामी सहयोगी हैं- माखनलाल और ‘नवीन’।

छायावाद के कवि भी ‘स्वात्म’ को लेकर एकांत के स्वगत जगत् से सार्वजनिक जगत् में अग्रसर हुए। प्रसाद की ‘कामायनी’ और पंत का ‘लोकायतन’ इसका प्रमाण है। ‘कामायनी’ सिंधु में विंदु (एकांत अंतर्जगत्) की ओर है, ‘लोकायतन’ विंदु में सिंधु (सार्वजनिक जगत्) की ओर।

विभिन्न आलोचकों की दृष्टि में छायावाद

रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में लिखा है कि-

छायावादी शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिये। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम का अनेक प्रकार से व्यंजन करता है। इस अर्थ का दूसरा प्रयोग काव्य-शैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में होता है’
छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन।
छायावाद का चलन द्विवेदी काल की रूखी इतिवृत्तात्मक (कथात्मकता) की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था।
जैसे, “धूल की ढेरी में अनजाने, छिपे हैं मेरे मधुमय गान।””

आलोचक की दृष्टि में

नंददुलारे वाजपेयी ने लिखा है कि-

“प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या होनी चाहिए।’

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास में लिखा है कि-

सन् 1920 की खड़ीबोली कविता में विषयवस्तु की प्रधानता बनी हुई थी। परंतु इसके बाद की कविता में कवि के अपने राग-विराग की प्रधानता हो गई। विषय अपने आप में कैसा है ? यह मुख्य बात नहीं थी। बल्कि मुख्य बात यह रह गई थी कि विषयी (कवि) के चित्त के राग-विराग से अनुरंजित होने के बाद विषय कैसा दीखता है ? परिणाम विषय इसमें गौण हो गया और कवि प्रमुख।”

नगेन्द्र ने लिखा है कि-

“1920 के आसपास, युग की उद्बुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर, जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की, वह काव्य में छायावाद के रूप में अभिव्यक्त हुई।”

नामवर सिंह ने छायावाद में लिखा है कि-

“छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है, जो १९१८ से ३६ ई. के बीच लिखी गईं।’ वे आगे लिखते हैं- ‘छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढि़यों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।”

छायावादी कवियों की दृष्टि में

जयशंकर प्रसाद ने लिखा कि- “काव्य के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे छायावाद नाम से अभिहित किया गया।” वे यह भी कहते हैं कि- “छायावादी कविता भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्य, प्रकृति-विधान तथा उपचार वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृत्ति छायावाद की विशेषताएँ हैं।”
सुमित्रानंदन पंत छायावाद को पाश्चात्य साहित्य के रोमांटिसिज्म से प्रभावित मानते हैं।
महादेवी वर्मा छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद को मानती हैं और प्रकृति को उसका साधन।
महादेवी के अनुसार छायावाद की कविता हमारा प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध स्थापित कराके हमारे ह्रृदय में व्यापक भावानुभूति उत्पन्न करती है और हम समस्त विश्व के उपकरणों से एकात्म भाव संबंध जोड़ लेते हैं। वे रहस्यवाद को छायावाद का दूसरा सोपान मानती हैं।

छायावाद की मुख्य विशेषताएँ (प्रवृत्तियाँ)

आत्माभिव्यक्ति
छायावाद में सभी कवियों ने अपने अनुभव को मेरा अनुभव कहकर अभिव्यक्त किया है। इस मैं शैली के पीछे आधुनिक युवक की स्वयं को अभिव्यक्त करने की सामाजिक स्वतंत्रता की आकांक्षा है।

नारी-सौंदर्य और प्रेम-चित्रण
इसके आगे चलकर छायावाद अलौकिक प्रेम या रहस्यवाद के रूप में सामने आता है।

नारी-सौंदर्य और प्रेम-चित्रण छायावादी कवियों ने नारी को प्रेम का आलंबन माना है। उन्होंने नारी को प्रेयसी के रूप में ग्रहण किया जो यौवन और ह्रृदय की संपूर्ण भावनाओं से परिपूर्ण है। जिसमें धरती का सौंदर्य और स्वर्ग की काल्पनिक सुषमा समन्वित है।

इनके प्रेम की पहली विशेषता है कि इन्होंने स्थूल सौंदर्य की अपेक्षा सूक्ष्म सौंदर्य का ही अंकन किया है।

इन कवियों के प्रेम की दूसरी विशेषता है – वैयक्तिकता।

इनके प्रेम की तीसरी विशेषता है- सूक्ष्मता।
चौथी विशेषता यह है कि इनकी प्रणय-गाथा का अंत असफलता में पर्यवसित होता है। अतः इनके वर्णनों में विरह का रुदन अधिक है।

