आधे-अधूरे सप्रसंग व्याख्या

आधे-अधूरे सप्रसंग व्याख्या –

आप शायद सोचते हों कि मैं नाटक में कोई एक निश्चित इकाई हूँ- अभिनेता, प्रस्तुतकर्त्ता, व्यवस्थापक या कुछ और। परंतु मैं अपने संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकता उसी तरह जैसे इस नाटक के संबंध में नहीं कह सकता। क्योंकि यह नाटक भी अपने में मेरी ही तरह अनिश्चित है।

प्रसंग –

आधुनिक हिन्दी नाटक के मसीहा मोहन राकेश नाटक के क्षेत्र में अनेक नवीन तथा क्रांतिकारी प्रयोग करने के लिए प्रसिद्ध हैं। ‘आधे-अधूरे’ उनकी यथार्थवादी ही नहीं, अभिनय की दृष्टि से भी एक महत्त्वपूर्ण नाट्यकृति है। इसमें सामान्य नाटकों की तरह अंक – विभाजन तथा दृश्य – विभाजन नहीं है। एक अन्य नवीनता यह है कि नाटकीय कथा आरंभ करने से पूर्व काले सूट वाले व्यक्ति को जिसका कोई नाम नहीं है और जो कालांतर में चार पुरुषों की भिन्न-भिन्न वेशभूषा में भूमिका निभाता है, मंच पर प्रस्तुत कर उसके माध्यम से उन चंद प्रश्नों को उठाया गया है जो कथानक में बाद में उभरते हैं। प्रस्तुत पंक्तियों में काले सूट वाला व्यक्ति अपना परिचय इस भंगिमा में और ऐसी शब्दावली में देता है कि दर्शक या पाठक उस परिचय को पाकर और अधिक उलझन में पड़ जाता है। वह एक प्रश्न चिह्न बन जाता है, पहेली और उलझ जाती है, उत्सुकता और बढ़ जाती है।

व्याख्या –

प्रेम को संबोधित करते हुए कहता है- मुझे रंगमंच पर देखकर आप मेरे बारे में कुछ अनुमान लगा रहे होंगे, मेरे स्वभाव, चरित्र, व्यक्तित्व, कृतित्व के विषय में सोचते होंगे, नाटक में मेरी भूमिका के विषय में अटकल लगा रहे होंगे। नाटक के आरंभ में ही मंच पर प्रस्तुत होने वाला प्रायः या तो नाटक का व्यवस्थापक होता है, या प्रस्तुतकर्ता या फिर अभिनय करने वाला अभिनेता। अतः आप सोच रहे होंगे कि मैं इनमें से ही कोई एक हूँ और अब मंच पर आकर जो कुछ कहूँगा, करूँगा उससे आपको निश्चित रूप से पता चल जायगा कि मैं इनमें से कौन हूँ-व्यवस्थापक हूँ, प्रस्तुतकर्ता हूँ या फिर अभिनेता हूँ। पर मैं स्वयं नहीं जानता, निश्चय नहीं कर पाया हूँ कि मुझे किसका की भूमिका निभानी है जब स्वयं निश्चय नहीं कर पाया, तो फिर आपको क्या बताऊँ कि मैं कौन हूँ और क्या करने या कहने जा रहा हूँ। एक बात और, यह नाटक भी अनिश्चित है। इसकी कथावस्तु, उसके विकास के सोपान, उसकी परिणति के संबंध में कुछ तय नहीं है, सब अनिर्धारित है, अनिश्चित है। पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता। नाटक लिखते समय ही अपना मार्ग अपना शिल्प अपना विकास स्वयं बनाएगा। घटनाएँ, पात्र, अन्त पूर्व निर्धारित नहीं है। लेखन प्रक्रिया के दौरान ही वे स्वयं अपना रूप गढ़ेंगे और आगे बढ़ेंगे। आप के मन में यह जानने की इच्छा होगी कि इस अनिश्चितता का कारण क्या है? कारण हर बात का होता है। जहाँ कार्य है वहाँ कारण भी होता है। पर कारण बताना बेकार है क्योंकि यह जरूरी नहीं कि मैं जो कारण बताऊँ वह सच हो और यदि वह सच हो भी तो आप मेरी बात मान कर उसे स्वीकार कर लें। अतः मैं नाटक के अनिश्चित होने का कारण नहीं बताता, आपकी कल्पना और विवेक पर छोड़ देता हूँ। आप स्वयं कदाचित नाटक समाप्त होने के उपरांत वास्तविक कारण का पता लगा लें।

विशेष-

(1) हिन्दी नाटक में यह प्रयोग नितान्त नवीन एवं मौलिक है कि पात्र का नाम न हो, केवल वेशभूषा बतायी जाय और फिर यह कहा जाय कि नाटक का स्वरूप भी अनिश्चित है।

(2) मोहन राकेश उन सर्जनात्मक साहित्यकारों में से हैं जो उपन्यास, कहानी, नाटक की रूपरेखा, उसका अन्त, उसका शिल्प पहले से ही नहीं निर्धारित करते अपितु जैसे-जैसे रचना आगे बढ़ती है, अपना स्वरूप स्वयं निर्धारितकरती चलती है। पात्रों और घटनाओं पर उनका नियंत्रण नहीं, वे लेखक को जिधर चाहे मोड़ लेते हैं, लेखक उनके वश में होता है। कला के प्रति यह दृष्टि भी नवीन है, सच्ची है।

(3) काले सूट वाले व्यक्ति को अपने तथा नाटक के विषय में अनिश्चित बताकर लेखक कहना यह चाहता है कि उसका कोई पूर्वाग्रह नहीं है, बनी बनायी कहानी और बने बनाये पात्र नहीं हैं, वह तो केवल यथार्थ को अंकित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। कदाचित् लेखक दर्शकों को यह भी बताना चाहता है कि काले सूटवाला व्यक्ति जो चार पुरुषों की भूमिका भी निभाता है आधुनिक मनुष्य के प्रतिनिधि पात्र है जो आज की विषम परिस्थितियों के भँवर-चक्र में पड़कर स्वयं को टूटा, अनिर्णीत और संशयग्रस्त पाकर अपनी अस्मिता खोकर, डाँवाडोल अनुभव करता है।

दो टकराने वाले व्यक्ति होने के नाते आपमें और मुझमें, बहुत बड़ी समानता है। यही समानता आप में और उसमें, उसमें और उस दूसरे में उस दूसरे में और मुझमें बहरहाल इस गणित की पहेली में कुछ नहीं रखा है। बात इतनी ही है कि विभाजित होकर मैं किसी-न-किसी अंश में आप में से हर एक व्यक्ति हूँ और यही कारण है। कि नाटक के बाहर हो या अंदर, मेरी कोई भी एक निश्चित भूमिका नहीं है। कमरे के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में टहलने लगता है।

मैंने कहा था, यह नाटक भी मेरी तरह अनिश्चित है। उसका कारण भी यही है कि मैं इसमें हूँ और मेरे होने से ही सब कुछ उसमें निर्धारित या अनिर्धारित है।

प्रसंग

नाटक के आरंभ में ही काले सूट वाले व्यक्ति का कथन तथा बाद में चार पात्रों के रूप में उसकी भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ इस बात का संकेत हैं कि वह नगरों महानगरों में रहनेवाले, अपनी सलीब को अपने कंधों पर ढोनेवाले व्यक्तियों का प्रतिनिधि है जो आर्थिक विषम परिस्थतियों तथा महानगरीय जीवन-पद्धति के कारण एक-दूसरे से कटे हैं, अपरिचितों की तरह व्यवहार करते हैं, अजनबी हैं, टूटे हैं, अस्मिता खो चुके हैं। आस्थाविहीन, संशयग्रस्त, प्राचीन मूल्यों और आदर्शों के प्रति उदासीन ये व्यक्ति कभी महेन्द्रनाथ, कभी जगमोहन, कभी जुनेजा तो कभी सिंघानिया बन जाते हैं या परिस्थितियाँ उन्हें वह भूमिका अदा करने को बाध्य करती हैं। ऊपर से वे एक-दूसरे से भिन्न प्रतीत होते हैं पर मूलतः उनका चरित्र, जीवन-दृष्टि, मूलस्वभाव एक ही है-आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी तथा सुखोपयोग की कामना करने वाला नाटककार ने इसी तथ्य को काले सूटवाले के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

