भाषा की प्रकृति व विशेषताएँ

भाषा के सहज गुण-धर्म को भाषा की प्रकृति कहते हैं। इसे ही भाषा की विशेषता या लक्षण कह सकते हैं।

भाषा की प्रकृति व विशेषताएँ

भाषा की प्रकृति को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं।

  • सर्वमान्य प्रकृति
  • विशिष्ट भाषागत प्रकृति

भाषा की प्रथम प्रकृति वह है, जो सभी भाषाओं के लिए मान्य होती है। इसे भाषा की सर्वमान्य प्रकृति कह सकते हैं। यहाँ मुख्यतः भाषा की प्रकृति के विषय में विचार किया जा रहा है, जो विश्व की समस्त भाषाओं में पाई जाती है-

भाषा का विकास और अर्जन समाज में होता है और उसका प्रयोग भी समाज में ही होता है यह तथ्य द्रष्टव्य है कि जो बच्चा जिस समाज में पैदा होता तथा पलता है, वह उसी समाज की भाषा सीखता है।

यदि किसी भारतीय बच्चे को एक-दो वर्ष की अवस्था (शिशु-काल) में किसी विदेशी भाषा-भाषी के लोगों के साथ कर दिया जाए, तो वह उनकी ही भाषा बोलेगा। इसी प्रकार यदि विदेशी भाषा-भाषी परिवार के शिशु का हिंदी भाषी परिवार में पालन-पोषण करें, तो वह सहज रूप में हिंदी भाषा ही सीखेगा और बोलेगा।

कोई भी साहित्यकार या भाषा-प्रेमी भाषा में एक शब्द को जोड़ या उसमें से एक शब्द को भी घटा नहीं सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि कोई साहित्यकार या भाषा-प्रेमी भाषा का निर्माता नहीं हो सकता है। भाषा में होने वाला परिवर्तन व्यक्तिकृत न होकर समाजकृत होता है।

भाषा परंपरा से प्राप्त संपत्ति है, किंतु यह पैतृक संपत्ति की भाँति नहीं प्राप्त होती है। मनुष्य को भाषा सीखने के लिए प्रयास करना पड़ता है। प्रयास के अभाव में विदेशी और अपने देश की भाषा नहीं, मातृभाषा का भी ज्ञान असंभव है।

यदि किसी शिशु को निर्जन स्थान पर छोड़ दिया जाए, तो वह बोल भी नहीं पाएगा, क्योंकि व्यवहार के बारे में उसे भाषा का ज्ञान नहीं हो पाएगा। हिंदी-व्यवहार के क्षेत्र में पलने वाला शिशु यदि अनुकरण आधार पर हिंदी सीखता है। तो पंजाबी-व्यवहार के क्षेत्र का शिशु पंजाबी ही सीखता है।

भाषा के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी शब्दावली होती है, जिसके कारण भिन्नता दिखाई पड़ती है। गाँव की भाषा शिथिल व्याकरणसम्मत होती है, तो शहर की भाषा का व्याकरणसम्मत होना स्वाभाविक है।

यह सर्वमान्य है कि विश्व के समस्त कार्यों का संपादन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भाषा के हो माध्यम से होता है।

सोऽस्ति लोके शब्दानुगमावृते। अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते।

भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में

मनुष्य के मनन, चिंतन तथा भावाभिव्यक्ति का मूल माध्यम भाषा है, यह भी भाषा की सर्वव्यापकता का प्रबल प्रमाण है।

भाषा सतत गतिशील रहती है। भाषा की उपमा प्रवाहमान जल स्रोत नदी से दी जा सकती है, जो पर्वत से निकलकर समुद्र तक लगातार बढ़ती रहती है, अपने मार्ग में वह कहीं सूखती नहीं है। भाषा की परिवर्तनशीलता को व्यक्ति या समाज द्वारा रोका नहीं जा सकता है।

भाव-संप्रेषण सांकेतिक, आंगिक, लिखित और यांत्रिक आदि रूपों में होता है, किंतु इनकी कुछ सीमाएँ हैं अर्थात् इन सभी माध्यमों के द्वारा पूर्ण भावाभिव्यक्ति संभव नहीं है।

वाचिक भाषा में आरोह-अवरोह तथा विभिन्न भाव-भंगिमाओं के आधार पर सर्वाधिक सशक्त भावाभिव्यक्ति संभव होती है। इन्हीं विशेषताओं के कारण वाचिक भाषा को सजीव तथा लिखित आदि भाषाओं को सामान्य भाषा कहते हैं।

संसार की सभी वस्तुओं के समान भाषा भी परिवर्तनशील है। किसी भी देश के एक काल की भाषा परवर्ती काल में पूर्ववत नहीं रह सकती, उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य हो जाता है। यह परिवर्तन अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण होता है।

