आधे अधूरे : कथासार

आधे अधूरे : कथासार

नाटककार मोहन राकेश ने ‘आधे अधूरे’ की कथावस्तु को एक ऐसे नव्य रूप में प्रस्तुत किया है जिससे सहज ही स्वातंत्र्योत्तर चेतना का आभास होता है। मोहन राकेश ने मध्य वर्गीय परिवार के घर को मंच पर प्रस्तुत करके एक ऐसे व्यक्ति को उद्घोषक के रूप में सामने रखा है जो नाटकीय कथावस्तु के रेशे- रेशे को अपने उद्घाटन विचारों एवं कथनों से दर्शकों को परिचित करा देता है। यह उद्घोषक व्यक्ति अपने कथनानुसार नाटक में आये चार पुरुष पात्रों की भूमिकाएँ अभिनीत करता है। पुरुष एक के रूप में वह नाटक का नायक महेन्द्रनाथ है और पतलून-कमीज पहने हुए है, पुरुष दो की भूमिका में सिंघानिया रूप में पतलून और बंद गले का कोट पहने है, पुरुष तीन की भूमिका में जगमोहन पतलून-टी-शर्ट पहने तथा पुरुष चार की भूमिका में जुनेजा पतलून के साथ पुरानी काट का लंबा कोट पहने है। इस व्यक्ति की आयु लगभग उनचास पचास वर्ष है और अपनी विभिन्न भूमिकाओं में यह प्रखर व्यक्तित्व सम्पन्न पुरुष केवल अपने बाह्याचार एवं वस्त्र परिवर्तन से प्रकट होता है और व्यक्ति की दुहरी, तिहरी और चतुर्मुखी भंगिमाओं का निदर्शन कराता है। नाटककार ने अपने पात्रों का परिचय देते समय उक्त व्यक्ति की विभिन्न भूमिकावत् चारित्रिकता की ओर भी स्पष्ट संकेत कर दिये है। इसके अतिरिक्त नाटककी नायिका, जिसे स्त्री संबोधन दिया गया है, की आयु लगभग चालीस वर्ष बतायी गयी है। लेखक के अनुसार उसके चेहरे पर यौवन की चमक हैं किन्तु अभी वासना मिटी नहीं है। बड़ी लड़की की आयु बीस वर्ष, लड़के की आयु लगभग इक्कीस वर्ष और छोटी लड़की की आयु बारह-तेरह वर्ष है। बड़ी लड़की के व्यक्तित्व में कदाचित थकान का भाव मुखर है जबकि शेष दोनों में विद्रोह अधिक दिखायी देता है।

दर्शक (पाठक) का साक्षात्कार सर्व प्रथम उसी विलक्षण पुरुष से होता है जो मंच के अंधेरे को चीर कर उभरता दिखायी देता है। मंच पर एक ऐसा घर है जिसे देखकर उसमें रहने वाले व्यक्तियों के बिखराव एवं उच्छृंखलता- भरे व्यक्तित्व की झांकी मिल जाती है। इस घर में अतीत स्तर के कई एक टूटते अवशेष- सोफा सेट, डाइनिंग टेबल, कवर्ड और ड्रेसिंग टेबल आदि किसी-न-किसी तरह अपने लिए जगह बनाए हुए है। सामान में कहीं एक तिपाई; कहीं दो-एक मोढ़े, कहीं फटी-पुरानी किताबों की एक शेल्फ और कहीं पढ़ने की एक मेज कुरसी भी है। कुछ सेकेंड बाद वह सिगार के कश खींच रहा है। एक अधटूटा टी-सेट उसके सामने डाइनिंग टेबल पर दिखायी देता है। कुछ क्षणों बाद काले सूट वाला आदमी कुछ अन्तर्मुखी भाव से सिगार की राख झाड़ता हुआ दीखता है और पुनः कुछ क्षण रहकर वह भाषण देने की-सी मुद्रा में उठ खड़ा होता है और दर्शकों की ओर स्पष्टतया उन्मुख होकर कहने लगता है- “मैं नहीं जानता आप क्या समझ रहे हैं। मैं कौन हूं, और क्या आशा कर रहे हैं मैं क्या उसी तरह कहने जा रहा हूं। आप शायद सोचते हों कि मैं इस नाटक में कोई एक निश्चित इकाई हूँ-अभिनेता, प्रस्तुतकर्त्ता, व्यवस्थापक या कुछ और। परन्तु मैं अपने सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकता – जैसे इस नाटक के सम्बन्ध में नहीं कह सकता है।”

इस प्रकार काले सूट वाला व्यक्ति दर्शकों के सम्मुख उस अनिश्चितता को फेंक देता है। जिसे पकड़ना दर्शकों का ही काम है। इसीलिए वह जब अपना परिचय देता है तब भी यही कहता है कि अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। और कि उसके समय व्यक्तित्व को यदि दर्शक देखना ही चाहते हैं तो वे स्वयं को टटोलें क्योंकि “अपने बारे में इतना कह देना ही काफी है कि सड़क के फुटपाथ पर चलते आप अचानक जिस आदमी से टकरा जाते हैं, वह आदमी मैं हूँ।” मतलब यह है कि ” विभाजित होकर मैं किसी न किसी अंश में आपमें से हर एक व्यक्ति हूं और यही कारण है कि नाटक के बाहर हो या अन्दर मेरी कोई निश्चित भूमिका नहीं है। “

काले सूट वाले का यह कथन नाटकीय कथा को दर्शकों के सम्मुख खोल जाता है और उसके जाते ही मंच पर कुछ क्षणों के लिए अंधकार छा जाता है। कुछ क्षण उपरान्त जब मंच पर पुनः प्रकाश वृत्त उभरता है तो घर का वही दृश्य फिर से दर्शकों के सम्मुख उजागर हो उठता है उसी अस्त-व्यस्त स्थिति में उसी समय नाटक की – नायिका, जिसे बाद में सावित्री नाम से पुकारा गया है, अपने हाथों में कुछ सामान लिये घर में प्रवेश करती दीखती है। उसकी भाव-भंगिमा से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वह काफी थकी हुई है, इसीलिए जब वह सामान को एक कुरसी पर रखती है तो उसका मुख उतरा उतरा दिखायी देता है। किन्नी नाम की अपनी छोटी पुत्री को आवाज देकर भी जब वह घर में किसी का स्वर नहीं सुनती तो वह विक्षुब्ध हो उठती है। उसी समय कमरे का निरुद्देश्य निरीक्षण करते हुए उसकी दृष्टि किन्नी की उस पुस्तक पर पड़ती है जिसे उसने आज फाड़ दिया है। उसकी विक्षुब्धता और ‘अधिक उग्र हो उठती है। इतना ही नहीं, वह देखती है कि उसका पति पाजामे को यो ही फेंक गया है और उसके पुत्र ने कुछ रसीली अभिनेत्रियों (जो विशेष कर विदेशी हैं) के चित्र काट-काट कर इधर-उधर बिखरा रखे हैं। वह ज्यों ही पाजामे को तहाकर संभालने को उद्यत होती है कि उसकी दृष्टि जूठे पड़े चाय के सामान पर पड़ जाती है और वह झल्लाकर पाजामा फेंक देती है और चाय के बरतनों को समेटकर घर के अन्दर चली जाती है।