व्याख्या-

आज नगरों तथा महानगरों में रहने वाले साथ-साथ काम करने वाले एक ही इमारत के विभिन्न तलों में रहने वाले भी कुछ तो परिस्थितियों के कारण तथा कुछ पुरातन जीवनमूल्यों और विश्वासों के ढह जाने के परिणामस्वरूप एक-दूसरे के साथ अजनबी, अपरिचित की तरह व्यवहार करते हैं। जैसे भीड़ में टकराने वाले दो व्यक्ति टकरा जाने पर एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं, वैसी ही परिस्थिति आज महानगरों में रहने वालों की हो गयी है। घनिष्टता, आत्मीयता, सौहार्द्र, सहानुभूति, परदुखकातरता के भाव विलुप्त हो गये हैं। समाज के दो-चार व्यक्ति नहीं 80-90 प्रतिशत लोग ऐसे ही हैं। उनका पारस्परिक परिचय घनिष्ट नहीं होता, देख कर भी अनदेखा कर देते हैं, काम निकलने पर पहचानते तक नहीं। हमार व्यक्तित्व खंडित हो गया है, न प्रेम-भाव है, न पड़ौसी होने की आत्मीयता। सब एक-दूसरे से कट गये हैं। हमारा स्थायी चरित्र कुछ नहीं रह गया है, हम मौसम बताने वाले मुर्गे की तरह हवा के बदलते ही परिस्थितियों में परिवर्तन होते ही अपना आचरण-व्यवहार बदलते रहते हैं। न स्थायी मित्र हैं, न स्थायी शत्रु जो बात कभी राजनीति के विषय में सच थी, आज वह नित्य प्रति के सामाजिक जीवन में घटित हो रही हैं हम रुख देखकर बात करते हैं- मतलब के लिए गधे को भी अपना बाप कहने लगते हैं जैसे नाटक में काले सूटवाला कभी महेन्द्र, कभी जगमोहन, कभी जुनेजा, और कभी सिंघानिया बनता है, वैसे ही समाज में व्यक्ति मुखौटे बदलता रहता है, विभिन्न रूप धारण करता रहता है। व्यक्तियों से समाज बनता है, जैसे व्यक्ति होंगे वैसा समाज होगा, वैसी ही सरकार बनेगी। अतः जीवन का स्वरूप व्यक्तियों के चरित्र पर निर्भर करता है। धूर्तों, बेईमानों, रिश्वतखोरों का जीवन सुख-शान्तिमय नहीं हो सकता। इसी प्रकार जब समाज के अधि काश व्यक्ति आस्थाविहीन हों, अस्मिता खो चुके हों, स्वार्थी हों, लिजलिजे स्वभाव के हों, तो उनका समाज, जीवन-पद्धति और रहन-सहन भी अनिश्चित होंगे उसमें स्थायित्व नहीं आएगा।

विशेष-

(1) मोहन राकेश पर अस्तित्ववादी दर्शन का प्रभाव है अत: वह आज के मनुष्य को आस्थाविहीन, टूटा हुआ अजनवी बताते हैं।

(2) महानगरीय जीवन का उनका अपना अनुभव भी इस चित्रण के लिए उत्तरदायी है।

(3) यह यथार्थ तो है पर जीवन के एक खंड का समूचे जीवन का नहीं।

(4) इस प्रकार के चित्र, विचार, और जीवन-दर्शन निराशावाद को जन्म देते हैं, मानव के आत्मविश्वास को क्षति पहुँचाते हैं, आदर्शों और उदात्त जीवन मूल्यों से विमुख करते हैं। अतः श्रेयस्कर नहीं कहे जा सकते।

(5) स्पष्ट संकेत है कि दर्शकों को नाटक में अपना ही प्रतिरूप देखने का मिलेगा। नाटक के पात्र बहुत कुछ उन्हीं दुर्गुणों, दुर्बलताओं से अभिशप्त हैं जो हमारे चरित्र में हैं- आत्मकेन्द्रित होना, सुख-सुविधाओं के लिए उदात्त जीवन-मूल्यों की बलि चढ़ाना, आधुनिक फैशन तथा दूषित मूल्यव्यवस्था के कारण पारिवारिक जीवन में विघटिन और तजन्य विषाद |

पर कौन सी अड़चन ? उसके हाथ में छलक गयी चाय की प्याली, या उसके दफ्तर से लौटने में आधा घंटे की देर-ये छोटी-छोटी बातें अड़चन नहीं होतीं, मगर अड़चन बन जाती हैं। एक गुबार सा है जो हर वक्त मेरे अंतर में भरा रहता है और मैं इंतजार में रहती हूँ जैसी कि कब कोई बहाना मिले जिससे उसे बाहर निकाल लूँ। और आखिर........।
स्त्री चुपचाप आगे सुनने की प्रतीक्षा करती है।
आखिर वह सीमा आ जाती है जहाँ पहुँचकर वह निढाल हो जाता है ऐसे में वह एक ही बात कहता है ।
स्त्री : क्या?
बड़ी लड़की: कि मैं इस घर से ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज लेकर गयी हूँ जो किसी भी स्थिति में मुझे स्वाभाविक नहीं रहने देती।

प्रसंग-

महेन्द्रनाथ और सावित्री के बीच असामंजस्य था, दोनों में बनती नहीं थी। छोटी-छोटी बात पर वे झगड़ पड़ते थे, घर में कलह होती थी। इस वातावरण का प्रभाव बच्चों पर भी पड़ा। साथ ही सावित्री के चरित्र की कुछ विशेषताएँ- स्वच्छन्दताएँ पति पर रौब गाँठना, महत्वाकांक्षा, आदि भी बड़ी पुत्री बिन्नी ने माँ से विरासत में पायी थी । अतः प्रेम विवाह करने पर भी वह अपने पति मनोज के साथ सुखी परिवार नहीं चला सकी। दोनों में आए दिन छोटी-छोटी बात पर मनमुटाव हो जाता। कुछ ही दिन में वह स्वयं को एक-दूसरे से कटे हुए, अजनबी और तनावपूर्ण मनःस्थिति में पाने लगे। बिन्नी पति के घर छोड़ माता-पिता के पास आ गई। एक दिन उसने माँ को सारी बात बताई। माँ ने कारण जानना चाहा तो बिन्नी अपनी उलझन बताते हुए कहती है

व्याख्या-

हम दोनों स्वाभाविक स्थिति में नहीं रह पाते हमारा एक-दूसरे के प्रति सहज व्यवहार नहीं है; सर्वदा हमारे संबंधों में खिंचाव, तनाव बना रहता हैं हम दोनों के बीच कोई ऐसी चीज है जो हमें सहज नहीं होने देती पर वह चीज क्या है कारण क्या है, इसका चेष्टा करने पर भी पता नहीं लग पाया है। छोटी-छोटी बात जैसे चाय की प्याली में से चाय का छलक कर फर्श पर गिर जाना या उसका आधा घांटा देर से दफ्तर से लौटना मुझ पर खीज, आक्रोश पैदा कर देता है और मैं उल्टा सीधा बोलने लगती हूँ, वह भी बिफर उठता है और झगड़ा बढ़ जाता है, मानसिक शांति समाप्त हो जाती है, हम एक-दूसरे से रूठ कर अलग-अलग रहने लगते हैं यह दूरी अलगाव संबंधों में तनाव बढ़ता ही जाता है। हमारे बीच दरार पड़ गयी है, खाई इतनी बढ़ गई है कि लगता है कभी पट नहीं पायेगी। ऐसी स्थिति एक-दो बार नहीं, बार-बार पैदा होती है। मेरी इस खीज, उत्तेजना, असंयम, स्वयं पर नियंत्रण न रख पाने की प्रवृत्ति को देख और उसका कोई महत्त्वपूर्ण कारण न होने के फलस्वरूप मनोज यही कहता है कि इस व्यवहार, बर्ताव, असाधारण आचरण का कारण बाह्य घटनाएँ नहीं हैं, मेरी मानसिकता है, चरित्र की मूलभूत कमजोरी है जो मैंने इस घर, परिवर और परिवार के वातावरण से पायी है। इसी रुग्ण मानसिकता के कारण मैं छोटी-छोटी बात पर खीजती हूँ। खीजने का कोई ठोस कारण नहीं होता, खीजती इसलिए हूँ कि खोजना मुझे विरासत में मिला है। जैसे कुछ रोग वंशानुक्रमिक होते हैं, इसी प्रकार कुछ चारित्रिक एवं स्वभावगत विशेषताएँ बच्चेमाता-पिता से पाते हैं और लाख कोशिश करने पर भी स्वयं को अपनी आदतों को, अपने आचार-व्यवस्था को बदल नहीं पाते।

विशेष –

(1) बिन्नी के चरित्र की एक दुर्बलता का संकेत जो उसने अपनी माँ तथा परिवर के वातावरण से पायी है।

(2) वंशानुक्रम के सिद्धांत की ओर संकेत ।

(3) दाम्पत्य जीवन की कटुता का कारण बड़े ही तर्कपूर्ण ढंग से समझाया।

(4) अस्तित्ववादी विचारधारा का प्रभाव है।

(5) भाषा सरल, बोलचाल की है पर उसमें स्थिति तथा मानसिकता को प्रकट करने की अद्भुत क्षमता है।

मैं जानना चाहता हूँ कि मेरी क्या यही हैसियत है इस घर में कि जो जब जिस वजह से जो भी कह दे, मैं चुपचाप सुन लिया करूँ। हर वक्त की दुतकार, हर वक्त की कोंच, बस यही कमाई है यहाँ मेरी इतने सालों की?

