अंधेर नगरी प्रहसन व्याख्या

अंधेर नगरी प्रहसन व्याख्या

राम के नाम से काम बनै सब,

राम के भाजन बिनु सबहिं नसाई ||

राम के नाम से दोनों नयन बिनु सूरदास भए कबिकुलराई ।

राम के नाम से घास जंगल की, तुलसी दास भए भजि रघुराई ॥

शब्दार्थ-

दोनों नयन बिनु-जिनके दोनों नेत्रों की ज्योति लुप्त हो गयी थी, पूर्णतः अन्धे महाकवि सूरदास ।

कविकुल राई – कवि- समुदाय में श्रेष्ठ । घास जंगल की तुलसी का बिरबा, पौधा । गोस्वामी तुलसीदास का नाम

तुलसी था । भजि – भजन कर, भक्ति-आराधना के द्वारा ।

सन्दर्भ-

यह पद्यांश भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कृत ‘अंधेरी नगरी’ नामक प्रहसन से अवतरित है। नाटक के आरम्भ में ही महन्त जी अपने दो चेलों-गोवर्धनदास तथा नारायण दास के साथ भजन गाते हुए आते हैं। ये पंक्तियाँ उसी भजन की अन्तिम पंक्तियाँ हैं जिनमें भगवद्भक्ति का गुणगान किया गया है।

व्याख्या –

राम नाम की महिमा अपार हैं भगवान का भजन करने, उनकी आराधना-उपासना से तुच्छ व्यक्ति भी महान बन जाता है, गुणहीन भी गुणवान बन जाता है, पापी भी स्वर्ग प्राप्त कर लेता है । दृष्टान्त देते हुए कवि कहता है-सूरदास जन्मान्ध थे। अन्धे होने के कारण न पढ़े-लिखे थे और न उन्होंने संसार को देखा था फिर भी भक्त होने के कारण भगवान की अनुकम्पा से उन्होंने ऐसा सरस, मधुर तथा पाठकों का मन मोहने वाला, विद्वानों को चकित करने वाला काव्य लिखा कि वह महाकवि सूरदास कहलाए और आज हिन्दी साहित्य के इतिहस में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता है। इसी प्रकार आरम्भ में तुलसीदास माया मोह में फंसे कामासक्त साधारण पुरुष थे परंतु पत्नी के द्वारा फटकारे जाने पर जब उनका चित्त सांसारिकता से हटकर भगवान के चरणों में लीन हो गया और वह राम – भक्ति में पूर्णतः तन्मय हो गये तो संसार उन्हें महाकवि गोस्वामी तुलसीदास कहने लगा क्योंकि उन्होंने राम की भक्ति करते हुए राम सम्बन्धी अनेक काव्य लिखे। अतः स्पष्ट है कि सामान्य व्यक्ति भी यदि भगवान का भजन करने से महान् हो जाता है।

विशेष –

  • पहली पंक्ति में राम का अर्थात् भगवान है क्योंकि सूरदास कृष्ण भक्त थे।
  • सूरदास ने स्वयं अपने एक पद में भगवान की भक्ति का गुणगान करते हुए लिखा है तुम्हारी कृपा पंगु गिरि लघु- अर्थात् लंगड़ा व्यक्ति भी भगवान की कृपा से पर्वत पार कर सकता है।
  • नाटक के पद्यांशों में ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है।

लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान ।

लोभ कभी नहीं कीजिए, यामैं नरक निदान ।।

शब्दार्थ-

मूल -जड़ ,मूल कारण, मान- मान-मर्यादा, प्रतिष्ठा, सम्मान या मैं इसके कारण, निदान – अन्त।

प्रसंग –

यह दोहा भारतेन्दु कृत ‘अन्धेर नगरी’ नामक नाटक से उद्धृत किया गया है। अंधेर नगरी के वैभव और चमक-दमक को देख गोवर्धनदास को आशा बंधती है कि यहाँ के लोग सम्पन्न हैं अतः भिक्षा भी खुले हाथों देंगे अतः वह अपने गुरुजी को आश्वस्त करता है कि वह बहुत-सी भिक्ष लेकर लौटेगा। इस पर महन्त जी उसे यह नीति वचन सुनाते हुए सावधान करते हैं