सावित्री का मन विक्षोभ से फटा जा रहा था और उसे लग रहा था कि उसका पति कितना निठल्ला और आलसी तथा लापरवाह है कि चाय बनाकर पी किन्तु इतना भी नहीं हुआ कि जूठे बरतनों को कम से कम रसोई में रख दे। बल्कि वह घर खुला छोड़कर न जाने कहा चला गया। वह यह सब सोच ही रही थी कि उसी समय उसका पति घर के अन्दर आ गया और उल्टे सावित्री से ही प्रश्न करने लगा कि आज वह समय से पहले अपने दफ्तर से कैसे घर आ गयी। स्त्री उल्टे उसी से प्रश्न करती है कि वह कहाँ चला गया था? पुरुष एक- धीमें से कहता है कि यों ही जरा बाजार चला गया था। उसकी बातें सुनकर स्त्री उसके पाजामे को हाथ में लेकर झल्लाती हुई कहती है कि इस प्रकार वस्तुओं को बिखराना इस घर का रोज का कार्य हो गया है। इस पर पुरुष एक उर्फ महेन्द्रनाथ पाजामा माँगता है तो स्त्री उसे और अधिक झिड़क देती है और गुस्से से कबर्ड खोलकर पाजामे को उनमें ठूस देती है। खिसियाया हुआ महेन्द्र एक कुरसी की पीठ पर हाथ रखता है। स्त्री कबर्ड से होकर ट्रे उठाती हुई पूछती है कि चाय किस-किस ने पी थी और पुरुष एक बताता है कि उसने अकेले पी थी। गुस्से में आकर स्त्री कहती है कि अकेले के लिए पूरी ट्रे सजाने की क्या अवश्यकता थी। क्या उसने किन्नी को दूध दिया था? इस पर पुरुष एक कहता है कि उसने उसे देखा ही नहीं। भिनभिनाती हुई स्त्री अहाते के दरवाजे से होकर पीछे रसोई घर में चली जाती हैं और पुरुष एक कुरसी को झुलाने लगता है। तभी स्त्री फिर वापस आ जाती है।

स्त्री बिखरी हुई वस्तुओं को समेटती हुई बताती है कि आज उसका बॉस सिंघानिया उसके घर आने वाला है। उसे किसी के यहाँ खाना खाने जानता है और वह पांच मिनट के लिए यहाँ भी रुकेगा। सिंघानिया के आने की खबर सुनकर पुरुष एक स्त्री पर व्यंग्य करता है तो स्त्री तिलमिला उठती है और जब वह पूछता है कि वह कब आयेगा तो स्त्री कहती है कि जब भी वह इधार से गुजरेगा, यहां भी आ जाएगा। चूँकि महेन्द्र इस बात से रुष्ट है कि सिंघानिया उसके घर आ रहा है तो वह ऐसे अवसर पर घर में नहना नहीं चाहता और कहता है कि यद्यपि उसे कहीं जाना है किन्तु यदि वह चाहें तो वह रुक भी सकता है तो स्त्री खीझकर कहती है कि मेरे लिए रुकने की जरूरत नहीं है। स्त्री फिर अंदर चली जाती है और महेन्द्र जेब से एक अखबार निकालकर उसे जोर-जोर से पढ़ने लगता है। उसी समय स्त्री फिर बाहर निकलती है और उससे पूछती है कि क्या उसे सचमुच कहीं जाना है तो वह बताता है कि उसे जुनेजा के यहाँ जाना है क्योंकि फिलहाल उसे देने के लिए पैसा नहीं है, तो कम से कम मुंह तो उसे दिखाते रहना चाहिए। वह छः महीने बाहर रहकर आया है। हो सकता है कोई नया कारोबार चलाने की सोच रहा हो जिसमें महेन्द्र का सहयोग भी वह ले। महेन्द्र की यह बातें सुनकर स्त्री जुनेजा पर बहत व्यंग्य करती है और कहती है कि उसी जुनेजा के कारण तो इस घर की यह बरबादी हुई है। उसका कहना है कि जुनेजा यदि इनकी मदद न करता, तो उतना नुकसान तो न होता जितना उसके मदद करने में हुआ है। पहली बार प्रे में जो हुआ सो हुआ किन्तु फैक्टरी में भी तो हानि ही उठानी पड़ी और यह सब कृपा जुनेजा की ही थी। स्त्री के व्यंग्य से तिलमिलाकर पुरुष एक अर्थात् महेन्द्रनाथ कहता है कि घर की दशा गिरने में स्वयं उनके परिवार का हाथ था। शुरू-शुरू में जब पैसा था तब चार सौ रुपये महीने का मकान था। टैक्सियों में आना जाना होता था । किस्तों में फ्रिज खरीदा गया था। लड़के लड़की की कान्वेंट की फीसें जाती थी। शराब आती थी। दावतें उड़ती थी और यही कारण था कि इस फिजूल खर्ची से विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करने वाला परिवार निम्न स्तर पर आ गया। स्त्री पुरुष एक पर आरोप लगाती है कि वह लड़ना-झगड़ना चाहता है। ताकि उसी बहाने घर से चला जायें। वह यह भी बताती है कि जिस प्रकार वह स्वयं तीन-तीन दिन तक घर में दिखाई नहीं देता । पुरुष एक भी कह देता है कि उसकी बड़ी लड़की भी तो घर से किसी के साथ इसीलिए भगी थी क्योंकि अपनी माँ का प्रत्यक्ष प्रभाव उस पर आ गया था।