प्रसंग

घर का मुखिया महेन्द्रनाथ अपनी पत्नी तथा आवारा बच्चों की सभी इच्छाएँ पूरी नहीं कर पाता अतः वे उसका अनादर करते हैं। उपेक्षा करते हैं। व्यंग्य करते हैं, जली-कटी सुनाते रहते हैं। महेन्द्रनाथ बहुत दिनों तक चुपचाप यह अपमान सहता रहता है, चाहते हुए भी अपना रोष प्रकट नहीं कर पाता पर एक दिन वर्षों से जमा होती हुई खिन्नता फूट पड़ती है और वह क्रोधाविष्ट हो अपने मन का गुबार निकाल बैठता है।

व्याख्या-

महेन्द्रनाथ अपने परिवार के सदस्यों से व्यंग्यपूर्ण तथा आक्रोश भरे शब्दों में प्रश्न करता है- मैं इस घर-परिवार का मुखिया हूँ। अपने इस दायित्व को निभाने के लिए मैंने वर्षों परिश्रम किया। खून-पसीना बहाया, सबको जो कुछ दे सकता था दिया। मैं आशा करता था कि इस सबके बदले मुझे तुम लोगों से आदर मिलेगा, तुम लोग मेरे प्रति कृतज्ञता अनुभव करोगे और उस कृतज्ञता को अपने आचरण, बातचीत तथा व्यवहार से प्रकट करोगे। पर मैंने देखा कि न मुझे पत्नी से पति का सम्मान, प्यार मुहब्बत, सहानुभूति मिली और न बच्चों से पिता का आदर और सेवा भाव। इसके विपरीत सभी ने मुझे अपमानित किया है, उल्टी-सीधी बातें सुनाई हैं, ताने- तिश्ने दिये हैं, मुझे मूर्ख व्यवहार में अकुशाल कह कर मेरा अपमान किया है, मेरी खिल्ली उड़ाई है, ऐसे-ऐसे आरोप लगाए हैं जिसके लिए मैं कतई उत्तरदायी नहीं हूँ। पग-पग पर मुझे हीन, असफल, अकर्मण्य सिद्ध करने के लिए तर्क दिये गये हैं। ऐसी-ऐसी ऊट-पटांग बातें कही गयी हैं जो कोई पत्नी और बच्चे अपने पति और पिता से नहीं कहेंगे। ऐसी अशोभन एवं अकथनीय बातें मैं वर्षों से सुनता आ रहा हूँ समझता था कि कभी तो इनमें विवेक जागेगा और ये बातें बंद हो जायेंगी पर यहाँ तो मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। क्या इतने वर्षों तक परिवार के लिए जान खपाने का, हाड़ तोड़ने का यही पुरस्कार मिलना चाहिए था? क्या इसके अतिरिक्त और कुछ पाने की पात्रता मुझ में नहीं थी? क्या मैं केवल इसी योग्य था कि परिवार के सभी सदस्य मेरा अपमान करें, मेरी उपेक्षा करें, मुझे खरी-खोटी सुनाते रहें और मैं चुपचाप भीगी बिल्ली बना सब कुछ सहता रहूँ?

विशेष-

(1) महेन्द्रनाथ की मनःस्थिति का यथार्थ और मनोवैज्ञानिक चित्रण विश्लेषण।

(2) पात्र की घुटन, कुढ़न, विवशता, खीज की सरल भाषा में मार्मिक अभिव्यक्ति जिसे पढ़कर पाठक दर्शक की सहानुभूति सहज ही जागृत हो उठती है।

मैं इस घर में एक रबड़ - स्टैम्प भी नहीं, सिर्फ एक रबड़ का टुकड़ा हूँ-बार-बार घिसा जाने वाला रबड़ का टुकड़ा। इसके बाद क्या कोई मुझे वजह बता सकता है, एक भी ऐसी वजह कि क्यों मुझे रहना चाहिए इस घर में?

प्रसंग-

महेन्द्रनाथ घरवालों के अपने प्रति व्यवहार से असंतुष्ट होकर कह रहे हैं कि उन्हें परिवार के सदस्यों ने केवल रबर स्टैम्प की तरह इस्तेमाल किया, उन्हें वह आदर-सम्मान नहीं मिला जिसके वह पात्र थे। इस पर उनकी पत्नी उन्हें दुत्कारती हुई कहती है कि रबर स्टम्प की अपनी कीमत होती है, उसका समाज के लोग, आदर करते हैं, उसकी अपनी प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा और रुतबा होता है पर महेन्द्रनाथ को तो ये सब प्राप्त नहीं थे, अतः वह स्वयं को किस मुँह से रबर स्टैम्प कहने का दुस्साहस करते हैं। महेन्द्रनाथ इस कटोक्ति से तिलमिला उठता है और हताश होकर कहता है

व्याख्या-

ठीक है, मैं तुम लोगों को वह मान-सम्मान, इज्जत-आबरू प्रतिष्ठा रुतबा, समाज में स्थान नहीं दे पाया दिला पाया जो रबर स्टैम्प लगने पर किसी कागज दस्तावेज को प्राप्त होता है। अतः मुझे स्वयं को रबर स्टैम्प कहने का भी अधिकार नहीं है। मैं रबर स्टैम्प भी नहीं हूँ, रबर का टुकड़ा मात्र हूँ। रबर के टुकड़े की बहुत कीमत नहीं होती, वह रबर के स्टैम्प से भी गया गुजरा है। रबर के टुकड़े को घर के एक कोने में उपेक्षित, फालतू वस्तु की तरह फेंक दिया जाता है और जरूरत पड़ने पर उसका उठने-बैठने, घिसने के के लिए प्रयोग किया जाता है। कुछ समय प्रयोग करने के बाद वह पुनः कोने में धकेल दिया जाता है और वहाँ उपेक्षित पड़ा रहता है तब तक जब तक कि पुनः उसकी आवश्यकता नहीं पड़ती।

कुछ कुछ यही स्थिति महेंद्रनाथ की भी हो गयी थी। परिवारवाले उसकी उपेक्षा, अवमानना करते थे, उसे फालतू फर्नीचर की तरह समझ कर उसे कोने में ढकेल दिया गया था। केवल वक्त जरूरत पड़ने पर उसके घर के मुखिया होने के तथ्य का उपयोग किया जाता था। आवेदन-पत्र, निमंत्रण पत्र या ऐसे ही किसी कागज पत्र पर उसका नाम पिता या पति के रूप में लिखा जाता था और भी कुछ प्राप्त करने के लिए उससे सहयोग सहायता ली जाती थी। पर ऐसे अवसर बहुत कम आते थे। अतः महेन्द्रनाथ कहता है कि उसकी उपयोगिता रबर के टुकड़े से अधिक नहीं रह गयी है। पर रबर का टुकड़ा जड़ है, वह अपनी इच्छा से उठ बैठ नहीं सकता, उस पर स्वामी का पूर्ण अधिकार होता है, उसकी अपनी इच्छा कुछ नहीं होती। पर महेन्द्र तो सजीव पुरुष हैं, मान-अपमान की अनुभूति होती है, वह उसके प्रति प्रतिक्रिया भी करता है अतः वह अपमान- उपेक्षा से क्षुब्ध हो घर छोड़ना चाहती है, परिवर वालों से अलग होना चाहता है ताकि कम से कम उसे बार बार अपमानित होने की कटु अनुभूति से पीड़ा से मुक्ति मिले और वह स्वतंत्र जीवन बिता सके।

विशेष-

( 1 ) महेंद्र के स्वर में जो तल्खी और कटुता है, जो व्यंगय है उससे उसकी मनोदशा का पता चलता है। वह अंदर से क्षुब्ध है, अपमानित अनुभव करता है।

(2) भाषा सरल होते हुए भी प्रभावशाली है और अभिनेता अपनी भाव-भंगिमा तथा स्वर के उतार-चढ़ाव से उसे और भी अभिव्यक्तिमय बना सकता है।

ऐसे में मुझसे भी नहीं निभ सकता। जब और किसी को यहाँ दर्द नहीं किसी चीज का तो अकेली मैं ही क्यों अपने को चीखती रहूँ रात दिन ? मैं भी क्यों न सुखरू होकर बैठ रहूँ अपनी जगह? उससे तो तुममें से कोई छोटा नहीं होगा।

प्रसंग-

सावित्री बड़े लोगों को अपने घर आमंत्रित करती है ताकि उनकी सहायता से घर-गृहस्थी की गाड़ी सुचारू रूप से चलती रहे, कुछ काम मिलता रहे धन का जुगाड़ हो सके और खाने-पीने के लाले न पड़ें। परंतु बेटे अशोक को इस तरह के लोगों का घर आना, सावित्री द्वारा उनका आदर-सत्कार करना उचित नहीं लगता। कदाचित् वह यह भी समझता है कि सावित्री के इन लोगों के साथ अनैतिक संबंध भी हैं। अतः वह उनके कार्टून बनाता है, उनका मजाक भी उड़ाता है। एक दिन जब सावित्री अशोक के इस आचरण पर उसे फटकारती है तो वह कहता है कि इन संभ्रांत, घनाढ्य, रुतबे वाले लोगों को घर आते तथा उनका अत्यधिक स्वागत-सत्कार देख वह अपने को और हीन अनुभव करने लगता है, स्वयं और परिवार को अपमानित होते महसूस करता है। अशोक का यह कथन सुन सावित्री क्षोभ, वितृष्णा तथा खीज में भर कहती है

व्याख्या-

घर में जीविकोपार्जन करने वाले दो ही प्राणी हैं, पति महेन्द्रनाथ तथा बेटा अशोक व्यपार ठप्प हो जाने के कारण महेन्द्रनाथ वर्षों से खाली हाथ बैठा है, एक पैसा नहीं कमाता। बेटे को किसी हिल्ले से लगाने के लिए ताकि वह कुछ अर्जित कर सके वह दौड़-धूप करती है, बड़े लोगों से संपर्क स्थापित करना चाहती है कि किसी प्रकार घर का खर्च चल सके। पति और पुत्र दोनों के निष्क्रिय हो जाने पर, जीविकोपार्जन में असमर्थ हो जाने पर सावित्री पर सारी गृहस्थी का बोझ आ पड़ा है और वह जी-जान से आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए प्रयत्नशील हैं इसके लिए वह धनढ्य लोगों से, समाज के प्रतिष्ठित संभ्रांत व्यक्तियों से संबंध बढ़ाती है, उन्हें अपने यहाँ आमंत्रित करती है, उनका आवश्यकता से अधिक आतिथ्य करती है। वह यह सब अपने लिए नहीं परिवार के लिए, परिवार की प्रतिष्ठा के लिए करती है पर जब उसका यह आचरण बेटे के मन में एक ओर उसके चरित्रके प्रति संदेह और दूसरी ओर उसके मन में हीनत भव जगाता है तो वह खीज उठती है और एक प्रकार से चेतावनी यधमकी देते हुए कहती है जब तुम लोगों को ही परवाह चिन्ता नहीं तो मैं ही क्यों खपूँ, मरूँ, सिर फोडूं ? मुझे क्या पड़ी है कि दूसरों की चिन्ता को ओढूँ, जो कार्य दूसरों को, घर के पुरुषों को करना चाहिए वह मैं करूँ ? दूसरों के लिए विशेषत: उनके लिए जो मेरे कार्यों को संदेह की दृष्टि से देखें, चरित्र पर अँगुली उठाने में भी संकोच न करें, मैं व्यर्थ क्यों स्वयं को नष्ट करूँ, परिश्रम भी करूँ और उल्टी-सीधी बातें भी सुनूँ? मैंने निर्णय कर लिया हैं कि आज से मैं भी हाथ पर हाथ रख कर बैठी रहूँगी, व्यर्थ की दौड़-धूप नहीं करूँगी भले ही घर में चूल्हा न जले और घर के लोगों को भूखे रहना पड़े। गृहस्थी के लालन-पालन का दायित्व पुरुषों पर होता है यदि वे इस दायित्व को नहीं समझते या समझकर भी पालन नहीं करते तो मुझे क्या पड़ी है कि सिर भी खपाऊँ और कटु वचन भी सुनूँ। कम से कम मैं इस आरोप से तो बच जाऊँगी कि मेरे कारण तुम्हारा हीनता भाव बढ़ता है, तुम अपमानित महसूस करते हो तुम भूखो रहकर बड़प्पन की भावना के सहारे जीते रहना चाहते हो तो ऐसा ही करो। मुझे कुछ लेना-देना नहीं है।

विशेष-

(1) सावित्री के चरित्र की एक विशेषता की झलक मिलती है कि वह दूसरों का दायित्व निभाकर स्वयं को सूखरू करना चाहती है।

अपनी वास्तविक कमजोरी छिपाकर वह दूसरों को दोषी ठहराती हैं वस्तुतः वह स्वयं महत्त्वाकांक्षिणी है, पर-पुरुषों का संसर्ग भी उसे प्रिय है पर वह इन बातों को छिपाकर परमार्थ या परिवार - हित का ढोंग रचती है।
यूँ तो जो कोई भी एक अदमी की तरह चलता-फिरता, बात करता है वह आदमी ही होता है. पर असल में आदमी होने के लिए क्या जरूरी नहीं कि उसमें अपना एक माद्दा, अपनी एक शखसियत हो?

प्रसंग-

महेंद्रनाथ परिवारवालों के आचरण और व्यवहार से तंग आ हीनताभाव से ग्रस्त हो घर छोड़कर अपने मित्रा जुनेजा के यहाँ चला जाता है और फिर प्रकृति से मजबूर हो वह जुनेजा को सावित्री के पास भोजता है कि वह उसे समझाए और फिर से सुलह होने पर वह घर लौट जाए। जुनेजा जब सावित्री के घर पहुँचा तो वह जगमोहन के साथ चली गयी थी, अतः उसे कुछ देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। जब सावित्री लौटी और उसकी दृष्टि जुनेजा पर पड़ी तो वह क्रोध में भर उठी। बातचीत के दौरान जुनेजा सावित्री पर आरोप लगाता है कि उसने महेंद्रनाथ को बाँकर, पंगु बना दिया है और उससे विनय करता है कि वह उसे बंधन से मुक्त कर दे। जुनेजा की बात सुन कर सवित्री महेंद्रनाथ के विषय में अपनी धारणा स्पष्ट बताते हुए कहती है कि शक्ल-सूरत, शरीर आदि से महेंद्रनाथ भले ही आदमी कहा जाय पर वस्तुतः वह लिजलिजा आदमी है, उसके रीढ़ की हड्डी है ही नहीं, वह अनिर्णय का शिकार रहता है तथा निठल्ला है।

व्याख्या-

सामान्यतः जो व्यक्ति शारीरिक अंगों की दृष्टि से आदमी कहला सकता है, जो मनुष्यों की भाँति चलता-फिरता, उठता बैठता, बातें करता है उसे हम आदमी कहते हैं। पशु या पक्षी से वह शरीर, आचार-व्यवहार, बोलने चालने में भिन्न होता है, अतः हम उसे आदमी कहते हैं। पर प्रश्न उठता है कि क्या केवल यही गुण या विशेषताएँ, अपने निजी प्रभावशाली व्यक्तित्व हैं, अतः उसे आदमी कहना उचित नहीं है। वह आधा-अधूरा हैं, पूर्ण मनुष्य नहीं है। उसमें स्वतंत्र चिंतन की कमी है, आत्मविश्वास से हीन वह जुनेजा जैसे व्यक्तियों पर निर्भर रहता है, निठल्ला है, पुरुषार्थी नहीं है अतः उसे आदमी कहने में संकोच होता है।

विशेष-

(1) महेंद्रनाथ के प्रति सावित्री की वितृष्णा का कारण यह है कि वह उसे पुरुषार्थी नहीं मानती। लेखक को नारी मनोविज्ञान की सच्ची पहचान है।

(2) सावित्री के चरित्र पर प्रकाश डाला गया है।

(3) अप्रत्यक्ष रूप से महेंद्रनाथ के चरित्र की कमजोरियों का भी संकेत है।

मुझे उस असलियत की बात करने दीजिए जिसे मैं जानती हूँ।.. एक आदमी है। घर बसाता है। क्यों बसाता है? एक जरूरत पूरी करने के लिए। कौन-सी जरूरत! अपने अंदर के किसी उसको एक अधूरापन कह लीजिए उसे ... उसको भर सकने की। इस तरह उसे अपने लिए... अपने में पूरा होना होता है। किन्हींदूसरों को पूरा करते रहने में ही जिन्दगी नहीं काटनी होती। पर आपके महेन्द्रनाथ के लिए जिंदगी का मतलब रहा है... जैसे सिर्फ दूसरों के खाली खाने भरने की ही एक चीज है वह जो कुछ वे दूसरे उससे चाहते हैं, उम्मीद करते हैं, या जिस तरह वे सोचते हैं उनकी जिंदगी में उसका इस्तेमाल हो सकता है। 

प्रसंग –

जुनेजा जब सावित्री को अपने पति से समझौता करने और साथ रहने का आग्रह करता है तो सावित्री अपने पति को लिजालिजा, निठल्ला, आत्मविश्वासहीन तथा दूसरों पर निर्भर रहने वाला बताती हुई कहती है कि वह पूरा व्यक्ति न होकर आधा-अधूरा आदमी हो, उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है, वह एक ऐसा मोहरा है जो न स्वयं चलता है और न दूसरों को चलने देता है वह आक्षेप लगाती है कि जुनेजा ने ही उसे बिगाड़ा है, वह जुनेजा पर पूर्णत: निर्भर रहा है और उसी के कथानुसार अपना जीवन ढाला है। सावित्री की बात काटकर जुनेजा कुछ कहना चाहता है, सावित्री के दोषों को उजागर करना चाहता है और उन दोनों के दाम्पत्य जीवन की असफलता के लिए सावित्री को दोषी बताना चाहता है, पर सावित्री उसको बोलने ही नहीं देती और स्वयं बताने लगती है कि उनके दाम्पत्य जीवन की असफलता का वास्तविक कारण क्या रहा है।

व्याख्या-

आप हमारे दाम्पत्य जीवन की असफलता का वास्तविक कारण असलियत जताने जा रहे थे पर जो आप समझते हैं वह वास्तविकता नहीं है, वास्तविकता कुछ और है और आप यदि सुनने को तैयार हों तो सुनिये । मैं महेन्द्रनाथ के साथ रही हूँ, पत्नी के रूप में और बहुत समय तक । अतः जितना मैंने उसे निकट से दखा हैं, उसको सहा है, उसके अत्याचारों को सहा है, आपने नहीं। अतः मुझे उसका, उसके चरित्र का, उसकी मनोवृत्ति और स्वभाव का जितना अनुभव है उतना आपको नहीं, अतः दाम्पत्य जीवन की असफलता का असली रहस्य भी मुझे पता है आप केवल अनुमान लगा सकते हैं, असलियत न जानते हैं, न बता सकते हैं। महेन्द्रनाथ के साथ अनेक वर्ष बिताने, उसे निकट से देखने और बरतने के बाद मुझ पर स्पष्ट हो जाता है कि वह खंडित व्यक्तित्व वाला, लिजलिजा, चिपचिपा, अकर्मण्य व्यक्ति है जिसकी रीढ़ की हड्डी या तो कमजोर है या है ही नहीं। अपनी बात को पुष्ट करने के लिए वह वकीलों की तरह जिरह करती है।