प्रकृति प्रेम

छायावाद के प्रकृतिप्रेम की पहली विशेषता है कि वे प्रकृति के भीतर नारी का रूप देखते हैं, उसकी छवि में किसी प्रेयसी के सौंदर्य-वैभव का साक्षात्कार करते हैं।
प्रकृति में चेतना का आरोपण सर्व प्रथम छायावादी कवियों ने ही किया है। जैसे,
बीती विभावरी जाग री,
अम्बर पनघट में डूबो रही
तारा घट उषा नागरी। (प्रसाद) या
दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से
उतर रही
वह संध्या सुंदरी परी-सी धीरे-धीरे। (निराला)

प्रकृति सौंदर्य की दूसरी प्रवृत्ति है- मुग्धता की। जहाँ कवि प्रकृति में चेतनता का आरोप करता है तो प्रकृति उसे सप्राण लगती है। इससे कवि विस्मय प्रकट करता है। जैसे पंत की मौन निमंत्रण कविता।

राष्ट्रीय / सांस्कृतिक जागरण

‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से

प्रबुद्ध शुध्द भारती

स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती'(जयशंकर प्रसाद)

रहस्यवाद
आध्यात्मिक प्रेम-भावना या अलौकिक प्रेम-भावना का स्वरूप अधिकांश महादेवी जी की कविता में मिलता है।

स्वच्छन्दतावाद
इस प्रवृत्ति का प्रारंभ श्रीधर पाठक की कविताओं से होता है।

छायावादी प्रवृत्ति स्वच्छन्द प्रणय की नहीं किन्तु पुनरुत्थानवादी ज्यादा थी। क्योंकि रीतिकालीन श्रृंगार-चित्रण का उस पर प्रभाव है। जहाँ दार्शनिक सिद्धांतों का संबंध है छायावादी काव्य में सर्ववाद, कर्मवाद, वेदांत, शैव-दर्शन, अद्वैतवाद आदि पुराने सिद्धांतों की अभिव्यक्ति मिलती है।

द्विवेदीयुगीन खड़ीबोली में स्थूलता, वर्णनात्मकता अधिक है। परंतु छायावादी काव्य में सूक्ष्मता के निरूपण के कारण उपचार-वक्रता और मानवीकरण की विशेषताएँ दिखाई देती हैं।

कल्पना की प्रधानता
द्विवेदीयुगीन काव्य विषयनिष्ठ (वस्तुपरक), वर्णन- प्रधान और स्थूल है तो छायावादी काव्य व्यक्तिनिष्ठ और कल्पना-प्रधान है।

दार्शनिकता
छायावाद में वेदांत से लेकर आनंदवाद तक का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसमें बौद्ध और गांधी दर्शन की भी झलक मिलती है।

अद्वैतवाद का एक उदाहरण देखिए-
“तुम तुंग हिमालय श्रृंग और मैं चंचल गति सुर सरिता। तुम विमल ह्रृदय उच्छवास और मैं कान्त कामिनी कविता।” (निराला)

धर्म के क्षेत्र में रूढियों एवं बाह्याचारों से मुक्त व्यापक मानव हित वादः जैसे-
“औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ। अपने सुख को विस्मृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।” (कामायनी-प्रसाद)

समाज के क्षेत्र में समन्वयवाद। जैसे-
“ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा पूरी क्यों हो मन की, दोनों मिल एक न हो सके, यही विडम्बना है जीवन की।” (कामायनी-प्रसाद)

ग्राहस्थ्य (पारिवारिक) एवं दांपत्य-जीवन के क्षेत्र में ह्रृदयवाद अथवा प्रेम-पूर्ण व्यवहार। जैसे-
“तप रे मधुर-मधुर मन, विश्व-वेदना में तप प्रतिपल, तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन, गंध हीन तू गंध युक्त बन।” (महादेवी)

शैलीगत प्रवृत्तियाँ

1.मुक्तक गीति शैली ,गीति शैली के सभी तत्व -1.वैयक्तिक्ता 2.भावात्मकता 3.संगीतात्मकता 4.संक्षिप्तता 5.कोमलता
2. प्रतीकात्मकता
3. प्राचीन एवं नवीन अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग (मानवीकरण, विरोधाभास, विशेषण विपर्यय)
4.कोमलकांत संस्कृतमय शब्दावली

1. मूर्त के लिए अमूर्त उपमान- बिखरी अलकें ज्यों तर्क जाल। (कामायनी)
2. अमूर्त के लिए मूर्त उपमान- कीर्ति किरण-सी नाच रही है। (कामायनी)
3. विशेषण विपर्यय- तुम्हारी आँखों का बचपन खेलता जग का अल्हड़ खेल।
4. विरोधाभास- शीतल ज्वाला जलती है। (आँसू – प्रसाद)
5. रूपकातिशयोक्ति- बाँधा था विधु के किसने, इन काली जंजीरों से। (आँसू – प्रसाद)
6. कोमलकांत पदावली- मृदु मन्द-मन्द मंथर-मंथर लघुतरिणी-सी सुंदर।

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