कामायनी महाकाव्य का परिचय

कामायनी महाकाव्य का परिचय में बता दें कि इसको आधुनिक हिन्दी साहित्य का गौरवग्रन्थ माना गया है। यह रहस्यवाद का प्रथम महाकाव्य है। सृष्टि के रहस्य पर विवाद करने वाली दो मुख्य विचारधाराएँ हैं; एक भारतीय, दूसरी पाश्चात्य। पाश्चात्य विचार धारा जो डारविन के सिद्धान्त पर आधारित है। भारतीय विचार मनस्तत्व प्रधान है।

  • प्रकाशन वर्ष – 1935
  • कुल सर्ग – 15
  • सर्ग का क्रम – चिंता आशा श्रद्धा काम वासना लज्जा कर्म ईर्ष्या इडा स्वप्न संघर्ष निर्वेद दर्शन रहस्य आनंद
  • अंगीरस – शांत (निर्वेद)
  • मुख्य पात्र – मनु, श्रद्धा, इडा कुमार
  • मुख्य छंद –  ताटक
  • दर्शन – शैव
  • प्रतीक – मनु – मन, श्रद्धा – हृदय, इडा – बुद्धि,कुमार – मानव
  • सर्गों में विशेष छंद
  • आल्हा छंद – चिंता सर्ग आशा सर्ग स्वप्न सर्ग निर्वेद सर्ग
  • लावनी छंद – रहस्य सर्ग इडा सर्ग श्रद्धा सर्ग काम सर्ग लज्जा सर्ग
  • रोला छंद – संघर्ष सर्ग
  • सखी छंद – आनन्द सर्ग
  • रूपमाला छंद – वासना सर्ग
  • पुरस्कार – मंगलाप्रसाद पारितोषिक

विद्वानों की राय इस कृति पर

  1. “वर्तमान हिंदी कविता में दुर्लभ कृति” – हजारी प्रसाद द्विवेदी
  2. “विश्व साहित्य का आठवाँ काव्य ” – श्याम नारायण
  3. “आधुनिक हिंदी कविता का रामचरित मानस” – रामनाथ सुमन
  4. “विराट सामंजस्य की सनातन गाथा” – विश्वम्भरनाथ मानव
  5. “आर्ष ग्रन्थ” – डॉ. नागेन्द्र
  6. “आधुनिक हिंदी काव्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ” – शुक्ल जी
  7. “मधुरस से सिक्त महाकाव्य” – रामरतन भटनागर
  8. “मानवता का रसात्मक इतिहास” – नन्द दुलारे वाजपेयी
  9. “कामायनी समग्रता में समासोक्ति का विधान लक्षित करती है” – डा. नागेन्द्र
  10. “इसकी अन्तेर्योजना त्रुटिपूर्ण और समन्वित प्रभाव की दृष्टि से दोषपूर्ण है” – शुक्ल जी
  11. “छायावाद का उपनिषद” – शांतिप्रिय द्विवेदी
  12. “फंतासी कृति” – मुक्तिबोध
  13. “एक क्म्पोजीसन” – रामस्वरूप चतुर्वेदी
  14. “यह अपने आप में चिति का विराट वपु मंगल है – डॉ. बच्चन सिंह

कामायनी पर लिखे गये ग्रन्थ

  1. जयशंकर प्रसाद – नन्द दुलारे वाजपेयी
  2. कामायनी एक पुनर्विचार – मुक्तिबोध
  3. कामायनी का पुनर्मूल्यांकन – रामस्वरुप चतुर्वेदी

कामायनी की प्रथम पंक्तियाँ-

1. ’’तुम भूल गए पुरूषत्व मोह में, कुछ सत्ता है नारी की।’’

2. ’औरों को हँसते देख मनु, हँसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।’’

3. ’’नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघवन बीच गुलाबी रंग।।’’

4. ’’बीती विभाबरी जाग री, अंबर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नगरी।।’’

5. ’’बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से।
मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ है हीरो से।’’

6. ’’जो घनीभूत पीङा थी मस्तक में, स्मृति सी छाई।
दुर्दिन में आँसु बनकर, वह आज बरसने आई।।

7. ’’दोनों पथिक चले है कब से ऊँचे-ऊँचे, चढ़ते-बढ़ते’’
श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साह से बढ़ते-बढ़ते’’

8. ’’हिमगिरी के उंतुग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।’’

9. ’’ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा क्यों हो पूरी मन की।
एक दूसरे से न मिल सके, यह विडम्बना है जीवन की।।’’

10. ’’उधर गजरती सिंधु लहरियाँ, कुटिल काल के जालों सी।
चली आ रही फेन उगलती, फन फैलाए व्यालों सी।’’

11. ’’प्रकृति के यौवन का शृंगार, न करेंगे कभी बासी फूल।’’

12. ’’ओ चिन्ता की पहली रेखा, अरी विश्व वन की व्याली।’’

13. ’’नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पदतल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।।’’

14. ’’रो-रोकर, सिसक-सिसक कर, कहता मैं करूणा कहानी।
तुम सुमन नोचते सुनते, करते जानी अनजानी।’’

15. ’’इस करूण कलित हृदय में, अब विकल रागिनी बजती।
क्यों हाहाकार स्वरों में, वंदना असीम गरजती।।’’

कामायनी महाकाव्य का परिचय

डारविन का सिद्धांत जीव जन्तुओं के विकास क्रम को दर्शाता है। भारतीय विचार जहाँ मन को अवलम्बस्वरूप लेता है; और जड़ जगत को छोड़ देता है, वहाँ उस क्रम को जड़त्व में अध्यस्त मनुष्य नहीं समझ पाते हैं। सृष्टि तत्व का रूपक के रूप में पुराणों में वर्णन मिलता है, जहाँ कश्यप दिति और अदिति आदि की कथा है। इनमें ऐसा माना जाता है कि मनु से मानव की उत्पति हुई। सूक्ष्मातिसूक्ष्म घटनाओं तथा इतिहास, पुराणों, के साथ अन्य अनेक प्रसंगों से प्राप्त कथानुकूल वर्णनों से इस महाकाव्य की रचना की गयी है।

‘कामायनी’ का संक्षिप्त कथानक

‘कामायनी’ की कथा जलप्लावन से आरम्भ होकर आनन्द की स्थिति में पूरी होती है। देव सृष्टि का समस्त भोग विलास एक स्वप्न की भाँति विलीन हो गया। यह महाकाव्य पंद्रह सर्गों में विभक्त है। प्रत्येक सर्ग अपने नाम के अनुसार औचित्य पूर्ण तथा सार्थक भी है। हर सर्ग का नामकरण उसमें वर्णित घटनाओं के आधार पर ही किया गया है।

देवों के उन्मुक्त भोग-विलास से विक्षुब्ध विराट सत्ता की प्रेरणा से होने वाली विध्वंस लीला को देखकर मनु चिंतित है। इसके बाद निराश मनु के हृदय में आशा का संचार, उनका गंधर्व कुमारी श्रद्धा से सम्मिलन, श्रद्ध आत्म-समर्पण, श्रद्धा द्वारा मनु को कर्म की प्रेरणा देना, दोनों का कुछ समय तक साथ रहना, मनु द्वारा श्रद्धा का परित्याग एवं सारस्वत प्रदेश में प्रवेश, मनु की इड़ा से भेंट एवं सारस्वत नगर की पुर्नस्थापना, मनु का इड़ा से अनैतिक सम्बंध स्थापित करने का प्रयत्न परिणामस्वरूप जनसंघर्ष और मनु का मूर्छित होना आदि प्रसंग आते हैं। फिर श्रद्धा का स्वप्न देखकर मनु की खोज में निकलना और उन्हें समझाना, मनु का पुनः श्रद्धा का त्याग कर सारस्वत प्रदेश से चले जाना, श्रद्धा का उनकी खोज में जाना तथा उनके द्वारा कैलाश पर पहुँचकर शिव-दर्शन कर बुद्धि से मुक्त होकर सामरस्य की दशा में अखण्ड आनन्द की प्राप्ति घटनाओं से ‘कामायनी’ का कथानक गूंथा गया है। ‘कामायनी’ कथा प्रधान महाकाव्य नहीं है।

‘कामायनी की आधिकारिक कथा


विद्वानों ने प्रतिपाद्य वस्तु को दो भागों में विभक्त किया है; आधिकारिक एवं प्रासंगिक।

आधिकारिक कथा के अन्तर्गत मुख्य कथा आती है। उसकी सहायक कथाएं प्रासांगिक कथाएं कहलाती हैं। ‘कामायनी’ का आधिकारिक कथानक ऐतिहासिक एवं पौराणिक घटनाओं पर आधारित है। वह मानव विकास की कहानी भी है।

‘कामायनी’ में कुल 15 सर्ग हैं:-

  • चिंता सर्ग 
  • आशा सर्ग
  • श्रद्धा सर्ग 
  • काम सर्ग
  • वासना सर्ग
  • लज्जा सर्ग 
  • कर्म सर्ग
  • ईर्ष्या सर्ग 
  • 9. इड़ा सर्ग 
  • 10. स्वप्न
  • 11.संघर्ष
  • 12. निर्वेद
  • 13. दर्शन
  • 14. रहस्य तथा
  • 15. आनन्द ।

कामायनी के चिंता सर्ग

चिंता- ‘कामायनी’ की कहानी का इसी सर्ग से प्रारम्भ होता है। वैदिक काल में महाप्रलय हुआ था। भयंकर प्रलय के पश्चात् समस्त सृष्टि का विनाश हो चुका था। इस महाप्रलय में केवल वैवस्वत मनु बच पाये थे। मनु पहाड़ी प्रांत में अकेले निराश जीवन व्यतीत कर रहे थे। उन्हें उन देवों की याद आती है; जो मदोन्मत्त हो विलासिता के नद में तैरते रहते थे। वह स्वयं इन देवों के नेता बने भूले हुए थे।

आज दुर्जेय प्रकृति ने बदला ले लिया। देव सृष्टि ध्वंस हो गयी है। सब कुछ स्वप्नवत् शून्य था। आत्म–विस्मृति के कारण सृष्टि विश्रृंखल हो रही थी। इससे आपदाओं का जन्म हो रहा था। मनु सोचते हैं : ‘आज सुर बालाओं का वह मधुर श्रृंगार कहा है ? उसकी ऊषा-सी मुस्कुराहट और मधुपों-सा निर्द्वन्द्व विहार आज कहाँ गया ? वासना की उद्वेलित सरिता कहाँ सूख गयी ? चिर-किशोर तथा नित्य विलासी देवों का मधुपूर्ण बसन्त आज कहाँ तिरोहित हो गया ?’ सारी सृष्टि भय से विकल थी।

समुद्र के जीव विकल होकर छटपटा रहे थे; जैसे सिंधु को अन्दर से कोई मथ रहा हो। कहीं कुछ दिखाई न देता था। चारों ओर जल ही जल था। किसी महामत्स्य ने नाव को एक धक्का दिया। उसी धक्के के कारण नाव बहकर उत्तर गिरि के शिखर से टकरायी और देव सृष्टि के ध्वंसावशेष मनु ने उस शिखर पर आश्रय लिया। चिंता करते-करते मनु शिथिल एवं सषुप्त हो जाते हैं। चिंता एवं निराशा की निन्द्रा बीत जाती है.

कामायनी के आशा सर्ग

सूर्योदय के साथ आशा का उदय होता है। पराजित काल रात्रि समाप्त हो जाती है और विजय लक्ष्मी-सी सुनहलनी उषा प्रकट होती है। त्रस्त प्रकृति के विवर्ण मुख पर फिर हँसी आई थी। हिम-जटिल शिखर कोमल आलोक में चमक रहे थे।

धूप के कारण हिम, गलता है और जल से धुली वनस्पतियाँ दिखाई देने लगती हैं, मानों समस्त प्रकृति सोने के बाद उठकर प्रबुद्ध हो रही हो। पर अब भी पृथ्वी का थोड़ा ही भाग जल से बाहर हुआ था। उस सुन्दर प्राकृतिक एकान्त में धीरे-धीरे का मस्तिष्क सजग हुआ। जिज्ञासा जाग्रत हुई कि ये सूर्य, चंद्र, पवन, वरूण आदि किसके शासन में अपना कार्य कर रहे हैं?

किसके क्रोध में प्रकृति के ये शक्ति चिन्ह निर्बल पड़ गये हैं? वह कौन सी शक्ति हैं, जिसके अस्तित्व को सब मौन होकर स्वीकार करते हैं। धीरे-धीरे उनके मन में आशा का उदय होता है। अपने अस्तित्व की भावना को उत्तेजन मिलता है। जीवन का प्रवाह तो रूकने वाला नहीं। तब मनु उठते हैं और जीवन के इस शाश्वत सत्य को स्वीकार करते हुए तप में अपना जीवन लगाते हैं।

देव यज्ञ चलता है और सुर संस्कृति का एक छोटा संस्करण फिर उठ खड़ा होता है। एकान्त में मन घबरा उठता है। मनु कुछ भूली-सी चीज खोजने लगते हैं; जो युग-युग से उनके जीवन से सम्बद्ध है। इस प्रकार जीवन की आशा जगती है।

कामायनी के श्रद्धा सर्ग

जब मनु चिंतित और किसी के प्रति अन्तः पिपासा से विकल थे, तभी सामने से एक नारी कण्ठ से निकला मधुर प्रश्न सुनाई पड़ता है- ‘अरे संसार-समुद्र के इस तट पर तरंगों से फेंकी हुई मणि की भाँति तुम कौन हो?’ हृदय एक मधुर रस से भर गया।

सामने देखते हैं तो गान्धार देश के मुलायम भेड़ों के चर्म से ढकी हुई एक सुन्दर बाला खड़ी है। मनु ने पूछा कि, तुम कौन हो ? उसके प्रत्युत्तर में बाला कहती है कि:-“मैं ललित कलाओं को सीखने की उत्सुकता वश इधर-उधर घूमा करती थी।

मन में कुतुहल जाग्रत था और वह हृदय से सुन्दर सत्य को खोज रही थी। घूमती हुई हिमगिरि पर पहुँच गयी और धीरे-धीरे पैर ऊपर बढ़ते गये, तथा शैलमालाओं यह श्रृंगार देखकर आखों की भूख मिट गई। मैं यहीं रहने लगी।

एक दिन अपार सिन्धु उमड़कर पहाड़ से टकराने लगा और यह अकेला जीवन निरूपाय ही बच गया। इधर से निकलते हुए आज मैंने यहाँ बलि का कुछ अन्न देखा तो, जीवों के कल्याण की चिन्ता में रत यह दान देख कर समझी कि अभी कोई प्राणी जीवित बचा है। हे तपस्वी तुम इतने थके, इतने व्यथित और इतने हताश क्यों हो रहे हो? क्योंकि-

“दुःख की पिछली रजनी बीच विकसता सुख का नवल प्रभात;

एक परदा यह झीना नील छुपाये जिसमें सुख गात”

(श्रद्धा सर्ग पृ 0 20 )

मनु विषाद के साथ बोले- “तुम्हारी ये बातें मन में उत्साह की तरंगें उत्पन्न करती हैं, किन्तु जीवन कितना निरुपाय है ? श्रद्धा के बहुत स्नेह से जीवन की महत्ता एवं प्रकृति के नियम के बारे में समझाने से मनु जीवन के प्रति आशावान हो जाते हैं। इसी श्रद्धा को ‘कामायनी भी कहा गया है; जो रति-पति काम की पुत्री है।

कामायनी के काम सर्ग

काम- श्रद्धा के मिलने के पश्चात् मनु के मन में आकर्षण का भाव उत्पन्न होता है। मनु के मस्तिष्क में अनेक प्रकार के भाव उद्वेलित होते हैं। एकाएक मनु निराश हो जाते हैं। मन की बात रूक जाती है पर अभिलाषा की प्रगति नहीं रुकती है।

मनु का मन श्रद्धा की ओर आकर्षित होता चला जाता है। वह अपनी इन्द्रियों को काबू करने में असमर्थ पाते हैं। उन्हें सपने में एकाएक काम के शब्द सुनाई पड़ते हैं कि, “संसार में अमला आई है। अमला (श्रद्धा) काम-रति की सन्तान है।

यह सर्वगुणी युवती है, जड़ चेतन की गाँठ है, भूलों का परिमार्जन है तथा उष्ण विचारों की शीतलता है। उसे पाने की इच्छा रखते हो तो उस योग्य बनो।” यह शब्द सुनकर मनु की आँखें खुल जाती हैं। तब तक अरूणोदय हो रहा था।

कामायनी के वासना सर्ग

मनु का हृदय राग-विराग का संघर्ष स्थल बना हुआ है। इधर श्रद्धा व मनु एक साथ रह रहे हैं। श्रद्धा मनु की सहयोगिनी है तथा मनु की अतिथि भी। वह मनु के आश्रय में रहती है। एक गृहपति दूसरा विकारहीन अतिथि है।

पहला प्रश्न तो दूसरा उसका उदार उत्तर। एक समर्पण में ग्रहण का भाव है, दूसरा प्रगति, जिसमें बाधा उपस्थित है। अभी तक दोनों की जीवन-क्रीड़ा अपने-अपने सूने मार्गों पर चली जा रही थी। दोनों अपरिचित से थे, पर नियति दोनों में मेल चाहती थी। दोनों रोज मिलते-जुलते थे, पर अब भी मानो कुछ बच रहा था, जिसमें हृदय का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ था।

दर क्षितिज पर रक्त गोलक-सा सूर्य डूब रहा संध्या का समय था। मनु ध्यान लगाने की कोशिश करते थे, परन्तु कानों में ‘काम’ के शब्द गूंजते थे। श्रद्धा पशु-पक्षियों से अति प्रेम करती है। एक चपल बाल पशु उसके साथ फुदकता हुआ उससे प्रेम जताता है। श्रद्धा उसे प्रेम से सहलाती है। इस पर मनु को ईर्ष्या होती है कि, ये दोनों प्राणी मेरे अन्न से मेरे घर में पल रहे हैं। मेरे हृदय का समस्त धन छीनकर ये दस्यु (चोर) निर्बाध सुख भोगना चाहते हैं। उसी बीच श्रद्धा मनु के पास आकर मृदुरवर में पूछती है कि, तुम किस प्रकार का ध्यान लगाये बैठे हो ?