स्त्री निढाल हो उठती है और कहती है कि जब भी इस घर में कोई आने वाला होता है तो वह ऐसी ही बाते करता है। उसका कहना है कि पुरुष एक स्वयं तो बेकार है ही और लड़का भी बेकार है, इसलिए वह बड़े लोगों के साथ सम्पर्क बढ़ाना चाहती है, उन्हें घर पर बुलाती है ताकि किसी के माध्यम से लड़के की नौकरी दिला सके। किन्तु वह हर बार उल्टे उसी पर आरोप लगाता है। पुरुष एक व्यंग्य से बहता है, हाँ सिंघनिया तो लगवा ही देगा जरूर। इसीलिए बेचारा आता है यहाँ चलकर । स्त्री उसकी बातों से कुढ़कर कहती है कि वह यह क्यों नहीं सोचता कि एक इतना बड़ा आदमी सिर्फ एक बार कहने भर से उसके घर अपने लगा है। इस पर पुरुष एक फिर व्यंग्य करता है कि जब- जब किसी नये आदमी का यहाँ आना जाना शुरू होता है, वह हमेशा शुक्र मानाता है। यहाँपर वह यह भी स्पष्ट करता है कि सिंघानिया पहला व्यक्ति नहीं है जो सावित्री के बुलावे से घर में आता है बल्कि इससे पहले जगमोहन और मनोज नामक व्यक्ति भी इस घर में आते रहे हैं। स्त्री पुरुष एक के व्यंग्य – प्रहारों से तिलमिला उठती है और गहरी – वितृष्णा के साथ कहती है- जितने नाशुके आदमी तुम हो, उससे तो मन करता है कि आज ही मैं इस घर को छोड़कर कहीं अन्यत्र चली जाऊँ।

इस प्रकार बड़बड़ाती हुई स्त्री अहाते के दरवाजे की ओर मुड़ती ही है कि बाहर से बड़ी लड़की का स्वर सुनासी देता है। स्त्री रुककर उस तरफ देखती है और उसका चेहरा कुछ फीका पड़ जाता है। इसका कारण यह है कि बड़ी लड़की एक दिन अपने के प्रेमी मनोज के साथ घर से भाग गयी थी किन्तु न जाने ऐसा क्सा था कि उन घर में भी वह निभा न सकी और बार-बार मनोज का घर छोड़कर भार आती थी। आज भी ऐसा लगता था कि सम्भवतः वह भागकर ही आयी है। इसीलिए जब स्त्री कहती है कि बाहर बीता आयर है तो पुरुष एक बड़े आपने भाव से अक्कबार लपेटकर उठ खड़ा होता है और तल्खी के साथ कहता है फिर उसी तरह आयी होगी ? पुरुष एक पैसे देना है। स्त्री पल पर उधर देखती रहकर आगे के दरवाज़े में रसोई घर में से चली जाती है।

पुरुष एक बीना को बैठने को कहता है। उसी समय स्त्री दोनों हाथों में चाय की प्यालियां लिये अहाते के दरवाजे से आती है। कुशल क्षेम पूछने के बाद स्त्री बीना की सूजी हुई आँखें देखकर चौंक उठती है और इनका कारण पूछती है तो बीना टाल जाती है और मुंह-हाथ धोने गुसलखाने की ओर चली जाती है। बीना के जाते ही पुरुष एक स्त्री को बतता है कि बीना कुछ सम्मान लेकर भी नहीं आयी है इसलिए ऐसा लगता है कि वह फिर भान कर आयी है। किन्तु जब स्त्री ‘थोड़ी देर के लिए आयी होगी’ कहकर बात टालना चाहती है तो पुरुष एक कहता है कि उनके पासे पैसे भी तो नहीं थे और स्त्री से कहता है कि उसे बीना से आने का कारण पूछना चाहिए। स्त्री उनसे कहती है कि मैं क्या पूछू तब पुरुष एक व्यंग्य से कहता है कि क्या वह भी तुम्हें मुझे हीं बताना होगा ? वह कहता है कि मनोज के बारे में उस की राय कभी अच्छी नहीं थी किन्तु स्त्री ही बहुत चाहती थी उसे, और बार-बार उनकी प्रशंसा किया करती थी। स्त्री की शह से उसका घर में आना-जाना न होता तो क्या यह नौबत आती कि लड़की उनके पास जाकर बाद इस प्रकार भाग कर आया करती? बीना के आने का कारण पूछने के प्रश्न को लेकर दोनों में काफी वाद-विवाद होती है। यहीं पर जब पुरुष एक कहता है कि यदि उसके नियंत्रण में घर होता तो संभव है ऐसा न होता। इस पर सावित्री उर्फ स्त्री उस पर व्यंग्य करती हुई कहती है कि यदि ऐसा होता तो पता नहीं और क्या बरवादी हुई होती? दो रोटी आज मिल जाती हैं मेरी नौकरी से वह भी न मिल पातीं। लड़की भी घर में रहकर ही बुढ़ा जाती । यहाँ पर यह यह स्पष्ट हो जाता है कि सावित्री की नौकरी से ही घर का पूरा खर्च चल रहा है और पुरुष एक अर्थात् महेन्द्रनाथ बेकार तथा निठल्ला व्यक्ति है। पुरुष एक को उसी सप्रय बीना आती दिखायी देती है और वह स्त्री को बता देता है कि वह आ रही है।

