नरपति नाल्ह कृत बीसलदेव रासो

नरपति नाल्ह कृत बीसलदेव रासो

नरपति नाल्ह कवि विग्रहराज चतुर्थ उपनाम बीसलदेव का समकालीन था। कदाचित् यह राजकवि था। इसने ‘बीसलदेवरासो’ नामक एक छोटा सा (100 पृष्ठों का) ग्रंथ लिखा है, जो वीरगीत के रूप में है। ग्रंथ में निर्माणकाल यों दिया है-

बारह सै बहोत्तरा मझारि। जैठबदी नवमी बुधवारि।
नाल्ह रसायण आरंभइ। शारदा तूठी ब्रह्मकुमारि।

नरपति नाल्ह कवि

‘बारह सै बहोत्तरा’ का अर्थ ‘द्वादशोत्तर’ बारह सै अर्थात् 1212 होगा। गणना करने पर विक्रम संवत् 1212 में ज्येष्ठ बदी नवमी को बुधवार ही पड़ता है। कवि ने अपने रासो में सर्वत्र वर्तमान काल का ही प्रयोग किया है, जिससे वह बीसलदेव का समकालीन जान पड़ता है। विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) का समय भी 1220 के आसपास है। उसके शिलालेख भी संवत् 1210 में और 1220 के प्राप्त हैं।

बीसलदेव रासो में चार खंड

बीसलदेव रासो में चार खंड हैं; यह काव्य लगभग 2000 चरणों में समाप्त हुआ है।

इसकी कथा का सार यों है-

खंड 1-मालवा के भोज परमार की पुत्री राजमती से साँभर के बीसलदेव का विवाह होना।

खंड 2-बीसलदेव का राजमती से रूठकर उड़ीसा की ओर प्रस्थान करना तथा वहाँ एक वर्ष रहना।

खंड 3-राजमती का विरह वर्णन तथा बीसलदेव का उड़ीसा से लौटना।

खंड 4-भोज का अपनी पुत्री को अपने घर लिवा ले जाना तथा बीसलदेव का वहाँ जाकर राजमती को फिर चित्तौड़ लाना।

यह घटनात्मक काव्य नहीं है, वर्णनात्मक है। इसमें दो ही घटनाएँ हैं –बीसलदेव का विवाह और उनका उड़ीसा जाना।

इनमें से पहली बात तो कल्पनाप्रसूत प्रतीत होती है। बीसलदेव से एक सौ वर्ष पहले ही धार के प्रसिद्ध परमार राजा भोज का देहांत हो चुका था। अतः उनकी कन्या के साथ बीसलदेव का विवाह किसी पीछे के कवि की कल्पना ही प्रतीत होती है। उस समय मालवा में भोज नाम का कोई राजा नहीं था। बीसलदेव की एक परमार वंश की रानी थी, यह बात परंपरा से अवश्य प्रसिद्ध चली आती थी, क्योंकि इसका उल्लेख पृथ्वीराजरासो में भी है।

इसी बात को लेकर पुस्तक में भोज का नाम रखा हुआ जान पड़ता है। अथवा यह हो सकता है कि धार के परमारों की उपाधि ही भोज रही हो और उस आधार पर इन्हीं में से किसी की कन्या के साथ बीसलदेव का विवाह हुआ हो। परमार कन्या के संबंध में कई स्थानों पर जो वाक्य आए हैं, उन पर ध्यान देने से यह सिद्धांत पुष्ट होता है कि राजा भोज का नाम कहीं पीछे से न मिलाया गया हो; जैसे -‘जननी गोरी तू जेसलमेर’, ‘गोरड़ी जेसलमेर की’।

इस ग्रंथ में शृंगार की ही प्रधानता है, वीररस किंचित् आभास मात्र है। संयोग और वियोग के गीत ही कवि ने गाए हैं।

बीसलदेवरासो के कुछ पद्य देखिए-

परणब चात्यो बीसलराय। चउरास्याः सहुलिया बोलाइ।
जान तणी साजति करउ। जीरह रंगावली पहरज्यो टोप॥
हुअउ पइसारउ बीसलराव। आवी सयल अँतेवरी राव॥
रूप अपूरब पेषियइ। इसी अस्त्री नहिं सयल संसार॥
अति रंग स्वामी सूं मिली राति। बेटी राजा भोज की॥
गरब करि ऊर्भो छइ साँभर्यो राव। मो सरीखा नहिं ऊर भूवाल॥
म्हाँ घरि साँभर उग्गहड़। चिहुँ दिसि थाण जैसलमेर॥
“गरबि न बोलो हो साँभर्यो राव। तो सरीखा घणा ओर भुवाल॥
एक उड़ीसा को धणी। बचन हमारइ तू मानि जुमानि॥
ज्यूँ थारइ० साँभर उग्गहइ। राजा उणि घरि उग्गहइ हीराखान”।
कुँवरि कहइ “सुणि, साँभर्या राव। काई। स्वामी तू उल्लगई। जाइ?
कहेउ हमारउ जइ सुणउ। थारइ छइ साठि अँतेवरि नारि”॥
“कड़वा बोल न बोलिस नारि। तूमो मेल्हसी चित्त बिसारि॥
जीभ न जीभ विगोयनोऽ। दव का दाधा कुपली मेल्हइ”॥
जीभ का दाधा नु पाँगुरइ।।। नाल्ह कहइ सुणीजइ सब कोइ॥
आव्यो राजा मास बसंत। गढ़ माहीं गूड़ी उछली ॥
जइ धन मिलती अंग सँभार। मान भंग हो तो बाल हो॥

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