मन कहीं, तन कहीं, आँखें कहीं और देखती हैं ? कान कहीं और सुनते हैं ? हे ! तपस्वी तुम अभी तक ध्यान लगाये बैठे हो ? मनु श्रद्धा को पाने हेतु उद्विग्न है, पर श्रद्धा स्वयं को अतिथि कह कर पीछे हटा लेती है, फिर भी नारी हृदय इतना कठोर नहीं होता कि वह पुरूष का प्रेम प्रस्ताव अधिक समय तक टुकरा पाये। वह भी ऐसे समय; जब कि उन दो प्राणियों के अतिरिक्त संसार में कोई न बचा हो।

कामायनी के लज्जा सर्ग

पुरूष के कोमल स्पर्श एवं उपचार से जब अतिथि का चिरन्तन, पर दबा हुआ नारीत्व ऊपर उभर आता है और उसमें समर्पण की वाणी मुखरित होना चाहती है तब नारी की मानस सखी सी लज्जा प्रकट होती है।

श्रद्धा उससे पूछती है : ‘अपनी बाँहें फैलाये और आलिंगन का जादू पढ़ती हुई-सी तुम कौन हो ? न जाने किन-किन इन्द्रजाल के फूलों से राग भरे हुए सुहाग कण लेकर तुम सिर नीचा किए हुए माला गूंथ रही हो, जिससे मधु की धार बह उठे। तुम अन्तर में खिले हुए कदम्बों की माला-सी कोई चीज पहना देती हो, जिससे मन की डाली अपनी फल भरता के डर से झुक जाती है।

नीली किरणों से बुना हुआ सुरभि में सना वह हलका सा आँचल तुम वरदान के समान मुझ पर डाल रही हो। तुम्हारे कारण मेरे सारे अंग मोम के हो जाते हैं। कोमल होकर में बल खा रही हूँ और अपने में ही सिमट सी रही हूँ। तुम्हारे कारण तरल हँसी केवल एक मुसकुराहट बन जाती है। नयनों में एक बॉकापन आ जाता है और जो कुछ सामने देखती हूँ वह सब भी सपना हुआ जाता है।

आज जब मेरे सपनों में सुख और कलरव का संसार पैदा हो रहा है और अनुराग की वायु पर तैरता इतराता-सा डोल रहा है, जब अभिलाषा अपने यौवन में उस मुख के स्वागत को उठती है और दूर से आये हुऐ को जीवन भर के बल वैभव का उपहार देकर उसका सत्कार करना चाहती है, तब तुमने यह क्या कर दिया ? इस समय यह छूने में हिचक क्यों है ?

देखने में पलकें आखों पर क्यों झुक पड़ती हैं ? कलरव परिहास की गूंज होंठों तक आकर रुक जाती है। मेरे हृदय की परवशता! तुम कौन हो जो मेरी स्वतंत्रता छीन रही हो? और जीवन वन में खिलते स्वच्छन्द पुष्पों को चुनती जा रही हो?”

तब श्रद्धा रूपी नारी के प्रश्नों का छाया रूपी प्रतिमा (लज्जा) ने यों उत्तर दिया-‘बोले! इतना मत चौंक, अपने मन का उपचार कर। मैं एक पकड़ हूँ, जो कहती है कि ठहर और सोच विचार ले। मैं गौरव की महिमा खिलखिलाती और जो ठोकर लगने वाली है, उसे धीरे से समझाती हूँ। मैं देवसृष्टि की रति हूँ जो अपने पति कामदेव के वियोग के कारण अतृप्ति-सी दीन हो रही हूँ।

मैं उसी रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ। मैं मतवाली हो रही सुन्दरता के पग में नुपुर सी लिपटकर उसे मनाती हूँ, और शालीनता सिखाती हूँ, मैं सरल कपोलों की लाली बन जाती हूँ, और आखों में अंजन सी लगती हूँ। मैं सौन्दर्य के चंचल कैशोर्य की रखवाली करती हूँ। श्रद्धा पुनः लज्जा से पूछती है कि, मेरे जीवन का रास्ता क्या है ? मुझमें विश्वास-रूपी वृक्ष की छाया में सर्वस्व समर्पण करके चुपचाप पड़ी रहने की ममता क्यों जाग्रत होती है ? मैं मानस की इस गहराई में निस्संबल होकर तिर रही हूँ और इन स्वप्नों से जागना नहीं चाहती। मैं क्या करूँ ?

इस अर्पण में केवल उत्सर्ग का भाव है, मैं क्या दे दूँ और फिर कुछ न लूँ ?”लज्जा कहती है- तुम तो अपने सोने-से सपने पहले ही दान कर चुकी हो। अब तुमको आँसू से भीगे आँचल पर यह संधिपत्र लिखना होगा-

“नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पगतल में,

पियूष-श्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।”

(लज्जा सर्ग पृ043)

कामायनी के कर्म सर्ग

मनु फिर कर्म की ओर प्रेरित हुए। यज्ञ की पुकार के कारण वह स्थिर न रह सके। कान में ‘काम’ की कही बातें भरी थी मन में नयी अभिलाषा भर रही थी। मनु विलासी एवं अहं की प्रवृति वाला है। श्रद्धा के उत्साह से भरे हुए वचन और काम की प्रेरणा दोनों ही मिल जाने से उन्होंने उसकी बातों का भिन्न अर्थ निकाला।

वस्तुतः सिद्धान्त पहले बन जाता है फिर बुद्धि के सहारे उसकी पुष्टि हुआ करती है। मन जब अपना कोई मत निश्चित कर लेता है तब बुद्धि के बल से उसे प्रमाणित करता रहता है। फिर सभी जगह वही प्रतीत होता है जो हमारा मस्तिष्क चाहता है या जो उसमें छवि बन चुकी होती है। तर्कशास्त्र की सीढ़ी सदा उसी का समर्थन करती है और कहती है-“यही सत्य है, यही उन्नति और सुख की सीढ़ी है। उस जल प्लावन से इन दोनों के अतिरिक्त असुर पुरोहित किलात तथा आकुलि भी बच गये थे।

मनु के यहाँ बँधे पशु को देखकर उनकी आमिष-लोलुप रसना से जिह्वा में पानी भर आया करता था। दोनों ने पशु को खाने की नीयत से उपाय सोचा कि किस प्रकार मनु को वश में करके पशु हासिल किया जाय ? दोनों यह विचार करके उस कुंज द्वार पर आये जहाँ मनु सोच रहे थे कि -“कर्मयज्ञ से जीवन के स्वप्नों का स्वर्ग मिलेगा, पर पुरोहित कौन बनेगा ? किस विधि से यज्ञ होगा? यह मार्ग किस ओर जाता है ?” इसी समय दोनों असुर पुरोहितों ने गम्भीर मुद्रा में कहा – जिनके लिये यज्ञ होगा, हम पुरोहित की आशा में तुमने कितने कष्ट सहे हैं ? चलो, आज फिर वेदी पर ज्वाला की फेरी हो।” मनु दोनों असुर पुरोहितों की बातें सुनकर प्रसन्न हो गये।

हम मनु को अपने वश में करने में सक्षम हो गये; यह सोचकर उन दोनों दैत्य पुरोहितों का मन नाच उठा। यज्ञ समाप्त हुआ। पैशाचिक आनन्द का दारूण दृश्य था। चारों ओर पशु के रक्त के छींटे पड़े थे, हड्डियाँ बिखरी हुई थीं, सोमपात्र भरे हुए थे, परन्तु श्रद्धा वहाँ नहीं थी। मनु को इस बात का आभास अवश्य था कि, श्रद्धा के प्रिय पशु की बलि देकर उसने निश्चित ही घोर पाप किया, जिस कारण उसे श्रद्धा के क्रोध का तथा उसके रूठ जाने का भय परेशान कर रहा था। दुःखी श्रद्धा अपने सोने की गुफा में लौटकर आई।

उसमें विरक्ति भरी थी। वह मन ही मन विलख रही थी। जलती लकड़ी से मध्यम प्रकाश होता था, किन्तु वह लकड़ी भी ठंडी हवा के झोंके से कभी बुझ जाती थी और कभी उसी के सहारे जल जाती थी। ‘कामायनी’ (श्रद्धा) कोमल चर्म बिछाकर उसी पर पड़ी हुई थी, मानो श्रम मृदु आलस्य को पाकर विश्राम कर रहा हो। धीरे-धीरे तारे खिल रहे थे, और चाँद निकल रहा था रात्रि अपनी चाँदनी का आँचल पसार रही थी।

ऊँचे शैल शिखरों पर चंचला प्रकृतिबाला हँसती थी। जीवन की उड़ान की लालसा में लज्जा उलझी हुई थी। एक तीव्र उन्माद और मन-मथने वाली पीड़ा थी। हृदय में मधुर विरक्ति से भरी आकुलता थी। फिर भी मन में स्नेह का अर्न्तदाह होता था। वे असहाय आँखें कभी मुँदती थी और कमी खुलतीं थीं। आज उनका स्नेह स्पष्टतः कुटिल कटुता में खड़ा था। बहुत कुछ भला-बुरा सोचने के बाद श्रद्धा लेट जाती है। जब ‘कामायनी’ यह सोचते हुए लौट जाती है तो मनु काम वासना से परिपूर्ण सोमपान कर रहे होते हैं।

सोमपान करने के उपरान्त वासना और भी जाग उठी। अब भला मनु को वहाँ आने से कौन रोक सकता था ? ‘कामायनी’ की खुली कोमल भुजाएँ उनको आमन्त्रण देती प्रतीत होती थी। यद्यपि ‘कामायनी’ सो रही थी तथापि सौन्दर्य जाग्रत था। मनु अनुनय भरी वाणी से बोलते हैं- “अरे यह मानवती की कैसी माया है ? मैंने जो स्वर्ग बनाया है उसे यों विफल न बनाओ, अप्सरे! उस अतीत का नूतन गान सुनाओ।

इस समय इस निर्जन में हम व तुम दोनों हैं, दूसरा कोई नहीं।… यह आकर्षण से भरा हुआ विश्व केवल हमारा भाग्य है। है। वासना की धारा बहने दो…. यह मधु मिश्रित सोम लो पिओ और हम नशे के पालने पर झूलें। श्रद्धा निद्रा से उठ सहज भाव से बोली। मनु, तुम क्या कहते हो? तुम्हारा मन बदलता रहता है। आज किसी भाव की धारा में बहते हो कल ही यदि उसमें परिवर्तन हो जाय तो फिर कौन बचेगा ?

तब शायद कोई नया साथी बनकर यज्ञ रचेगा। फिर किसी निरीह प्राणी की बलि दी जायेगी। क्या उनके कुछ अधिकार नहीं हैं? मनु, क्या यही तुम्हारी उज्ज्वल नवीन मानवता होगी जिसका उद्देश्य सब कुछ ले लेना ही है?” मनु बोले- “श्रद्धे! अपना सुख भी तुच्छ नहीं है। वह भी कुछ है। यदि हमारी कामनाएँ पूरी न हों तो कर्म प्रयास व्यर्थ हैं।” श्रद्धा इसे भीषण स्वार्थ का नाम देती है।

वह कहती है कि, यह अपना ही नाश कर देगा। “मनु औरों को हँसते देख हँसना और सुख पाना, यों अपने सुख को विस्तृत कर लो और सब को सुखी बनाओ। यज्ञ पुरूष की जो यह रचना मूलक सृष्टि-यज्ञ है, उसमें संस्कृति की सेवा का हमारा हिस्सा उसी के विकास के लिए है। सुख को सीमित कर लिया जाय तो तुम में दुःख ही बच जायेगा।

तुम्हें अकेलेपन में क्या सुख मिलेगा ? इससे दूसरों के हृदय-पुष्प क्यों कर खिलेंगे ? बातें करते-करते हृदय उत्तेजित हो रहा था और मन की ज्वाला सहते हुए श्रद्धा के अधर सूख रहे थे। उधर सोमपात्र लिए मनु उचित अवसर देखकर अनुनय विनय कर सोमपात्र मुँह पर लगा देते हैं और अग्नि बुझ जाती है।

कामायनी के ईर्ष्या सर्ग

श्रद्धा की उस क्षण भर की चंचलता ने हृदय पर अपने अधिकार को खो दिया। अब मनु को शिकार के अतिरिक्त और कोई काम न रह गया था। उस दिन की हिंसा के बाद उनके मुँह में खून लग गया था। अब उनका मन केवल हिंसा ही नहीं, और कुछ भी खोजने लगा था। मनु को श्रद्धा का सरल विनोद अब अच्छा नहीं लगता था। लालसाएं उठती व शांत हो जातीं।

मनु नियमानुसार शिकार खेल कर लौटे थे। सामने ही गुफा द्वार दिखाई पड़ रहा था पर और आगे बढ़ने की इच्छा नहीं होती थी। मरा मृग नीचे डाल कर धुनष-बाण इत्यादि भी अलग कर दिया और शिथिल शरीर मनु बैठ गये। उधर कामायनी मनु के बारे में चिंतित थी कि, “पश्चिम में संध्या की ललाई अब काली हो चली है पर वह अहेरी अब तक नहीं आये। क्या चंचल जन्तु उनको दूर ले गया ?” यही सोचते-सोचते वह विचलित हो रही थी। वह माँ बनने वाली थी, इसीलिए ऊन कात कर अपने होने वाले शिशु हेतु मुलायम काले ऊनों का कोई वस्त्र बना रही थी। मुँह पीला, आँखों में आलस भरा स्नेह था, शरीर कुछ दुबला था, और उसमें लज्जा बढ़ गयी थी।

स्तन मातृत्व के बोझ से झुके थे। अन्दर गर्भ में मधुर पीड़ा हो रही थी जिसे माता ही अनुभव करती है। भावी जननी का सरल गर्व माथे पर श्रमबिन्दु-सा झलक रहा था। महापर्व (प्रसव का समय) निकट था। मनु को देख मुस्करा कर मीठे स्वर में बोली, “तुम दिन भर कहाँ थे ? क्या तुम्हें हिंसा इतनी प्यारी है कि देह, गेह, सब भूल जाते हो ? मैं यहाँ अकेली बैठी रास्ता देख रही हूँ,पैरों की आहट की ओर कान लगाये हुए हूँ,कि कब तुम आओ पर तुम अशान्त होकर मृग पीछे घूम रहे हो और इतनी शाम तक तुम घूमते रहते हो, जबकि पशु-पक्षी सभी अपने-अपने घरों को वापस आ चुके हैं। सब कुछ होते हुए भी तुम दूसरों के द्वार को जाते हो।”

परन्तु मनु को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था। वह श्रद्धा से कहते हैं कि, “तुम्हें किसी बात की कमी नहीं है, मुझे अभाव का अनुभव होता है। मनु श्रद्धा को अपने कार्यों (हिंसा) का औचित्य तर्क देकर समझाते है कि तुम, जो कार्य करती हो, उसमें तुम्हारा सुख है, मैं जो कार्य करता हूँ उसमें मेरा सुख है, इसलिये मेरा काम गलत क्यों है ? श्रद्धा मनु को फिर हिंसा न करने को कहती है : “यदि कोई हिंसक प्राणी तुम पर हमला करे और तुम अपनी रक्षा में उस पर अस्त्र चला दो तो मैं इसे कुछ समझ सकती हूँ।

यदि हमारा कार्य निरीह जीवों को पाल-पोस कर बिना उन्हें हानि पहुँचाए चल जाता है तो ये हिंसा क्यों ? उनके ऊन से हमारा काम चलता है, हम उनका दूध पीकर जीवित रह सकते हैं। जिनको लाभ से पाला जा सकता है तो उनके साथ द्रोह क्यों ? हम पशु से ऊँचे हैं तो हमें संसार सागर में सेतु-सा बन्धन बन जाना चाहिये। श्रद्धा अहिंसावादी है, मनु हिंसावादी है। मनु की हिंसक प्रवृत्ति ही उसे ईर्ष्यालु बना देती है। वाद-विवाद होने के पश्चात् मनु क्रोधित हो जाते हैं। मनु का अहंकार ईर्ष्या को जन्म देता है, वे पलायन कर जाते हैं। श्रद्धा कहती रह जाती है कि “ओ निर्मोही! रूक जा, सुन ले !

