अंधेर नगरी: पात्र परिकल्पना एवं चरित्रिक विशेषताएँ

अंधेर नगरी नाटक में यूँ कहने को तो इसमें अनेक पात्र हैं विशेषतः बाजार वाले दृश्य में। पर वे केवल एक दृश्य तक सीमित हैं और उनके द्वारा लेखक या तो बाजार का वातावरण उपस्थित करता है या फिर तत्कालीन राजतंत्र एवं न्याय व्यवस्था पर कटाक्ष करता है।

अंधेर नगरी: पात्र परिकल्पना एवं चरित्रिक विशेषताएँ - compress 20230418 230043 37126654388792081061031 - हिन्दी साहित्य नोट्स संग्रह

अंधेर नगरी: पात्र परिकल्पना एवं चरित्रिक विशेषताएँ

पूरे दृश्य का एक ही स्वर है-‘टका सेर भाजी, टका सेर खाजा’ अर्थात् वह बताता है कि देश में अन्धेरगर्दी है, अराजकता है, अव्यवस्था है, मूल्यहीनता है- सद्-असद्, अपराधी-निरपराध, गुणवान – गुणहीन के बीच कोई भेद नहीं हैं, सबको एक ही लाठी से हाँका जाता है। अतः इस दृश्य के पात्रों का स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं हैं, वे केवल अपने व्यवसाय की बातें करते हैं।


अन्य दृश्यों में भी उल्लेखनीय पात्र हैं केवल तीन- राजा, महंत और उसका शिष्य गोवर्धनदास।

तीनों पात्र स्थिर हैं, अपने वर्ग के गुण-दोषों का प्रतिनिधित्व करते हैं और इनमें भी राजा का स्वरूप अतिरंजित एवं अवाभाविक है। तत्कालीन रजवाड़ों के शासकों और कुछ हद तक अंग्रेज शासन की न्याय व्यवस्था पर प्रहार करने के लिए ही उसका चरित्र गढ़ा गया है। उसकी मूढ़ता, विवेकहीनता, मद्यपान, सनकी प्रवृत्ति, दंड विधान, फूहड़ आचरण सब अतिरंजित हैं। उसका आचरण, गाली-गलौज, उसका फरियाद सुनने का ढंग, एक के बाद एक संदिग्ध अपराधि यों को बुलाना, बार-बार निर्णय बदलना, दीवार या उसके दोस्त आशना को पेश करने का आदेश – यह सब पाठक प्रेक्षक को हंसाते-हंसाते लोटपोट कर दें, प्रहसन के लिए उपयुक्त हों पर चरित्रांकन की दृष्टि से नितान्त अनुपयोगी हैं। वस्तुतः लेखक का उद्देश्य भी उसके माध्यम से किसी ठोस पात्र की सृष्टि करना नहीं था ।


महन्त और गोवर्धनदास के चरित्र अधिक यर्थाथ हैं, जीवन के निकट हैं। वे स्थिर पात्र हैं, अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका विकास दिखाना लेखक का अभीष्ट नहीं है। फिर भी वे उनमें ठोस पात्र बनने की पात्रता है। महन्त के रूप में लेखक ने एक विवेकशील, समझदार, रामभक्त सन्त का चित्र उरेहा है। वह भिक्षा मांगना अपना धर्म और अधिकार समझता है पर उसे केवल इतनी भिक्षा चाहिए कि ठाकुर जी का भोग लग जाये। वह गोवर्धनदास की तरह न तो लोभी है और न पेटू । मिठाई देखकर उसकी लार भी नहीं टपकती, हां मन ही मन प्रसन्न अवश्य होता है । सन्तों की तरह उसे अनेक धार्मिक सूक्तियां, दोहे और पद याद हैं और वह उनका उपयुक्त अवसर पर प्रयोग करता है। गोवर्धनदास का लोभ देख वह कहता है बच्चा, बहुत लोभ मत करना ।

लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान ।

लोभ कभी नहिं कीजिए, या मैं नरक समान ॥

इसी प्रकार गोवर्धनदास से यह सुनकर कि नगरी में सब चीजें टके सेर मिलती हैं, वह उसे समझाते हुए कहता है – बच्चा, ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है और अपनी बात की पुष्टि के लिए तीन दोहे सुनाता है। अन्तिम दोहा है

बसिए ऐसे देस नहिं, कनक-वृष्टि जो होय ।

रहिए तो दुख पाइए, प्रान दीजिए रोय ॥

जहां न धर्म न बुद्धि नहिं नीति न सुजन समाज ।

ते ऐसेहिं आपुहिं बसै, जैसे चौपट राज॥

सारांश यह है कि साधु-सन्तों के समान उसे अनेक नीति वचन एवं भक्ति के पद कण्ठस्थ हैं। वह चतुर तथा चालाक भी कम नहीं है। अपने शिष्य गोवर्धनदास की प्राणरक्षा के लिए जिस युक्ति से और जिस तरह सिपाहियों का उपट का अपना मंत्र शिष्य के कानों में फूंकता है और स्वयं फांसी पर चढ़ने का नाटक करता है, वह उसकी कुशाग्रबुद्धि एवं मानव मनोविज्ञान से परिचय का प्रमाण है।

गोवर्धनदास उन लोभी, पेटू तथा मोह माया में फंसे साधुओं का प्रतिनिधित्व करता है जो केवल पेट भरने तथा आराम से जिन्दगी बिताने के लिए भगवा वस्त्र एवं कमण्डल धारण करते हैं। अन्धेर नगरी के वैभव को देख चकाचौंध हो जाना, वहां अच्छी भिक्षा का डौल देख तथा प्रतिदिन भरपेट मिठाई छकने का अवसर पा वह गुरुजी के उपदेश को ठुकरा देता है और वहीं रहने का निर्णय कर लेता है। “दो पैसा पास रहने में मजे से पेट भरता है। मैं तो इस नगर को छोड़ कर नहीं जाऊंगा।” और गुरुजी के जाने के बाद निश्चिन्त होकर मिठाई खाता है।

वह आत्मकेन्द्रित है। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ का अनुयायी गोवर्धनदास जानता है कि देश अच्छा नहीं है। फिर भी वहीं रहने का निश्चय करता है, “माना कि देश बहुत बुरा है। पर अपना क्या? अपने किसी राज-काज में थोड़े हैं कि कुछ डर है। रोज मिठाई चाभना मजे में आनन्द से राम भजन करना।” वह भीरू डरपोक है, प्राणों का उसे मोह है और प्राण बचाने के लिए नाक रगड़ता है, गिड़गिड़ाता है, रोता है, हाय-हाय करता है। स्पष्ट है कि उस समय और आज भी ऐसे स्वार्थी, समाज के हित-अहित से निरपेक्ष, साधुओं की देश में कमी नहीं है और भारतेन्दु ने गोवर्धनदास के माध्यम से ऐसे पाखण्डी साधुओं पर ही व्यंग्य किया है।

सारांश यह कि पात्र - परिकल्पना और चरित्र चित्रण की दृष्टि से 'अन्धेर नगरी' का कोई महत्व नहीं है। क्योंकि पात्रों का सृजन मात्र व्यंग्य की प्रखरता को और तीव्र करने हेतु किया गया है।
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