श्रृंगार रस

श्रृंगार रस

  • श्रृंगार दो शब्दों के योग से बना है श्रृंग + आर
  • श्रृंग का अर्थ है काम की वृद्धि , तथा आर का अर्थ है प्राप्ति।
  • अर्थात जो काम अथवा प्रेम की वृद्धि करें वह श्रृंगार है।
  • श्रृंगार का स्थाई भाव दांपत्य रति / प्रेम है।
  • श्रृंगार रस को रसों का राजा (रसराज ) भी कहा गया है।
  • इसके अंतर्गत पति – पत्नी या प्रेमी – प्रेमिका के प्रेम की अभिव्यंजना की जाती है।
  • शृंगार रस के अंतर्गत नायिकालंकार, ऋतु तथा प्रकृति का भी वर्णन किया जाता है।
श्रृंगार रस - shringar ras - हिन्दी साहित्य नोट्स संग्रह

एक उदाहरण है-

राम को रूप निहारति जानकी कंगन के नग की परछाही।
याते सबे सुधि भूलि गइ ,करटेकि रही पल टारत नाही।।

तुलसीदास कृत रामचरित मानस के -बालकांड-17

शृंगार रस के भेद


श्रृंगार रस मुख्यत: संयोग तथा विप्रलंभ या वियोग के नाम से दो भागों में विभाजित किया जाता है, किंतु धनंजय आदि कुछ विद्वान् विप्रलंभ के पूर्वानुराग भेद को संयोग-विप्रलंभ-विरहित पूर्वावस्था मानकर अयोग की संज्ञा देते हैं तथा शेष विप्रयोग तथा संभोग नाम से दो भेद और करते हैं।

संयोग शृंगार

संयोग श्रृंगार के अंतर्गत नायक नायिका का परस्पर मिलन होता है। दोनों के द्वारा किए गए क्रियाकलापों को उनके सुखद अनुभूतियों को संयोग श्रृंगार के अंतर्गत माना गया है।

संयोग श्रृंगार के उदाहरण

हुए थे नैनो के क्या इशारे इधर हमारे उधर तुम्हारे।

चले थे अश्कों के क्या फवारे इधर हमारे उधर तुम्हारे।

प्रस्तुत पंक्ति में नायक – नायिका के संयोगवश मिलने के कारण दोनों की आंखों में जो बातचीत हुई। उससे अश्रु की धारा निकली , यह संयोग श्रृंगार की प्रबल अनुभूति कराता है।


बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाये।
सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाये। -बिहारीलाल

वियोग या विप्रलंभ शृंगार

वियोग श्रृंगार को विप्रलंभ श्रृंगार भी माना गया है। वियोग श्रृंगार की अवस्था वहां होती है , जहां नायक – नायिका पति-पत्नी का वियोग होता है। दोनों मिलन के लिए व्याकुल होते हैं , यह बिरह इतनी तीव्र होती है कि सबकुछ जलाकर भस्म करने को सदैव आतुर रहती है।

माना गया है जिस प्रकार सोना आग में तप कर निखरता है , प्रेम भी विरहाग्नि में तप कर शुद्ध रूप में प्रकट होती है।

वियोग श्रृंगार के उदाहरण

” जल में शतदल तुल्य सरसते , तुम घर रहते हम न तरसते

देखो दो – दो मेघ बरसते , मैं प्यासी की प्यासी ……

आओ हो बनवासी। “

प्रस्तुत पंक्ति मैथिलीशरण गुप्त की यशोधरा का विरह वर्णन से लिया गया है।

इसमें नायिका अपने स्वामी के बिरहा अवस्था में अपने पति के लौट आने की आशा करती है। दिन – रात दोनों नेत्रों से अश्रु की वर्षा करती रहती और उनके आगमन की प्रतीक्षा में राह ताकती ।

निसिदिन बरसत नयन हमारे,
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥ -सूरदास

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