प्रत्येक आदमी विवाह कर अपना घर बसाना चाहता है। घर बसाने के पीछे उसकी कुछ इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, आवश्यकताएँ होती हैं और वह समझता है कि जीवनसाथी पाकर उसकी वे इच्छाएँ आवश्यकताएँ पूरी हो जायेंगी । उनमें से एक आवश्यकता है शरीर की भूख, यौन तृप्ति। यह इच्छा, यह भूख नैसर्गिक है, प्रकृति प्रदत्त है, इसमें कोई दोष नहीं । व्यक्ति स्वयं में अपूर्ण है, अधूरा है। प्रकृति ने उसे अपूर्ण बनाया है। इसी अपूर्णता को दूर करने, खालीपन भरने अपने को पूरा करने के लिए वह जीवन साथी का चुनाव करता है, विवाह बंधन में बँधता है, परिवार के दायित्व निभाता है, स्त्री-पुरुष दोनों अपूर्ण हैं पर मिलकर एक दूसरे के पूरक बनकर इस अपूर्णता को पूर्णता में बदनले का प्रयत्न करते हैं, दोनों का सम्पर्क बढ़ता है, संबंध घनिष्ट होते हैं, आत्मीयता बढ़ती है एक दूसरे के लिए त्याग, बलिदान करने की भावना जागती है। यदि ऐसा होता है, तो दाम्पत्यजीवन सफल होता है, मूलतः अधे-अधूरे व्यक्तित्व वाले दो प्राणी पूर्ण बन जाते हैं वे पति-पत्नी मूलतः एक दूसरे के लिए होते हैं, तीसरा उनके बीच नहीं आना चाहिए। प्राथमिक कर्त्तव्य दोनों का एक दूसरे के प्रति होना चाहिए। यद ऐसा नहीं होता तो दाम्पत्य जीवन में विष घुल जाता है, संबंधों में दरार पड़ जाती है, दोनों के बीच एक ऐसी खाई उत्पन्न हो जाती है जो कभी पट नहीं पाती। महेन्द्र और सावित्री के बीच यही हुआ। महेन्द्रनाथ पत्नी के स्थान पर अपने मित्रों से अधि क जुड़ा रहा, उन्हें अधिक महत्त्व देता रहा, उनके लिए पत्नी को प्रताड़ना, यातना और अपशब्द कहता रहा। वह मित्रों की आवश्यकताओं, इच्छाओं और कार्यक्रमों को अपनी पत्नी की इच्छा, आकांक्षा, जीवनचर्या से अधिक महत्त्वपूर्ण मानता चला गया। पत्नी के समझाने-बुझाने पर भी उसने ध्यान नहीं दिया। उसका समय पत्नी के लिए कम मित्रों के लिए अधिक था। उसकी दृष्टि में पत्नी मूर्ख रही. मित्र विवेक संपन्न, अतः वह उनकी परामर्श मानता. उनके बताये मार्ग पर चलता, पत्नी की मंत्रणा उसे एक कान न सुहाती। मित्र जैसा चाहते उसे चलाते उससे काम कराते, उसकी संगति से मनोरंजन करते। महेन्द्रनाथ उनके हाथ का मोहरा बन कर रह गया, उनके इस्तेमाल का एक उपकरण। उसकी अपनी इच्छा अपना सच, अपनी कार्यपद्धति कुछ नहीं थी; उसके मित्र उस पर इतने हावी हो गये कि वह मानसिक रूप से उनका गुलाम हो गया और मजे की बात यह कि वह इस तथ्य को कटु सत्यको समझा भी नहीं। स्वयं को स्वतंत्र चिंतक, स्वेच्छा से कार्य करने वाला स्वयंभू मानता रहा। परंतु सावित्री तो सब समझती थी। उसे अपने पति की यह मानसिक दासता और मित्रों का अनुगमन करने की प्रवृत्ति फूटी आँख न सुहाई । उसने विरोध किया, समझाया, ऊँच-नीच दिखायी पर महेन्द्रनाथ की आँखों पर पर्दा पड़ा हुआ था अतः वह पत्नी के बताये मार्ग पर चलने और मित्रों से नाता तोड़ने के बजाय पत्नी को ही डाँटने-डपटने, मारने-पीटने और जोर-जबरदस्ती से कार्य करने पर विवश करता रहा जो वह नहीं करना चाहती थी।

विशेष-

(1) सावित्री ने जो पूरे आदमी के गुण और विशेषताएँ बतायी हैं, वे तो ठीक हैं, उनसे किसी का विरोध नहीं हो सकता। पर इस व्याख्या के पीछे उसका उद्देश्य केवल महेन्द्रनाथ को दोषी ठहराना है, दाम्पत्य जीवन की असफलता का दायित्व उस पर डालना है, वह स्वयं अपनी दुर्बलता जानते हुए भी उनकी ओर आँख बंद किए रहती है।

(2) नारी मनोविज्ञान का उसके सोचने-समझने का दूसरों को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति का यथार्थ अंकन है।

(3) जिरह की भाषा तथा वकीलों जैसी पद्धति नाटक के अभिनेय बनाने में सहायक है।

वह एक पूरा आदमी चहती है अपने लिए एक ... पूरा... आदमी। गला फाड़कर वह यह बात कहती है। कभी इस आदमी को ही वह आदमी बना सकने की कोशिश करती हैं. कभी तड़पकर अपने को इससे अलग कर लेना चाहती है। पर अगर उसकी कोशिशों से थोड़ा भी फर्क पड़ने लगता है इस आदमी में, तो दोस्तों में इसका गम मनाया जाने लगता है।

प्रसंग-

सावित्री अपने पति महेन्द्र को आधा-अधूरा आदमी समझती है। उसका विचार है कि अपने अपूर्ण व्यक्तित्व के कारण वह दूसरों पर निर्भर करता है। उसमें स्वयं कोई पहल करने की खतरा मोल लेकर नया कार्य आरंभ करने की क्षमता नहीं है। पति की इन कमियों को देख-देख कर वह खीजती है मन ही मन उससे घृणा करती है। कभी-कभी उसे सुधारने का भी प्रयास करती हैं पर जब महेन्द्र पत्नी की बात न मानकर चित्रों को उकसाने पर उसे मारता पीटता है, सावित्री को अपने ढंग से चलने को विवश करता है तो दोनों के बीच की दरार बढ़ती जाती है। इसी को लेकर जब जुनेजा से बात होती है तो वह स्पष्ट कह देती है

व्याख्या-

मुझे आधे-अधूरे व्यक्तित्व वाले पुरुषों से घृणा मैं चाहती हूँ कि मेरा पति पूर्ण व्यक्तित्व वाला पुरुष हो, उसमें आत्म विश्वास हो, दृढ़ता हो, पौरुष हो, पुरुषार्थ हो। वह दूसरों के बताये मार्ग पर न चलकर स्वयं अपना मार्ग चुने, पहल करें, जोखि उठाये। अपनी इस इच्छा को मैं सबके सामन, गली-मुहल्ले में छत के ऊपर चढ़कर कह सकती हूँ। मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं, कोई संकोच नहीं। मैं महेन्द्र से भी अपने मन की बात अनेक बार बहुत स्पष्ट रूप में कह चुकी हूँ। इतना ही नहीं उसे अपने मनोनुकूल ढालने का प्रयास भी करती रही हूँ ताकि वह पूर्णता प्राप्त करे, पुरुषार्थी बने, उसकी अपनी निजी शख्सियत हो, निजी माद्दा हो, स्वतंत्र चिंतन हो, मित्रों का मुँह न जोहे, आत्म-निर्भर बने, आत्मविश्वस के साथ कार्य करे। पर जब मित्रों के दबाव के कारण वह मेरी बात नहीं मानता, उनका ही पिछलग्गू बना रहता है तो मैं तड़प उठती हूँ उससे नाता तोड़ने को मन करता है और कुछ दिन तक हमारा नाता टूट भी जाता है। हम एक ही छत के नीचे अजनबियों की तरह रहते हैं। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि मेरे प्रयत्न सफल होने लगते हैं, वह सुधरता प्रतीत होता है, उसमें आत्मविश्वास जागता है, वह मित्रों के प्रति उदासीन होने लगता है, मुझसे सलाह-मशविरा कर कोई नया कार्य करने की योजना बनाता है। पर मित्रों को भला यह क्यों सुहाने लगा ? महेन्द्र के चरित्र, स्वभाव, आचरण में जहाँ थोड़ा भी अंतर आने लगता है यार लोगों के दिल पर साँप लोटने लगता है, उन्हें लगता है शिकार पंजे से निकल रहा है, उन पर अश्रित व्यक्ति स्वतंत्र हाने, या पत्नी के चंगुल में फँसने जा रहा हैं अतः वे सवधान होकर हर तरह की नीति अपनाकर उसे पुनः अपने जाल में फँसाते हैं। कभी चापलूसी करते हैं, कभी पत्नी के विरुद्ध भड़काते उकसाते हैं, कभी धमकी देते हैं। वे उसे विश्वास दिलाते हैं कि उनके बताये मार्ग पर चलकर वह साधन-संपन्न बनेगा, समाज में प्रतिष्ठा पाएगा और यदि पत्नी की बात मानी तो रोटियों के लाले पड़ जाएँगे, परिवार नष्ट हो जाएगा, उसकी इज्जत धूल में मिल जाएगी।

विशेष-

(1) सावित्री की मनःस्थिति का मनौवैज्ञानिक विश्लषण और चित्रण।

(2) इस कथन के द्वारा नाटककार स्पष्ट संकेत देता है कि पति-पत्नी के बीच मनमुटाव एवं तनाव का कारणमहेन्द्र की मित्रमंडली थी। वे एक और महेन्द्र को पंगु बनाये रखना चाहते हैं और दूसरी ओर सावित्री के विरुद्ध भड़काते रहते हैं।

(3) मध्यवर्गीय परिवारों की दाम्पत्य जीवन की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत की गयी है।

(4) भाषा सरल ही नहीं, मंचन के लिए नितान्त उपयुक्त है।

सावित्री महेन्द्र की नाक में नकेल डालकर उसे अपने ढंग से चला रही है। सावित्री बेचारे महेन्द्र की रीढ़ तोड़कर उसे किसी लयक नहीं रहने दे रही है! जैसा कि आदमी न होकर बिना हाड़-मांस का पुतला हो वह एक बेचारा महेन्द्र !