व्याख्या –

लोभ मनुष्य को पाप के मार्ग पर चलने का प्रलोभन देता है। लोभ-लालच के कारण व्यक्ति पाप कर्म करने लगता है, उचित-अनुचित का विवेक खो बैठता है और ऐसे कार्य कर बैठता है जिसके फलस्वरूप उसका समाज में आदर, मान-प्रतिष्ठा सब नष्ट होने लगते हैं- वह बदनाम हो जाता है, लोग उसे लोभी- लालची कहकर उसे धिक्कारने लगते हैं। अतः लोभ कभी नहीं करना चाहिए। लोभी व्यक्ति अपने दुष्कर्मों के कारण अनैतिक आचरण करता है, पाप करता है और उसके दुष्कर्मों का परिणाम यह होता है कि उसे इस संसार में भी अपमान तथा कष्ट सहने पड़ते हैं और मृत्यु के बाद वह नरक में डाल दिया जाता है, जहाँ उसे नाना प्रकार की यातनाएँ सहनी पड़ती है।

विशेष –

1. नीति की सूक्ति है जिसमें दर्शकों – पाठकों को भी चेतावनी दी गयी है कि लोभ से बचना चाहिए ।

आमारा ऐसा मुल्क जिसमें अंगरेज का भी दाँत खट्टा ओ गया।

नाहक को रुपया खराब किया।

हिन्दोस्तान का आदमी लकलक हमारे

यहाँ का आदमी बुंबक बुंबक लो सब मेवा टके सेर ।

शब्दार्थ –

आमारा- हमारा दांत खट्टा ओ गया- परेशान, दुःखी, लड़ते-लड़ते तंग आ गया। नाहक -व्यर्थ, बेकार । लकलक- दुबला-पतला। बुंबक- हट्टा-कट्टा |

प्रसंग –

यह गद्यांश भारतेन्दु कृत नाटक ‘अंधेर नगरी’ के दूसरे दृश्य से लिया गया है। अंधेर नगरी के बाजार का दृश्य है जहाँ तरह- तरह का माल बेचने वाले अपना माल बेच रहे हैं और अपने व्यावसाय के अनुरूप अपने माल का प्रचार कर ग्राहकों को लुभाने की चेष्टा कर रहे हैं। इनमें एक अफगान है जो काबुल से मेवा बेचने के लिए आया है। जब देखता है कि यहाँ तो मेवा भी टके सेर बिकेग तो वह क्षुब्ध होता है, पश्चाताप करता है कि बेकार इतनी दूर से यहाँ व्यापार करने आया क्योंकि यहाँ तो घाटा ही उठाना होगा।

व्याख्या-

मेरा देश है अफगानिस्तान। यह देश बहादुर, हट्टे-कट्टे देशभक्त और अपनी मातृभूमि के लिए प्राणों का बलिदान करने के लिए तैयार लोगों का देश है। अंग्रेजों ने भारत में तो आसानी से अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया; इतने बड़े देश को थोड़े से अंग्रेजों ने एक के बाद एक प्रदेश जीतकर अपने अधिकार में कर लिया और यहाँ के शासक बन बैठे। परन्तु अफगानिस्तान जैसे छोटे प्रदेश पर वे अधिकार नहीं कर सके। वर्षों तक युद्ध हुआ, अफगान वीरों ने डटकर मुकाबला किया और इस लम्बे युद्ध में अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिये, उन्हें बहुत परेशान होना पड़ा। इसका कारण यह है कि हिन्दुस्तान के लोग दुर्बल हैं और वे वीर हैं। उन्हें अपनी मातृभूमि से अटूट प्रेम है। इन्हीं गुणों के कारण वे अंग्रेजों से वर्षों तक टक्कर लेते रहे और अंग्रेज सेना तथा सरकार को परेशान करने में सफल रहे।

अपने व्यवसाय के विषय में वह कहता है इतनी दूर से बादाम, पिस्ता, अखरोट आदि मेवा लेकर यहाँ आया। सोचा था मेवा बेचकर लाभ होगा पर यहाँ का तो हाल ही बेहाल है। यहाँ तो बाजार में हर माल एक दाम बिकता है। मिठाई, मेवा, भाजी सब टका सेर बिकती है। मुझे भी अपना मेवा इसी भाव पर बेचना पड़ेगा वरना खाली हाथ लौटना पड़ेगा। यहाँ आकर बड़ी गलती की। नाहक इतनी लम्बी यात्रा की परेशानी उठायी। अब सब लोक कहेंगे कि यह बड़ा मूर्ख है जो अन्धेर नगरी में पहुँचकर वहाँ मेवा बेचने का विचार किया। पर अब करूँ भी तो क्या ? अब तो कोई चारा ही नहीं हैं इस मेवा के बोझ को बिना बेचे ले जाना और भी मूर्खता होगी।

