प्रयोगवादी कवियों की महत्वपूर्ण काव्य पंक्तियाँ
(क) अज्ञेय
(1) वही परिचित दो आँखें ही
चिर माध्यम हैं
सब आँखों से सब दर्दों से मेरे लिए परिचय का।
(2) यह दीप अकेला स्नेह भरा,
है गर्व भरा मदमाता,
पर इसको भी पंक्ति दे दो।
(3) किन्तु हम हैं द्वीप ।
हम धारा नहीं हैं
स्थिर समर्पण है हमारा
हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
(4) हम निहारते रूप,
काँच के पीछे हाँफ रही है मछली
(5) साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
तब कैसे सीखा डँसना-विष कहाँ पाया ?
(6) भोर का बावरा अहेरी पहले बिछाता है
आलोक की लाल-लाल कनिया
(7) मौन भी अभिव्यंजना है
जितना तुम्हारा सच है
उतना ही कहो।
(8) अगर मैं तुमको लजाती
साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता
ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच !
(9) मूत्र सिंचित मृत्तिका के वृत्त में
तीन टाँगों पर खड़ा नतग्रीव
धैर्यधन गदहा ।
(10) यह अनुभव अद्वितीय
जो केवल मैंने जिया सब तुम्हें दिया
(11) आह, मेरा श्वास है
उत्तप्त धमनियों में उमड़ आयी है
लहू की धार प्यार है अभिशप्त
तुम कहाँ हो नारि ।
(12) अहं ! अन्तर्गुहा वासी! स्वरति !
क्या मैं चीन्हता कोई न दूजी राह ?
(13) वंचना है चाँदनी
झूठ वह आकाश का निरवधि गहन विस्तार
शिशिर की राका निशा की शान्ति है निस्सार !
(14) एक तीक्ष्ण अपांग से कविता उत्पन्न हो जाता है
एक चुंबन में प्रणय फलीभूत हो जाता है।
पर मैं अखिल विश्व का प्रेम खोजता फिरता हूँ।
क्योंकि मैं उसके असंख्य हृदयों का गाथाकार हूँ।
(ख) मुक्तिबोध
(1) हर एक छाती में आत्मा अधीरा है।
प्रत्येक सुस्मित में, विमल सदानीरा है।
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में महाकाव्य-पीड़ा है।
‘अँधेरे में’ से
(2) ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन।
उदरम्भरि अनात्म बन गये
भूतों की शादी में कनात से तन गये।
‘अँधेरे में’ से
(3) बहुत-बहुत ज्यादा लिया,
दिया बहुत – बहुत कम मर गया देश,
अरे, जीवित रह गए तुम !!
‘अँधेरे में’ से
(4) अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे। तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सभी ।
‘अँधेरे में’ से
(5) कविता में कहने की आदत नहीं है,
पर कह दूँ वर्तमान समाज चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।
‘अँधेरे में’ से
(6) खोजता हूँ पठार-पहाड़,
समुन्दर जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-संभवा ।
‘अँधेरे में’ से
(ग) शमशेर बहादुर सिंह
(1) चूका भी हूँ मैं नहीं
कहाँ किया मैंने प्रेम अभी जब करूँगा
प्रेम पिघल उठेंगे
युगों के भूधर उफन उठेंगे सात सागर
किन्तु मैं हूँ मौन आज !
(2) एक पीली शाम
पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
संध्या-तारक-सा
अतल में।
(3) बात बोलेगी हम नहीं भेद खोलेगी बात ही।
(4) घिर गया है समय का रथ कहीं।
लालिता से मढ़ गया है राग ।
भावना की तुंग लहरें पंथ अपना अन्त
अपना जान रोलती हैं मुक्ति के उद्गार ।
(5) हां, तुम मुझसे प्रेम करो।
जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं…
जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो
जैसे मैं तुमसे करता हूँ।
(घ) भवानी प्रसाद मिश्र
(7) जी हाँ हजूर, मैं गीत बेचता हूँ, मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ।
(2) टूटने का सुख : बहुत प्यारे बन्धनों को आज झटका लग रहा है, टूट जायेंगे कि मुझको आज खटका लग रहा है।
(3) सतपुड़ा के घने जंगल नींद में डूबे हुए से, उँघते अनमने जंगल।
(4) फूल लाया हूँ कमल के। क्या करूँ इनका ? पसारें आप आँचल, छोड़ दूँ; हो जाए जी हल्का !
(ङ) धर्मवीर भारती
(1) सृजन की थकन भूल जा देवता! अभी तो पड़ी है धरा अधबनी।
(2) इन फ़ीरोज़ी होठों पर बरबाद
मेरी जिन्दगी !
(3) अगर मैंने किसी के होठ के पाटल कभी चूमे
अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे
महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो !
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो !
(च) रघुवीर सहाय
(1) राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत भाग्य विधाता है।
फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हर चरना गाता है।
(2) मैं अपनी एक मूर्ति बनाता हूँ
और एक ढहाता हूँ
और आप कहते हैं कि कविता की है।
(3) कितना अच्छा था छायावादी
एक दुःख लेकर वह गान देता था
कितना कुशल था प्रगतिवादी
हर दुःख का कारण पहचान लेता था।
(छ) सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
(1) लीक पर वे चलें जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं हमें तो हमारी यात्रा से बने ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।
(2) लोकतंत्र को जूते की तरह लाठी में लटकाए भागे जा रहे हैं सभी सीना फुलाए ।
(3) मैं नया कवि हूँ इसी से जानता हूँ सत्य की चोट बहुत गहरी होती है।
(ज) केदारनाथ सिंह
(1) मैंने जब भी सोचा
मुझे रामचंद्र शुक्ल की मूँछें याद आई।
(2) मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ।