हिंदी नाटक विधा का आरंभ

हिंदी नाटक विधा का आरंभ

  • हिंदी साहित्य में नाटक का विकास आधुनिक काल में होता है।
  • नाट्य लेखन एवं अभिनय की परंपरा भारत में प्राचीन काल से मौजूद है संस्कृत साहित्य में नाटकों को लिखने और उनका रंगमंच पर प्रदर्शन करने की परंपरा मौजूद था।
  • नाटक कैसे खेला जाए, रंग सज्जा कैसे किया जाये इन सभी के विषय में निर्देश भरतमुनि के नाट्य शास्त्र से प्राप्त होता है।

नाटक किसे कहते है?

नाटक को रंगमंच पर ऐसा खेला जाता है इसमें अभिनेता का तत्व अधिक होता है वस्तुतः नाटक साहित्य की अन्य विधाओं से इस रूप में भी भिन्न होता है कि इसमें कथोपकथन भाषिक संरचना के अतिरिक्त कलाओं के अन्य रूपों का भी प्रयोग किया जाता है। नाटककार अपने नाटक में का कथोपकथन मुलक भाषा के साथ-साथ नृत्य कला, संगीत कला, वास्तुशिल्प आदि माध्यमों का भी प्रयोग कुछ इस प्रकार से करता है| नाटक में रंग सज्जा, दृश्य सज्जा, वाद्य संगीत आदि सभी का प्रयोग संप्रेषण को प्रभावी बनाने के लिए किया जाता है|

नाटक के तत्व

भारतीय नाटक परंपरा के अनुसार नाटक के पांच तत्व हैं :-

1.कथानक या वस्तु :-

कोई भी नाटक किसी कहानी को प्रस्तुत करता है इसे कथा वस्तु या कथानक कहा जाता है| इसे इतिवृत्त भी कहा जाता है| कोई भी कथावस्तु दो प्रकार की हो सकती है एक मुख्य कथा एवं दूसरा प्रासंगिक प्रासंगिक उदाहरण के तौर पर यदि रामायण को देखा जाए तो राम हनुमान मिलन, सीता हरण, रावण वध मुख्य कथा होंगे |जबकि इसके साथ-साथ जटायु का वध प्रासंगिक कथा की श्रेणी में गिना जाएगा|

2. पात्र :-

किसी भी नाटक में नायक, नायिका, खलनायक, विदूषक आदि अनेक पात्र होते हैं| इसमें से कुछ मुख्य पात्र होते हैं जब कि कुछ चरित्र पात्र कहे जाते हैं

3.रस :-

भारतीय परंपरा में नाटक के द्वारा सौंदर्यात्मक अनुभूति की प्राप्त की बात कही गई है| जिसे रस कहा गया है वस्तुतः भारतीय परंपरा में नाटक का मूल्य उदेश सहृदय या दर्शक को रस प्राप्त कराना होता है भारतीय परंपरा में रसवादी नाटक अधिक लिखे गए हैं| यहां संघर्ष एवं तनाव का महत्त्व उतना अधिक नहीं है |

4. अभिनय:-

नाटक वस्तुतः अभिनय के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। इसका प्रदर्शन रंगमंच पर होता है। अभिनेता अपनी सारी चेष्टायें, वेशभूषा आदि के माध्यम से कथा को प्रस्तुत करता है, इसे ही अभिनय कहा जाता है। यह नाटक का अनिवार्य गुण है।

5. संगीत /गीत/नृत्य:-

भारतीय नाटक परंपरा में नाटक की प्रस्तुति में अभिनय के साथ-साथ संगीत ,नृत्य, गायन, वादन आदि तत्वों का भी प्रयोग किया जाता है|

अंग्रेजों के आगमन के पश्चात भारत में आधुनिक नाटकों का जन्म होता है भारतीय परंपरा में समय के अनुकूल कुछ परिवर्तन करके आधुनिक नाटक का जन्म होता है और इसमें निम्नलिखित सार तत्व है

1.कथावस्तु:

आधुनिक नाटकों में भी एक निश्चित कथानक के इर्द-गिर्द नाटकों को लिखा जाता है आधुनिक नाटक कथानक के आधार पर ऐतिहासिक, धार्मिक, पौराणिक, सामाजिक, काल्पनिक कई प्रकार के हो सकते हैं| प्राचीन नाट्य परंपरा में कथानक के विकास की पांच अवस्थाएं मानी गई है- प्रारंभ, यत्न, प्रत्याशा, नियताप्ति,फलागम परंतु आधुनिक नाटकों में प्रतिपय बदलाव के साथ कथानक के विकास में चार स्थितियां बदलाई गई आरंभ, विकास, संघर्ष, चरम सीमा। यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि आधुनिक नाटकों में अब समय के साथ कुछ परिवर्तन भी होते रहे हैं और कथानक के विकास में भी परिवर्तन दिखाई देते हैं।

2.पात्र:-

कोई भी नाटक बिना पात्र के नहीं हो सकता है नाटकों में नायक, खलनायक, नायिका आदि अनेक पात्र होते हैं |

