भारतेंदु की नाट्य कला

भारतेंदु की नाट्य कला

भारतेंदु के समय तक भारत की समृद्ध साहित्यिक नाट्य परंपरा, जिसकी अविच्छिन्न धारा भरत के नाटकों से लेकर लगभग 10वीं शताब्दी तक संस्कृत, रंगमंच से जुड़ी रही, वह लुप्त हो चुकी थी।

दसवीं शताब्दी के बाद संस्कृत में जो नाटक लिखे गए उनका रंगमंच से कोई साक्षात् संबंध नहीं रहा और वे मात्र नाट्य शास्त्र एवं नाट्यशास्त्र के परवर्ती ग्रंथ ‘दशरूपक’, ‘साहित्यदर्पण’ आदि में वर्णित नाटक के तत्वों को ही आधार बनाकर लिखे गए थे तथा मंच की दृष्टि से अभिनेय नहीं थे, यद्यपि इन नाटकों में काव्य पक्ष में कलात्मकता का समावेश अवश्य मिलता है। इस तरह हिंदी साहित्य की जो परंपरा संस्कृत नाटक और रंगमंच की मिलनी चाहिए थी, वह सदियों पहले ही लुप्त हो चुकी थी।

भारतेन्दु के विषय में यह घटना प्रसिद्ध है कि पारसी नाटक कंपनी द्वारा शकुंतला नाटक का अभिनय देखकर भारतेंदु को इतना क्षोभ हुआ कि उनन्होंने स्वयं एक ओर नाटकों की रचना और दूसरी ओर हिंदी के अपने रंगमंच के निर्माण की ओर ध्यान देने का विचार किया। भारतेंदु का साहित्यिक व्यक्तित्व मात्र साहित्य का नहीं है। वे एक ऐसे कवि, नाटककार, निबंध लेखक और पत्रकार के रूप में हमारे समक्ष अवतरित होते हैं जो अपने युग और समाज की आशाओं-आकांक्षाओं को, तनाव और संघर्षों को अपनी रचनाओं द्वारा वाणी दे रहे थे।

भारतेंदु ने इसे बखूबी महसूस किया था कि संस्कृत नाटकों की परंपरा समृद्ध होते हुए भी उसकी तकनीक का प्रयोग कर आज उनके समय में नाटकों की रचना करना समीचीन नहीं है, किंतु इसके साथ वे यह भी स्वीकार करते थे कि पुरानी भारतीय नाट्य परंपरा का सर्वथा परित्याग भी ठीक नहीं होगा क्योंकि उस स्थिति में भारतीय नाट्य परंपरा की आत्मा ही लुप्त हो जाएगी । भारतेंदु ने अपने ‘नाटक’ शीर्षक निबंध में इस मान्यता को स्पष्ट शब्दों में उल्लिखित किया है- “वर्तमान समय में इस काल के कवि तथा सामाजिक लोगों की रुचि उस काल की अपेक्षा अनेकांश में विलक्षण है, उससे सम्प्रति प्राचीन मतावलम्बन करके नाटकादि दृश्य काव्य लिखना युक्तिसंगत नहीं बोध होता है।

भारतेंदु ने मौलिक नाटकों की दृष्टि से अन्य प्रकार के प्रयोग भी किये। उनका ‘विषस्यविषमौषधम्’ शीर्षक एकांकी एकपात्रीय भाण है, किंतु इस भाण की कथावस्तु संस्कृत के उन भागों की कथावस्तु से भिन्न हैं जहाँ एक रसिक पात्र गणिकाओं के बाजार में घूमकर आकाश-भाषित के द्वारा विलासिता एवं स्वेच्छाचारिता पर व्यंग्य करता दिखाया जाता है। राजनीतिक चेतना जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध में धीरे-धीरे पनप रही थी, ‘भारत दुर्दशा’ (नाट्य रासक) और ‘अंधेर नगरी’ (प्रहसन ) में और अधिक प्रखर रूप में उपस्थित होती है। इन दोनों नाटकों में भारतेंदु लाक्षणिक ढंग से ब्रिटिश साम्राज्य की भर्त्सना करते दिखाई पड़ते हैं । दूसरी ओर इन नाट्य कृतियों में वे तकनीक की दृष्टि से भी नये प्रयोग करते हैं।

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