कामायनी इड़ा सर्ग

इडा- श्रद्धा को छोड़ने के पश्चात् मनु अपरिभाषित सुख की खोज में वन-वन डोलते हैं। घूमते-घूमते वे एक उजड़े नगर प्रान्त में पहुँचे। पास ही वेग भरी सरस्वती बह रही थी। काली रात निस्तब्ध थी। नक्षत्र वसुधा की गति को एकटक देख रहे थे। प्रलय की स्मृतियाँ मनु के दुःख को दूना कर रही थी, और चारोंओर सारस्वत प्रदेश थका सा पड़ा था। मनु को याद आने लगा कि जब जीवन के नये विचारों को लेकर सुरों-असुरों का द्वन्द्व चल रहा था, तब असुरों में भी प्राणों की पूजा-आत्मपूजा का प्रचार होता था।

एक तरफ आत्म-विश्वास से भरा हुआ सुर वर्ग पुकार कर कह रहा था, “हम स्वयं सतत् अराध्य हैं; आत्म मंगल की उपासना में विभोर शक्ति के केन्द्र हैं, फिर हम और किसकी शरण खोजें ? उधर असुर प्राणों की सुख साधना में व्यस्त रहते थे। एक दीन देह को पूजता था, दूसरा अपूर्व अहम्ता अहंकार में अपने को प्रवीण समझा रहा था, दोनों ही विश्वास हीन थे। “स्वयं को वे श्रद्धा विहीन जान उदास हो गये।

तभी उनके कानों में ‘काम’ की ध्वनि सुनायी पड़ी कि ‘मनु तुम श्रद्धा को भूल गये ? तुमने उस पूर्ण आत्म-विश्वासमयी को रूई सा हल्का समझ उड़ा दिया। तुमने समझा कि असत् विश्व जीवन के धागे से झूल रहा है और जो समय अपने सुखों के साधन में बीते वही सत्य व वास्तविक है। तुमने वासना की तृप्ति को स्वर्ग मान लिया, स्त्री को केवल भोग की वस्तु मानकर नारी का अपमान किया है।

पुरूषत्व के मोह तथा अहंकार के कारण नारी की भी कुछ सत्ता है इसे तुम भूल गये।” यह वाणी मनु को शूल के समान चुभ रही थी। वे सोचने लगे कि काम के ही कारण मैं इस भ्रम जाल में फंसा था; जिससे मेरी सारी सुख शान्ति छिन गयी है। मनु के अन्दर अंर्तद्धन्द चल रहा था कि आज तक मैंने जो कुछ भी किया वह सब क्या गलत था ? क्या मैं ही दोषी हूँ? मैं श्रद्धा को पाने की लालसा रखता था। उसे पा लेने पर भी मैं तृप्त क्यों नहीं हुआ ? मैं क्यों अधूरा ही रहा गया ? पुनः मनु को काम की ध्वनि सुनाई पड़ती है।

मनु द्वारा श्रद्धा को दुत्कार कर छोड़ आने पर काम मनु को बहुत भला-बुरा कहता है। वह पूरी गलती मनु की ही मानता है। मनु अपनी गलती स्वीकार नहीं करता है। उनमें व्यर्थ का अहंकार भरा है; जो उनके पुरूषत्व पर हावी है। यही कारण है कि श्रद्धा के सरल प्रेम से भरे हृदय को मनु ठुकरा कर आ जाता है। काम उसे शाप देता है कि अब तुम्हारा मस्तिष्क हृदय के विरूद्ध हो, दोनों में सद्भाव न हो, जब मस्तिष्क एक जगह चलने को कहे तब हृदय दूसरी ओर चलने लगे। तुम्हारा वर्तमान जीवन रोकर बीत जाये और अतीत एक सुन्दर सपना बन जाये।

यही सब बातें सोचते-विचारते सूर्योदय हो जाता है। उसी समय वहाँ नवीन चित्र-सी एक सुन्दर बाला प्रकट हुई जो अत्यन्त सुन्दर और कोमल कमलों की माला-सी, अपूर्व सुन्दरता फैलाने वाली थी। उसकी अलकें तर्क-जाल की भाँति विखरी हुई थीं। उसके एक हाथ में कर्म कलश था तथा दूसरे हाथ से उसने विचारों के नभ को अवलम्बन दिया था। उसके चरणों में ताल से भरी गति थी। मनु उससे उसका परिचय पूछते हैं। वह अपना नाम इडा बताती है । परिचय के पश्चात् इड़ा ने कहा कि “यह मेरा सारस्वत प्रदेश है, जो अब उजड़ चुका है।

मैं यहाँ इस आशा में पड़ी हूँ कि कोई आकर इसके पुर्ननिर्माण में मेरी सहायता करे। मनु संसार को नश्वर बताकर इड़ा को समझाते हैं कि मनुष्य मूखों की तरह इस नाशवान जगत को सृष्टि समझ बैठता है। इड़ा ने मनु को सांत्वना देते हुए कहा कि मनुष्य को सुख की प्राप्ति के लिए अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिए। जो स्वयं अपना विकास करने के लिये कटिबद्ध है उसे कोई भी नहीं रोक सकता।

इड़ा मनु से सारस्वत प्रदेश का शासन सूत्र सम्भालने और अपनी बुद्धि के अनुसार कार्य करने को कहती है। इड़ा की प्रेरणादायिनी वाणी सुनकर मनु के हृदय में नूतन स्फूर्ति का संचार हुआ। वे कर्म में लीन हो गये। उन्होंने सारस्वत नगर के पुर्नर्निमाण का कार्य अपने हाथों में ले लिया।

कामायनी स्वप्न सर्ग

‘कामायनी’ मनु की प्रतीक्षा में अत्यन्त दुःखी हो गयी थी। वह अपने मन को कड़ा करके दुःख सहती जा रही थी। उसका जीवन सूना होने के साथ-साथ उसका वह अनुपम सौन्दर्य भी फीका पड़ गया था। विरह की अग्नि में उसे प्रकृति का सम्पूर्ण सौन्दर्य भी कष्टकारी लगता था। रह-रह कर उसे विगत सुखद स्मृतियाँ व्याकुल कर रहीं थीं। असह्य दुःख सहने के बाद भी श्रद्धा स्वयं को पराजित भी नहीं समझती है।

“कुछ दिन जो हँसते से आये थे और अपने साथ फूलों-सी खुशियों और भौरों-सा गुंजन लाये थे मैं उन पलों को भूलती जा रही हूँ।” श्रद्धा की इन बातों से प्रतीत होता है कि, वह विषम परिस्थितियों में भी जीना सीख लेती है। श्रद्धा का पुत्र भी जन्म ले चुका था। वह भी अभी तक खेल कर वापस नहीं आया था। श्रद्धा चिंतित थी कि कहीं वह भी पिता की तरह छोड़कर न चला जाय।

‘कामायनी’ इन विचारों में डूबी हुई थी कि, दूर से एक आवाज आई ‘माँ’ और सूनी कुटिया गूंज उठी। माँ उत्कण्ठा से भरउठी, और दौड़ी। धूल से सनी बाहों से वह माँ पर लिपट गया। माँ ने पूछा – ‘नटखट, तू मेरे भाग्य-सा कहाँ फिर रहा था ?’ ‘ऐ पिता के प्रतिनिधि ! तूने भी खूब सुख दिया। तू चंचल जंगली जानवर-सा चौकड़ी भरता फिरता है। मैं तेरे रूठने के डर से तुझे मना नहीं करती हूँ।” माँ की वात्सल्यपूर्ण बातें सुनकर मानव ने कहा यह बात कितनी अच्छी होगी कि मैं बार-बार रूढू और तू मुझे बार-बार मनाये। अच्छा अब मैं जाकर सोता हूँ।”

इस प्रकार ‘कामायनी’ वात्सल्य प्रेम में अपना दुःख भूल उसके सुख का अनुभव करती है। इधर इड़ा आग की ज्वाला के समान उल्लास से भरी हुई जल रही थी और मनु का पथ आलोकित कर रही थी। जनता ने भी खूब श्रम किया। मनु के परिश्रम से सुन्दर सारस्वत नगर बसा ……आज मनु प्रसन्न हैं। उन्हें आज प्रलय का भय नहीं है। सम्पूर्ण नगरी में सुख ही सुख, वैभव व शान्ति फैली थी। देश काल का आश्रय की भूली भेद दूर करते हुए सब सुख साधन एकत्र कर रहे थे। परिश्रम की छाया में ज्ञान और व्यवसाय बढ़ रहे थे।

वसुधा के गर्भ में जो कुछ था वह मानव प्रयत्नों से ऊपर आने लगा था। श्रद्धा को स्वप्न में सारस्वत प्रदेश दिखता है। उसे वहाँ सुन्दर वैभवशाली नगर की रानी इड़ा भी दिखाई देती है। वह मनु को इड़ा पर आसक्त हुआ पाती है। इड़ा इसका प्रतिरोध करती है किन्तु मनु इड़ा को जबरदस्ती अपनी वासना का शिकार बनाना चाहता है, जिससे वहाँ की प्रजा, जो उसे अपना प्रजापति मानती थी; रानी के अपमान पर क्रोधित हो उससे विद्रोह कर देती है। इसी कारण देव शक्तियाँ भी मनु के इस कुकृत्य पर क्रोधित हो उठती हैं।

भूतनाथ ने अपना विकम्पित पद उधर बढ़ाया। इड़ा क्रोध एवं लज्जा से बाहर निकल चुकी थी। सारी भूत सृष्टि सपना होने जा रही थी….. मनु प्रजा को आज्ञा दे रहे थे- “बस द्वार बन्द कर दो, इनको यहाँ न आने देना। प्रकृति आज उत्पात् कर रही है। मुझे बस सोने दो। उन्हें प्रजा का इस प्रकार विद्रोह करना समझ नही आ रहा था। श्रद्धा अपनी गुफा में सोई हुई थी। अचानक उसकी नींद खुल गयी। उसने सोचा कि “मैंने यह क्या देखा ? क्या वह इतना छली हो गया है !” इस बारे में सोचते-2 रात बीत गई।

कामायनी संघर्ष सर्ग

श्रद्धा का तो स्वप्न था, किन्तु वह सत्य बन गया था। इड़ा सकुचाई-सी थी। प्रजा में घोर असंतोष फैल गया था। इड़ा का मुँह पीला एवं क्षुब्ध था। प्रकृति का ताण्डव भी अभी शान्त नहीं हुआ था। आँगन में लोग जुटते जा रहे थे। भीड़ बढ़ती जा रही थी। प्रहरी लोग द्वार बन्द किये ध्यान लगाये हुए थे। बड़ी काली रात थी। लगातार जोर से बिजली चमकती थी।

मनु मन में सोच रहे थे कि “मैं यह प्रजा बनाकर कितना संतुष्ट हुआ था। ये अलग-अलग थे, मैंने इनको एकत्र किया, संगठित ….. श्रद्धा को मैं सम्पूर्ण अधिकार नहीं दे सका। इड़ा मुझे नियमों के अधीन बनाना चाहती थी। उसने मेरा एक भी निवेदित अधिकार नहीं माना। विश्व एक बन्धनहीन परिवर्तन ही तो है। इसकी गति में रवि-शशि-तारे सब रूप बदलते रहते हैं।”

मनु अपनी ही मनोदशा के अनुरूप सारी बातें सोचते हैं, क्योंकि मनु हर चीज में परिवर्तन चाहते हैं। मनु की यही प्रवृति, यही भोग-विलासिता की भावना मनु को अतृप्त किये हुए है। वे अपने को बन्धनहीन मानते है। सहसा सामने इड़ा को पाते हैं। मनु से इड़ा कहती है कि-“यदि नियामक नियम न माने तो फिर सब कुछ नष्ट हो जाएगा। मनु बोले-“तुम फिर यहाँ कैसे चली आयी ?

क्या तुम्हारे मन में उपद्रव की कुछ और बात समायी है ? आज जो इतना सब हो गया है, उससे क्या उन्हें सन्तोष नहीं हुआ? अब क्या बचा है। “इड़ा मनु को पुनः समझाने की कोशिश करती है, परन्तु सब व्यर्थ जाता है। मनु कहते हैं: “इड़े मैं चाहता हूँ कि तुम पर मेरा अधिकार हो, नहीं तो मैं व्यर्थ का प्रजापति हूँ। तुम्हें देखकर अब सब बन्धन टूट रहे हैं।

मैं अब जरा भी शासन या अधिकार नहीं चाहता। मनु को समझाते-समझाते इड़ा थक जाती है। अन्त में उन्हें सावधान कर वापस जाने लगती है, तो मनु उसे अपने आगोश में जकड़ लेते हैं। उसी समय प्रजा मुख्य द्वार से अन्दर प्रवेश कर जाती है और मनु को लहूलुहान कर देती है। मनु भी नरसंहार करने लगते हैं। प्रजा को भड़काने में सबसे बड़ा हाथ किलात व आकुलि का होता है।

मनु उन्हें मारते हैं। इड़ा कहती हैं- इतना भीषण नर संहार हो रहा है, ओ अभिमानी! ठहर जा। तू भी जी, औरों को भी जीने दे।” पर मनु कुछ नहीं सुनते । बेदी की ज्वाला धधकती है और सामूहिक बलि दी जाती है। मनु का हाथ नहीं रुकता। प्रजापक्ष का साहस भी कम नहीं होता। अन्त में मनु घायल होकर बेहोश हो जमीन पर गिर जाते हैं।

कामायनी निर्वेद सर्ग

प्रजा और मनु के बीच का घोर संग्नाम समाप्त हो चुका था। सारस्वत नगर मौन व क्षुब्ध पड़ा हुआ था। विगत कर्म के विष भरे विशाद का आवरण तना हुआ था। सषुप्ति ही उसकी सीमा है। भय रजनी भयानक थी।’ रुक-रुककर हवा चलती थी। राज-चिन्हों से शून्य महल, समाधि सा खड़ा था। वहीं मनु का घायल शरीर भी पड़ा था। इडा को बीती बातें सोच-सोच कर ग्लानि हो रही थी।

नारी हृदय में सुधा और आग, क्षमा और प्रतिशोध साथ-साथ थे। उसे मनु ने स्नेह किया था, पर वह अनन्य नहीं रहा। जो स्नेह बाधाओं को तथा सीमाओं को तोड़कर दौड़ चला वही अपराध हो उठा। हाँ अपराध तो था, पर वह कितना भयानक बन गया? आज वही शासन का सूत्रधार और नियमों का नवनिर्माता अपने ही नवविधान का स्वयं साकार दंड बन गया। जो सबके लिए, गुणकारी था, उसी से दोष प्रकट हुआ। इडा मनु के बारे में सोच रही थी कि बाहर कोई महिला करुण क्रंदन करती चली आ रही थी।

‘अरे कोई दया करके बता दो मेरा प्रवासी कहाँ है ? उसी पागल से मिलने को भटक रही हूँ। वह रूठकर आ गया था, मैं उसे अपना न सकी। कोई आकर बता दे कि मैं उसे कैसे पा सकूँगी।’ यह सुन इड़ा ने देखा कि सामने राज पथ पर धुंधली छाया चली आ रही है। उसका शरीर शिथिल, वस्त्र अस्त-व्यस्त, बाल खुले थे। वह उस मुरझाई कली के समान थी जिसकी पखुड़ियाँ टूट गयीं हों। उसके साथ एक बालक उसकी अंगुली पकड़े चला आ रहा था। दोनों थके हुए थे एवं भूले मनु को खोज रहे थे; जो कि घायल पड़ा हुए था।

पूछा: तुमको आज इड़ा द्रवित हो रही थी। उसने इन दुःखियों से किसने विसरा दिया है ? रात में तुम लोग भटकते हुए कहाँ जाओगे ? बैठो और अपना दुःखड़ा कहो। जीवन की लम्बी यात्रा में खोये हुए भी मिल जाते हैं। जीवन में कभी मिलन भी होगा और दुःख की रातें भी कट जायेंगी। इड़ा के साथ श्रद्धा वहाँ पहुँची, जहाँ ज्वाला जल रही थी। उसे देखकर उसको अपने स्वप्न के सारे दृश्य याद आ गये। पास ही घायल मनु भी पड़े थे। उन्हें देखते ही उनकी व्यथा दूर हो गयी। कुछ समय के बाद नीरव और मूर्छित मनु में हल्के स्पन्दन हुए और आँखें खुली और चारों कोनों में आँसू की चार बूंदें भर गयीं। कुमार ऊँचे मन्दिर, मण्डप व बेदी देखकर चकित था। सोच रहा था यह सब क्या है ? माँ ने कहा ‘देख तेरे पिता पड़े हैं। पिता, ‘लो आया’; कहते हुए घायल पिता को देखकर उस कुमार के रोएँ खड़े हो गये।

अपने पिता को आज वह पहली बार देख रहा था। वह माता से बोला पिताजी प्यासे हैं; उन्हें जल दे दो। तुम यहाँ बैठी क्या कर रही हो ? बच्चे की वात्सल्य भरी बातों ने मण्डप में एक जीवन का संचार किया। प्राची का प्रभात हुआ। मनु ने आँखें खोल दी। वे कृतज्ञता से भरे हुए थे। गदगद होकर अनुराग भरे स्वर में श्रद्धा से बोले : ‘श्रद्धे अच्छा हुआ तू आ गई, पर क्या मैं यहीं पड़ा हुआ था ? वही भवन, वही वेदी सर्वत्र घृणा फैली है। उन्होंने क्षोभ से आँखें बन्द कर ली और श्रद्धा से वहाँ से दूर ले चलने का आग्रह करने लगे, परन्तु उनके बहुत कमजोर होने के कारण श्रद्धा ने असमर्थता जतायी। कुछ स्वस्थ हो जाने पर यह मनु को अवश्य ही वहाँ से ले चलेगी।

अब मनु श्रद्धा को छोड़कर चले आने पर पछता रहे थे। बोले: “हे देवी अपनी मंगलमयी मुस्कान तुमने मुझे दी। तुम्हारी मूर्ति मेरे हृदय में घर कर गयी है और सुन्दरता की महिमा सिखाने लगी है। तुम्हारा मुझ पर कितना उपकार है, किन्तु मैं अधम उस मंगल की माया को समझ न पाया और आज भी हर्ष व विशाद की छाया को पकड़ रहा हूँ। तुम जो देना चाह रही हो, उसे मैं नहीं पा सक रहा हूँ। मुझ जैसे शूद्र पात्र में तुम कितनी मधु धारा उड़ेल रही हो सब बाहर होता जाता है। मैं उसे ग्रहण नहींकर सकता। हृदय में बुद्धि व तर्क के छिद्र हो चुके हैं। जिससे वह भर न सका। यह कुमार मेरे जीवन का ऊँचा अंश और कल्याण की कला है। यह मेरा कितना बड़ा प्रलोभन है; जिसमें हृदय प्रेम बनकर ढला है। यह सुखी रहे और सब सुखी रहें। बस मुझ अपराधी को छोड़ दो।

रात्रि काफी हो चुकी थी। श्रद्धा मनु के मन में उमड़ते इस उन्माद को देख चुप थी। इडा भी कुमार के समीप दबी उमंग से खड़ी थी। अत्यधिक थकान के कारण तीनों आराम करना चाहते थे। मनु चुपचाप सोच रहे थे, कि “अब मैं यह कलुषित मुँह कैसे दिखाऊँ ? और फिर इन कृतन शत्रुओं का क्या विश्वास करूँ? श्रद्धा के रहते मैं इन लोगों से बदला भी नहीं ले सकता। उनके अन्दर से आवाज आती है। कि हे मनु, अब तू इस इन्द्रजाल से भाग जा। अब यहाँ से चल देना चाहिये।” प्रातः सब लोग उठे तो मनु वहाँ नहीं थे। कुमार, पिता को आवाज लगा रहा था। इडा स्वयं को अपराधिनी समझ रही थीं।

कामायनी दर्शन सर्ग

सारस्वत नगर से मनु के पलायन पर श्रद्धा और कुमार (मानव) कई दिनों तक इड़ा के राजभवन में ही रहे, पर श्रद्धा का मन हमेशा दुःखी रहता था। एक दिन अमावस्या की संध्या के समय श्रद्धा अचानक राजभवन से दूर मनु को ढूंढने निकल पड़ी। कुमार मानव भी उसके साथ आ पहुँचा। चारों ओर घना अंधेरा था। बालक ने माँ से पूछाः ‘तुम इतनी दूर क्यों आ गई हो ? अब घर चलो ।

पुत्र की स्नेह भरी बातें सुनकर श्रद्धा ने बेटे का मुँह चूम लिया और बेटे से बोली वह मेरा घर नहीं है। मेरा घर तो व्यापक और विशाल है। उसकी छत नीला आकाश है। मेघ उसकी परिक्रमा करते हैं तथा तारे वहाँ झिलमिलाते रहते हैं। उसके द्वार हमेशा सबके लिये खुले रहते हैं। श्रद्धा जब यह बातें मानव से कर रही थी, तो पीछे से इडा दिखाई देती है। वह श्रद्धा से पूछती है; ‘माँ अगर तुम इतनी उदार हो तो मुझसे विरक्त क्यों हो ? तुमने मुझे अपने प्रेस दान क्यों नहीं दिया ?’ श्रद्धा ने कहा : मैंतुमसे क्या विरक्त हो सकती हूँ ?