3.संवाद :-

कोई भी नाटक में पात्र या चरित्र पात्र आपस में संवाद करते हैं और बातचीत या संवाद से ही नाटक आगे बढ़ती है| संवाद दो प्रकार के होते हैं प्रथम स्गवत द्वितीय प्रकट। प्रकट कथन का आशय है कि कोई पात्र अपनी बातों को जब कहता है तो इसे संबंधित पात्र के साथ-साथ अन्य पात्र भी सुनते हैं। जबकि स्वगत कथन का अर्थ है कि कोई पात्र अपने मन में जो कुछ भी सोचता है उसे पात्र के मुंह से कहा कहवा या करवाया जाता है परंतु यह मानक कर चला जाता है कि स्वागत कथन को दर्शक सुन रहा है। किंतु, अन्य पात्र नहीं सुन रहा है।

4. देश /काल/ वातावरण:-

कोई भी नाटक जिस भी कथावस्तु को प्रकट करना चाहता है| उसी के अनुसार देश, काल तथा वातावरण का चित्रण नाटककार को करना चाहिए| नाटककार वेशभूषा, संवाद रंग सजा आदि के द्वारा इस चित्रों को प्रस्तुत करता है, देश/ काल वातावरण और उनके अनुसार वर्णन करने पर नाटक अधिक प्रभावी होता है|

5. भाषा शैली:-

नाटक के संवाद किसी न किसी भाषा में होते हैं| इसके माध्यम से पत्रों की वर्गीय स्थिति का भी ज्ञान होता है| वस्तुतः नाटक में भाषा देश, काल तथा वातावरण के अनुरूप होनी चाहिए |

6.उद्देश्य:-

नाटक में कई बार यह आवश्यक हो जाता है कि यह समाज के लिए कोई निश्चित उद्देश्य की पूर्ति करें क्योंकि, नाटक का मंचन सामूहिक रूप से भी होता है |नाटककार का अपने नाटक के माध्यम से या तो जनता का मनोरंजन करना चाहता है या संदेश देना चाहता है या किसी स्थिति विशेष के संदर्भ में लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहता है। या किसी समस्या को उठाना चाहता है इस प्रकार नाटक का एक निश्चित उदेश भी होता है ।

7.रंग निर्देश:-

नाटककार अभिनेता के लिए नाटक के प्रस्तुति के लिए कब क्या करना है| इसके विषय में निर्देश देता है इसे रंग निर्देश कहा जाता है|

एकांकी एवं नाटक में अंतर

एकांकी एवं नाटकों में यह अंतर होता है कि एकांकी नाटक में एक अंक का होता है जबकि पूर्ण नाटक में एक से अधिक अंक हो सकते हैं एकांकी में पूर्ण नाटक की तुलना में पत्रों की संख्या भी कम होती है।नाटक की तुलना में एकांकी में घटनाएं की विविधता अधिक नहीं होती। वस्तुत एकांकी में किसी एक घटना या प्रसंग को ही इस प्रकार से प्रस्तुत किया जाता है ताकि वह प्रभाव उत्पन्न कर सके।

कुछ अन्य नाटक

गीत नाटक:-

जब नाटक को नाटक के संवाद गीतों के रूप में होते हैं और इसमें ध्वनि तत्व संगीतात्मक और काव्यात्मक तत्व की प्रधानता होती है, तो इसे गीत नाटक कहते हैं। जैसे जयशंकर प्रसाद की करुणालय

काव्य नाटक :-

यह नाटक भी गीती नाटक के समान होता है। और इसमें संवाद पद या कविता में रहता है लेकिन इसमें संगीत तत्व की प्रधानता कम रहती है। जैसे धर्मवीर भारती का अंधा युग

रेडियो नाटक:-

यह आधुनिक काल की एक नई विधा है इसमें दृश्य तत्व का अभाव रहता है इसमें संवादों को विभिन्न प्रकार की पाश्व ध्वनि साथ कुछ इस प्रकार से प्रस्तुत किया जाता है। कि सुनने वाला विभिन्न दृश्य की कल्पना कर लेता है। जैसे भगवतीचरण भावना का नाटक तारा ध्वनि का प्रधानता होने के कारण ही इसे ध्वनि रूप भी कहते हैं।

नृत्य संगीत काव्य रूपक :-

इसे बैले भी कहा जाता है इसमें सभी संवादों को एक परदे के पीछे से प्रस्तुत किया जाता है। यह संवाद कविता या गीतों के रूप में होता है और पर्दे के दूसरी तरफ कुछ प्रस्तुतियां की जाती है।

हिंदी नाटक विधा का आरंभ

  • हिंदी नाट्य साहित्य का आरंभ आधुनिक काल से होता है ।
  • 17वीं 18 वीं शताब्दी के लगभग कुछ ऐसे नाटक भी लिखे गए जो ब्रजभाषा में थे जैसे प्राणचंद चौहान का ‘रामायण महानाटक’ व विश्वनाथ सिंह का ‘आनंद रघुनंदन’ इसमें ‘आनंद रघुनंदन ‘ को हिंदी साहित्य का प्रथम मौलिक नाटक माना जाता है । कथोपकथन ,अंक विभाजन , रंग संकेत आदि के कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे हिंदी का प्रथम मौलिक नाटक माना है।
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