कमरे में आकर बड़ी लड़की गर्मी और उमस का बखान करती है किन्तु जब वह देखती है कि दोनों की दृष्टि उसके चेहरे पर जमी हुई है तो वह पूछती है कि क्सा बात है जो वे दोनों उसे इस तरह देख रहे हैं? तब स्त्री उससे पूछती है कि वह बार-बार क्यों इस प्रकार भाग कर यहां चली आया करती है। ऐसा लगता है कि तेरे मन में ऐसी कोई बात है कि जिसे तू अपने मन में ही छिपाये रहती है, हमें नहीं बतलाती । बीना पूछती है कि कैसी बात ? तो स्त्री पुरुष एक से कहती है कि वही बता दे और यहाँ पर फिर दोनों में तकरार हो जाती है। स्त्री उससे पूछती है कि क्या वह अपने नये घर में सुखी है तो बीना हां कर देती है किन्तु दोनों को ही इस कथन का विश्वास नहीं होता। इस पर बीना झल्ला उटती है किन्तु स्त्री उसे आश्वासन देती है और उसके कंधो पर हाथ रखकर उसे पढ़ने की मेज के पास ले जाती है और यहां कुरसी पर बिठाकर उससे पूछती है कि वह सच सच बता दे कि उसे मनोज के घर में क्या शिकायत है। पहले तो बीना स्त्री हर प्रश्न को टालती जाती है कि किन्तु अन्त में उसका आवेग फूट पड़ता है और वह कहती है कि शादी से पहले मुझे लगता था कि मनोज को बहुत अच्छी तरह जानती हूं। पर अब आकर लगने लगा है कि यह जानना बिल्कुल जानना नहीं था। उसका चरित्र अच्छा है। इस लिहाज से बहुत साफ आदमी है वह स्वभाव से भी वह बहुत अच्छा आदमी है। आर्थिक स्थिति भी ठीक है। किन्तु एक ऐसी “हवा” वह अपने साथ ले गयी है जिसने उनके दाम्पत्य जीवन को दुखद बना दिया है। वास्तवमें मैं इस घर से ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज लेकर गयी हूँ जो किसी भी स्थिति में मुझे स्वाभाविक नहीं रहने देती है और वह चीज क्या है इसका पता मुझे अपने अंदर से, या इस घर के अन्दर से ही चल सकता है। मनोज स्वयं इस विषय में कुछ नहीं बता सकता।

बीना के वचनों को सुनकर पुरुष एक कहता है कि क्या मनोज यह सब कहता है तो स्त्री उसे टोक देती है और दोनों में पुनः वाक्युद्ध में होने लगता है। इस वाक्युद्ध पुरुष एक फिर जगमोहन का प्रसंग ले बैठता है और व्यंग्य करते हुए कहता है कि जगमोहल स्थानान्तरित होकर फिर दिल्ली में आ गया है और कुछ दिन पूर्व उसे कनाट प्लेस में मिला था। उसके अनुसार जगमोहन कह रहा था कि कभी वह उनके घर अवश्य आयेगा। बीना पुरुष एक को रोकना चाहती है किन्तु स्त्री खीझते हुए कहती है, खूब करो तारीफ और भी जिस जिसकी हो सके तुमसे । बीना से जब स्त्री फिर पूछती है कि वह क्यों आती है तो बीना कहती है कि चाहते हुए भी वह मनोज के साथ स्वाभाविक नहीं रह पाती और यहाँ चली आती है ताकि इस घर से आकर वह एक बार फिर प्रयत्न करके यह देख ले कि इस घर में ऐसी वह क्या चीज है जिसके कारण उसे बार-बार अपमानित किया जाता है। बीना के इस प्रश्न को सुनकर पुरुष एक स्त्री तथा स्वयं बीना एक अजीब कशमकश का अनुभव करके चुप रह जाते हैं। तभी छोटी लड़की किन्नी बाहर के दरवाजे से आती है और उन तीनों को उस तरह देखकर अचानक ठिठक जाती है। कुछ खिसियायी हुई-सी वह कहती है कि इस घर का तो कुछ पता ही नहीं चलता। जब वह स्कूल से आयी थी तो घर सूना पड़ा था। चूंकि घर में कोई भी नहीं था इसलिए वह स्वयं भी बाहर चली गयी थी और अब लौटकर आयी है तो मां, बाप और बड़ी बहन तीनों हैं किन्तु न जाने ऐसी क्या बात है कि सभी चुप हैं। स्त्री उसे झिड़कती हुई कहती है कि वह आते ही कहां चली गयी थी? इस पर किन्नी कहती है कि वह कहीं भी चली गयी थी इससे क्या, घर में था ही कौन जिसके पास वह बैठती। कुछ क्षण चुप रहकर वह पूछती है कि उसका दूध अभी गरम हुआ अथवा नहीं? इस पर स्त्री कहती है कि अभी हो जायेगा और फिर वह पुरुष एक से कहती है कि वह गरम कर रहा है या वह स्वयं जाये ? पुरुष एक अखबार के टुकड़ों को दोनों हाथों से संभालता उठ खड़ा होता हैं और कहता है कि वही जायेगा । किन्नी अपनी स्कूली वस्तुओं की मांग करती है और मां के फटकारे जोन पर गुस्से में आकर कहती कि अशोक की तरह उसे भी वह स्कूल भेजना बंद क्यों नहीं कर देती। बड़ी लड़की उसकी इस ढिठाई पर व्यंग्य करती है तभी उसे स्त्री यह बताती है कि इस घर में अभी बाहर से कोई आने वाला है। बीना पूछती है कि कौन आने वाला है। स्त्री के उत्तर देने से पहले ही पुरुष एक दूध के गिलास में चीनी हिलाता अहाते के दरवाजे से आता है और बताता है कि स्त्री का नया बांस सिंघानिया आने वाला है। आजकल वह नये मेहमान के रूप में आता रहता है। इतना कहकर वह गिलास डाइनिंग टेबल पर छोड़कर बिना किसी की तरफ देखे वापस चला जाता है। स्त्री कड़वी दृष्टि से देखती रहती है। बीना उसके निकट आकर सहानुभूति दर्शाती है तो स्त्री रो पड़ने को हो उठती है और कहती है कि अब उससे इस घर में और अधिक दिन निर्वाह नहीं हो सकता। तभी पुरुष एक फिर कमरे में प्रवेश करता है और कुछ फाइलें ढूँढ़ने लगता है।