तुम प्रत्येक प्राणी को आश्रय देने वाली हो तुमने मुझसे बिछुड़े मनु को यहाँ आश्रय दिया। मैं तुम्हारे उपकारों का बदला नहीं चुका सकती। मेरे पति ने यहाँ आश्रय पाकर भी अपराध किया है, अतः इसके लिये मैं तुमसे क्षमा याचना करती हूँ। मुझे विश्वास है कि तुम मनु को क्षमा कर दोगी। यह सुनकर इड़ा ने कहा कि आप यह क्या कह रही हैं ? यहाँ कौन है जो अपराधी नहीं है ? आज मेरे राज्य में संघर्ष बढ़ चला है और श्रम के आधार पर जो वर्ग विभाजन किया गया था उनमें अहंकार भर गया है। प्रजा नियमों की चिन्ता नहीं करती और निरन्तर विनाश की ओर अग्रसर है।

मेरी सम्पूर्ण शासन व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। इस प्रकार हे देवि ! तुम मुझे क्षमा कर कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे मेरी सोई चेतना पुनः जाग्रत हो उठे’। इड़ा की व्यथापूर्ण कहानी सुनकर श्रद्धा कहने लगी: तुम्हारे राज्य पर दैवीय आपदा का प्रकोप है। तुम्हारी शासन व्यवस्था का छिन्न-भिन्न होने का कारण तुम्हारे हृदय पर अधिकार न पा सकना तथा हमेशा दूसरों के सिर पर चढ़ी रहना है, इसलिये प्रजा में विरोध की भावना व्यापक हो चली है। इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम्हारे पास तर्क और बुद्धि तो पर्याप्त है, पर हृदय पक्ष का अभाव है। यही कारण है कि तुम नारीत्व की कोमलता छोड़कर सुख-दुख की मिथ्या आडंबर में फंस गई। तुम्हें सम्पूर्ण सृष्टि को एक ही चेतना का अंश समझकर सबके साथ समान व्यवहार करना चाहिये। मैं तुम्हें क्षमा के अतिरिक्त अपनी यह अमूल्य निधि अपना पुत्र भी सौंप रही हूँ।

तुम तर्कमयी हो और यह श्रद्धामय है। इस प्रकार तुम दोनों मिलकर नये राज्य का संचालन करना और शासक बनकर प्रजा में कभी भय मत फैलाना। मैं अकेली मनु को खोजने जा रही हूँ। मुझे विश्वास है कि वे कहीं न कहीं मिल जायेंगे।इड़ा ने मानव को स्वीकार किया तथा श्रद्धा के चरणों की धूल ली। इसके पश्चात् कुमार का हाथ पकड़कर इड़ा नगर की ओर लौट गयी तथा श्रद्धा आगे बढ़ गयी। सरस्वती नदी के किनारे नीरव स्थान पर एक शिला पर मनु तपस्या में लीन बैठे थे। श्रद्धा ने मनु को पहचान लिया और मनु के पास पहुँच गयी।

श्रद्धा को देखते ही उन्होंने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, ‘तुम एक महान देवी हो। मैं तुम जैसी महान नारी को पाने के बाद पुनः छोड़कर भाग आया था, लेकिन तुमने मुझे पुनः ढूँढ लिया। इड़ा ने तुम्हारे साथ छल कर तुम्हारा पुत्र भी छीन लिया ? श्रद्धा ने उत्तर दिया कि मै स्वयं ही कुमार को इड़ा के साथ छोड़ आई हूँ। वही तुम्हारा अधूरा काम पूरा कर तुम्हारा यश सर्वत्र फैलायेगा।

श्रद्धा की प्रेम से परिपूर्ण बातों को सुनकर मनु के हृदय में श्रद्धा के प्रति सच्चा अनुराग उत्पन्न हुआ और उन्हें कैलाश पर्वत पर भगवान शिव नृत्य करते हुए दिखाई दिये। श्रद्धा के साथ वे शिव के पवित्र चरणों की ओर बढ़ने लगे; जिससे सम्पूर्ण पाप और पुण्य जलकर पवित्र बन जाये और सम्पूर्ण असत्य ज्ञान नष्ट हो जाये तथा समरसता में लीन होकर अखण्ड आनन्द प्राप्त हो सके।

कामायनी रहस्य सर्ग

रहस्य सर्ग में मनु को नटराज के नृत्य का दर्शन होता है। जब उन्होंने नटराज शिव को देखा तो श्रद्धा से अनुरोध किया कि वह उन्हें सहारा देकर भगवान शिव के चरणों तक ले जाये और श्रद्धा ने उन्हें लेकर हिमालय पर्वत पर चढ़ना प्रारम्भ किया। वे दोनों साहस पूर्वक आगे बढ़ने लगे। आगे बढ़ने पर मनु ने स्वयं को एक ऐसे स्थान पर खड़े देखा; जहां एक नवीन चेतना का उदय हो रहा था और तीन रंगो के गोलाकार बिन्दु दिखाई दे रहे थे। इन बिन्दुओं को आश्चर्य से देखते हुए मनु ने श्रद्धा से पूछा-‘ये नवीन ग्रह कौन से हैं ? हम लोग कहाँ पहुंच गये? यह सब कैसी माया है ?’

मनु की जिज्ञासा शान्त करते हुए बताया कि इनमें भावमयी प्रतिमा के मन्दिर की कल्पना की गई है, जिसमें पाँचों इन्द्रियों की तुष्टि की पारदर्शिनी अभिराम पुतलियाँ रंगीन तितलियों की भाँति नृत्य कर रही हैं। मनु की जिज्ञासा का समाधान करते हुए श्रद्धा ने कहा-‘ये इच्छा, ज्ञान और कर्म के लोक हैं। उषा की लालिमा लिए जो बिन्दु दिखाई देता है, वह इच्छा-लोक है और इसमें भावों की प्रतिमाएं निवास करती हैं। इस लोक में शब्द, स्पर्श, रस, रूप एवं गंध की अप्सराएं नृत्य कर रही हैं और माया यहाँ की शासिका है तथा वही सम्पूर्ण भावचन का संचालन करती है। यह लोक जीवन की प्रधान भूमि है, जो कि प्रेम-रस से सिंचित होती है। इस लोक में कामना की तरंगें उठती रहती हैं और यहाँ मधुर चित्रों का वैभव भी है।

इस प्रकार यहाँ अमृत और विष दोनों होने के कारण मनुष्य सुख व दुःख दोनों की अनुभूति करता है। यह सुनकर मनु ने श्याम लोक के बारे में पूछा। मनु की जिज्ञासा शान्त करने के लिये श्रद्धा ने बताया कि यह श्याम लोक कर्म लोक है। यह एक पहेली की तरह उलझा हुआ है। यहाँ इच्छाओं से ही कर्मों का नवीन जन्म होता है। कर्म करने वालों को विश्राम नहीं मिलता। वे सदैव संघर्षरत रहते हैं। संघर्षरत रहने वालों का जयघोष होता है, परन्तु जो पराजित होता है वह व्यक्ति अपनी ही उन्नति के लिये मतवाला रहता है और बड़े-बड़े पाप करने को उतारू हो जाता है। बड़े-बड़े उद्देश्यों की पूर्ति हो जाने पर भी वह असंतुष्ट रहता है।

यह सर्ग आधुनिक मानव की विशेषताओं से भरा हुआ है। कर्म लोक की यह भयावहता देखकर मनु शान्त हो जाते हैं। इस तरह मनु तीसरे उज्ज्वल लोक के बारे में जानने की उत्सुकता व्यक्त करते हैं। तब श्रद्धा बताती है कि यह श्वेत रंग का ज्ञान लोक है। यहाँ व्यक्ति सुख-दुःख दोनों से ही उदासीन रहकर केवल मुक्ति की अभिलाषा रखता है। इस लोक में कठोर अनुशासन का पालन करना है और बुद्धि चक्र हमेशा चलता रहता है,इसलिये यहाँ प्राणी तर्कशील हैं।

धर्मानुसार अधिकारों की व्यवस्था से प्राणियों में शांति दिखाई देती है, लेकिन वे मन ही मन इस बात से डरते हैं कि कहीं उनसे कोई पाप न हो जाये। यहाँ के प्राणी इच्छाओं का तिरस्कार करते हैं और किसी अलौकिक सत्ता में विश्वास रखते हैं। प्रकृति में क्षण-क्षण होने वाले परिवर्तनों के अनुसार अपने जीवन को ढाल लेते हैं। इस प्रकार इच्छा, कर्म एवं ज्ञान नामक तीनों लोकों का परिचय देने के उपरान्त श्रद्धा ने मनु से कहा- ये तीनों ज्योतिपूर्ण बिन्दु ‘त्रिपुर’ कहलाते हैं और वे तीनों अपने आप में ही लीन हैं तथा एक-दूसरे से भिन्न हैं, इसलिये इनमें से कोई भी लोक एक दूसरे के सुख-दुख में भाग न लेकर अपने-अपने सुख दुख का केन्द्र बना हुआ है।

जब ज्ञान और क्रिया में ही सामन्जस्य नहीं है, तब मन की अभिलाषा कैसे पूर्ण हो सकती है ? वास्तव में इन तीनों लोकों का पार्थक्य ही मानव के दुखों का कारण है। इतना कहकर प्रकाश किरण के समान तीनों लोकों में उजाला फैल गया। वे तीनों मिलकर एक हो गये। शिव के श्रृंग एवं डमरू की ध्वनि गूंज उठी और नटराज शिव ताण्डव करते दिखाई दिये। यह दृश्य देखकर मनु की सांसारिक भावनाएं शान्त हो गयी और वे श्रद्धा सहित एक अलौकिक आनंद में मग्न हो गये।

कामायनी आनन्द सर्ग

नदी के सुन्दर किनारे यात्रियों का दल चला जा रहा था। उनके साथ एक सफेद बैल था। वह सोम लताओं से ढका हुआ था। जब वह धीरे धीरे चलता था तो घंटे की मधुर ध्वनि होती थी। मानव ने बायें हाथ में बैल की रस्सी पकड़ रखी थी और उसके दायें हाथ में त्रिशूल था। उसके मुख पर अपार तेज था। मानव के अंग सिंह के बच्चे के समान विकसित थे। उसका यौवन गम्भीर हो उठा था और उसमें नवीन भाव उदित हो रहे थे। बैल के दूसरी ओर गेरुवे वस्त्र धारी इड़ा चुपचाप चल रही थी।

यह संध्या के समान दिखाई देती थी। उसके भावों की चंचलता शांत हो चुकी थी। वह भी गम्भीर हो चुकी थी। बच्चे हँसते किलकते, युवक उल्लास से तथा स्त्रियाँ मंगल गीत गाते चले जा रहे थे। चामरों पर बोझ लदे हुए थे; जिनपर कुछ बच्चे भी बैठे हुए थे। इड़ा अपलक नेत्रों से पाँव के अग्र भाग को देखते हुई पथ-प्रदर्शिका के रूप में धीरे-धीरे चली जा रही थी। मानव का आग्रह देखकर उसने कहा जहाँ हम जा रहे हैं, वह अत्यन्त पवित्र स्थान है। यह किसी की साधना का स्थान और शांत तपोवन है। बालक ने पूछा वह कैसा प्रदेश है ? उसे शांत तपोवन क्यों कहा जाता है ? तुम मुझे विस्तार से सब बातें क्यों नहीं बतातीं ? इडा बालक को उसके समझ के अनुरूप समझाती है। बैल धर्म का प्रतीक है। जिसे शात प्रदेश में स्वतंत्र कर दिया जायेगा, जिससे वह निर्भीक होकर विचरण कर सके।

कुछ दूरी पर विशाल पर्वत दिखाई दिया; जिसे देखते ही सारी थकान और व्याकुलता क्षण भर में दूर हो गयी। पर्वतों की घाटी बड़ी रमणीक थी। उसमें वृक्ष और लताएँ लहरा रहीं थीं। वृक्षों की डालियाँ फूलों से लदी थीं। यात्रियों के समूह ने रुककर मानसरोवर के अपूर्व दृश्य को देखा। वह दृश्य पशु-पक्षी आदि जीव-जन्तुओं को आकर्षित करने वाला तथा आनन्दित करने वाला था। मानसरोवर ऐसा प्रतीत होता मानो नीलम की वेदी एवं हीरे की वेदी पर शुभ्र पानी रखा हो । रात्रि के समय कैलाश पर्वत ऐसा लगता था मानो ध्यान में लीन हो।


मानसरोवर के पास ही मनु ध्यान लगाये बैठे थे उनके साथ ही श्रद्धा खड़ी थी। इड़ा व मानव ने श्रद्धा के चरण स्पर्श किये। इड़ा तथा श्रद्धा के बीच की दूरियाँ मिट गयीं थीं। मनु ने मुस्कुराकर उन्हें कैलाश पर्वत दिखाया और फिर बोले- “यहाँ पर कोई भी पराया नहीं है। हम और कुटुम्ब के ये लोग अलग-अलग नहीं हैं। तुम सब मेरे ही अंग हो। यहाँ न कोई दुःखी है न कोई पापी है। यहाँ सब सामरस्य है। जीवन तो चेतना के समुद्र में लहरों के समान बिखरा हुआ है। हर व्यक्ति ने कुछ विशेष व्यक्तित्व बना लिया है। अपने सुखों और दुःखों में लीन यह स्थूल विश्व महाचिति का मंगलमय शरीर है जो अमर तथा रमणीक है। समाज की सेवा में ही अपना सुख है। अहंकार त्याज्य है, क्योंकि वह सबको मोहित कर देता है। अब तो मनुष्य को सारे सुख-दुःख भूलकर इस प्रकार रहना चाहिये जिससे कि यह सारा संसार प्रेम का घौंसला बन जाय।


श्रद्धा के अधरों पर मधुर मुस्कान उषा की किरणों की तरह बिखर गयी। यह ‘कामायनी जगत की अकेली मंगल कामना ज्योर्तिमयी थी। वह विश्व की चेतना को पुलकित करने वाली पूर्ण काम की प्रतिमा थी। ‘कामायनी के हँसने से ऐसा प्रतीत होता था मानो चराचर मुरली का संगीत गूंज रहा हो। क्षण भर में ही संसार का अणु-अणु बदल गया हो। सर्वत्र सुगन्ध विखर गई।

विश्वरूपी सुन्दरी पर गेरुआ वस्त्र सा छाया हुआ था। सुख उनका साथी और दुःख उनका विदूषक था। रस भरे फूल झरने लगे। बर्फ के टुकड़ों के उपर जब किरणे पडतीं थीं तो वहाँ मणियों का-सा प्रकाश विकीर्ण हो जाता था। किरणें अप्सराओं के समान नाच रहीं थीं। चन्द्रमा के मुकुट से सुशोभित वह हिमालय शिव के समान दिखाई देता था, जो पार्वती के नृत्य के समान लहरों का नृत्य देख रहा था। उस प्रेम की ज्योति के प्रभाव से सबकी आँखे कृत्कृत्य हो गई। सब में एक ही शक्ति दिखाई दे रही थी। उस समय जड़ और चेतन सभी वस्तुएं साकार थीं । सौन्दर्य मूर्तिमान हो रहा था। चेतन की लीला का दर्शन हो रहा था। सर्वत्र अखंड आनन्द का ही प्रसार था।

कामायनी की प्रासंगिक कथाएँ

मनु और श्रद्धा की अधिकारिक कथा से जुड़ने वाली निम्न उपकथाएं ‘कामायनी’ की प्रासंगिक कथाएँ हैं।

कामायनी में किलात एवं आकुलि की कथा

  • श्रद्धा का पशु के प्रति स्नेह, उसके प्रति किलात-आकुलि का आकर्षण, उनका मनु को छलना, यज्ञ में पशु का बलिदान ।
  • अपनी मांस भक्षण की तृप्ति के बाद उनका गायब हो जाना और संघर्ष सर्ग में जन विद्रोह का प्रतिनिधित्व करते हुए एक बार पुनः सामने आना,
  • अंत में मनु के अस्त्र से उनका संहार ।

इड़ा की कथा –

  • ईर्ष्याग्रस्त मनु का भागकर सारस्वत प्रदेश पहुँचना, वहाँ एक सुन्दरी इड़ा से उसकी मुलाकात होना, इड़ा की प्रेरणा से शासन संचालन।
  • अंत में उसके प्रति आकर्षण और परिणामस्वरूप रूद्रदण्ड।
  • इड़ा द्वारा श्रद्धा का अनुसरण और मानव की प्राप्ति – मनु की शिवत्व प्राप्ति होने पर इडा का सारस्वत प्रदेश वासियों को मनु के समीप ले जाना।

इस प्रकार ‘कामायनी’ की कथा वस्तु का संगठन मनु और अद्धा की अधिकारिक कथा और इड़ा, किलात-आलि की दो प्रासंगिक कथाओं से होता है।

कामायनी के पात्र

‘कामायनी’ में मुख्य व गौण मिलाकर कुल छ: पात्र हैं, 1. मनु 2. श्रद्धा 3. ईड़ा 4. किलात 5. आकुलि 6. मानव । मानवीकरण द्वारा काम एवं लज्जा भावों को छाया पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। चिन्ता तथा आशा, वृत्ति मात्र रही है, ये पात्रों की भूमिका नहीं आये हैं। किलात एवं आकुलि का व्यक्तिगत प्रतीकात्मक महत्व बहुत ही कम तथा ऐतिहासिक महत्व अधिक है। वे कथा के विकास क्रम में एक कड़ी का काम करते हैं, दार्शनिक व्याख्या में ये दो पात्र अल्पतम् सहायक होते हैं।