प्रसंग –

सावित्री अपने पति को आत्मनिर्भर बनाना चाहती है, मित्रों पर आश्रित होना उसे अच्छा नहीं लगता इसके लिए वह प्रयत्न करती है। उसके प्रयत्न सफल होने लगते हैं। महेन्द्र का मित्रों के यहाँ आना-जाना, उठना-बैठना कम हो जाता है। उसमें यह परिवर्तन देख मित्र गण आशंकित होने लगते हैं, उन्हें लगता है कि महेन्द्र उनके हाथ से निकल रह है, वह अपनी पत्नी की बात अधिक मानने लगा है अतः वे उसे भड़कने के लिए तरह-तरह की बातें करते हैं।

व्याख्या –

पुरुष की एक बड़ी कमजोरी है कि वह स्वयं को नारी से सदा ऊँचा मानता रहा है, उसे यह तनिक भी बरदाश्त नहीं कि नारी उससे श्रेष्ठ कही जाय, उसे पुरुषा की अपेक्षा अधिक मान-सम्मान और प्रतिष्ठा मिले। परिवार में भी वह स्वयं की पत्नी से अधिक महान, शक्तिशाली और सत्तासम्पन्न देखना चाहता है। ‘जोरू का गुलाम’ उसके लिए गाली है। वह यह नहीं चाहता कि कोई उसे ‘जोरू का गुलाम’ कहे। पुरुष की इसी दुर्बलता का लाभ उठाया महेन्द्र के मित्रों ने जब उन्होंने उसे अपने दबाव से छूटकर जाने के लिए छटपटाते देखा तो कहना आरंभ कर दिया कि महेन्द्र तो अब जोरू का गुलाम हो गया है। उसकी पत्नी उससे अधिक शक्तिशाली है, उसका रौब सारे परिवार पर है, महेन्द्र उसके सामने भीगी बिल्ली या दुम हिलाता कुत्ता रह गया है। जैसे ऊँट के नकेल डालकर या हाथी को अंकुश द्वारा वश में किया जाता है, वे वही करते हैं, उसी मार्ग पर चलते हैं जिस पर महावत चलाना चाहता है वैस ही सवित्री ने महेन्द्र को पालतू बना लिया है। वह वही करता है जो सावित्री चाहती है, वह अपने दिमाग से नहीं सावित्री के दिमाग से सोचता है। अब घर में उसकी ही तूती बोलती है। महेन्द्र के प्रति अपनी संवेदना और झूठी सहानुभूति व्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि सावित्री ने तो महेन्द्र की रीढ़ की हड्डी ही तोड़ दी है। रीढ़ की हड्डी टूटने पर व्यक्ति ठीक से उठ बैठ भी नहीं सकता। उसे हर काम के लिए दूसरों की सहायता लेनी पड़ती है, मुँह जोहना पड़ता है, वह पराश्रित हो जाता है। महेन्द्र भी अपनी पत्नी के रौब, दबदबे, आतंक के कारण अपना निजीपन, अपनी स्वतंत्र शक्ति आत्मनिर्णय की प्रवृत्ति खो बैठा है और प्रत्येक कार्य अपनी पत्नी के आदेश पर करता है। उसके सभी निर्णय उसके अपने नहीं पत्नी द्वारा लिये गये निर्णय होते हैं। बेचारे को पत्नी ने अपना गुलाम बनाकर रख छोड़ा है। वह जादूगरनी है और उसने अपने दाजू से महेन्द्र को पुरुष से भेड़ बना दिया है। कितना महान पतन है। कितनी शर्म की बात है। पुरुष के लिए इससे अधिक डूब मरने की क्या बात हो सकती हैं! महेन्द्र कठपुतली होकर रह गया है और सावित्री सुत्रधार की तरह उसे मनमाना नाच नचा रही है, वह उसके हाथ का खिलौना मात्र बन कर रह गया है बेचारे महेन्द्र की इस दुर्दशा पर आँसू बहाते अफसोस जाहिर करने के अतिरिक्त हम कर भी क्या सकते हैं? पति-पत्नी का मामला जो ठहरा !

विशेष-

(1) स्वार्थी मित्रों का मनोवैज्ञानिक चित्रण |

(2) मगरमच्छ के आँसू बहाना इसी को कहते हैं, नाक में नकेल डालना आदि मुहावरों का सटीक प्रयोग |

तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है- कितना कुछ एक साथ होकर कितना कुछ एक साथ पाकर और कितना कुछ एक साथ ओढ़कर जीना। वह उतना कुछ कभी तुम्हें किसी एक जगह न मिल पाता, इसलिए जिस किसी के साथ भी जिन्दगी शुरू करतीं, तुम हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचैन बनी रहतीं। 

प्रसंग-

महेन्द्र का मित्र जुनेजा महेन्द्र और सावित्री के बीच समझौता कराने, सावित्री को समझा-बुझाकर दोनों में मेल कराने के उद्देश्य से सावित्री के पास आया था। पर बातचीत के दौरान सावित्री ने महेन्द्र के प्रति वितृष्णा भावप्रकट करते हुए कहा कि वह अधूरा व्यक्ति है, लिजलिजा और चिपचिपा आदमी है और उसके इस अधूरेपन के लिए जुनेजा जैसे मित्र उत्तरदायी हैं तो जुनेजा बौखला उठा, वह संयम खो बैठा और सवित्री को ही महेन्द्र की दुर्दशा का, उसकी यातनापूर्ण जिन्दगी के लिए उत्तरदायी ठहराने लगा। उसने स्पष्ट कहा कि वह महत्वाकांक्षिणी स्त्री है, महत्वाकांक्षा पूर्ण करने के लिए नीति- अनीति नैतिकता – अनैतिकता को अनदेखा कर स्वैचारिणी बनने तक को तैयार रहती है, कितने ही पुरुषों के बीच भटकती रही है और फिर भी असंतुष्ट है। उसने सावित्री पर आरोप लगाया कि वह स्वयं जुनेजा के प्रति आकृष्ट रही है और उसके संबंध शिवजीत तथा जगमोहन से भी रहे हैं। अपनी बात को अत्यंत कटु बनाने के लिए वह व्यंग्यपूर्ण भाषा का सहारा छोड़ अभिधा में दो टूक बात कहता है।

व्याख्या-

तुम महत्त्वकांक्षी रही हो। तुम्हारी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, आवश्यकताएँ इतनी अधिक इतनी वैविध्यपूर्ण और बहुमुखी रही है कि कोई एक व्यक्ति इन सबको संतुष्ट नहीं कर सकता। यही कारण है कि तुमने अनेक पुरुषों के साथ संबंध जोड़े, विभिन्न स्तरों के प्रभावशाली पुरुषों के साथ संपर्क स्थापित किया, नैतिकता – अनैतिकता का विचार त्याग अमर्यादित आचरण किया। वस्तुतः तुम्हारी प्रकृति, तुम्हारा चरित्र ही ऐसा है कि तुम किसी एक पुरुष की होकर रह ही नहीं सकतीं, एक पुरुष के साथ संपूर्ण जीवन बिताना तुम्हारे लिए संभव ही नहीं है। अतः यदि तुम्हारा विवाह महेन्द्र से न होकर शिवजीत, जगमोहन या किसी भी अन्य पुरुषा से होता, तब भी तुम असंतुष्ट ही रहतीं। तुम्हारे लिए जीवन का अर्थ है एक साथ बहुत कुछ पाना, एक साथ अनेक व्यक्तियों पर आधिपत्य जमाना, उन्हें अपना अनुगामी बनाना, उन्हें अपने इशारे पर नचाना तुम केवल आदान चाहती हो, देने के लिए तुम्हारे पास कुछ नहीं है और यदि कुछ है भी तो उसके बदले बहुत ज्यादा चाहती हो। सेवा, त्याग, ममता, आस्था, श्रद्धा जो नारी के गुण हैं, उनका तुममें नितान्त अभाव है। परिणाम है असन्तोष, खीज, चिड़िचिड़ापन, कलह, टकराव । जो तुम नहीं हो, वह दिखाना चाहती हो, अतः आडम्बर, ढोंग, मिथ्याचरणा, प्रवंचना तुम्हारे स्वभाव के अंग बन गये हैं। अपनी महत्वाकांक्षाओं, कभी न संतुष्ट होने वाली भूख कभी तृप्त न होने वाली इच्छाओं का परिणाम यह हुआ कि तुम्हारा स्वभाव चिड़चिड़ा बन गया, तुम सदा असंतुष्ट रहीं, छटपटाती रहीं टूटती रहीं, कलह करती रहीं दूसरों पर व्यंग्य बाण छोड़ती रहीं, दूसरों के दोष देती रहीं, कमजोरियाँ बताती रहीं। तुम्हारे भटकने, दुखी होने और दूसरों में दोष देखने का कारण है तुम्हारा असंतोष, अस्थिर चंचल स्वभाव, तुम्हारी महत्त्वाकांक्षाएँ । अतः भले ही महेन्द्र के स्थान पर और कोई पुरुष तुम्हारा पति होता, अपनी इस चरित्रिक दुर्बलता के कारण तुम उसके साथ भी दुखी रहती, तुम्हारा जीवन अव्यवस्थित रहता परिवार टूटता, कलह होती । तुमने अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कभी एक का कभी दूसरे का हाथ पकड़ा, सहार लिया। नये पुरुष का सहारा लेते समय तुमने सोचा कि अब सुख मिलेगा, जीवन सफल होगा, शोष जिन्दगी चैन से कटेगी पर वह मृगतृष्णा हुई, भ्रम निकला और तुम वहीं की वहीं रहीं – चिरतृषित, अतृप्त, असंतुष्ट। तुम स्वयं अधूरी हो, तुम्हारे अपने चरित्र में दोष है, त्रुटियाँ हैं पर तुम उन्हें न देखकर दूसरों में विशोषतः अपने पति महेन्द्र में देखती रही हो। इसके फलस्वरूप तुम्हें मिली है रिक्तता, शून्यता, खालीपन एक बोझ, एक कसमसाहट, एक अन्तर्दाह, एक छटपटाहट जिसके कारण तुम कभी चैन से नहीं बैठ पायीं, सदैव बेचैन रहीं।