उसी समय अंदर के कमरे में लड़के अशोक से लड़ती-झगड़ती किन्नी फिर पांव पटकती बाहर निकल आती है। और चीखती हुई कहती है अशोक अंदर अब तक पड़ा पड़ा सो रहा था और उसने उसे जगा दिया तो वह उसके बाल खींचने लगा। उसी समय अशोक अंदर से आता है। और स्त्री उसे डांट देती है। अशोक बताता है कि किन्नी अभी बारह-तेरह वर्ष की कुल है किन्तु वह अभी से गंदी से गंदी पुस्तके पढ़ने लगी है। किन्नी कहती है कि वह पुस्तक अशोक की ही है और वह उसे अपने तकिये की नीचे रखकर सोया हुआ था इसलिए वह छिपकर उसे पढ़ने लगी थी। पुरुष एक अशोक से वह पुस्तक मांगता है तो अशोक कहता है कि वह उसे दिखाने लायक नहीं है। बीना अशोक से पूछती है कि क्या वह कैसानोवा वाली पुस्तक ही है, तभी पुरुष एक उत्तेजित हो उठता है और कहता है कि कितने साल हो चुके है मुझे जिन्दगी का भार ढोते? उनमें से कितने साल बीतें हैं मेरे इस परिवार की देख-रेख करते? और उस सबके बाद में आज पहुँचा कहां हूं? यहाँ कि जिसे देखी वही मुझसे उलटे ढंग से बात करता है ? जिसे देखो वही मुझसे बदतमीजी से पेश आता है? अशोक खिसिया जाता है किन्तु पुरुष एक अपमानित-सा अपना क्रोध निकालता रहता है और कहता है कि मैं जानना चाहता हूं कि मेरी क्या यही हैसियतहै इस घर में कि जो जब जिस वजह से जो भी कह दे, मैं चुप चाप सुन लिया करूँ? हर वक्त की घुतकार, हर हर वक्त की कोंच, बस यही कमाई है यहां मेरी इतने सालों की। और इसका कारण बताते हुए वह स्वयं कहता है, मुझे पता है मैं एक कीड़ा हूं, जिसने अन्दर ही अन्दर इस घर को खा लिया है। पर अब पेट भर गया है। हमेशा के लिए भर गया है। और इतना कहकर वह उत्तेजित स्थिति में ही घर से बाहर चला जाता है। सब लोग यह देख जड़ से हो जाते हैं। फिर किन्नी हाथ के टोस्ट को मुंह की ओर ले जाती है और उसे खाने लगती है ।

बीना इस पारिवारिक तनाव से ढीली पड़ ढिठाई जाती है और उसके मुख पर यह प्रश्न उभरता है कि अब क्या होगा? तो स्त्री कहती है कि लौट जाएंगे रात तक हर मंगल समीचर यही सब होता है यहां किन्नी के व्यवहार को देखकर बीना उसे झिडक देती है किन्तु किन्नी ढिठाई से प्रत्युत्तर देती जाती है और गुस्से में उफनाती बाहर चली जाती है। अशोक उसको पकड़ने को बढ़ता है किन्तु स्त्री उसे रोक लेती है और कहती है कि आज वह कहीं बाहर नहीं जायेगा क्योंकि उसका बास सिंघानिया आने वाला है थोड़ी ही देर में अशोक सिंघानिया का नाम सुनकर बिफर उठता है और अब स्त्री कहती है कि इसी की नौकरी के लिए वह उसे घर पर बुलवाती है तो अशोक स्पष्ट कह देता है कि मुझे नहीं चाहिए नौकरी। कम से कम उस आदमी के जरिये हरगिज नहीं। अशोक सिंघानिया को चुकंदर कहकर पुकारता है जिसे न तो बैठने का शऊर है न बात करने का यद्यपि वह पांच हजार तनखाह पाता है किन्तु उसे इतना भी होश नहीं कि पतलून के बटन बंद रखे। अशोक सिंघानिया की नकल उत्तारकर उसका उपहास उड़ाता है। स्त्री अशोक को खूब डांटती फटकारती है और अशोक भी निर्लज्ज होकर अपनी मां की कमियों को उसके मुंह कर कह देता है। अशोक के व्यवहार से स्त्री फिर खिन्न हो उठती है।

इसी बीच बाहर के दरवाजे पर पुरुष दो अर्थात् सिंघानिया की आकृति दिखायी देती है जो किवाड़ को हललाक से खटखटा देता है। स्त्री चौंककर उधर देखती है और अपना स्वर बदलकर आगत व्यक्ति का स्वागत करती है। पुरुष दो अभ्यस्थ मुद्रा में उनके अभिवादन का उत्तर देता अन्दर आ जाता है। स्त्री सिंघानिया से बीना का परिचय कराती है। सिंघानिया की ललचायी दृष्टि लगातार बीना को धुरती रहती है और वह ऊलजलूल बाते करता रहता है। बातें करते समय वह बीच-बीच में अपनी जांघ खुजलाता रहता है अशोक वितृष्णा से उसे नमस्ते करता है और फिर बहाना बनाकर बाहर चले जाने को तत्पर हो उठता है किन्तु स्त्री उसे बरबस रोक देती है।

सिंघानिया अपनी विदेश यात्राओं के सम्बन्ध में लफ्फाजी करता जाता है। अशोक फिर जाना चाहता है किन्तु स्त्री द्वारा फिर झिड़के जाने पर सोफे पर बैठ जाता है और मेज़ की दराज खोल कर तस्वीरें निकाल लेता है और उन्हें मेज पर फैलाने लगता है। सिंघानिया से स्त्री अनुरोध करती है कि वह अशोक को कहीं नौकरी दिलवा दे किन्तु सिंघानिया हर बात में किसी न किसी महिला का जिक्र अवश्य छोड़ देता है। यद्यपि उसे बताया गया है कि अशोक बी. एस. सी. छाड़ चुका है किन्तु सिंघानिया कई बार फिर भी यहीं पूछता है कि बी. एस. सी. में कौन सी डिवीजन थी उसकी? अशोक के बारे में जब भी बात होती है वह हर बार बीना की ओर ही संकेत करता है और जब वह इस प्रकार की व्यर्थ और उपहासास्पद बातें बनाकर चला जाता तो अशोक हँसने लगता है और कारण पूछे जाने पर बीना को वह बताता है कि उसने सिंघानिया को कैंसा उल्लू बना रखा है। वह बीना को पैड पर बनाया खाका दिखाता है जिसे उसने सिंघानिया के नाम पर बनाया है तभी स्त्री लौट आती है और अशोक की करनी पर उसे खूब फरकारती है। वह यहां तक कह देती है कि यह चेहरा उसके डैडी के चेहरे से मिलता है। अशोक से स्त्री झागड़ पड़ती है और कहती है कि मैं मिन्नत- खुशामद से लोगों को घर पर बुलाऊं और तू आने पर उनका मजाक उड़ाये, उनके कार्टून बनाये ऐसी चीजें अब मुझे बिलकुल बरदादत नहीं है। अशोक भी गुस्से से कहता है कि यदि वह वरदादत नहीं कर सकती तो फिर ऐसे लोगों को घर पर क्यों बुलाती है जिनके आने से हम जितनेछोटे हैं, उससे और छोटे हो जाते हैं अपनी नजर में उसकी दृष्टि में स्त्री लोगों के उनकी किसी बड़ी चीज की बजह से ही घर पर बुलाती है या तो उसका पद देखकर या वेतन देखकर । स्त्री अशोक की धृष्टता भी बातों को सुनकर तिलमिला उठती है और कहती है कि आज वह क्षण आ गया है जब उसे कोई निर्णय ले लेना चाहिए। बड़ी लड़की बीना स्त्री का पक्ष लेती है तो अशोक उसे भी खरी-खोटी सुना देता है स्त्री अन्तिम रूप में कह देती है, तो ठीक है। आज से मैं सिर्फ अपनी जिन्दगी को देखूंगी। तुम लोग अपनी-अपनी जिन्दगी को खुद देख लेना। मेरे करने से जो कुछ हो सकता था इन घर का हो चुका आज तक। मेरी तरफ से अब वह अन्त है उसका निश्चित अंत और स्त्री के इस कथन के साथ ही मंच पर एक खण्डहर की आत्मा को व्यक्त करता हल्का संगीत सुनायी देता है। प्रकाश आकृतियों पर स्त्री कहती है कि निश्चय हो उसने सोच लिया है। यह सुनकर बीना अंदर को चली जाती है और स्त्री इधर-उधर सामान देखने लगती है, कबर्ड से माला निकाल कर पहनती है। कबर्ड के नीचे रखे जूते-चप्पलों को पैर से टोलकर एक चप्पल निकालने की कोशिश करती है किन्तु दूसरी चप्पल न मिलने से उसे ठोकर लगाकर पीछे हटा देती है। ड्रेसिंग टेबल से कीम की शीशी निकलाकर फिर बंद कर देती है फिर बाल काला करने वाला लोशन सिर पर और हाथ के बालों पर लगाती है। कंधी से सिर के सफेद वालों को ढकती है।