मुख्य पात्रों की श्रेणी में तीन ही पात्र आते हैं, मनु, श्रद्धा तथा इड़ा।

कामायनी के पात्र : मनु

मनु ‘कामायनी’ के ‘नायक’ हैं। मनु को प्रतीक बनाकर एक भाव-पाशबद्ध संसारी पुरुष की आनन्द धाम तक की यात्रा की कथा प्रस्तुत की गयी है। कथावस्तु के इस विकास के अनुरूप ही मनु के चरित्र और स्वरूप का विकास हुआ है।

नायक के रूप में मनु में न तो धीरोदात्त’ गुण हैं; न ही धीरोद्धत’, उनमें विशुद्ध रूप से ‘धीर ललित’ और ‘धीर प्रशान्त’ नायक के गुणों का भी अभाव है। उनमें नायक के मूल गुण धैर्य का अभाव है। धीरोद्धत्त कहना कुछ समय के लिये उपयुक्त होगा, क्योंकि उनमें चपलता, प्रचण्डता, अहंकार तथा आत्मश्लाघा की प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं।

आरम्भ में मनु प्रलय से मुक्त पर प्रलय के कुछ दृश्यों को देखते हुए और अभी-अभी बीते भयंकर प्रलय का स्मरण करते हुए हिमगिरी के एक शिखर पर बैठे हुए दिखाई देते हैं। मनु का चरित्र प्रत्येक सर्ग में परिवर्तनशील रहा है। प्रत्येक घटना का प्रभाव उन पर पृथक-पृथक रूप से पड़ा है, जिससे वे बार-बार प्रभावित हुए हैं।

‘कामायनी’ के अधिकांश अध्येता विद्वानों ने मनु के चरित्र में अनेक रूपों-का-समावेश-माना है। सर्गों के अनुसार मनु के चरित्र में अनेक मोड़ आते हैं। कहीं मनु का प्रजापति रूप, कहीं वैदिक कर्मकाण्डी ऋषि रूप, कहीं अतृप्त मानव-रूप एवं कहीं आनन्दखोजी मानवपथ-प्रदर्शक रूप प्रकट होता है। चिंता-सर्ग में उनकी स्थिति प्रलय काल के समान ही रहती है।

अगले तीन सर्गो आशा, श्रद्धा तथा काम तक उनमें प्रलय काल की ही झलके मिलती हैं। ‘वासना’ से ‘निर्वेद’ तक उनका चरित्र सकल भूमिका में नर्तन करता रहता है। ‘निर्वेद’ के अंत में जाकर उनकी गति में परिर्वतन होता है, और वे प्रलय काल की ओर मुड़ते दिखाई देते हैं। ‘दर्शन’ सर्ग में उनकी उर्ध्व यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। अंत में वे शिवत्व को प्राप्त कर लेते हैं।

भारतीय आचार्यों ने महाकाव्य के नायक के जिन गुणों का उल्लेख किया है उन गुणों को दृष्टिगत रखते हुए हम मनु को धीरोदात्त नायक नहीं कह सकते हैं। उनके चरित्र में मानव सुलभ अनेक दुर्बलताएं एवं दुर्गुण दिखाई देते हैं। विद्वानों ने मनु को मानव के मन का प्रतीक माना है; जो चंचल और प्रतिपल परिवर्तित होता रहता है।

मनु की कथा के माध्यम से मानव मन केविकास को व्यजित किया गया है और इस रूपक के सफल निर्वाह के लिये मनु के चरित्र के अन्तर्गत काम, वासना, ईर्ष्या आदि का चित्रण किया जाना आवश्यक था। मनु के चरित्र में मानव-सुलभ दुर्बलताओं को दिखाने का कारण यह भी है कि ‘प्रसाद’ अपने पात्रों को अतिमानवीय नहीं बनाना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने नायक के रूप में मनु का चित्रण परम्परागत दृष्टि से नहीं किया है। वे यथार्थ के धरातल पर आदर्श स्थापित करना चाहते हैं। जीवन व जगत में सर्वत्र व्याप्त सुख और दुःख दोनों के यथार्थ चित्रण की पृष्ठभूमि में उन्होंने मनु के व्यक्तित्व का निर्माण किया है।

‘प्रसाद’ ने रूपक के निर्वाह के साथ-साथ अतीत के धरातल पर वर्तमान युग संदर्भो को भी प्रस्तुत् किया है, इसलिए मनु के जीवन में व्याप्त दुःख, अभाव तथा नैराष्य आदि का मनोवैज्ञानिक चित्रण भी किया है।”

आचार्य नंददुलारे बाजपेयी ने मनु को संघर्षात्मक युग का प्रतिनिधि माना है; “जो जीवन के वैषम्यों से खींच कर अनेक दिशाओं में दौड़ता है, किन्तु कहीं भी शान्ति नहीं पाता। ‘कामायनी’ में अंकित मनु के व्यक्तित्व का विश्लेषण करने के उपरान्त इतना अवश्य कहा जा सकता है कि ‘प्रसाद’ ने उसके ऐतिहासिक व्यक्तित्व की यथा सम्भव रक्षा की है।

शास्त्रीय दृष्टि से धीरोदात्त न होते हुए भी उनके व्यक्तित्व में नायक के गुण सहज उपलब्ध हैं। उनके जीवन में व्याप्त लघुता (दुःख एवं अभाव) का यथार्थ चित्रण करके उसके आधार पर अंत में आदर्श की स्थापना की है।

कामायनी के पात्र : श्रद्धा

‘कामायनी’ की दूसरी मुख्य पात्र ‘श्रद्धा’ है। जो इस महाकाव्य की नायिका है। कथानक का “सदाश्रयत्व” उसी के पर आधारित है। ‘श्रद्धा’कामायनीकार की संकल्पनात्मक अनुभूति की मधुरतम सृष्टि है। वह पारमेश्वरी इच्छाशक्ति है। जिस प्रकार शिव की इच्छा शक्ति नाना रूपों में विकसित हो क्रीड़ा करती है, उसी प्रकार ‘कामायनी’ में श्रद्धा के नाना रूप विकसित होते दिखाई देते हैं।

मनु की भूमिकाओं के परिवर्तन के साथ श्रवा के रूप में भी परिवर्तन होता जाता है। श्रद्धा एक ऐतिहासिक पात्र है। ऋग्वेद में श्रद्धा का उल्लेख ऋषि तथा देवता के रूप में मिलता है। ‘ऋषि श्रद्धा कामायनी। देवता श्रद्धा। श्रद्धयाग्नि समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः। श्रद्धा भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि। श्रद्धा काम गोत्र की बालिका है।

‘निरूकतार’ ने श्रद्धा शब्द को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्रदान करने वाली सत्यबुद्धि कहा है। ‘छान्दोग्य उपनिषद में मनु और श्रद्धा की भावमूलक व्याख्या मिलती है। श्रद्धा को पुराणों में काम की माता एवं सूर्य की पुत्री कहा गया है। वह अलौकिक सौंदर्यशालिनी है, जिसके हृदय में विविध ललित कलाओं को सीखने के लिए अदम्य साहस है। उसकी लम्बी काया उदार हृदय की वाह्य अनुकृति के सदृश हैं; जिसका निर्माण पराग के सूक्ष्म परमाणुओं से हुआ है-“हृदय की अनुकृति वाह्य उदार” ‘प्रसाद’ ने श्रद्धाको पति-परायण आदर्श पत्नी के रूप में चित्रित किया है। उसमें नवविवाहिता वधू की-सी लज्जा, सरसता, शालीनता तथा कोमलता जैसे सभी गुण विद्यमान हैं। वह आदर्श पत्नी के रूप में मनु के उचित-अनुचित सभी कार्यों का पर्यवेक्षण करती है तथा अनुचित कार्य न करने हेतु प्रेरित करती है।

श्रद्धा के रूप में ‘प्रसाद’ ने नारी-जीवन का चरम विकास अभिव्यजित किया है। आदर्श पत्नी होने के साथ-साथ वह आदर्श गृहणी भी है और अनेक प्रकार के बीजों का संग्रह करके कृषि कर्मों में लीन रहने वाली कृषिका भी है। श्रद्धा के चरित्र द्वारा भारतीय नारीत्व के आदर्श की अभिव्यजंना हुई है। उसके ऐतिहासिक व्यक्तिव में नारी सुलभ दया, ममता, विश्वास, क्षमा आदि सभी उद्दात्त गुणों का समावेश किया गया है।

श्रद्धा को हृदय का प्रतीक माना है; जो मनु के मन का विकास करती है। वह मनु की चेतना-शक्ति को ऊँचा उठाकर उन्हें त्रिपुर की वास्तविकताओं का ज्ञान कराती है। उसके चरित्र का उज्ज्वलतम् रूप उस समय दिखाई देता है जब वह मनु के साथ कैलाश पर्वत की यात्रा करती है; जहाँ पहुँचकर वह इच्छा, ज्ञान और क्रिया तीनों का समन्वय करती है, जिससे मनु सामरस्य की अवस्था में शिवत्व की प्राप्ति करते हैं। श्रद्धा के इस रूप का चित्रण शैवागमों एवं उपनिषदों के आधार पर किया गया है।

तंत्रलोक में इच्छा, ज्ञान और क्रिया को त्रिपुर माना गया है और इसकी अधिष्ठात्री त्रिपुरा देवी कही गयी है, जो ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। ‘त्रिपुरा रहस्य’ में श्रद्धा को ही त्रिपुरा देवी माना गया है; जिसके द्वारा त्रिपुरों का सामंजस्य स्थापित होता है। ‘कामायनी’ में श्रद्धा के सहयोग से मनु ‘अखण्ड-आनंद’ की अनुभूति करते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि ‘प्रसाद’ ने श्रद्धा को एक सर्वगुण सम्पन्न नारी के रूप में प्रस्तुत किया है।

कामायनी के पात्र: इड़ा

‘कामायनी’ की तीसरी प्रमुख पात्र इड़ा है, जिसके चरित्र का विकास बुद्धि के प्रतीक के रूप में किया गया है। ऋग्वेद में उसे मनु की पथ-प्रदर्शिका तथा मनुष्यों का शासन करने वाली कहा गया है।

अथर्ववेद में उसे प्रजा को सुख देने वाली तथा एतेरेय ब्राह्मण’ में इड़ा को अन्न प्रदायिनी और पशु वृद्धि करने वाली कहा गया है। ‘कामायनी’ में वह ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न, कर्मरत, सुसभ्य, ‘नयन महोत्सव की प्रतीक’ ‘अम्लान नलिन की नवमाला’ के रूप में दृष्टिगत होती है। मनु भी उसके आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित होते हैं। इड़ा स्पष्ट रूप से बुद्धिवाद के अतिरेक की प्रतीक है। उसका प्रथम परिचय ही उसकी तार्किकता को सूचित करता है, “बिखरी अलकें ज्यों तर्क जाल’ ।

वह विश्व मुकुट-सा उज्ज्वलतम शशिखण्ड-सदृश था स्पष्ट भाल,

दो पदम पलाश चषक से दृग देते अनुराग विराग ढाल ।”

(इड़ा सर्ग पृ071)

सारस्वत प्रदेश की भौतिक समृद्धि उसके मस्तिष्क की उपज है। चारों ओर ज्ञान-विज्ञान का विकास उस प्रदेश में दृष्टिगोचर होता है। नवीन साधनों से सम्पन्न नगर वैज्ञानिक सभ्यता का प्रतीक बन गया है। वह स्वयं इस बात को ‘संघर्ष’ में स्वीकारती है : ‘प्रकृति संग संघर्ष सिखाया तुमको मैंने। मनु को उपदेश देती हुई इड़ा कहती है कि मनुष्य को बुद्धि के आधार पर ही अपना विकास करना चाहिए। उसी की प्रेरणा से वह जड़ता को भी चैतन्य बनाकर असीन शक्ति का संचय कर सकता है। अतएव इड़ा जीवन एवं प्रकृति का बुद्धि से उपभोग करने का संदेश देने वाली प्रवृत्तिमार्गी नारी है: “अवलम्ब छोड़कर औका जब बुद्धिवाद को अपनाय X मैं बढ़ा सहज, तो स्वयं बुद्धि को मानों आज यहाँ पाय ।

“संघर्ष सर्ग में इड़ा के चरित्र का विवेकशील स्वरूप प्रकट हुआ है। मनु अपने को प्रजापति समझकर उस पर शासन करना चाहते हैं। इड़ा उसको अतिवादी अहं को नियंत्रित करने का उपदेश देती है। नियामक भी नियम में बंधा है; निर्बाधित अधिकार की मांग किसी भी राजा या राष्ट्रनेता को शोभा नहीं देती। इस संदर्भ में इड़ा दार्शनिकता के रंगों में चमक उठी है। इस प्रकार यह समष्टिवादिनी, विश्ववादिनी नारी बन गई है।

उल्लेखनीय बिन्दु यह है कि बुद्धिवाद की उपदेशिका होते हुए भी इड़ा भौतिकवादी नहीं है। इड़ा का चित्रांकन विलासिता की प्रेरक शक्ति के रूप में भी हुआ है तथा एक सफल शासिका के रूप में भी हुआ है। सारस्वत प्रदेश के विकास में लीन मनु को भी वह अपने अनुपम सौन्दर्य के प्रति आकर्षित कर लेती है। जिससे मनु की अतृप्त काम-वासना उदबुद्ध हो उठती है। वे उन्मुक्त होकर सोचने लगते हैं कि इड़ा पर भी मेरा ही अधिकार होना चाहिये। जिसके परिणामस्वरूप मनु को सारस्वत प्रदेश की प्रजा के विरोध का सामना करना पड़ता है। इड़ा का ममत्व मोम का जैसा नहीं है। नारी सुलभ ममता के कारण द्रवीभूत होकर वह मनु को बचा लेती है।

‘निर्वेद’ सर्ग में उसका अर्न्तद्वन्द्व चित्रित है। इड़ा घायल मनु को देखकर सोचती है; “जिसने मेरा उपकार किया था, आज मेरे कारण वही अपराधी बना है।’ ‘प्रसाद’ ने इड़ा की बुद्धिवादिता को हृदय तत्व से संस्कारित करने का प्रयत्न किया है। सारस्वत इड़ा बुद्धि की नहीं, विवेक की प्रतिनिधि ही मानी गई है। कवि ने अपना प्रयोजन सिद्ध करते हुए उसे बुद्धि के प्रतीक के रुप में दिखाया है । उसी के माध्यम से बुद्धिवाद और विज्ञानवाद की विवेचना की है। इड़ा के मुँह से कहलाया गया है-

‘तिस पर मैंने छीना सुहाग, हे देवि ! तुम्हारा दिव्य राग:

दर्शन सर्ग

यहीं से इड़ा के चरित्र में परिवर्तन दिखाई देता है। अंत में ‘प्रसाद ने इड़ा को श्रद्धा की चरण-धूलि लेने पर विवश कर दिया। इड़ा के जैसा प्रतिभाशाली चरित्र साहित्य में अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। जिसमें बुद्धिवादिता, तर्कशीलता का सामन्जस्य स्थापित होता है।

कामायनी के अन्य पात्र : किलात-आकुली

‘कामायनी’ में मनु, श्रद्धा, इड़ा के अतिरिक्त किलात एवं आकुली नामक दो असुर पुरोहितों का भी उल्लेख है। ऋग्वेद के दशम मंडल में राजा अस्माति द्वारा अपने पुराने चार पुरोहितों का वध कर किलात एवं आकुली को अपनाने का वर्णन आता है। ये दोनों मायावी असुर थे। (ऋग्वेद, 10/57 अनुक्रमणिका) ‘ किलाताकुलि- इतिहासुर ब्रह्मासुर शतपथ ब्राह्मण के अनुसार दोनों असुर पुरोहितों ने श्रद्धा देव मनु को मैत्रावरण यज्ञ करने को प्रेरित किया है। ‘कामायनी’ की कथा का आधार मुख्यतः शतपथ ब्राह्मण है। असुर पुरोहितों का जो चरित्र ‘कामायनी’ में चित्रित है। उसके अनुसार ये दोनों राक्षसी प्रवृति प्रधान हैं। सुरापान, भोग, विलासी, हिंसा, पाश्विकता आदि इनकी प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं।

प्रलय के पश्चात् मनु एक ऋषि का जीवन जी रहे थे। वह देव-सृष्टि वाली विलासिता की वृत्ति से मुक्त हो चुके थे। उन्हीं वृत्तियों को इन दोनों असुर पुरोहितों ने जगा दिया। इसी कारण मनु में पुनः भटकाव आ गया। उन्होंने मदिरा का सेवन करना प्रारम्भ कर दिया और श्रद्धा द्वारा पालित प्रिय पशु का वध कर डाला। उसे अपनी हवि का रूप देकर स्वरूप ग्रहण कर लिया। सोम रस का पान कर, तथा पुरोडास का भक्षण कर श्रद्धा को व्यथित दया। इसके पश्चात् मनु ने शिकार करना प्रारम्भ कर दिया। किलात और आकुली की संगति का परिणाम यह हुआ कि इस पुनर्जागृत विलासिता के परिणामस्वरूप अब मनु का मन अतृप्त हो गया और वह गर्भवती श्रद्धा को छोड़ पलायन कर जाते हैं। सम्पूर्ण काव्य में ये दो पात्र खलनायक की भूमिका में सामने आते हैं और अपनी छोटी सी भूमिका से ही कथा को नया मोड़ दे देते हैं।

कामायनी के पात्र : मानव

मानव श्रद्धा तथा मनु का पुत्र है, जिसकी महाकाव्य में एक संक्षिप्त भूमिका है। प्रथम बार उसका वर्णन स्वप्न सर्ग के प्रारम्भ में आता है। मनु के पलायन कर जाने के उपरान्त शिशु मानव ही श्रद्धा का एकमात्र सहारा है। छोटी-सी भूमिका में उसे पिता के स्नेह से वंचित दिखाया गया है तथा माता का प्रेम भी अल्प समय तक ही मिलता दर्शाया गया है। वह महाकाव्य के अन्तिम सर्ग तक अपनी छोटी-छोटी भूमिकाओं में उपस्थित रहता है। पिता (मनु) के व्यक्तित्व का प्रभाव उसके सम्पूर्ण जीवन पर पड़ता है, क्योंकि माता भी उसे पति से विरत होने के कारण वह प्रेम नहीं दे पायी जिसका वह अधिकारी था। सम्पूर्ण महाकाव्य में एकमात्र बालक पात्र मानव ही है। कहानी में रोचकता प्रदान करने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।

