वीर रस - inshot 20230518 1655201292218953129757730483 - हिन्दी साहित्य नोट्स संग्रह

वीर रस

वीर रस

  • शृंगार, रौद्र तथा वीभत्स के साथ वीररस को भी भरत मुनि ने मूल रसों में परिगणित किया है।
  • वीर रस से ही अदभुत रस की उत्पत्ति बतलाई गई है।
  • वीर रस का ‘वर्ण’ ‘स्वर्ण’ अथवा ‘गौर’ तथा देवता इन्द्र कहे गये हैं।
  • यह उत्तम प्रकृति वालो से सम्बद्ध है तथा इसका स्थायी भाव ‘उत्साह’ है।
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  • वीर रस के केवल युद्धवीर, धर्मवीर, दयावीर तथा दानवीर भेद स्वीकार किए जाते हैं।
  • उत्साह को आधार मानकर पंडितराज (17वीं शती मध्य) आदि ने अन्य अनेक भेद भी किए हैं।

वीर रस के चार भेद

  1. युद्धवीर – युद्धवीर वह होता है जो रणभूमि में अपनी वीरता सिद्ध करता है।
  2. धर्मवीर –धर्मवीर वह व्यक्ति होता है जो , धर्म के निर्वाह के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है।
  3. दानवीर –दानवीर वह होता है जो दुखी , लाचार और विवश व्यक्ति की सहायता के लिए समय तथा परिस्थिति नहीं देखता। दानवीर स्वयं कष्ट सहकर भी दीन – दुखियों की सहायता में संलग्न रहता है।
  4. दयावीर –पुराणों में लिखा गया है दया धर्म का मूल है। जिस व्यक्ति के पास दया है , वही धर्म का निर्वाह कर सकता है।

आलम्बन

शत्रु , धार्मिक ग्रंथ , पर्व , तीर्थ स्थान , दयनीय व्यक्ति , स्वाभिमान की रक्षा के लिए प्रस्तुत व्यक्ति , अन्याय , अत्याचार का सामना करने वाला व्यक्ति , साहस , उत्साह।

उद्दीपन

शत्रु का पराक्रम. अन्नदाताओं का दान. धार्मिक कार्य. दुखियों की सुरक्षा आदि

संचारी भाव

गर्व , उत्सुकता , मोह , हर्ष आदि।

वीर रस के उदाहरण

उठो जवानों हम भारत के स्वाभिमान सरताज हैं

अभिमन्यु के रथ का पहिया , चक्रव्यूह की मार है।

व्याख्या –

इस पंक्ति के माध्यम से जवानों के पुनः जागृत होने के लिए आह्वान किया गया है। अपने जवानों में उत्साह को चरम स्तर पर पहुंचाने की कोशिश की गई है। बताया जा रहा है कि अभिमन्यु के वीर संतानों उनके बलिदान पर गर्व करो। अभिमन्यु को मारना इतना सरल नहीं था ,उसकी मृत्यु तो चक्रव्यूह के कारण हुई , जो अपनों ने ही रची थी। हम भारत के स्वाभिमान सरताज हैं , अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए हमें उठना ही होगा।

उदाहरण –

“वह खून कहो किस मतलब का जिसमें
उबल कर नाम न हो”
“वह खून कहो किस मतलब जो देश के
काम ना हो”


वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो।
सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो।
तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं॥ (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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