‘प्रयोगवाद’ ‘तार सप्तक’ के माध्यम से वर्ष 1943 ई० में प्रकाशन जगत में आई और जो प्रगतिशील कविताओं के साथ विकसित होती गयी तथा जिनका पर्यावसान ‘नयी कविता’ में हो गया।
कविताओं को सबसे पहले नंद दुलारे बाजपेयी ने ‘प्रयोगवादी कविता’ कहा।
अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, मुक्तिबोध, नेमिचंद जैन, भारत भूषण अग्रवाल, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती आदि तथा नकेनवादियों -नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार व नरेश-की कविताएँ प्रयोगवादी कविताएँ हैं।
प्रयोगवाद के अगुआ कवि अज्ञेय को ‘प्रयोगवाद का प्रवर्तक’ कहा जाता है।
नकेनवादियों ने अपने काव्य को ‘प्रयोग पद्य’ यानी ‘प्रपद्य’ कहा है, इसलिए नकेनवाद को ‘प्रपद्यवाद’ भी कहा जाता है।
प्रयोगवाद भाव में व्यक्ति-सत्य तथा शिल्प में रूपवाद का पक्षधर है।
प्रयोगवाद की विशेषताएँ :
- अनुभूति व यथार्थ का संश्लेषण/बौद्धिकता का आग्रह
- वाद या विचार धारा का विरोध
- निरंतर प्रयोगशीलता
- नई राहों का अन्वेषण
- साहस और जोखिम
- व्यक्तिवाद
- काम संवेदना की अभिव्यक्ति
- शिल्पगत प्रयोग
- भाषा-शैलीगत प्रयोग।
शिल्प के प्रति आग्रह देखकर ही इन्हें आलोचकों ने रूपवादी (Formist) तथा इनकी कविताओं को ‘रूपाकाराग्रही कविता’ कहा।
प्रयोगवाद की प्रसिद्ध पंक्तियाँ
फूल को प्यार करो
पर झरे तो झर जाने दो
जीवन का रस लो
देह, मन, आत्मा की रसना से
पर मरे तो मर जाने दो।
-अज्ञेय
कन्हाई ने प्यार किया
कितनी गोपियों को कितनी बार
पर उड़ेलते रहे अपना सदा एक रूप पर
जिसे कभी पाया नहीं
जो किसी रूप में समाया नहीं
यदि किसी प्रेयसी में उसे पा लिया होता
तो फिर दूसरे को प्यार क्यों करता।
-अज्ञेय
किन्तु हम है द्वीप
हम धारा नहीं हैं
स्थिर समर्पण है हमारा
द्वीप हैं हम।
-अज्ञेय
उड़ चल हारिल, लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में
कैसी बाट, भरोसा किनका !
-अज्ञेय
ये उपमान मैले हो गये हैं
देवता इन प्रतीकों से कर गये हैं कूच
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है
-अज्ञेय
‘प्रयोगवाद’ हिन्दी में बैठे-ठाले का धंधा बनकर आया था।
प्रयोक्ताओं के पास न तो काव्य संबंधी कोई कौशल था
और न किसी प्रकार की कथनीय वस्तु थी।
(‘नयी साहित्य : नये प्रश्न’) -नंददुलारे वाजपेयी
नहीं,
सांझ
एक असभ्य आदमी की जम्हाई है
नहीं,
सांझ
एक शरीर लड़की है…..
नहीं,
सांझ
एक रद्दी स्याहसोख है
-केसरी कुसार
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