विशेष-

(1) सावित्री की मूल प्रवृत्ति का, उसके चरित्रिक दोषों का उद्घाटन बड़ी सशाक्त शैली में किया गया है। सावित्री के माध्यम से नाटककार ने उच्च मध्यवर्गीय, स्वयं को आधुनिक कहनेवाली नारी के मनोभावों, मनोवृत्ति तथा चरित्र का सच्चा चित्रण किया है।

देखा है कि जिस मुट्ठी में तुम कितना कुछ एक साथ भर लेना चाहती थीं, उसमें जो था वह भी धीरे-धीरे बाहर फिसलता गया कि तुम्हारे मन में लगातार एक डर समाता गया है जिसके मारे कभी तुम घर का दामन थामती रही हो, कभी बाहर का और कि वह डर एक दहशत में बदल गया, जिस दिन तुम्हें एक बहुत बड़ा झटका खाना पड़ा.. अपनी आखिरी कोशिश में।

प्रसंग-

जुनेजा सावित्री के चारित्रिक दोषों, दुर्बलताओं का पर्दाफाश करता है और बताता है कि वह महत्वकांक्षी है, चंचल है, एक पुरुष के साथ न रहनेवाली भँवरी प्रवृत्ति की औरत है। अपने इन्हीं दोषों के कारण वह सदा महेन्द्र में दोष निकालती रही उसको लिजलिजा, दब्बू, निठल्ला, दोस्तों पर आश्रित रहने वाला कहकर उसेआधा-अधूरा बताती रही। प्रथम तो महेन्द्र में ये सारे अवगुण शुरू से नहीं थे, यदि बाद में वह इन दुर्गणों से गस्त हो भी गया तो उसके लिए सावित्री भी कम जिम्मेदार नहीं हैं उसके बार-बार रोकने, फटकारने, भर्त्सना करने से उसमें वह हीन भाव पैदा हो गया जो सावित्री को खलता रहा, खटकता रहा। जुनेजा के इस आरोप का खंडन करती हुई सावित्री प्रश्न करती है कि क्या उसने महेन्द्रनाथ को उसके पूरे जीवन, जीवन की परिस्थितियों को अच्छी तरह देखा-समझा है? केवल अधूरी बातें जानकर वह जिस निष्कर्ष पर पहुँचा है, वह गलत है इस पर जुनेजा सावित्री से अपनी असहमति प्रकट करते हुए कहता है।

व्याख्या-

मैंने महेन्द्र के उसके परिवेश को, उसके कार्यों को निकट से देखा है। तुमको और तुम्हारे चरित्र को भी मैं अच्छी तरह से समझता हूँ। मैं जान गया हूँ कि तुम बड़ी महत्त्वाकांक्षी हो, तुम्हारी आकांक्षाएँ असीम हैं। जैसे कोई अपनी मुट्ठी में है, वह भी निकल जाता है। उसी प्रकार तुमने अपनी क्षमता से अधिक चाहा, जितना प्राप्त कर सकती थी । उससे अधिक पाने की कामना की। परिणाम यह हुआ कि जो पहले से ही मुट्ठी में है, वह भी निकल जाता है। उसी प्रकार तुमने अपनी क्षमता से अधिक चाहा, जितना प्राप्त कर सकती थी उससे अधि क पाने की कामना की। परिणाम यह हुआ कि जो पहले से प्राप्त था वह भी खो बैठीं । तुम्हारी मुट्ठी खाली रही और उस अभाव ने तुम्हें चिड़चिड़ा, पर- छिद्रान्वेषी तथा दूसरों पर आरोप लगाने वाला बना दिया। तुम अपना सुख चैन तो खो ही बैठीं, परिवार की सुख-शान्ति भी नष्ट करने लगीं। घर में कलह, परिवार के सदस्यों में संघर्ष, टकराव और वैमनस्य पैदा हो गया। सब एक दूसरे से कटने लगे। यदि तुम आवश्यकता से अधिक महत्त्वाकांक्षी न होती तो कम से कम पति के साथ संतुष्ट रहतीं, थोड़े में गुजारा करतीं, सदृगृहिणी का कर्त्तव्य निबाह कर संतान को योग्य बनतीं। पर तुमने वह सब तो किया नहीं, पर-पुरुषों के चक्कर में पड़ गयीं और तुम्हारे आचरण को देख संतान भी दुष्चरित्र एवं उच्छृंखल बन गयी। इसी प्रवृत्ति के कारण तुम पति को खो बैठीं, घर का सुख-चैन गँवा दिया। तुम भटक गयीं। तुम्हारी स्थिति भँवर में पड़े प्राणी की सी हो गयी । महेन्द्र तुमसे प्यार करता था, अब भी करता है, तुम से अलग नहीं रहना चाहता, पर तुम्हारे व्यवहार ने उसे सनकी बना दिया। वह खिन्न रहने लगा, मित्रों का सहारा ढूँढने लगा। स्थिति सुधरने की बजाय बिगड़ती गयी। तुम भटक गयीं। तुम्हारी स्थिति भँवर में पड़े प्राणी की सी हो गयी। पर पुरुषों ने तुम्हारी आवश्यकताएँ पूरी नहीं कीं, बार- बार की असफलता, सपनों के टूटने से तुम्हें घोर निराशा हुई। दूसरी ओर घर में अशांति और कलह ने तुम्हारे चित को विक्षुब्ध कर दिया। बाहर की असफलता और घर की आंतरिक अशांति के पाटों के बीच तुम पिसती रहीं। न माया ही मिली और न राम । धीरे-धीरे मिथ्या आशंकाएँ, अनजाना भय, दुःस्वप्न तुम्हें घेरने लगे, तुम्हारा आत्मविश्वास कम होता गया। बार-बार तुम बाहर के लोगों का आश्रय ढूँढने लगीं, उनसे अपेक्षाएँ करने लगीं और बार-बार निराश होकर अपने जीवन में विष घोलती रहीं। घर को सँभालने और बाहर की प्रतिष्ठा बनाने में एक आरे पति की नजरों में गिरी, समाज में बदनाम हुईं, संतान की संदेहपात्र बनीं और दूसरी ओर जीवन की आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं हो पायीं । इस प्रकार आतंक, भय, त्रास ने तुम्हें अपनी कुंडलियों में घेर कर तुम्हारा जीवन नारकीय बना दिया ।

विशेष-

(1) जुनेजा ने सावित्री को उसका सच्चा रूप दिखा दिया है।

(2) महत्त्वकांक्षिणी, आधुनिक नारी की मूल प्रवृत्ति का सही विश्लेषण |

इसलिए कि आज वह अपने को बिल्कुल बेसहारा समझता है। उसके मन में यह विश्वास बिठा दिया है। तुमने कि सब कुछ होने पर भी उसके लिए जिंदगी में तुम्हारे सिवा कोई चारा, कोई उपाय नहीं है और ऐसा क्या इसलिए नहीं किया कि जिंदगी में और कुछ हासिल न हो, तो कम से कम यह नामुराद मोहरा तो हाथ में बना ही रहे?