फिर वह भारतवासियों और अफगान पठानों की तुलना करता है। भारत का आम आदमी दुबला-पतला, मरियल, ठिगना और कायर है। इसके विपरीत अफगानिस्तान में रहने वाले लोग कहीं अधिक स्वस्थ, हट्टे कट्टे, लम्बे डील-डौल वाले, वीर तथा देशभक्त हैं। यही कारण है कि वे अंग्रेजी सेना के आगे आसानी से नहीं झुके ।

विशेष-

(1) भाषा तथा उच्चारण पात्र ( अफगान पठान) के अनुरूप है।

(2) मुहावरे ‘दांत खट्टा हो गया’ का प्रयोग।

(3) अफगान – अंग्रेज युग का संकेत ।

(4) भारतीयों की दुर्बलता एवं परस्पर फूट पर व्यंग्य है।

मछरिया एक के कै बिकाय ।

लाख टका के वाला जोबन, गाहक सब ललचाय ।

नैन मछरिया रूप जाल में, देखतही फंसि जाय ।

बिनु पानी मछरी बिरहिया, मिले बिना अकुलाय ।

शब्दार्थ-

मछरिया- मछली। टका- दो पैसे बिकाय बिकती है। बाला जोवन-अल्हड़ किशोरावस्था की सुन्दर युवती । ग्राहक कामासक्त पुरुष, रूप-यौवन के लोभी खरीदर लोगा। नैन-मछरिया मछली के आकार के सुन्दर, मोहक नेत्र रूप – जाल – सौन्दर्य के जाल में बिरहिया – बिरहिणी, अपने प्रिय से बिछुड़ी नायिका। अकुलाय – व्याकुल, दुःखी होता है, विरह की ज्वाल में जलती रहती है।

प्रसंग –

यह पद भारतेन्दु कृत ‘अंधेर नगरी’ नाटक से अवतरित किया गया है। बाजार के दृश्य में अन्य लोगों के साथ एक जगह मछली बेचने वाली भी बैठी है और ग्राहकों को आकृष्ट करने के लिए लय के सथ संगीत स्वरों में गाती है।

व्याख्या-

इस बाजार में अन्य वस्तुओं के समान मछली का भाव भी एक टके की एक मछली है। टका दो और एक मछली खरीद लो। मछली खरीदने के साथ-साथ ग्राहक को एक अतिरिक्त लाभ भी होता है। मछली बेचने वाली, अल्हड़, सुन्दरी है। वह रूप सम्पन्न है तथा उसका मादक यौवन सबको लुभाता है। अतः बाजार में आने वाले रूप और यौवन के लोभी लोगों की उसके पास भीड़ लगी रहती है। मछली न खरीदने वाले भी उसके निकट खड़ी होकर उसके अमूल्य रूप यौवन की मदिरा पीने के लिए इकट्ठे हो जाते हैं और देर तक बिना काम-काज के खड़े होकर केवल उसे निहारते रहते हैं। वे मछली बेचने वाली के मछली के आकार के नेत्रों के जाल में फंस कर तड़पते हैं जैसे मछली जाल में फंस कर तड़पती है। वैसे ही वे युवती के रूप- जाल में फंस गये हैं। उधर मछली बेचने वाली अपने प्रिय से बिछुड़ी हुई है, उसे विरहाग्नि सता रही है, अपने प्रिय की विरहाग्नि में झुलस कर सन्तप्त हो रही है, विरह की ज्वाला में जल रही है। उसकी स्थिति जलहीन या जल से निकाली हुई सूखी रेत पर पड़ी तड़पती मछली की तरह हो रही है।