उसी समय बाहर के दरवाजे से पुरुष तीन अर्थात् जगमोहन आता दिखायी देता है। स्त्री उसे नहीं देख पाती और पाउडर लगाने लगती हैं किन्तु वह ज्योंही सोफे की ओर मुड़ती हैं कि जगमोहन पर उसकी दृष्टि पड़ जाती है और उसकी आंखों में एक चमक भी आती है। स्त्री उसे बताती है कि वह उसी की प्रतीक्षा कर रही थी। कुछ क्षणों तक परस्पर ठिठोली होती रहती है और फिर स्त्री अपने मतलब की बात पर आ जाती है और कहती है कि आज वह उस स्थिति में पहुंच गयी है कि इस घर में अब उसका निर्वाह नहीं हो सकता। जगमोहन उसे धीरज देता है और उसका हाथ अपने हाथ में ले लेता है। स्त्री कहती है कि किन्नी अंदर है और अपना हाथ छुड़ा लेती है। स्त्री कहती है कि उसे जगमोहन से बहुत सारी बातें करनी हैं और कहती है कि एक जगमोहन ही ऐसा व्यक्ति है जो उसे अच्छी तरह से समझता जानता है। जगमोहन उनकी बातें सुनना चाहता है किन्तु वह कहती है कि जो बातें उसे कहनी है उन्हें इस घर में नहीं कहा जा सकता है इसलिए बाहर चलकर बहीं बातें करना उचित होगा। जगमोहन पहले तो यही जिद करता है कि उसे जो भी बातें करनी हों यहीं करले किन्तु अंत में यह मान लेता हैं कि बाहर चला जाय। स्त्री जाने से पहले ही उसे यह स्पष्ट बता देती है कि उसने कल एक गम्भीर निर्णय ले लिया है। जगमोहन उसे टालने लगता है और स्त्री उसे यह विश्वास दिला देने का प्रयत्न करती है कि वास्तव में वह निर्णय ले ही चुकी है। स्त्री उसे बताती है कि यद्यपि जगमोहन ने पहले भी इससे कहा था किन्तु तब वह निर्णय नहीं ले पायी थी पर अब वह उसके साथ जाने की तैयार है। किन्तु जगमोहन कहता है कि अब वह इस विचार को भुला चुका है। स्त्री उसे जिद करके बाहर ले जाती है और घर खुला छोड़ जाती है।

कुछ क्षण मंच खाली रहता है फिर बाहर से छोटी लड़की के सिसककर रोने का स्वर सुनायी देता है। वह रोती हुई अंदर आकर सोफे पर औंधी हो जाती है। कुछ क्षण बाद वह उठती है और कमरे के अंदर चली जाती है। अब फिर दो-एक क्षण खाली रहता है। उनके बाद बीना चाय की ट्रे लिये अहाते के दरवाजे से आती है और कमरा खाली देखाकर विस्मित रह जाती है। उसी समय किन्नी सिसकती हुई अंदर से आती है और बिना को बताती हैं कि सुरेखा की मम्मी ने सुरेखा की पीटा था और उसे भी बहुत डांटा था और कहती है कि वह उसकी लड़की को बिगाड़ रही है। इसलिए वह अपनी माँ को उनके घर ले जाना चाहती है किन्तु जब उसे मालूम होता है कि मां बाहर गयी है तो वह बीना से कहती है कि वह चले। बीना उसे डांट देती है उसी समय अहाते के पीछे से दरवाजे की कुडी खटखटाने की आवाज सुनायी देती है। बीना देखने जाती है और पुरुष चार उर्फ जुनेजा को साथ लेकर अंदर चली आती है। जुनेजा किन्नी की रोता देख उसे पुचकारने लगता है।