कामायनी का दार्शनिक पक्ष

कामायनी का दार्शनिक पक्ष भारतीय दार्शनिक धारा का एक अंग है । प्रसाद का सम्पूर्ण चिन्तन मनन दार्शनिक प्रवाह में ओत-प्रोत है। ‘कामायनी’ भी उनकी एक ऐसी ही कृति है। उनके व्यक्तित्व के परवर्ती विकास एवं परिणति में भारतीय दर्शन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों की छाप स्पष्ट अंकित हुई है।

‘कामायनी’ में आकर वेदान्त की अद्वैत भूमि प्रत्यभिज्ञा दर्शन की समरसता मूलक, पूर्ण अभेदवादी भूमि में परिणत हो गई है। अतएव यह निर्धान्त रुप से सिद्ध होता है कि ‘कामायनी’ की चरम दार्शनिक उपलब्धि-प्रत्यभिज्ञा की ही पूर्ण सामरस्यवादी निष्पत्ति है, यद्यपि इसमें अद्वैत-दर्शन के तत्वों का प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई देता है।

‘कामायनी’ का प्रणयन पुष्ट एवं दार्शनिक भित्ति पर हुआ है, जो उसके आदर्शवादी प्रयोजन की सिद्धि के लिए नितान्त आवश्यक है। ‘कामायनी में सृष्टि की उत्पत्ति, परमसत्ता, जीवात्मा इत्यादि से सम्बन्धित तथ्यों का सुन्दर एवं सुस्पष्ट सगुंफन हुआ। ‘कामायनी’ में विभिन्न दर्शनों, शास्त्रों, वेदों-पुराणों और आधुनिक चितनों का समवेत प्रभाव दिखायी देता है। इसमें अनेक प्राचीन दर्शनों की बातें समेटी गयी हैं। जिनमें कश्मीरी शैव दर्शन की प्रमुखता है।

‘कामायनी’ के दर्शन को ‘आनन्दवाद’ नाम भी दिया गया है, किन्तु इसे शैव दर्शन का ही शब्द नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा कोई नाम शैव ग्रन्थों में प्रचलित नहीं है।

‘कामायनी’ इसी दार्शनिक पृष्ठभूमि को अपनाकर चलती है। यह एक सुन्दर प्रतीकात्मक काव्य है। ‘निवेद’ सर्ग तक तो कथा इस प्रकार चलती है कि कथा का प्रस्तुत् पक्ष प्रधान रहता है, परन्तु आगे के तीन सर्गों में दर्शन की बातें प्रमुख होती चली जाती हैं और प्रतीकात्मकता वाच्य कोटी में आती जाती है। जीव, जगत् और ब्रह्म विषयक ‘कामायनी’ के दर्शन पर अनेक दर्शनों का प्रभाव होते हुए भी यह शैव दर्शन के अधिक निकट प्रतीत होता है।

(क) विश्व की रचना –

“जिस परमतत्व या आद्यतत्व को वेद में तपस्’ कहा गया है, तथा उपनिषद् में ब्रह्म या परमब्रह्म कहा गया है, उसे ‘प्रसाद’ ने शैव दर्शन के आधार पर ‘महाचिति’ कहा है, जो लीलामय आनन्द करती हुई सजग भाव से ‘व्यक्त हुई और जिसकी इच्छा से ही विश्व की रचना हुई थी

“कर रही लीलामय आनन्द, महाचिति सजग हुई सी व्यक्त,

विश्व का उन्मीलन अभिराम, इसी में सब होते अनुरक्त।”(आनन्द सर्ग पृ020)

(ख) अभेदभाव आभासवाद –

शैवदर्शन में इस सम्पूर्ण जगत् को शिव की ‘शक्ति’ का ही व्यक्त एवं विस्तृत स्वरुप माना गया है। ‘प्रसाद’ जी ने काव्य के आरम्भ में ही इस अभेदभाव का कथन किया है:-

“एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन'(चिन्ता सर्ग पृ01)

(ग) सामरस्य वाद –

प्रत्याभिज्ञादर्शन (लिंगायत दर्शन) में शिव तथा शक्ति के सामरस्य पर बल दिया गया है। शक्ति शिव की होती है। अतः शिव को शक्तिमान भी कहा गया है। यह नीर-नीर जैसा अथवा क्षीर-क्षीर जैसा संयोग सामरस्य है। लिंगायत दर्शन’ में दो समान रसों के मिलने को सामरस्य कहा गया है। वहाँ यह सामरस्य तादात्मय से भिन्न बताया गया है। दूध का दूध से मिलना अथवा पानी का पानी से मिलना ‘सामरस्य’ है। जबकि दूध व पानी का संयोग तादात्म्य है।

(घ) आनन्दवाद –

औपनिषदिक परम्परा में आनन्दरुप ब्रह्म का स्पष्ट निरुपण हुआ है। तैत्तिरीयोपनिषद्’ में ‘असत्’ से ‘सत्’ की उत्पत्ति हुए ब्रह्म के रसमय स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। ब्रह्म रस ही सत्य है। इस कारण इसके द्वारा रची हुई सृष्टि सुन्दर एवं उत्तम है।

‘प्रसाद’ ने तैत्तिरीय ब्राह्मण’ को आधार मानकर ‘कामायनी’ में कहा है किः ‘कामायनी’ के मूल में चिर आनन्द की साधना है एक सुशिक्षित, दृढ एवं बलवान् युवक के लिए यदि पृथ्वी धनधान्य से परिपूर्ण हो जाय तो उसे जो आनन्द प्राप्त होगा वह “एक मनुष्य आनन्द” होगा।

‘कामायनी’ का आनन्दवाद विश्व-सौन्दर्य की चरम सिद्धि है। इस प्रकार ‘कामायनी’ में प्रत्याभिज्ञा के अभेद-पूर्ण, सामरस्यवादी वैयक्तिक आनन्दवाद का, लोकनिष्ट, व्यावहारिक अनुवाद प्रस्तुत किया गया है।

(ङ) पुरुष प्रकृति –

भारतीय आर्ष वाङ्यम में ‘पुरुष का प्रयोग व्यक्तिगत आत्मा तथा समष्टिगत आत्मा एवं परमात्मा के रुपों में किया गया है। ऋग्वेद के प्रसिद्ध पुरुष-सूक्त में ‘परम पुरुष’ को सहस्त्र शीर्ष, सहस्त्र नेत्र तथा सहस्त्र पाद वाला बताकर समस्त भूमण्डल तथा समस्त भूतों में व्याप्त करने वाला कहा गया है।

‘कामायनी’ में प्रकीर्ण विचार तत्व – संसार की दुःखमयता एवं क्षणभंगुरता का कई स्थलों पर उल्लेख हुआ है।

‘श्रद्धा’ को विश्व की करुण कामना–मूर्ति कहा गया है। ये सभी गुण बौद्ध दर्शन में तथा वैष्णव विचारधारा में भी बहुमूल्य माने गये हैं।

‘काम’ सर्ग में मूलशक्ति के सचेत होने पर अणुओं के परस्पर मिलने का अभिराम वर्णन किया है। इड़ा, स्वप्न तथा संघर्ष सर्गों में सामाजिक विषमता, वर्ग संघर्ष इत्यादि के जो उल्लेख आये है, उनमें भौतिक-वादी अथवा मार्क्सवादी विचार धारा की गूंज झंकृत हो रही है।

कामायनी का दार्शनिक पक्ष में डार्विनवाद

‘काम’ सर्ग में जिस प्रकार काम विश्व को मनोहर कृतियों का रंगस्थल बताता है; उसी प्रकार डार्विन के अनुसार ‘अनुकूल परिस्थियों’ में प्राणी अधिक सफल होता है। ‘संघर्ष’ सर्ग में इड़ा मनु को ताल पर चलने और विवादी स्वर नहीं छेड़ने का उपदेश देती है। उसी प्रकार डार्विन ने ‘अनुकूल परिवर्तन’ का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। इडा सर्ग में कई छन्दों में ‘अस्तित्ववादी निराशा के स्वर सुनाई पड़ते हैं। समरसतामूलक आनन्दवाद की स्थापना के प्रयास में कैलाश तीर्थ की जो उद्भावना की गयी है, उसमें प्रत्यभिज्ञा की ठोस भूमि के बावजूद, कल्पनालोक के मोहक आदर्श का अभिराम रंग वितान भी अपनी स्निग्ध छायाएँ प्रसारित किए हुए है।

‘कामायनी’ के मूल में जो आध्यात्मिक तत्व है, वह शैव तत्वज्ञान के ऊपर खड़ा है। इस तत्वज्ञान की विवेचना कवि की स्वतंत्र विवेचना है। उसमें उसकी मौलिक उद्भावना है। इस पर बौद्धतत्वज्ञान की भी छाया है। शुद्ध निर्लेय चेतनता और आनन्द की प्राप्ति ही मानव का परम लक्ष्य है। समाज-निर्माण और लोक कल्याण इस लक्ष्य की सिद्धि के बीच की मंजिलों के रूप में आते है। समाज में अविरोधी-चेतना का भाव रखकर ही व्यक्ति की सच्ची उन्नति सम्भव है। इस उन्नति में बुद्धि का अनिवार्य महत्व है, पर बुद्धि प्रमाद में परिवर्तित होकर परस्पर प्रतियोगिता और विनाश का कारण होती है। इस प्रकार श्रद्धा द्वारा भेद बुद्धि के संस्कार से शुद्ध चेतनता और आनन्द की साधना से ही चरम लक्ष्य प्राप्त किया जाता है। और इसी का सुबोध एवं कलापूर्ण संदेश ‘कामायनी’ के कवि ने हमें दिया है। यह संदेश आनन्द और शक्ति यानी पौरुष से पूर्ण है। उसमें निष्क्रियता नहीं; चिरचेतनता और कर्मण्यता है।

कामायनी का दार्शनिक पक्ष में परमाणु वाद

‘कामायनी’ में परमाणु वाद का संकेत भी मिलता है, जिनके अनुसार इस सृष्टि का विकास विभिन्न परमाणुओं के परस्पर संयोग से हुआ है। न्याय वैशेषिक दर्शन के अनुसार विभिन्न अणुओं के परस्पर संयोग से क्रमशः स्थूलतर एवं स्थूलतम् पदाथ न्न होते गये और इसी क्रम से अन्त में पृथ्वी जल, अग्नि एवं वायु आदि की उत्पत्ति हुई। ‘कामायनी’ में इसी परमाणु की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि सृष्टि के आरम्भिक काल में एक रुपाकारहीन विराट् कुहासामण्डल था और फिर क्रमशः विद्युत्कण और परमाणुओं के संश्लेषण के द्वारा प्रकृति के नाना रुपों की सृष्टि हुई। परन्तु “प्रसाद’ ने समस्त ध्वंसित एवं विश्लेषित पदार्थों के पुनः संश्लिष्ट होने का कारण उस मूल शक्ति को माना है; जिसके द्वारा आलस्य का त्याग होते ही सभी अणु-परमाणु एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं और उनके परस्पर संयोग से सृष्टि की रचना होती है।

कामायनी में आनन्दवाद

शुक्ल के अनुसार ‘कामायनी’ में ‘प्रसाद ने अपने प्रिय आनन्दवाद की प्रतिष्ठा दार्शनिकता के ऊपरी आभास के साथ कल्पना की मधुमती भूमिका बनाकर की है। यह आनन्दवाद वल्लभाचार्य के काम या आनन्द के ढंग का न होकर तांत्रिकों और योगियों की अन्तर्भूमि पर है।

‘प्रसाद’ जी ने मनु, श्रद्धा तथा इड़ा आदि से जुड़ी यत्र-तत्र असम्बद्ध रुप से बिखरी हुई कथाओं का संकलन करके एक सुसम्बद्ध कथानक की योजना की है; जो कि मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक चेतना की सुदृढ़ एवं शाश्वत भावभूमि पर प्रतिष्ठित है। विभिन्न कथा-सूत्रों की भाँति उन्होनें विभिन्न दर्शनों के प्रतिपाद्यों को ग्रहण करते हुए मानव-चेतना के विकास का एक मौलिक और मधुर दर्शन प्रस्तुत किया है।और कामायनी का दार्शनिक पक्ष को प्रस्तुत किया गया है .

कामायनी का मनोवैज्ञानिक पक्ष

‘कामायनी’ में कवि ने आधुनिक मनोविज्ञान की एक शाखा का सूत्रपात किया है, जिसे विकासात्मक मनोविज्ञान’ कहा जाता है। मनोवैज्ञानिक आधार पर इसका वयस्क व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं के चारगत परिष्कार की दृष्टि अध्ययन किया जा सकता है और उसके आधार पर मानवीय संस्कृति एवं सभ्यता के विभिन्न स्तरों एवं सोपानों का निर्धारण किया जा सकता है।

‘कामायनी’ में भय, क्रोध, प्रेम, स्पर्धा, घृणा, पीड़ा, आनन्द, चिन्ता, लज्जा आदि संवेगों का वर्णन कर कामायनी का मनोवैज्ञानिक पक्ष का उजागर किया है। उन्होनें लज्जा व काम का मानवीकरण बड़े ही मनोरम ढंग से प्रस्तुत किया है। जैविक क्रियाओं की प्रेरणाओं के सम्बन्ध में “आहारनिन्द्राभय-मैथुन” का जो हमारा पुराना विधान रहा है, उसी की नवीन स्थापना आधुनिक मनोविज्ञान द्वारा भी की गई है।

भूख, प्यास, निद्रा, काम तथा चोट से अपने अंगों को बचाना जैसी प्रवृत्तियों को दैहिक इच्छाओं के अर्न्तगत गिनाया गया है। मानसिक प्रेरणाओं में प्रभुत्व आत्म-सम्मान, सुरक्षा, सामाजिकता, युयुत्सा अथवा आक्रामकता एवं नवीन अनुभव प्राप्त करने की इच्छा इत्यादि का समावेश किया गया है।

दूसरों द्वारा प्रेम-पूर्ण प्रतिक्रिया प्राप्त करने की प्रवृत्ति जब तीव्र व लौकिक अथवा काम–इच्छा से संयुक्त हो जाती है, तब स्त्री और पुरुष दोनों ही अपने विपरीत लिंग वाले व्यक्ति के साथ प्रेमाभिव्यक्ति का विनियम करने की प्रकृति से आकुल हो जाते है। और तब काम की स्थूल ईहा मनोलैंगिक प्रेरणा का स्वरुप ग्रहण कर लेती है। मौलिक संवेग स्थायी भाव तथा ये प्रेरणाएँ तभी परस्पर घनिष्ठ भाव से गुंथे हुए है और परिवेश एवं वातावरण के साथ समुचित रुप से अभियोजित होकर, मनुष्य का संस्कार परिष्कार करते है तथा मानवी संस्कृति का विकास-पथ प्रशस्त्र करते हैं।

‘कामायनी’ में मनु के ‘पुरुष’ तत्व पर अधिक बल दिया गया है। ‘प्रसाद’ ने ‘कामायनी’ के भूमिका में एक स्थान पर ‘सत्य’ और ‘पुरुषार्थ’ की बात कही है। उन्होंने सत्य का अर्थ घटना भी किया है और स्थूल अवस्था में उससे अभाव एवं मिथ्यातत्व की प्रवृति भी बतलाई है। यानी ‘कामायनी’ में उद्धत घटनायें साथ के धरातल पर है। यह सत्य सनातन है, शाश्वत है। वह कभी मर नहीं सकता इसलिये ‘कामायनी भी मर नही सकती है। ‘मनु’ का पुरुषार्थ सृजक है, ‘इडा’ पोषक है और श्रद्धा मोक्षदायनी है। प्राणों की हन्ता बन कर नहीं, अपितु एक पागल प्राण में महाप्राण का संचार कर, श्रध्दा जिन्दगी को जीना सिखाती है।

कवि ने पुरुषार्थ को दो अर्थों में ग्रहण किया है; एक नारी के योग-वियोग के रहते हुए भी उसकी स्वीकृति से निरपेक्ष मात्र अहंजन्य समस्त अन्तःवाह्य चिंतन कर्म के अर्थ में। यह पुरुषार्थ का संकुचित अर्थ है। दूसरा नारी की सम्पूर्ण सहयोग स्वीकृति से युक्त अहंनिरपेक्ष अन्तःवाह्य कर्म के अर्थ में, यह पुरुषार्थ का विस्तृत एवं विषदतम् अर्थ है और सही भी यही है;

“तुम भूल गये पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की,

समरसता है सम्बन्ध बनी अधिकार और अधिकारी की।”

(इडा सर्ग पृ 0 86)

चिंता की स्थिति में व्यक्ति का हृदय प्रायः संवेदनशील हो जाता है। उसी से आशा का उदय होता है। आशा का यह रुप अस्थिर एवं मधुर स्वप्न में कुछ क्षण स्थिर होती है। तब यह मानव को कभी अधीर बनाती है और कभी जीवन दायिनी प्राणवायु के समान हृदय में नवोत्साह का संचार करती है। आशा का उदय, मधुर रात्रियों के जागरण के समान सुखद और रुचिकर लगता है।

‘आशा’ सर्ग में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। एसे वर्णनों से प्रतीत होता है कि ‘कामायनी’ की कथा मनुष्यता का मनोवैज्ञानिक इतिहास बनने में समर्थ हो सकती है।

चिंता’ सर्ग में सूक्ष्म व अमूर्त भावों का बड़ा सटीक अंकन किया गया है आज हम सत्य का अर्थ घटना से कर लेते है। तब भी उसके तिथि-क्रम मात्र से संतुष्ट न होकर मनोवैज्ञानिक अन्वेषण के द्वारा इतिहास की घटना के भीतर कुछ देखना चाहते है कि उसके मूल में क्या रहस्य है ? आत्मा की अनुभूति उसी भाव के रुप में ग्रहण की चेष्टा सत्य घटना बनकर प्रत्यक्ष होती है-

“औ चिंता की पहली रेखा, अरी विश्व वन की व्याली,

ज्वालामुखी स्फोट के भीषण, प्रथम कंप सी मतवाली’!