विशेष-

( 1 ) गीत मछली वाली की स्थिति एवं व्यवसाय के अनुरूप

(2) श्रृंगार रस का यह पद अत्यन्त सरस है।

(3) ब्रजभाषा ने माधुर्य को और बढ़ा दिया है।

(4) नेत्र पर मछली का आरोप किया गया है अतः रूपक अलंकार है ।

(5) अन्तिम पंक्ति पर परम्परागत उपमा है।

सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास।

ऐसे देस कुदेस में कबहु न कीजै बास ॥

कोकिल वायस एक सम, पण्डित मूरख एक।

इन्द्रायन दाड़िम विषय, जहां न नेकु विवेकु ॥

बसिए ऐसे देस नहिं कनक वृष्टि जो होय ।

रहिए तो दुख पाइये, प्रान दीजिए रोय ॥

शब्दार्थ-

सेत- श्वेत, सफेद रंग वाले ,कुदेस-बुरा देश बास निवास, रहना। वायस- कौआ । इन्द्रायन – लाल रंग का सुन्दर परन्तु कडुवा फल। दाड़िम-अनार । नेकु -तनिक सभी विवेक सक्षम, अच्छे-बुरे का अन्तर जानने की बुद्धि। कनक वृष्टि-सोने की वर्षा, अर्थात् धन-वैभव ।

प्रसंग

प्रस्तुत पंक्तियाँ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र लिखित प्रहसन ‘अंधेर नगरी’ से ली गई हैं। गोवर्धनदास नगर में सात पैसे भिक्षा में पाकर बहुत सी मिठाई खरीद कर अपने गुरू के पास जाता है। गुरू के प्रश्न करने पर कि इतनी मिठाई कैसे मिली जब गोवर्धनदास कहता है कि उस नगर में सब माल टके सेर बिकता है, तो गुरू जी उस नगरी तथा नगरवासियों की विवेकहीनता, अराजकता एवं दुर्व्यवस्था जान जाते हैं और वहाँ न रहने का उपदेश देते हैं।

व्याख्या-

जिस देश के लोगों में अच्छे-बुरे, गुणवान गुणहीन, अपराधी निरपराध, पंडित मूर्ख की पहचान नहीं, जहाँ सबको एक लाठी से हाँका जाता है, जहाँ कपूर और कपास का श्वेत रंग देख दोनों को एक समान समझा जाता है, दोनों का एक मूल्य आंका जाता है केवल रंग देखा जाता है, गुण नहीं निश्चय ही उस देश के लोग विवेकशून्य, दुर्बुद्धि एवं मूर्ख हैं तथा उस देश में अराजकता, दुर्व्यवस्था और मूल्यहीनता होगी। अतः ऐसे देश में नहीं रहना चाहिए। वहाँ रहने से अवश्य एक न एक दिन विपत्ति में पड़ना पड़ेगा। अतः भविष्य के मंगल के लिए है।

ऐसे नगर को त्याग कर अन्यत्र चले जाने में ही कुशल है।

जहाँ के लोग कोयल और कौए को समान रंग वाला (काला) समझ कर, दोनों के गुण-दोष न परख कर, उन्हें समान समझें उस देश की भगवान ही रक्षा कर सकते हैं। ये लोग गुण नहीं देखते केवल आकार, रंग, बाह्य वेशभूषा देखते हैं। इनमें इतनी बुद्धि और विवेक नहीं कि मूर्ख व्यक्ति और विद्वान व्यक्ति में अन्तर कर सकें और विद्वान का आदर करें, मूर्ख की उपेक्षा वे तो दोनों को एक समान मानते हैं। इसी प्रकार से इन्द्रायण और अनार के बाहरी रंग-रूप में समानता देखकर दोनों के बाह्याकार को मोहक पाकर दोनों को एक समान मानते हैं। वे इस बात की चेष्टा नहीं करते कि दोनों को चख कर उनका स्वाद पहचान कर उनका मूल्यांकन करें- अनार के दानों की मिठास तथा इन्द्रायन की कड़वाहट का अनुभव कर अनार खरीदें और इन्द्रायन का तिरस्कार करें। ऐसे विवेकशून्य, मूढ़ तथा पदार्थ की सही पहचान न रखने वालों की संगति अवश्य ही अनिष्ट लाती है, उसका दुष्परिणाम होता है। अतः ऐसे देश में रहना उचित नहीं है। भले वह देश वैभव सम्पन्न हो, धन-धान्य से भरा-पूर हो, उसमें सब सुख-सुविधाएँ हों पर ऐसे देश में रहना विपत्ति मोल लेना है, आज नहीं तो कल मुसीबत आएगी और कष्ट उठाना होगा। यदि कोई व्यक्ति इस वास्तविकता को नहीं समझता, क्षणिक सुख और प्रलोभन में पड़कर उस नगर में रहने की जिद करता है तो उसे जीवन-भर कष्ट उठाना पड़ता है और अन्त में पश्चाताप की आग में झुलसते हुए रो-रोकर प्राण देने पड़ते हैं। अतः यदि कुशल मंगल चाहते हो तो इस नगर को तुरन्त छोड़कर अन्यत्र चले जाओ।

