मैथिलकोकिल विद्यापति का साहित्यिक परिचय

मैथिलकोकिल विद्यापति का साहित्यिक परिचय :आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार “ विद्यापति के पद अधिकतर शृंगार के ही हैं जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं।

विद्यापति शैव थे। इन्होंने इन पदों की रचना शृंगार काव्य की दृष्टि से की है, भक्त के रूप में नहीं। विद्यापति को कृष्णभक्तों  की परंपरा में नहीं समझना चाहिये” । विद्यापति को शैव मानने के बारे में भी काफी विवाद है। विद्यापति को शैव मानने का कारण शायद उनकी ‘शैव सर्वस्व सार’ ग्रंथ और मैथिली में रचे गये नचारी है जो शिव को आधार मान कर लिखे गये हैं।

विभिन्न मान्यताएं: 

“विद्यापति शृंगार रस के सिद्धवाक कवि थे। उनकी पदावली में राधा और कृष्ण की जिस प्रेमलीला का चित्रण है, वह अपूर्व है। इस वर्णन में प्रेम के शरीर पक्ष की प्रधानता अवश्य है पर इससे सहृदय के चित्त में विकार नहीं उत्पन्न होता बल्कि भावों की सांद्रता और अभिव्यक्ति की प्रेषणगुणिता के कारण वह बहुत ही आकर्षक हो गया है”।

हजारी प्रसाद द्विवेदी


विद्यापति के शुरूआती अध्येताओं में से एक जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने भी उन्हें भक्त माना है। जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के साथ आनंद कुमारस्वामी और नगेन्द्रनाथ गुप्त जैसे विद्वानों ने भी विद्यापति को रहस्यवादी कवि बताया है। जिसमें राधा और कृष्ण प्रतीक के रूप में आते हैं। जीवात्मा परमात्मा से मिलने की कोशिश करती रहती है और इस कोशिश में जीवात्मा की मदद गुरू करती है जो यहां पर दूत के रूप में है।

विद्यापति में न तो सिद्धों की सहज समाधि है, न षटचक्र, न कुंडलिनी, हठयोग और न तो मन के भीतर ही साधना द्वारा आत्मलय होने की प्रक्रिया।

शिवप्रसाद सिंह

विद्यापति न माया की बात करते हैं न ब्रह्म की और न किसी सदगुरू की शरण में जाने का उपदेश देते हैं। उन्हें सबद की चोट नहीं लगती और न तो अनाहत नाद का आकर्षण खींचता है। रामवृक्ष बेनीपूरी जिन्होंने विद्यापति के गीतों का एक संकलन किया है, स्पष्ट लिखते हैं कि “ विद्यापति शृंगारिक कवि थे”

“ विद्यापति ने कविता में अपना आदर्श जयदेव को माना है – लोग इन्हें अभिनव जयदेव कहते भी थे। अतः जयदेव के समान वे संगीत-पूर्ण कोमलकांत पदावली में शृंगारिक रचना करते थे”।

“विद्यापति वस्तुतः संक्रमण काल के प्रतिनिधि कवि हैं, वे दरबारी होते हुए भी जन-कवि हैं, शृंगारिक होते हुए भी भक्त हैं, शैव या शाक्त या वैष्णव होते हुए भी वे धर्म- निरपेक्ष हैं, संस्कारी ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होते हुए भी विवेक संत्रस्त या मर्यादावादी नहीं है।

शिवप्रसाद सिंह

इस प्रकार विद्यापति का व्यक्तित्व अत्यंत गुंफित और उलझा हुआ है। यह नाना प्रकार के फूलों की वनस्थली है, एक फूल का गमला नहीं। रामवृक्ष बेनीपुरी विद्यापति की पदावली का अवलोकन करते हुए लिखते हैं कि “विद्यापति एक अजीब कवि हो गए हैं। राजा की गगनचुंबी अट्टालिका से लेकर गरीबों की टूटी हुई फूस की झोपड़ी तक में उनके पदों का आदर है।

विभिन्न विद्वानों के मत के इस अवलोकन से स्पष्ट है कि विद्यापति को केवल शृंगार का कवि भी माना जाता रहा है जिसमें आचार्य शुक्ल जी के साथ बाबुराम सक्सेना, रामकुमार वर्मा, शिवनन्दन ठाकुर आदि भी हैं।  विद्यापति को केवल भक्त भी माना गया है जिसमें ग्रियर्सन के साथ नगेन्द्रनाथ जनार्दन मिश्र, श्यामसुन्दर दास इत्यादि शामिल है।  

रचना एवं भाषा

विद्यापति ‘मैथिलकोकिल’ कहलाए वह इनकी पदावली है। इन्होंने अपने समय की प्रचलित मैथिली भाषा का व्यवहार किया है।
विद्यापति को बंगभाषावाले अपनी ओर खींचते हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी बिहारी और मैथिली को ‘मागधी’ से निकली होने के कारण हिंदी से अलग माना है। पर केवल भाषाशास्त्र की दृष्टि से कुछ प्रत्ययों के आधार पर ही साहित्य का विभाजन नहीं किया जा सकता। कोई भाषा कितनी दूर तक समझी जाती है, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषा का समझा जाना अधिकतर उसकी शब्दावली (वोकेब्युलरी) पर अवलंबित होता है। यदि ऐसा न होता तो उर्दू और हिंदी का एक ही साहित्य माना जाता।