भाषा के दो रूप मुख्य हैं- मौखिक तथा लिखित। इनमें भाषा का प्रारंभिक रूप मौखिक है।

पूर्ण भाव की अभिव्यक्ति सार्थक. स्वतंत्र और पूर्ण सार्थक इकाई-वाक्य से ही संभव है। कभी-कभी तो एक शब्द से भी पूर्ण अर्थ का बोध होता है; यथा- ‘जाओ’. ‘आओ’ आदि।

यहाँ पर वाक्य का उद्देश्य-अंश ‘तुम’ छिपा है। श्रोता ऐसे वाक्यों को सुनकर प्रसंग-आधार पर व्याकरणिक ढंग से उसकी पूर्ति कर लेता है। इस प्रकार ये वाक्य बन जाते हैं- ‘तुम आओ।’ ‘तुम जाओ।’

भाषा परिवर्तनशील है, यही कारण है कि प्रत्येक भाषा एक युग के पश्चात दूसरे युग में पहुँचकर पर्याप्त भिन्न हो जाती है। इस प्रकार परिवर्तन के कारण भाषा में विविधता आ जाती है। यदि भाषा-परिवर्तन पर बिल्कुल ही नियंत्रण न रखा जाए तो तीव्रगति के परिवर्तन के परिणामस्वरूप कुछ ही दिनो में भाषा का रूप अन्बोध्य हो जाएगा।

भाषा-परिवर्तन पूर्ण रूप से रोका तो नहीं जा सकता, किंतु भाषा में बोधगम्यता बनाए रखने के लिए उसके परिवर्तन क्रम का स्थिरीकरण अवश्य संभव है। इस प्रकार की स्थिरता से भाषा का मानकीकरण हो जाता है।

भाषा का प्रारंभिक रूप संयोगावस्था में होता है। इसे संश्लेषावस्था भी कहते हैं। धीरे-धीरे इसमें परिवर्तन आता है और वियोगावस्था या विशेषण अवस्था आ जाती हैं भाषा को संयोगावस्था में वाक्य के विभिन्न अवयव आपस में मिले हुए लिखे बोले जाते हैं। परवर्ती अवस्था में यह संयोगावस्था धीरे-धीरे शिथिल होती जाती है;

यथा- रमेशस्य पुत्रः गृहं गच्छति। रमेश का पुत्र घर जाता है। 'रमेशस्य' तथा 'गच्छति' संयोगावस्था में प्रयुक्त पद हैं। जबकि परवर्ती भाषा हिंदी में 'रमेश का' और 'जाता है।' वियोगावस्था में है। 

भाषा चिर परिवर्तनशील है इसलिए किसी भी भाषा का अंतिम रूप ढूँढ़ना निरर्थक है और उसका अंतिम रूप प्राप्त कर पाना असंभव है।

भाषा का प्रवाह कठिनता से सरलता की ओर होता है। मनुष्य स्वभावत: अल्प परिश्रम से अधिक कार्य करना चाहता है। इसी आधार पर किया गया प्रयत्न भाषा में सरलता का गुण भर देता है।

उच्चरित भाषा में इस प्रकृति का उदाहरण द्रष्टव्य है-डॉक्टर साहब > डाक्टर साहब : डाक्ट साहब डाक्ट साब > डाक साब डाक्साब 

मातृभाषा सहज रूप में अनुकरण के माध्यम से सीखी जाती है। अन्य भाषाएँ भी बौद्धिक प्रयत्न से सीखी जाती हैं। दोनों प्रकार की भाषाओं के सीखने में अंतर यह है कि मातृभाषा तब सीखी जाती है जब बुद्धि अविकसित होती है, अर्थात बुद्धि-विकास के साथ मातृभाषा सीखी जाती है।

प्रत्येक भाषा की अपनी भौगोलिक सीमा होती है, अर्थात एक निश्चित दूरी तक एक भाषा का प्रयोग होता है। भाषा-प्रयाग के विषय में यह कहावत प्रचलित है- “चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बानी।”

एक भाषा से अन्य भाषा की भिन्नता कम या अधिक हो सकती है, किंतु सीमा प्रारंभ हो जाती है; यथा-असमी भाषा असम-सीमा में प्रयुक्त होती है. उसके बाद बंगला की सीमा शुरू हो जाती है।

द्वितीय प्रकृति वह है , जो भाषा विशेष में पाई जाती हैं। इससे एक भाषा से दूसरी भाषा की भिन्नता स्पष्ट होती है। हम इसे विशिष्ट भाषागत प्रकृति कह सकते हैं।

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