विशेष-

(1) सूक्तिपरक दोहों द्वारा उपदेश दिया गया है।

(2) ये पंक्तियाँ महन्त जी के चरित्र एवं स्वभाव के अनुरूप ही हैं।

(3) यहाँ आगे आने वाली घटनाओं का संकेत भी मिलता है कि गोवर्धन के गुरु-उपदेश न मानने का परिणम क्या होगा।

धर्म अधर्म एक उरसाई ।

रजा कैर सो न्याव सदाई ॥

भीतर स्वाहा बाहर सादे ।

राज करहिं अमले अरु प्यादे ॥

अन्धाधुन्ध मच्यौ सब देसा ।

मानहुं राजा रहत बिदेसा ।।

गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई ।

मानहुं नृपति बिधर्मी कोई ॥

ऊँच नीच सब एकहिं सारा ।

मानहुं ब्रहम ज्ञान बिस्तारा ॥

शब्दार्थ –

एक दरसाई- एक समान हैं, दोनों में कोई भेद नहीं किया जाता । न्याव = न्याय सदाई सदैव हमेशा । स्वाहा = काले दोषपूर्ण । अमले कर्मचारी गण, नौकरशाही । प्यादे पुलिस के सिपाही अर्धसैनिक बल । अन्धाधुन्ध – अव्यवस्था, अराजकता मनमानी विदेशा – विदेश में (इंग्लैंड में)। गो-गाय । द्विज- ब्राह्मण । श्रुति-वेद, शास्त्र । नृपति- राजा, शासक। विधर्मी दूसरे धर्म को मानने वाला (ईसाई)। एकहिं सारा एक समान । ब्रह्मज्ञान -अध्यात्य ज्ञान। विस्तारा- विस्तार हो गया है, व्याप्त हो गया है।

प्रसंग –

ये पंक्तियाँ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कृत नाटक ‘अंधेर नगरी’ प्रहसन से उद्धृत हैं। नाटक के पांचवें दृश्य में गोवर्धनदास जंगल में जाते हुए विचरण कर रहा है अपने गाने में वह अंधेर नगरी, वहाँ के राजा, उनकी नीति तथा नगर वासियों के आचरण और चरित्र के विषय में बताता है।

व्याख्या-

इस नगरी के राजा ही नहीं वहाँ के निवासी भी विवेकशून्य और मूढ़ हैं। इनमें अच्छे-बुरे की पहचान ही नहीं है। अतः इनके लिए धर्म कार्य करने वाला और पापी, अधर्मी दोनों एक समान हैं। इन्हें पता ही नहीं कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है, पाप और पुण्य की भी पहचान करने की शक्ति कुण्ठित हो गयी है। यहाँ के लोगों की अपने राजा में अन्ध श्रद्धा है अतः उनकी मान्यता है कि राजा जो करता है ठीक करता है, वह परमात्मा का अवतार है अतः गलती, अन्याय, अनाचार कर ही नहीं सकता। यहाँ का शासक और उसके अधीन कर्मचारी गोरे रंग के हैं, सफेद पोश हैं, तड़क-भड़क से रहते हैं पर उनके हृदय काला है, उनका आचरण दूषित है, वे अन्यायी और अत्याचारी हैं। इनके राज्य में सारी सत्ता प्रशासन की सारी जिम्मेदारी कर्मचारियों तथा कार्यालयों में काम करने वाले लोगों पर है या फिर पुलिस के सिपाही और दरोगा अपनी मनमानी कर आतंक फैलाये। हुए हैं।