खड़ी बोली, बांगडू, ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, बैसवारी, अवधी इत्यादि में रूपों और प्रत्ययों का इतना भेद होते हुए भी सब हिंदी के अंतर्गत मानी जाती हैं। इनके बोलनेवाले एक-दूसरे की बोली समझते हैं। बनारस, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया आदि जिलों में ‘आयल आइल’, ‘गयल- गइल’, ‘हमरा-तोहरा’ आदि बोले जाने पर भी वहाँ की भाषा हिंदी के सिवाय दूसरी नहीं कही जाती। कारण है शब्दावली की एकता। अतः जिस प्रकार हिंदी साहित्य ‘बीसलदेवरासो’ पर अपना अधिकार रखता है उसी प्रकार विद्यापति की पदावली पर भी।


विद्यापति के पद अधिकतर शृंगार के ही हैं, जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं। इन पदों की रचना जयदेव के गीतकाव्य के अनुकरण पर ही शायद की गई हो। इनका माधुर्य अद्भुत है। विद्यापति शैव थे। उन्होंने इन पदों की रचना शृंगार काव्य की दृष्टि से की है, भक्त के रूप में नहीं।
विद्यापति को कृष्णभक्तों की परंपरा में न समझना चाहिए।

आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीतगोविंद’ के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी। सूर आदि कृष्णभक्तों के शृंगारी पदों की भी ऐसे लोग आध्यात्मिक व्याख्या चाहते हैं। पता नहीं बाललीला के पदों का वे क्या करेंगे। इस संबंध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि लीलाओं का कीर्तन कृष्णभक्ति का एक प्रधान अंग है। जिस रूप में लीलाएँ वर्णित हैं उसी रूप में उनका ग्रहण हुआ है और उसी रूप में वे गोलोक में नित्य मानी गई हैं, जहाँ वृंदावन, यमुना, निकुंज, सखा, गोपिकाएँ इत्यादि सब नित्य रूप में हैं। इन लीलाओं का दूसरा अर्थ निकालने की आवश्यकता नहीं। विद्यापति संवत् 1460 में तिरहुत के राजा शिवसिंह के यहाँ वर्तमान थे।
उनके दो पद नीचे दिए जाते हैं-


सरस बसंत समय भल पावलि, दछिन पवन बह धीरे।
सपनहु रूप बचन इक भाषिय, मुख से दूरि करु चीरे॥
तोहर बदन सम चाँद होअथि नाहिं, कैयो जतन बिह केला।
कै बेरि काटि बनावल नव कै, तैयो तुलित नहि भेला॥
लोचन स्थ कमल नहिं भै सक, से जग के नहिं जाने।
से फिरि जाय लुकैलन्ह जल महँ, पंकज निज अपमाने॥
भन विद्यापति सुनु बर जोवति, ई सम लछमि समाने।
राजा ‘सिवसिंह’ रूप नरायन, ‘लखिमा देइ’ प्रति माने॥

कालि कहल पिय साँझहि रे, जाइबि मइ मारू देस।

मोए अभागिलि नहिं जानल रे, सँग जइतवं जोगिनी बेस॥

हिरदय बड़ दारुन रे, पिया बिनु बिहरि न जाइ।
एक सयन सखि सूतल रे, अछल बलभ निसि भोर॥
न जानल कत खन तजि गेल रे, बिछुरल चकवा जोर।
सूनि सेज पिय सालइ रे, पिय बिनु घर मोए आजि॥
बिनति करहु सुसहेलिन रे, मोहि देहि अगिहर साजि।
विद्यापति कवि गावल रे, आवि मिलत पिय तोर।
‘लखिमा देइ’ बर नागर रे, राय सिवसिंह नहिं भोर॥

मोटे हिसाब से वीरगाथा काल महाराज हम्मीर के समय तक ही समझना चाहिए। उसके उपरांत मुसलमानों का साम्राज्य भारत में स्थिर हो गया और हिंदू राजाओं को न तो आपस में लड़ने का उतना उत्साह रहा, न मुसलमानों से। जनता की चित्तवृत्ति बदलने लगी और विचारधारा दूसरी ओर चली। मुसलमानों के न जमने तक तो उन्हें हराकर अपने धर्म की रक्षा का वीर प्रयत्न होता रहा, पर मुसलमानों के जम जाने पर अपने धर्म के उस व्यापक और हृदयग्राह्य रुप के प्रचार की ओर ध्यान हुआ, जो सारी जनता को आकर्षित रखे और धर्म से विचलित न होने दे।

इस प्रकार स्थिति के साथ-ही-साथ भावों तथा विचारों में भी परिवर्तन हो गया। पर इससे यह न समझना चाहिए कि हम्मीर के पीछे किसी वीरकाव्य की रचना ही नहीं हुई। समय-समय पर इस प्रकार के अनेक काव्य लिखे गए। हिंदी साहित्य के इतिहास की एक विशेषता यह भी रही कि एक विशिष्ट काल में किसी रूप की जो काव्यसरिता वेग से प्रवाहित हुई, वह यद्यपि आगे चलकर मंद गति से बहने लगी, पर 900 वर्षों के हिंदी साहित्य के इतिहास में हम उसे कभी सर्वथा सूखी हुई नहीं पाते।

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