रस के चार अंग

रस के चार अंग हैं – स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव।

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स्थायी भाव


भाव का अर्थ है:-होना

सहृदय के अंत:करण में जो मनोविकार वासना या संस्कार रूप में सदा विद्यमान रहते हैं तथा जिन्हें कोई भी विरोधी या अविरोधी दबा नहीं सकता, उन्हें स्थायी भाव कहते हैं।

ये मानव मन में बीज रूप में, चिरकाल तक अचंचल होकर निवास करते हैं। ये संस्कार या भावना के द्योतक हैं। ये सभी मनुष्यों में उसी प्रकार छिपे रहते हैं जैसे मिट्टी में गंध अविच्छिन्न रूप में समाई रहती है। ये इतने समर्थ होते हैं कि अन्य भावों को अपने में विलीन कर लेते हैं।

इनकी संख्या 11 है – रति, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा, विस्मय, निर्वेद, वात्सलताऔर ईश्वर विषयक प्रेम।

विभाव


विभाव का अर्थ है कारण। ये स्थायी भावों का विभावन/उद्बोधन करते हैं, उन्हें आस्वाद योग्य बनाते हैं। ये रस की उत्पत्ति में आधारभूत माने जाते हैं।

विभाव के दो भेद हैं: आलंबन विभाव और उद्दीपन विभाव।

आलंबन विभाव
जिन पात्रों के द्वारा रस निष्पत्ति सम्भव होती है वें आलंबन विभाव कहलाते हैं। जैसे:- नायक और नायिका।
आलंबन के दो भेद होते हैं:आश्रय और विषय
जिसमें किसी के प्रति भाव जागृत होते है वह आश्रय कहलाते है और जिसके प्रति भाव जागृत होते है वह विषय, जैसे:- रौद्र रस में परशुराम का लक्ष्मण पर क्रोधित होना। यहाँ परशुराम आश्रय और लक्ष्मण विषय हुए।
उद्दीपन विभाव
विषय द्वारा कियें क्रियाएं और वह स्थान जो रस निष्पत्ति में सहायक होते है उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं।

उद्दीपन विभाव को दो भागों में बांट जा सकता है:-

आलम्बनगत बाह्य चेष्टा:- विषय द्वारा कियें गयें कार्य आलम्बनगत बाह्य चेष्टा कहलाते हैं। जैसे:- परशुराम का लक्ष्मण पर कुपित होने के बाद लक्ष्मण की व्यंग्योक्तियाँ।
बाह्य वातावरण:- रस निष्पत्ति में वातावरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि प्रेमी-प्रेमिका अगर शमशान में प्रेम करें और शत्रु बाग-बगीचे में आमने-सामने आए तो रस निष्पत्ति में यह सहायक ना होगा।

अनुभाव


रति, हास, शोक आदि स्थायी भावों को प्रकाशित या व्यक्त करने वाली आश्रय की चेष्टाएं अनुभाव कहलाती हैं।

ये चेष्टाएं भाव-जागृति के उपरांत आश्रय में उत्पन्न होती हैं इसलिए इन्हें अनुभाव कहते हैं, अर्थात जो भावों का अनुगमन करे वह अनुभाव कहलाता है।

अनुभाव के दो भेद हैं – इच्छित और अनिच्छित।

आलंबन एवं उद्दीपन के माध्यम से अपने-अपने कारणों द्वारा उत्पन्न, भावों को बाहर प्रकाशित करने वाली सामान्य लोक में जो कार्य चेष्टाएं होती हैं, वे ही काव्य नाटक आदि में निबद्ध अनुभाव कहलाती हैं। उदाहरण स्वरूप विरह-व्याकुल नायक द्वारा सिसकियां भरना, मिलन के भावों में अश्रु, स्वेद, रोमांच, अनुराग सहित देखना, क्रोध जागृत होने पर शस्त्र संचालन, कठोर वाणी, आंखों का लाल हो जाना आदि अनुभाव कहे जाएंगे।

साधारण अनुभाव : अर्थात (इच्छित अभिनय) के चार भेद हैं। 1.आंगिक 2.वाचिक 3. आहार्य 4. सात्विक। आश्रय की शरीर संबंधी चेष्टाएं आंगिक या कायिक अनुभाव है। रति भाव के जाग्रत होने पर भू-विक्षेप, कटाक्ष आदि प्रयत्न पूर्वक किये गये वाग्व्यापार वाचिक अनुभाव हैं। आरोपित या कृत्रिम वेष-रचना आहार्य अनुभाव है। परंतु, स्थायी भाव के जाग्रत होने पर स्वाभाविक, अकृत्रिम, अयत्नज, अंगविकार को सात्विक अनुभाव कहते हैं। इसके लिए आश्रय को कोई बाह्य चेष्टा नहीं करनी पड़ती। इसलिए ये अयत्नज कहे जाते हैं। ये स्वत: प्रादुर्भूत होते हैं और इन्हें रोका नहीं जा सकता।

सात्विक अनुभाव : अर्थात (अनिच्छित) आठ भेद हैं – स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु (कम्प), वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय।

संचारी या व्यभिचारी भाव


जो भाव केवल थोड़ी देर के लिए स्थायी भाव को पुष्ट करने के निमित्त सहायक रूप में आते हैं और तुरंत लुप्त हो जाते हैं, वे संचारी भाव हैं।

संचारी शब्द का अर्थ है, साथ-साथ चलना अर्थात संचरणशील होना, संचारी भाव स्थायी भाव के साथ संचरित होते हैं, इनमें इतना सार्मथ्य होता है कि ये प्रत्येक स्थायी भाव के साथ उसके अनुकूल बनकर चल सकते हैं। इसलिए इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है।

संचारी या व्यभिचारी भावों की संख्या ३३ मानी गयी है – निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दीनता, चिंता, मोह, स्मृति, धृति, व्रीड़ा, चापल्य, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार (मिर्गी), स्वप्न, प्रबोध, अमर्ष (असहनशीलता), अवहित्था (भाव का छिपाना), उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क।

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