(चिंता सर्ग पृ 02)

उक्त पंक्तियों में चिंताकुल व्यक्ति के माथे पर पड़ जाने वाले ‘बल के रुप में चिंता की आकृति ‘व्याली’ सी बताकर उसकी संतापवादी प्रवृत्ति की ओर संकेत किया गया है। चिंतित व्यक्ति का चित्त किसी प्रकार की रमणीयता में नहीं रमता; जिससे उसके लिए समस्त संसार भी समृद्धिहीन हो जाता है। चिंता ही शारीरिक एवं मानसिक संतापों का मूल है।

लज्जा या पीडा, साहित्यशास्त्र के अनुसार संसारी भाव हैं। रति-कामना के जागरण के पूर्व श्रद्धा के जीवन में स्वच्छंदता थी, परन्तु इस कामना के जाग्रत होने के साथ-साथ उसके हृदय में नारी-सुलभ लज्जा का भाव सजग होता है और स्थायी भाव ‘रति’ के उद्दीपन के योग को देखकर तिरोहित हो जाता है। लज्जा भाव का उदय ‘प्रसाद’ जी ने एक छाया प्रतिमा के रूप में चित्रित किया है; जिससे शास्त्रीय या मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की शुष्कता के स्थान पर काव्य में सरसता आ गयी है। लज्जा का यह वर्णन लज्जा सर्ग के सोलहवें छन्द तक चलता है; जिसमें लज्जावती नायिका के मनोभावों का कलात्मक अंकन हुआ है। तदनंतर श्रद्धा के प्रश्नों का उत्तर देती हुई लज्जा उसे बताती है कि मैं क्या हूँ

“उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्र्दय जिसे सब कहते हैं,

जिसमें अनंत अभिलाषा के सपने सब जगते रहते हैं,”

(लज्जा सर्ग पृ 041)

सर्ग के उत्तरार्द्ध में लज्जा के उदय से कपोलों पर लालिमा छाने, नेत्रों में अंजन अंजित जैसी यामलता बढ़ने और मन में घुघराली अलकों जैसी ममोर उठने की बात कही गई है। लज्जा वासना की ओर पग बढ़ाने की मानसिक चंचलता का वर्णन करती है। प्रणय के तीव्र आकर्षण और लज्जा तथा आत्म चिंतन के मनोवंश को एक ही नारी के दो रूपों (श्रद्धा तथा उनकी छाया प्रतिमा) अर्थात् दोनों पात्रों के संवाद के माध्यम से निरूपित करने से रचना को सरसता और सहज सार्थकता मिली है। इसी प्रकार प्रत्येक सर्ग का सम्बन्ध दूसरे सर्ग से कड़ी के रुप में जुड़ा है। एक भी सर्ग आगे पीछे हो जाय तो पूरी कड़ी ही बिखर जायेगी।

प्रत्येक सर्ग अपने शीर्षक के अनुरुप ही अपने अर्थ से साक्षात्कार कराता है। यदि ये आगे पीछे हो जायें तो पूरा महाकाव्य बिखर जायेगा। ‘काम’ तथा ‘वासना – नारी हृदय की स्वाभाविक दुर्बलता का वर्णन किया गया है। उसमें आत्म-समर्पण की भावना मुखर रहती है। विभिन्न परिस्थतियों में नारी की विभिन्न मनोदशाओं से गुजरने का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है। नारी के निरपेक्ष भाव का समर्पण निम्न पंक्तियों में देखने को मिलता है-

“सर्वस्व समर्पण करने की विश्वास महातरू छाया में,

चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती है माया में ?”

(लज्ला सर्ग पृ 042)

इस अर्पण में कुछ और नहीं, केवल उत्सर्ग छलकता है;

मैं दे दूँ और न फिर कूछ लूँ इतना ही सरल झलकता है।

(लज्ला सर्ग पृ 043)

वासना के उपरान्त मनु में कर्म की प्रवृत्ति बढ़ती है। कर्म से कवि का अभिप्राय हिंसात्मक कर्म से है। कर्म के अबाध प्रवाह में डालने वाली प्रवृत्ति वासनाजन्य अतृप्ति है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अतृप्ति ही हिंसात्मक कार्यों की परिणति होती है। कर्म का ही अतिवादी रूप सत्ता को अधिकृत करने की चेष्टा तथा अपने को अधिकारी बनाने का उद्योग है। इसी प्रकार ‘ ईर्ष्या सर्ग’ में मनु द्वारा मानव स्वभवानुकूल अपनी ईर्ष्या व्यक्त करने, अपना आधिपत्य स्वीकार न करने वाले को अपनी शक्ति से प्रभावित करने का प्रयास करते दिखाया है।

‘प्रसाद’ ने ‘कामायनी में सर्गों के शीर्षकों को विविध मनोभावों के नाम दिये हैं; जैसे चिंता, आशा, काम, वासना, लज्जा, ईर्ष्या, निर्वेद आदि। ये सूचित करते हैं कि ‘प्रसाद’ का लक्ष्य मानव मनोविज्ञान को प्रतिष्ठित करना था। मानव की समस्त प्रगति, विकास और विस्तार श्रद्धा द्वारा ही सम्भव है। उसके स्वरूप को और भी अधिक स्पष्ट करने के लिये ‘काम सर्ग की योजना की गयी है। इसके अतिरिक्त दूसरे विविध मनोभावों के अपूर्व शब्द चित्र भी दिये गये हैं।

‘कामायनी’ के आमुख में स्वयं कवि ने मानव आत्मा की सूक्ष्म अनुभूति या भाव के सम्बन्ध में लिखा है-

“यदि श्रद्धा और मनु अर्थात् मनन के सहयोग से मानवता का विकास रुपक हैं, तो भी बड़ा ही भावमय और श्लाघ्य है। ‘कामायनी’ मनुष्यता का मनोवैज्ञानिक इतिहास बनने में सहायक हो सकती है।

कामायनी का ऐतिहासिक आधार

‘कामायनी’ की आधार कथा प्रागैतिहासिक काल की कथा है। ‘प्रसाद’ ने इतिहास के वर्तमान संकुचित अर्थ को ग्रहण न करते हुए ‘आमुख’ में स्पष्ट किया है कि, सत्य केवल तथ्य संकलन तक ही सीमित नहीं है, सत्य आत्मा की अनुभूति का नाम है। इस दृष्टि से वे प्राचीन पौराणिक ग्रंथों को पूर्णतया काल्पनिक न मानते हुए उनके पीछे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि स्वीकार करते हैं।

डॉ० ट्रिकलर, पार्जिटर आदि पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार भी पुराणों में वर्णित घटनाएं निराधार और निस्सार दन्तकथाएं नहीं, अपितु इनका वास्वविक आधार भी है।

‘प्रसाद’ के मतानुसार जल प्लावन भारतीय इतिहास में एक ऐसी प्राचीन घटना है; जिसने मनु को देवों से विलक्षण, मानवों की एक भिन्न संस्कृति प्रतिष्ठित करने का अवसर दिया। वह इतिहास ही है। पाश्चात्य इतिहास में भी प्रलय की घटनाओं का विवरण मिलता है।

कामायनी में ऐतिहासिक पात्र

‘प्रसाद’ मनु को ऐतिहासिक पात्र मानते हैं। उनके मतानुसार ‘मनु’ भारतीय इतिहास के आदि पुरूष हैं। राम, कृष्ण और बुद्ध उन्हीं के वंशज हैं। श्रद्धा के साथ मिलन होने के बाद मनु उसी निर्जन प्रदेश में सृष्टि का आरम्भ करते हैं; किन्तु इसी समय असुर पुरोहित आकुली और किलात आकर उन्हें मैत्रावरण-यज्ञ करने की प्रेरणा देते हैं। उनसे प्रेरित होकर वैवस्वत मनु यज्ञ हेतु श्रद्धा द्वारा पालित पशु कसले देते हैं व सोमरस पान करते हैं। ये किलात व आकुलि भी ऐतिहासिक पात्र हैं।

‘कामायनी’ का ऐतिहासिक पृष्ठाधार वही विश्रृंखल सामग्री है, जो नाना भाव से वैदिक, लौकिक एवं तांत्रिक ग्रंथों में बिखरी पड़ी है। ‘कामायनी के ऐतिहासिक स्वरूप की विकल्पना करते समय यह तथ्य ध्यान में रखना आवश्यक है, क्योंकि यह ऐतिहासिकता प्रमाणिक एवं विख्यात इतिहास की वस्तु नहीं है। इतिहास में कल्पना का मिश्रण करते समय कवि ऐतिहासिक वातावरण के विषय में भी सर्वत्र सचेष्ट रहा है। मनु घास-फूस की झोपड़ी बनाकर रहते हैं एवं पशुपालन, थोड़ी बहुत कृषि और आखेट से अपना निर्वाह करते हैं। श्रद्धा ऊन की पट्टियाँ बुनती हैं, जिससे वे अपना तन ढाँपते हैं। समाज शास्त्र के अनुसार विश्व के प्रारम्भिक काल में मातृसत्ता थीं तथा बाद में पितृसत्ता स्थापित हो गई।

‘कामायनी’ में श्रद्धा-इड़ा दोनों ही मातृ युग की प्रतीक हैं। सारस्वत प्रदेश में इड़ा मनु का पथ प्रदर्शन करती है और उसके उपदेशानुसार वे सारस्वत प्रदेश का विकास करते हैं। ऐतिहासिक वातावरण के साथ-साथ कवि ने पात्रों के ऐतिहासिक व्यक्तित्व की भी रक्षा की है।

कामायनी का मनु

पुराणों में मनु के दो व्यक्तित्व मिलते हैं, एक स्मृतिकार मनु और दूसरा मानव सृष्टि निर्माता। ‘प्रसाद’ ने ‘कामायनी’ में उनके दोनों प्रकार के व्यक्तित्व चित्रित किये हैं। देव सृष्टि के विध्वंस के पश्चात् वे श्रद्धा के सहयोग से मानव सृष्टि का विकास करते हैं, अतः उनका यह रूप मानव-सृष्टि निर्माता तथा मन्वन्तर -प्रवर्तक का है।

सारस्वत प्रदेश में कवि ने मनु को नियामक बनाकर उनको स्मृतिकार के रूप में प्रस्तुत किया है। श्रद्धा को एक भव्य विश्वासमयी भाव के रूप में दिखाया है। छांदोग्योपनिषद् में त्रिपुर-रहस्य की भावमूलक व्याख्या भी मिलती है। ‘प्रसाद ने उसके ऐतिहासिक व्यक्तित्व का चित्रण करते हुए उसमें दया, माया, ममता, वियोग, करूणा आदि सभी मधुर-कोमल एवं उदात्त भावों को समाविष्ट किया है। इड़ा आदि उन पात्रों का चरित्र चित्रण भी इतिहास सम्मत है।

मनु, अद्धा और इड़ा अपने ऐतिहासिक अस्तित्व की रक्षा करते हुए सांकेतिक अर्थ की भी अभिव्यक्ति करते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं ‘प्रसाद’ ने अपनी मौलिक कल्पना द्वारा श्रद्धा, मनु तथा इड़ा की यत्र-तत्र असम्बद्ध रूप में बिखरी हुई कथाओं का संकलन करके एक निश्चित सुसम्बद्ध कथानक का संयोजन किया है, जिससे कथा प्रवाह को शक्ति तथा पात्रों के चारित्रिक विकास को दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक आधार प्राप्त हुआ है। ‘प्रसाद’ को मानव संस्कृति के इतिहास की पूर्ण स्थापना में आए अवरोध एवं उन अवरोधों के निराकरण हेतु कल्पना का सहारा लेना पड़ा।

काव्य में मनु स्वयं मानवता के पूर्ण आदर्श की प्रतिष्ठा नहीं कर सके, अतः मनु व श्रद्धा के पुत्र के रूप में मानव संस्कृति की व्यंजना के निमित्त ‘कुमार’ मानव की अवतारणा करनी पड़ी। यहीं से इतिहास की डोर कवि के हाथ से छूट गयी और ‘कामायनी को ऐतिहासिक काव्य मानने का आधार स्वभावतः दुर्बल हो गया।

कामायनी का वैदिक आधार

कामायनी का अपना वैदिक आधार भी है । ‘कामायनी’ की कथा का वर्णन वेदों में भी मिलता है। इस महाकाव्य की प्रमुख पात्र श्रद्धा का उल्लेख ऋग्वेद, शत्पथ ब्राह्मण तथा पुराणों में मिलता है। ऋग्वेद में श्रद्धा तथा मनु दोनों का नाम ऋषियों की तरह मिलता है। श्रद्धा कामगोत्र की बालिका है। अतएव श्रद्धा को ‘कामायनी’ भी कहा जाता है। छान्दोग्य उपनिषद् तथा ‘त्रिपुर रहस्य’ में श्रद्धा की भावमूलक व्याख्या भी मिलती है। प्रसाद जी ने उसे हृदय का प्रतीक माना है।

वेदान्त साहित्य में हमें इस शैव तत्वज्ञान के बीज मिलते हैं। इस तत्व ज्ञान के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि आनन्दमयी है। आनन्द से ही उसकी स्थिति है और आनन्द में ही उसका समाहार है। शिव के ताण्डव में इसी उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय की अभिव्यक्ति होती है। उपनिषद् में कहा गया है : “आनन्दो ब्रह्मेति आनन्दाद्धयेवं खल्विमानि भूतानि जायन्ते। आनंदेन जातानि जीवन्ति। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति” अर्थात् “आनन्द ब्रह्म’ है।

कठोपनिषद् में ऋषि कहते हैं :- “मत्यो सः मृत्युमाप्नोति य इहानानेव पश्यति ।’

अर्थात् ‘भेद’ को सत्य माननेवाला मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है। अर्थात् बार-बार मरता है। वह भेद बुद्धि ही शिव या लोक मंगल के नित्यानन्द की उपलब्धि में बाधा है।

‘कामायनी’ कवि इसी शिव तत्व की ओर अग्रसर होता हुआ आनन्द की स्थिति तक ले जाता है।

उपनिषद् में यह भी कहा है;

“यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रन्त्यभिसंविशन्ति ।”

शंकर वेदान्त में बताया गया है कि जगत का कारण होने पर भी ईश्वर केवल लीला के लिए, बिना किसी विशिष्ट प्रयोजन के, सृष्टि की रचना करता है, जैसे समस्त कामनाओं से पूर्ण कोई राजा केवल लीला के लिए क्रीडा-विहार में लीन होता है। ‘प्रसाद’ जी भी महाचिति की लीला लीनता का कथन करते हैं। ‘राधिकोपनिषद्’ में क्रिया शक्ति को ही ‘लीलाशक्ति’ माना गया है, जो विश्व की सृष्टि में कोलक करती है। शंकर वेदान्त के अनुसार परमसत्ता ब्रह्म है, जिसका स्वरूप आनन्द है। सच्चिदानन्द ब्रह्म “आनन्द ब्रह्मणो विद्यात् ।

‘कामायनी’ की दूसरी प्रसिद्ध घटना (मनु-श्रद्धा के मिलन एवं परिणय) का वर्णन भी ऋग्वेद में मिलता है; जहाँ उन्हें सूर्य का पुत्र कहा गया है। मनु के साथ ऋद्धा का उल्लेख ऋग्वेद में ऋषियों के रूप में मिलता है। वहाँ श्रद्धा को काम गोत्र की कन्या कहा गया है। श्रद्धा वाले सूक्त में सायण ने श्रद्धा का परिचय देते हुए लिखा है :-‘कामगोत्रजा-श्रद्धानामर्षिका’ । यजुर्वेद’ और ‘सतपथ ब्राह्मण में उन्हें सूर्य की पुत्री के में उल्लिखित किया गया है:-‘श्रद्धा वै सूर्यस्थ दुहिता। तैत्तरीय ब्राह्मण’ में उसे काम की पुत्री न कहकर काम की माता कहा गया है।

इड़ा का उल्लेख भी ऋग्वेद में कई स्थानों पर हुआ है। यह प्रजापति मनु की पथ प्रदर्शिका तथा मनुश्यों का शासन करने वाली कही गई है। जहाँ सरस्वती एवं मही के साथ उसे भी देवी कहकर सम्बोधित किया गया है।

‘कामायनी’ की तीसरी महत्वपूर्ण घटना मनु-इड़ा का मिलन एवं सारस्वत प्रदेश का विकास है। इडा का उल्लेख ऋग्वेद में कई स्थानों पर मिलता है। इड़ा के जन्म का विवरण वेदों में नहीं मिलता है, फिर भी वेदों का आधार लेकर ही ‘प्रसाद’ ने ‘कामायनी’ महाकाव्य की रचना की है।

कामायनी का पौराणिक आधार

‘कामायनी’ का मूल आधार पौराणिक साहित्य है। सृष्टि के जल विप्लवन की घटना किसी न किसी रूप में संसार के सभी प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध है। ‘कामायनी’ की कथा महाप्रलय के चित्रण से आरम्भ होती हैं।

‘मनवे वै प्रातः’ इत्यादी से इस घटना का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण के आठवें अध्याय में मिलता है।” देवगण के उच्छृखल स्वभाव से निर्बाध आत्मतुष्टि में अन्तिम अध्याय लगा और मानवीय भाव अर्थात् श्रद्धा और मनु का समन्वय होकर प्राणी को नये युग की सूचना मिली।

ब्रह्मपुराण तथा विष्णुपुराण में नैमित्तिक, प्राकृतिक तथा आत्यंतिक तीन प्रकार के प्रलयों का उल्लेख मिलता है। इन तीनों के अतिरिक्त अग्नि पुराण तथा ‘श्रीमद्भागवतपुराण’ में एक चौथे ‘नित्य’ प्रलय का भी उल्लेख मिलता है; जिससे नित्य प्रति प्राणियों का नाश होते रहता है। ‘कामायनी’ के प्रारम्भ में जिस प्रकार के प्रलय का वर्णन है, उसे अग्निपुराण तथा ‘श्रीमद्भागवत-पुराण में ‘ब्राह्म’ नामक ‘नैमित्तक’ प्रलय कहा गया है।

इस जल प्लावन के विषय में अन्य पुराणों में भी वर्णन है कि सृष्टि के विकास से पूर्व चारों दिशाओं में अन्धकार ही अन्धकार था और सर्वत्र जल व्याप्त था। जल प्लावन की विस्तृत कथा ‘शतपथ ब्राह्मण’ के प्रथम काण्ड के आठवें अध्याय में मिलती है। वहाँ यह कथा इस प्रकार है-एक बार हाथ धोने के लिये जल लेते समय मनु के हाथ में मछली आ गयी, जिसकी उन्होनें रक्षा की। उनके सद्व्यवहार को देखकर मत्स्य ने कहा कि प्रलय के समय मैं आपकी रक्षा करूँगा।