जुनेजा बताता है कि यद्यपि यह पहले ही आ गया था, किन्तु बाहर सड़क पर जगमोहन की गाड़ी देखकर रुक गया था और यह जानकर कि सावित्री जगमोहन के साथ ही बाहर गयी है, वह कुछ निराश सा हो जाता है। वह बीना को बताता है कि अशोक उसके घर अपने डैडी महेन्द्रनाथ से मिलने गया है। उसका कहना है कि कल सारी रात महेन्द्रनाथ सो नहीं पाया क्योंकि वह खीझ उठा था। इस पर बीना अविश्वास प्रकट करती हुई कहती है किजो डैडी सावित्री को रात-दिन पीटते रहते हैं उससे तो कुछ और ही लगता है। जुनेजा बताता है कि यद्यपि यह सत्य है किन्तु हृदय से फिर भी महेन्द्रनाथ सावित्री को बहुत चाहता है और उसकी इस कशमकश का जिम्मेदार स्वयं महेन्द्र है क्यों कि एक ओर तो वह सावित्री से झगड़ा करके गया है और दूसरी ओर उससे प्रार्थना कर रहा था कि वह जाकर किसी प्रकार सावित्री को समझाये और यदि जुनेजा यहां स्वयं न आया होता तो महेन्द्र अपने आप आ जाता। जुनेजा कहता है कि वह सावित्री को समझाने आया था किन्तु जब वह घर पर है ही नहीं तो समझाये किसे, इसलिए उसे लौट चलना चाहिए। बीना कहती है कि वह उसके डैडी को यह न बताये कि जगमोहन वहां आया था। जुनेजा उसे आश्वासन देकर ज्यों ही बाहर निकलने को मुड़ता है कि उसी समय बाहर से सावित्री का स्वर उभरता है जो किन्नी को अन्दर की ओर धक्का मारती हुई कमरे में प्रवेश कर रही होती है। किन्नी बकबक करती है तो स्त्री उसे मारने को दौड़ती है किन्तु जुनेजा बीच-बचाव कर देता है। सावित्री उल्टे जुनेजा से ही उलझ पड़ती है कि वह बीच में क्यों पड़ रहा है किन्नी दांत पीसती अन्दर की ओर चली जाती है।

स्त्री जुनेजा की और पलटती है और उससे पूछती है कि संभवतः वह उससे कुछ बात करना चाहता है जुनेजा टालना चाहता है किन्तु स्त्री कहती है कि उसे जो कहना कह ले । उसे यह मालूम होते हुए भी कि उसका पति महेन्द्रनाथ जुनेजा के घर में अस्वस्थ पड़ा है, उसके प्रति कोई सहानुभूति नहीं उभरती, उल्टे वह अपने परि की कमजोरियों का वर्णन करती हुई कहती है-यूं तो जो कोई भी एक आदमी की तरह चलता-फिरता, बात करता है वह आदमी ही होता है पर असल में आदमी होने के लिए क्या जरूरी नहीं कि उसमें अपना एक माद्दा, अपनी एक शख्सियत हो? इसलिए कह रही हूं कि जब से मैंने उसे जाना है, मैंने हमेशा हर चीज के लिए उसे किसी न किसी का सहारा ढूंढ़ते पाया है। खास तौर से आपका राय। यह करना चाहिए या नहीं जुनेजा से पूछ – लूं, यहां जाना चाहिए या नहीं जुनेजा से रा कर लूं। कोई छोटी से छोटी चीज खरीदनी है, तो भी जुनेजा की – पसंद से कोई बड़े से बड़ा खतरा उठाना है तो भी जुनेजा की सलाह से यहां तक कि मुझसे व्याह करने का – फैसला भी कैसे किया उसने? जुनेजा की हामी भरने से। जिन्दगी में हर चीज की कसौटी जुनेजा; जो जुनेजा सोचता है, जो जुनेजा चाहता है, जो जुनेजा करता है, वही उसे भी सोचना है; वही उसे चाहना हे, वही उसे भी करना है। क्यों? क्योंकि जुनेजा तो एक पुरा आदमी है अपने में। और वह खुद ! वह खुद एक पूरे आदमी का आधा-चौथाई भी नहीं हैं यही नहीं, महेन्द्र के ऐसा बनने के पीछे वह जुनेजा की ही धूर्तता स्वीकाती है और जुनेजा पर यह आरोप भी लगाती है कि उसी के प्रभाववश महेन्द्र को व्यापार में घाटा हुआ क्योंकि उसका हिस्सा स्वयं जुनेजा खा गया। वह महेन्द्र की बरबादी का कारण जुनेजा को ही मानती है और कहती है महेन्द्र ने व्याह क्या किया, आप लोगों की नजर में कुछ आपसे छीन लिया । महेन्द अब वह पहले बाला महेन्द्र रह ही नहीं गया और महेन्द्र की जी जान से कोशिश कि वह वहीं बना रहे किसी तरह कोई यह न कह सके जिससे कि वह अब पहले वाला महेन्द्र रह ही नहीं गया। और इसके लिए महेन्द घर के अन्दर रात-दिन छटपटाता है। दीवारों से सिर पअक्ता है। बच्चों को पीटता है बीबी के घुटने तोड़ता है। दोस्तों को अपना फुरसत का वक्त काटने के लिए उसकी जरूरत है। महेन्द के बगैर कोई पार्टी जमती नहीं। यही कारण है कि वह नफरत करती है इस सबसे इस आदमी के ऐसा होने से वह एक पूरा आदमी चाहती है अपने लिए। गला फाडकर वह यह बात कहती है। जुनेजा पहले तो सावित्री के तर्कों को काटने का प्रयत्न करता हुआ अपने को महेन्द्र का सबसे अच्छा और विश्वासनीय मित्र सिद्ध करने का प्रयास करता है तथा सावित्री को समझाता है कि उसने वास्तव में महेन्द्र को इस प्रकार अपने शिकंजे में कस रखा है कि वह चाहते हुए भी उससे मुक्त नहीं हो पाता जबकि सावित्री उसे पति होते हुए भी अभी तक पहचान नहीं सकी है किन्तु जब वह देखता है कि सावित्री उस पर हावी होती जा रही है तो वह भी उसकी पोल खोल डालने को तत्पर हो उठता है और उसे झकझोरते हुए कहता है- जो-जो बातें तुमने कही हैं अभी, वे गलत नहीं हैं अपने में। लेकिन बाईस साल कर जाती हुई बातें वे नहीं है। आज से बाईस साल पहले भी एक बार लगभग उएसी ही बातें मैं तुम्हारे मुंह से सुन चुका हूं-तुम्हें याद है? स्त्र यह सुनकर उसका मखौल उड़ाती है तो वह कहता है- मेरे घर पर हुई थी वह बात तुम बात करने के लिए ही खास आयी थी वहाँ, और मेरे कंधे पर सिर रखे देर तक रोती रही थी। उस दिन भी बिलकुल इसी तरह मुमनेमहेन्द्र को मेरे सामने उधेड़ा था। कहां था कि वह बहुत लिज-लिजा और चिपचिपा सा आदमी है। पर उसे वैसा बनाने वालों में नाम तब दूसरों के थे। एक नाम था उसकी माँ का और दूसरा उसके पिता का। पर जुनेजा का नाम तब नहीं था ऐसे लोगों में क्यों नहीं था, कह दूं न यह भी ! सिर्फ इसलिए मैं जैसा भी था, जो भी था – महेन्द्र नहीं था। मुझसे उस वक्त तुम क्या चाहती थीं, मैं ठीक-ठीक नहीं जानता। लेकिन तुम्हारी बात से इतना जरूर जाहिर था कि महेन्द्र को तुम तब भी वह आदमी नहीं समझती थी जिसके साथ तुम जिन्दगी काट सकती। स्त्री उसकी बात काटना चाहती है किन्तु जुनेजा फिर कहता है- पहले कुछ दिन जुनेजा एक आदमी था तुम्हारे सामने | जुनेजा के बाद जिससे कुछ दिन चकाचौंध रहीं तुम वह था शिवजीत । एक बड़ी डिग्री, बड़े-बड़े शब्द और पूरी दुनिया घूमने का अनुभव। पर असल चीज वहीं कि वह जो भी था, और ही कुछ था महेन्द्र नहीं था। पर जल्द ही तुमने पहचानना शुरू किया कि वह निहायत दोगला किस्म का आदमी है। हमेशा दो तरह की बातें करता है। उसके बाद सामने आया जगमोहन ऊंचे सम्बन्ध, जवान की मिठास, टिप-टाप रहने की आदत और खर्च की दरिया दिली। पर तीर की असली नोंक फिर उसी जगह पर कि उसमें जो कुछ भी था, जगमोहन का-सा था महेन्द्र का-सा नही था। पर शिकायत तुम्हें उससे भी होने लगी थी कि वह सब लोगों पर एक-सा पैसा क्यों उड़ाता है, दूसरे की सख्त से सख्त बात को एक खामोश मुस्कराहट के साथ क्यों पी जाता है। असल बात इतनी ही महेन्द्र की जगह इनमें से कोई भी आदमी होता तुम्हारी जिन्दगी में तो साल दो साल बाद तुम यही महसूस करती कि तुमने एक गलत आदमी से शादी कर ली है। उसकी जिन्दगी में भी ऐसे ही कोई महेन्द, कोई जुनेजा, कोई शिवजीत या कोई जगमोहन होता जिसकी वजह से तु यही सब सोचती, यही सब महसूस करती। क्योंकि तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है कितना कुछ एक साथ होकर कितना कुछ एक साथ पाकर और कितना कुछ एक साथ ओढ़कर जीना। वह उतना कुछ कभी तुम्हें किसी एक जगह न मिल पाता, इसलिए जि किसी के साथ भी जिन्दगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली इतनी ही बेचैन बनी रहती। वह आदमी भी इसी तरह तुम्हे अपने आसपास सिर पटकता और कपड़े फाड़ता नजर आता ।