इस नौकरशाही तथा पुलिस राज्य का दुष्परिणाम यह हुआ है कि सब ओर अव्यवस्था है, अन्धेरगर्दी है, अराजकता है। शासन मनमानी करता है उसकी इच्छा ही कानून है। न्याय और नीति का दम घुट रहा है। लगता है यहाँ कोई शासक है ही नहीं, और यदि है भी तो वह सात समुद्र पार किसी विदेश में रहता है और उसे यहाँ की असली हालत का पता ही नहीं है कि देश में क्या हो रहा है। विदेशी शासन एवं विदेशी जीवन मूल्यों को अपनाने के कारण भारतीय संस्कृति और प्राचीन उदात्त जीवन मूल्यों का ह्रास हो रहा है। पहले गो ब्राह्मण तथा वेद शास्त्रों का आदर होता था पर अब गो हत्या हो रही है, विद्वान ब्राह्मणों का तिरस्कृत किया जा रहा है तथा वेद शास्त्र पढ़ने में किसी की रुचि नहीं। उनका अपमान किया जा रहा है। इस सबको देखकर लगता है कि सत्ता विधर्मियों के हाथ में चली गयी है और वह विधर्मी शासक हिन्दू धर्म तथा हिन्दू संस्कृति को मिटाने पर तुला है। अन्त में व्यंग्य करते हुए लेखक कहता है- अविवेक के कारण इस राज्य में ऊंच-नीच, अच्छे-बुरे, गुणवान – गुणहीन, ध मात्मा पापी के बीच कोई भोद ही नहीं रह गया है। सबको एक लाठी से हाँका जाता है। लगता है यहाँ के लोग सब ब्रह्म ज्ञानी हो गए हैं और ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कर सबको समदृष्टि से देखने लगे हैं। तभी तो सबको परमात्मा की सन्तान मान कर एक समान समझते हैं।

विशेष-

(1) शब्दों के कुशल प्रयोग द्वारा लेखक ने अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शासन के दोष की ओर संकेत किया है। “मानहु रजा रहत विदेसा” तथा ” मानहु नृपति विधर्मी कोई” ऐसे ही वाक्य है।

(2) “राजा करै न्याव सदाई’ में अंग्रेजी उक्ति “द किंग मैन डू नो रोग ” की ध्वनि है।

(3) अन्धाधुन्ध मच्यों …….. | मुहावरा है।

(4) अन्तिम पंक्ति में करारा व्यंग्य है।

(5) शब्द चयन करते हुए लेखक ने केवल एक बात का ध्यान रखा है कि शब्द उपयुक्त एवं अधिकाधिक प्रभाव डालने वाले हों अतः ब्रजभाषा के साथ-साथ उर्दू शब्द ( स्याह, अमले प्यादे ) भी हैं।

जहाँ न धर्म न बुद्धि नाह, नीति न सुजान समाज ।
ते ऐसहि आपुहिं नसे, जैसे चौपटराज ॥

शब्दार्थ-

बुद्धि-सुबुद्धि, विवेक, समझदारी। सुजन समाज-सज्जन, सुशील, चरित्रवान व्यक्तियों का समूह। आपुहिं= अपने आप, नसै- नष्ट होते हैं, आत्मघात करते हैं। चौपट राज-कुशासन ।

प्रसंग

प्रस्तुत सूक्ति वाक्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र रचित प्रहसन ‘अन्धेर नगरी’ से उद्धृत किया गया है। नाटक के अन्त में महन्त जी के कौशल से जब राजा आत्मघात करने को प्रस्तुत हो जाता है तब वह भरत वाक्य के रूप में यह नीति वचन कहते हैं।

व्याख्या-

जिस देश में धर्म का पालन नहीं किया जाता, जनता अधर्म और पाप के मार्ग पर चलती है, जिस देश की जनता और शासक विवेकहीन, मूढ़ तथा बुर्बुद्धि वाले हों, जहाँ नीति को त्याग अनीति के मार्ग का अनुसरण किया जाय और नित्य प्रति अनैतिक कार्य किए जाएं, जहाँ के लोग सज्जन और सच्चरित्र न होकर दुर्जन एवं दुष्चरित्र हों उस देश की जनता और शासक आत्मघात मार्ग पर चलकर स्वयं अपना सर्वनाश करते हैं। उनकी गति यही होती है जो अन्धेर नगरी के चौपट (चौपट करने वाले, सर्वनाश करने वाले ) राजा की हुई।

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