प्रसंग –

जुनेजा सावित्री की बातें सुनकर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि महेन्द्र और सावित्री के बीच समझौता नहीं हो सकता। उनकी रुचियाँ, उनका स्वभाव, उनका सोचने का तरीका दो ध्रुवों पर है। जो कभी एक-दूसरे के पास नहीं आ सकते। उन दोनों के मध्य रागात्मक संबंध, यदि थे भी, तो अब टूट गये हैं और पुनः स्थापित नहीं हो सकते। अतः वह सावित्री से आग्रह करता है कि दोनों का भला इसी में है कि वे एक दूसरे को तलाक दे दें, सावित्री महेन्द्र का परित्याग कर दे। जब सावित्री जुनेजा से पूछती है कि वह बार-बार इस बात को क्यों दुहरा रहा है, उसका उद्देश्य क्या है, वह चाहता क्या है तो जुनेजा उत्तर देता है

व्याख्या –

महेन्द्र अब भी तुमसे प्यार करता है, तुम्हारे प्यार को अपना सहारा मानता है, उसे विश्वास है कि तुम्हारा प्यार उसका सबसे बड़ा संबल हैं उसके ये विचार भ्रांतिपूर्ण हैं पर वह उन्हें अपने मन से निकाल नहीं पाता और कहीं न कहीं उसके मन के कोने में आशा है कि तुम उसे अपना प्यार और सहारा देकर उबार लोगी। जब तक यह भांत धारणा उसके मन में है वह अपने पैरों पर नहीं खड़ा हो सकता, स्वावलंबी नहीं बन सकता, मिथ्या मोह जाल में फँसा रहेगा। यदि यह भ्रांति दूर हो जाय तो वह कुछ हो सकता है, कुछ बन सकता है। यह भ्रांति तभी टूटेगी जब तुम स्पष्ट कह दो कि तुम उसे प्यार नहीं करतीं, तुम्हारा उससे कोई संबंध नहीं, वह इस भ्रम को दूर कर दे। वह तुम पर आश्रित है और तुम उसका एक मात्र सहारा हो, यह धारणा तुमने ही उसमें कूट-कूट कर भरी है। तुम्हारी स्पष्ट उक्ति तुम्हारा दो टूक उत्तर इस भ्रांति को दूर कर देगा। पर तुम उसे प्यार न करते हुए भी, उसे निकम्मा, निठल्ला, अधूरा, लिजलिजा बताते- कहते हुए भी यह नहीं कर पातीं, उसे दो टूक उत्तर नहीं देतीं, उसका परित्याग क्यों नहीं करतीं? कदाचित् इसलिए कि तुम्हें स्वयं पर पूरा भरोसा नहीं हैं। जिनसे तुमने संबंध बनाए थे, उन पर भरोसा नहीं हैं। तुम जानती हो कि तुम पुरुष के आश्रय के बिना नहीं रह सकतीं, कोई न कोई पुरुष तुम्हें चाहिए ही। साथ ही तुम्हारे मन में यह भी शंका है कि जो पुरुष तुम्हें आश्वासन देते हैं, आश्रय और सहायता का वचन दे रहे हैं, तुम्हारे लिए सब कुछ करने का यकीन दिला चुके हैं, वे धोखेबाज हो सकते हैं, झूठे हो सकते हैं, अपने वायदे से मुकर सकते हैं, तुम्हारी नौका को मँझधार में छोड़ सकते हैं। और यदि ऐसा हुआ तो तुम कहीं की न रहोगी। यही कारण है कि तुम महेन्द्र को त्यागने से हिचकती हो। तुमने उसे सेफ्टी वाल्व समझ रखा है। यदि तुम्हारे तथाकथित प्रेमियों ने तुम्हें छोड़ भी दिया तो कम से कम महेन्द्र तो तुम्हारी रक्षा, संरक्षण, भरण-पोषण के लिए रहेगा ही । अत: तुम अपने स्वार्थ के लिए अपनी सुरक्ष के लिए उसे प्यार न करते हुए भी, उसे घृणा करते हुए भी, उसे गालियाँ और अपशब्द कह कर भी, उसे त्याग नहीं पातीं।

तुम सोचती हो अकेली स्त्री इस समाज में असहाय है, यदि पति न हो तो समाज के भेड़िए नारी को फाड़ कर रखा जाएँ अतः उनसे बचने के लिए पति नाम का व्यक्ति होना ही चाहिए। तुम महेन्द्र की पत्नी कहलाती रहोगी और समाज तुम्हें सद्गृहिणी का सम्मान देता रहेगा, तुम्हारी और तिरछी आँख से देखने का साहस नहीं करेगा। यह तुम्हारा स्वार्थ है, तुम्हारी कुटिलता है। अतः सद्नारी बनकर यदि उससे प्रेम नहीं कर सकतीं, समझौता नहीं कर सकतीं, तो उसे मुक्ति दे दो। उसकी भ्रांति दूर हो जाएगी और वह कटु सत्य को पाकर अपना भविष्य बनने का प्रयास करेगा।

विशेष-

(1) जुनेजा द्वार सावित्री का असली रूप दिखया गया है कि वह त्रिया चरित्र रचने में बड़ी कुशल है। उसने एक ओर महेन्द्र को विश्वास दिला रखा है कि वही उसकी एकमात्र शुभ चिंतक है, सहारा है, उसके अतिरिक्त सब उसको उल्लू बनाते हैं। दूसरी ओर वह उसके विषय में अनर्गल बातें कहकर उसे निकम्मा बताकर दूसरे पुरुषों को अपनी ओर आकृष्ट कर अपने मायाजाल में फँसाना चाहती है।

(2) मोहन राकेश के भाषा के विषय में विचार बड़े खुले हैं। उन्हें किसी भाषा के शब्दों के प्रति न मोह है, न लगाव और न परहेज । यहाँ भी ‘नामुराद मोहरा’ का प्रयोग इसलिए किया गया है कि उससे अधिक अर्थीव्यंजना शक्ति किसी अन्य शब्द में नहीं हो सकती। हिन्दी के सामान्य दर्शकों के लिए यह जान पहचाना और सशक्त प्रयोग है।

वह कमजोर है, मगर इतना कमजोर नहीं है। तुमसे जुड़ा हुआ है, मगर इतना जुड़ा हुआ नहीं है, उतना बेसहारा भी नहीं है जितना वह अपने को समझता है। वह ठीक से देख सके तो एक पूरी दुनिया है उसके आसपास। मैं कोशिश करूँगा कि वह आँख खोलकर देख सके।

प्रसंग –

जुनेजा के विनयपूर्ण आग्रह पर भी जब सावित्री महेन्द्र को न तो अपनाने के लिए और न उसे मुक्त करने के लिए तैयार होती है और उलटे जुनेजा से कहती है कि सबका हित इसी में है कि जुनेजा महेन्द्र को अपने पास रखे। वह न महेन्द्र को अपने पस रखना चाहती है और न उसके पास जाना। सावित्री के इस दुराग्रह पर जुनेजा खीज उठता है और तैश में आकर कहता है

व्याख्या-

तुम बड़ी दम्भी औरत हो तुम्हें अपने पर बड़ा घमंड हैं तुम महेन्द्र से कोई संबंध नहीं रखना चाहती तो ठीक है महेन्द्र अब इस घर में पैर भी नहीं रखेगा। यह सच है कि वह कमजोर है, तुमसे प्यार करता है, तुम्हें अपना हितैषी समझ कर झुकता रहा है, तुम्हारी बहुत सी अनुचित बातें नजरअंदाज करता रहा है पर यह मत समझो कि वह तुमसे कटकर अलग रहकर जीवित ही नहीं रह सकेगा । महेन्द्र समझता है कि वह निराश्रित है, उसका कोई नहीं है पर यह उसका वहम है। वह तुमसे अलग रहकर भी जिन्दा रह सकता है; वह पूर्णत: निराश्रित भी नहीं हैं हम लोग उसे आश्रय देंगे, उसकी देखभाल करेंगे और दिखा देंगे कि वह तुम्हारे बिना भी इस घर के बाहर भी, परिवार से दूर रहकर भी जीवित हैं, सुखी है। कम से कम अपमान, वितृष्णा, अपशब्दों की उपेक्षा से तो बच जायेगा । हम उसे समझाएँगे कि वह सशक्त है, उसमें आत्मविश्वास पैदा करेंगे, उसे नये सिरे से सोचने तथा नये सिरे से काम करने की प्रेरणा देंगे और हो सकता है हम अपने कार्य में सफल भी हो जायें। उसका सोचने का, काम करने का, जिंदगी जीने का दृष्टिकोण बदल जाये! हम उसे बताएँगे कि उसकी दुनिया पत्नी तथा परिवार तक सीमित नहीं है। यह संसार बहुत बड़ा है, इसमें कार्य करने के अनेक अवसर हैं। सारा भविष्य खुला पड़ा है, आवश्यकता है केवल नजरिया बदलने की संकीर्णता से ऊपर उठकर व्यापक दृष्टि अपनाने की अपने को परिवार तक सीमित न समझकर वृहद् समाज में काम करने का उत्साह पैदा करने की। मैं पूरा प्रयास करूँगा कि मैं उसे उसकी अस्मिता से परिचित करा सकूँ, उसमें आत्मगौरव और आत्मविश्वास जगा सकूं और दिखा सकूं कि वह तुम पर निर्भर नहीं है और तुम्हारा यह भ्रम तोड़ सकूं कि वह तुम्हारे बिना जीवित ही नहीं रह सकता।

विशेष-

(1) महेन्द्रनाथ के चरित्र का उद्घाटन करने में जुनेजा का यह कथन सहायक है कि वह सावित्री को प्यार करता है, उस पर निर्भर भी है पर यदि उसमें आत्मविश्वास पैदा किया जाय तो वह आत्मनिर्भर हो सकता है।

(2) भाषा बड़ी सशक्त हैं ‘कमजोर है पर इतना कमजोर नहीं’ जैसे वाक्य अभिव्यक्ति को सशक्त बनाते हैं।

(3) जुनेजा के चरित्र पर भी प्रकाश पड़ता है कि वह मित्रता निभाने के लिए न सही, स्त्री का दंभ तोड़ने के लिए मित्र को सहयोग देगा।

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