सावित्री अपने पर लगे आरोपों को सुनकर रुलाई भरी हंसी हंसने लगती है और जुनेजा उसकी इस परिस्थिति को उपेक्षा करता हुआ कहता जाता है- आज महेन्द्र एक कुढ़पन वाला आदमी है पर एक वक्त था जब वह सचमुच हंसता था। क्योंकि तब वह अपने को हीन नहीं समझता था। मनोज से तुमने बहुत आशाएं बाँधी थी पर तुम एकदम बौरा गयीं जब तुमने पाया कि वह उतने नाम वाला आदमी तुम्हारी लड़की को साथ लेकर रातें रात इस घर से चला गया। और इसके बाद तुमने एक अन्धाधुन्ध कोशिश शुरू की- कभी महेन्द्र को ही और झकझोरने की, कभी अशोक को ही चालुक लगाने की और कभी उन दोनों से धीरज खोकर कोई और ही रास्ता कोई और ही चारा ढूंढ सकने की। ऐसे में पता चला जगमोहन यहां लौट आया है, आगे के रास्ते बन्द पाकर तुमने फिर पीछे की तरफ देखना चाहा किन्तु वह सहारा भी तुमसे छिन गया। जगमोहन ने तुम्हारें सामने असमर्थता प्रकट कर दी और तुम फिर इसी घर में लौट आयी। उसकी जगह मैं होता, तो मैंने भी तुमसे यही सब कहा होता। इसीलिए तुमने आते हीं बच्ची को पीट दिया।

सावित्री जुनेजा के मुख से इस प्रकार की भर्त्सना सुनकर विफर पड़ी। अपनी हार का एहसास होते ही उसके हृदय में यह विश्वास हो गया कि नारी के प्रति सभी पुरुष एक-सा सोचते हैं और वह कह उठती है, बिल्कुल एक-से है आप लोग! अलग-अलग मुखौट पर चेहरा ? – चेहरा सबका एक ही ।

जुनेजा चाहता है कि सावित्री महेन्द्र की मुक्त कर दे। इस पर सावित्री विक्षुब्ध होकर कहती है कि जुनेजा महेन्द्र को वापस मत भेजे । जुनेजा प्रत्युत्तर में कहता है तो ठीक है। वह नहीं आयेगा। यह कहकर ज्योंही जुनेजा कमरे – के बाहर निकलने को होता है कि उसी समय अशोक कमरे में प्रवेश करता है और अपने पिता की छड़ी मांगता है क्योंकि वह अपने पिता को साथ लेकर आया है किन्तु महेन्द्र की स्थिति ऐसी है कि वह बिना छड़ी के चल नहीं सकता। तभी बाहर से ऐसा शब्द उभरता है जैसे किसी का पांव फिसल गया और इसके साथ ही जुनेजा महेन्द्र को संभलने बाहर निकल जाता है। उसके साथ ही अशोक भी बाहर निकल जाता है। सावित्री स्थिर आंखों में बाहर की ओर देखती धीरे से कुर्सी पर बैठ जाती है। तभी लगभग अंधेरे में अशोक की बांह थामें महेन्दनाथकी धुंधाली आकृति अन्दर आती दिखायी देती है। उन दोनों के आगे बढ़ने के साथ मातमी संगीत अधिक स्पष्ट और अंधेरा अधिक गहरा होता जाता है। यहीं पर नाटक की समाप्ति हो जाती है।

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