कालान्तर में जब प्रलय हुआ तो मनु मत्स्य के सींग में अपनी नौका बाँधकर उत्तरगिरि के शिखर पर जा पहुँचे। वहाँ ओध के जल का अवतरण होने पर वह जिस स्थान पर उतरे उस स्थान को ‘मनोरवसर्पण’ कहा गया। ‘अपीपरं वै त्यां, वृक्षे नावं प्रतिबध्नीष्ष, तं तु त्वा मा गिरी सन्त मुदकमन्तश्चैत्सीद यावद् यावदुदकं समवायात्-तावत् तावदन्ववससि इति-स ह तावत् तावदेवान्वससर्प। तदप्येतदुत्तरस्य गिरेमनोरवसर्पण मिति ।

‘जैमिनीय ब्राह्मण’ में भी यह कथा क्षीर्णरुप में मिलती है, परन्तु वहाँ इस बात का वर्णन है कि जल-प्लावन के समय मनु की रक्षा मत्स्य द्वारा नहीं होती, वरन् सामवेद की ऋचाएं स्वयं स्वर्णिम नौका बनकर मनु की रक्षा करती हैं। वेदों एवं पुराणों के अतिरिक्त महाभारत के वनपर्व’ में भी प्रलय का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। इसमें मनु को विवस्वान् का पुत्र एवं यशस्वी महर्षि बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण एवं महाभारत की कथा में कुछ अन्तर है। महाभारत के अनुसार जब जल-प्लावन के उपरान्त मनु ही नहीं, वरन् समस्त पदार्थों के बीज और सप्तर्षि भी उस नौका में बचे रहते हैं।

मतस्य पुराण में यह कथा और भी परिवर्तित रुप में विस्तार के साथ मिलती है। यहाँ मनु को दक्षिण देश का राजा कहा गया है और जो मलय पर्वत पर तपस्या करने के लिए जाता है और वहीं एक दिन तर्पण करते समय उसकी मत्स्य से भेंट हो जाती हैं। इस पुराण में मनु के तीन भेद-ऋक, यजु, सोम हैं। इसमें समस्त विद्याओं के साथ सभी पुराण, चन्द्रमा, सूर्य, नर्मदा नदी, महर्षि मार्कण्डेय तथा शंकर के अवशिष्ट रहने का उल्लेख है।

भविष्य पुराण में वर्णित मनु-मत्स्य की कथा बाइबिल की कथा से बहुत कुछ साम्य रखती है। भविष्य पुराण में मनु का नाम ‘न्यूह दिया गया है और उन्हें आदम की संतान कहा गया है। इस पुराण में नाव का भी वर्णन है, जो पचास हाथ चौड़ी व तीन सौ हाथ लम्बी है। जैन ग्रन्थ ‘कालसप्तिका’ में भी भविष्य पुराण की भाँति ‘उग्रतरअर’ (प्रथम युग) का वर्णन दिया गया है। इस ग्रन्थ में मनु का नाम ‘विमल वाहन’ दिया गया है। महापुराण’ में विमल वाहन मनु को सातवाँ मनु कहा गया है।

भारतेत्तर ग्रन्थों में भी जल प्लावन सम्बन्धी कथाएं मिलती है। यूनानी साहित्य में ड्यूकलियन की कथा मिलती है, जिसने जल वृद्धि के समय अपनी पत्नी पीरिया की एक नाव में बैठकर रक्षा की। जल प्लावन की समाप्ति पर उसकी नाव औथरस पर्वत पर जाकर रुकी और उसी पर्वत प्रदेश में ड्यूकलिन तथा उसकी पत्नी पीरिया ने नवीन सृष्टि का विकास किया।

यूनान, बेबीलोनिया, वैल्डिया, सुमेरिया, लिथुआनिया इत्यादी के प्राचीन कथायें मनु की कथा से पर्याप्त साम्य रखती है। इन समस्त कथाओं में एक सर्वनिष्ठ तथ्य यह उल्लिखित हुआ है कि जल प्लावन मानव जाति के पापाचार एवं दुष्कर्मों से परिणत हुआ है। बाद में किन्हीं पुण्यात्मा एवं आस्थावान व्यक्तियों द्वारा पुनः सृष्टि का निर्माण हुआ। नाव तथा पर्वत शिखर पर उनके स्थित हो जाने का उल्लेख भी प्रायः सभी जगह उपलब्ध होता है।

पुराणों में श्रद्धा को कहीं कही धर्म की पत्नी भी कहा गया है। ‘श्रीमद्भागवत’ पुराण में श्रद्धा का मनु की पत्नी के रुप में उल्लेख मिलता है। इन्हीं दोनों द्वारा मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है:”ततो मनुः श्राद्धादेवः संज्ञायामास भारत। श्रद्धायां जनयामास दश पुत्रान् स आत्मवान् । पुराणों में चौदह मन्वंतरों का उल्लेख मिलता है। श्रीमद्भागवत’ पुराण में स्पष्ट रूप से श्रद्धा वैवस्वत मनु की पत्नी बताई गई है। तथा उससे उनके दस पुत्र होने का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण में मनु द्वारा सम्बन्धित मैत्रावरुण यज्ञ से इड़ा की उत्पत्ति बताई गयी है।

‘कामायनी’ के अन्तिम भाग में शिव के ताण्डवनृत्य तथा श्रद्धा, मनु की कैलाश यात्रा का वर्णन है, जहाँ पहुँचकर श्रद्धा भाव स्तोत्र, कर्म और ज्ञान नामक तीनों लोकों का समन्वय करती है। ब्रह्मपुराण, लिंगपुराण में शिव द्वारा ताण्डव नृत्य का विस्तार पूर्वक चित्रण किया गया है। इसके अतिरिक्त ‘शिवमहिम्न-स्त्रोत’ तथा ‘देवी नाम विलास’ में भी इसका उल्लेख मिलता है।

‘शिवमहिम्न स्त्रोत’ में ताण्डव के सृष्टि पालक रुप का वर्णन मिलता है। नृत्य करते समय शिव के चरणों के आघात से पृथ्वी धंसने लगती है। बाहुओं के संघर्ष से नक्षत्र–पूर्ण आकाश पीड़ित होने लगता है। महाभारत, श्रीमद्भागवत, लिंग पुराण, शिवपुराण आदि में त्रिपुर का भी उल्लेख है। त्रिपुर विषयक अनेक कथाएं मिलती है। देवों से बचने के लिए असुरों ने त्रिपुर का निर्माण किया। शैवागमों में त्रिपुर के तीन कोण क्रमश: इच्छा, ज्ञान एवं व किया हैं। इन तीनों कोणों में क्रमशः इच्छाशत्ति, ज्ञानशत्ति तथा क्रियाशत्ति नामक तीन शक्तियाँ निवास करती है। इच्छालोक को अरुण, ज्ञानलोक को श्वेत तथा कर्मलोक को श्यामल बताया गया है।

‘मतस्यपुराण’, ‘वायुपुराण’ इत्यादि पुराणों में भगवान शंकर को कैलाश गिरि पर निवास करते बताया गया है; जो हिमालय के मध्य पृष्ठ भाग में अवस्थित है। वहाँ दिव्य एवं मानसरोवर की स्थिति भी बताई गई है।’शिव सहस्त्रनामस्तोत्र’ में शिव को सर्वश्रेष्ठ, सर्वशक्तिमान् इत्यादि कहते हुए उन्हें विश्व को आनन्द देने वाला बताया गया है। तथा महाभारत में इस स्तोत्र की परम्परा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि गौतम ऋषि ने इसकी महिमा वैवस्वत् मनु को बताई थीं।

गीता में उल्लेख हुआ है कि सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु को अविनाशी योग क्रियाओं का ज्ञान कराया। त्रिपुर रहस्य तथा छांदोग्योपनिषद् में उसकी भावमूलक व्याख्या मिलती है। ‘कामायनी’ की घटनाओं का विवरण लगभग सभी पुराणों में उपलब्ध है। इसका पौराणिक पक्ष सशक्त एवं प्रबल है।

‘कामायनी’ का कथानक इन्हीं सब पुराणोल्लिखित कथाओं के आधार पर बुना गया है। इस पर महाभारत, श्रीमद्भागवत, शिवपुराण आदि का प्रभाव सविशेष परिलक्षित होता है। ‘प्रसाद’ ने इस महाकाव्य में पौराणिक पात्रों एवं कथासूत्रों का उपयोग करते हुए आधुनिक युग संदर्भो के परिप्रेक्ष्य में नवीन उद्भावना द्वारा इसे अद्वितीय काव्य बना दिया।

कामायनी का मिथकीय आधार

‘कामायनी’ का मिथकीय आधार जानने से पहले ‘मिथक’ के बारे में जानना अति आवश्यक है। मिथक के बारे में भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वान अपनी-अपनी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। मिथक शब्द अंग्रेजी के Myth शब्द का हिन्दी रूपांतरण है। हिन्दी साहित्य में मिथक शब्द आचार्य हजारी ‘प्रसाद द्विवेदी की देन है।

‘मिथक’ किसी भी देश या जाति के सांस्कृतिक विश्वासों, धार्मिक मान्यताओं, दैवीय आस्थाओं, लोकजीवन की अद्भुत परंपराओं एवं संवेदनशील सामाजिक अनुभूतियों का दिव्य पुंज है। पौराणिकता, अतिमानवीयता, जन-आस्था, एवं जन-विश्वास मिथकों के मूल गुण हैं। ‘मिथक’ सूक्ष्माभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम होने के कारण साहित्य में अपना एक विशेष स्थान रखता है।

‘मिथक’ पौराणिक संदर्भ में वर्णित बौद्धिक कथाओं तथा परंपराओं को आधुनिकता से जोड़ने वाली एक कड़ी है; जो तार्किकता, बौद्धिकता, वैज्ञानिकता को सांस्कृतिक, धार्मिक एवं दैवीय आस्थाओं से जोड़ती है। मिथकों के माध्यम से कवि और लेखक अपनी अभिव्यक्ति को अपनी कल्पनाओं का पुट जोड़कर एक नया रूप देने की कोशिश करते हैं, जिससे रचना में एक नयी रोचकता एवं मौलिकता आ जाती है। ‘मिथक’ के लिए हिन्दी में कई पद व्यवहृत होते हैं, जैसे पुराख्यान तत्व, पुरागाथा, धर्मगाथा, कल्पकथा, पौराणिक प्रसंग आदि। ‘मिथक’ में केवल पौराणिक घटनाएं अथवा धार्मिक आख्यान ही नहीं आते; बल्कि ऐतिहासिक घटनाएं जो पौराणिक नहीं हैं, न ही धर्म से संबंधित हैं; वे भी “मिथक हो सकते हैं। ‘कामायनी’ की कथा भी मिथकों पर आधारित है।

‘कामायनी के मिथक का आधार ‘सतपथ ब्राह्मण’ की कथा एवं महाभारत का ‘वनपर्व है। इसके अतिरिक्त ‘कामायनी की कथा का वर्णन भारतीय पौराणिक कथाओं, पुराणों, धर्म गाथाओं में उल्लिखित है। श्रद्धा और मनु को मिथक माना गया है, परन्तु उनसे जुड़ी घटनाएं कहीं न कहीं अपना अस्तित्व रखती हैं। ‘कामायनी’ की कथा में प्रलय का जो वर्णन किया गया है, वह ऐतिहासिक पुस्तकों, भारतीय धार्मिक कथाओं, बाइबिल, कुरानसरीफ, अवेस्ता आदि अनेक धर्म गाथाओं में भी वर्णित है। एशिया, यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया के बहुत से स्थानों के लोक साहित्य में जल प्लावन का उल्लेख मिलता है।

ऋग्वेद में कहा गया है कि, सृष्टि के विकास के पूर्व सर्वत्र जल ही जल व्याप्त था। ‘कामायनी’ में जल प्लावन तथा मनु और उसकी नौका के बचकर हिमालय पर पहुँचने का वर्णन किया गया है। इस घटना का संकेत अथर्ववेद में भी मिलता है। सत्पथ बाह्मण में इस का विस्तृत विवरण उल्लिखित है। यही कथा आगे चलकर बाह्मण ग्रन्थों, विविध पुराणों तथा महाभारत आदि में थोड़े बहुत अन्तर से मिलती है। सत्पथ बाह्मण में जल प्लावन को ‘ओघ’ कहा गया है, किन्तु पुराणों में इसे प्रलय या खंड प्रलय के नाम से उदबोधित किया गया है। प्रलय की घटना और श्रद्धा तथा मनु का विवरण केवल भारतीय साहित्य में ही नहीं मिलता; बल्कि अन्य देशों के प्राचीन आख्यानों में भी किसी न किसी रूप में यह प्रसंग उल्लिखित है। बाइबिल तथा कुरान में न्यूह का भी उल्लेख मिलता है। यद्यपि ‘मिथकों की सत्यता प्रमाणित नहीं की जा सकती, तथापि मिथक आधुनिक आलोचना का एक प्रिय शब्द बन चुका है।

‘कामायनी’ में देव सृष्टि की निर्वाध विलासिता को विनाश का कारण माना गया है। इस पर अन्य धर्मों की तार्किकता, बौद्धिकता, अलौकिकता एवं वैज्ञानिकता का जो प्रभाव दिखाई देता है वह मिश्र प्रभाव है। कवि ने ‘कामायनी’ के नायक मनु को मन का प्रतीक मानकर प्रस्तुत किया है। वह केवल प्रतीक ही नहीं, बल्कि मनुष्य मात्र की अभिव्यक्ति के मिथक’ भी बन जाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रद्धा या इड़ा हो, या सारस्वत प्रदेश का निर्माण हो, अथवा संघर्ष हो सभी में रूपकार्थ व्यंजित होता है। इन सब से टकराते हुए मनु का उत्कृष्ट मनुष्य या आध्यात्मिक पुरूष बनना भी एक मिथक है।

‘प्रसाद’ ने तत्कालीन देव सृष्टि की अतिशय भोगविलासिता, आस्थाहीनता, उच्छंखलता इत्यादि अवगुणों को मिथकों के रूप में जीवन्त किया है। पुराणों या धार्मिक कथाओं को वर्तमान से जोड़ते हुए प्रस्तुत किया जाय तो वह अत्यन्त रोचक हो जाते हैं। ‘प्रसाद’ ने ‘कामायनी’ को मिथकों के आधार पर प्रस्तुत् कर अत्यधिक सफलता प्राप्त की है। यही कारण है कि “रामचरित मानस के पश्चात् ‘कामायनी’ ही एक अप्रतिम महाकाव्य के रूप में हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठित हो सकी।

मिथकों के माध्यम से ही ‘प्रसाद’ अपना संदेश समाज तक पहुँचाने में सफल रहे। मानव मन का विचलन मनुष्य का किस हद तक पतन कर सकता है तथा मार्ग दर्शक न मिलने पर वह किस तरह भटकता रहता है; इसका निर्देशन भी इन रूपकों द्वारा होता है, श्रद्धा रूपी मार्गदर्शक मिल जाने से मानव-मन पुनः आत्मिक शांति पा सकता है।

कामायनी में प्रतीक योजना

मनु अर्थात् मन के दोनों पक्ष हृदय और मस्तिष्क का सम्बन्ध क्रमश: श्रद्धा और इड़ा से भी सरसता से लग जाता है |

प्रसाद के अनुसार, मनु, मन अर्थात् मनोमय कोष में स्थित जीव के प्रतीक हैं।

डॉ0 नगेन्द्र के अनुसार, चेतना उनका मूल लक्षण है।

डॉ0 भगवत व्रत मिश्र ने श्रद्धा को विशुद्ध आत्मवृत्ति का प्रतीक माना है तथा मनु को मन का प्रतीक माना है।

मन इधर-उधर भटकता है या उसके बुरी प्रवृत्तियों में फँसने से संघर्ष होता है। मन पर आघात होते ही श्रद्धावृत्ति स्वतः सामने आ जाती है। मन पश्चाताप करता है। श्रद्धा मन को उठा कर एक ऐसे स्थान पर ले जाती है जहाँ कर्म, भाव और ज्ञान भिन्न-भिन्न दिखाई पड़ते हैं और जीवन की विडम्बना सिद्ध करते हैं। फिर श्रद्धा मन को वहाँ ले जाती है; जहाँ भाववृत्ति, कर्म वृत्ति और ज्ञान वृत्ति के सामंजस्य का रहस्य प्रकट होता है।

अपनी प्रतिभा के बल पर कवि ने शरीर, मन व आत्मा कर्म, भावना और बुद्धि, क्षर-अक्षर और उत्तम तत्वों को भी संलग्न कर दिया है। मनु व श्रद्धा आधुनिक पुरुष व नारी के प्रतीक भी बन जाते हैं।

कवि ने प्रकृति के विभिन्न अवयवों का मानवीकरण करके उन्हें प्रतीक रूप में प्रयुक्त किया है।

कामायनी में पर्वत, संध्या, तारा, रात्रि, उषा आदि को प्रकृति के भिन्न-भिन्न अंगों को मानवीकरण के द्वारा प्रतीक चित्रित किया है। जल प्लावन तथा उसके बाद की स्थिति भी प्रतीकात्मक है। कवि ने जल से ऊपर निकली हुई पृथ्वी को मानव वधू का रुप दिया है, तो वहाँ संकुचित एवं मालिनी नव वधू का सहज सुन्दर शब्द-चित्र मिलता है।

कामायनी की प्रतीकात्मकता

‘कामायनी’ की प्रतीकात्मकता मानव भावों की विश्लेषणात्मक व्याख्या की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। पात्रों के ही नहीं, सर्गों के नाम भी मनोभावों की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति करते हैं।

[कामायनी के सर्ग जानें]

सर्व प्रथम मनु संकल्प-विकल्प युक्त चिंता ग्रस्त रुप में हमारे सामने आते हैं। उसके उपरान्त उनमें आशा की भावना जागृत होती है। और श्रद्धा से उनका साक्षात्कार होता है।

मनोविज्ञान के अनुसार ‘आशा’ के उदय होने के पश्चात् ही मानव हृदय में श्रद्धा का उदय होता है। मन में अधिकाधिक काम वासना की वृद्धि से जीव कर्म में प्रवृत्त होता है और जब उसमें अहं की सृष्टि होती है, तभी उसमें स्वभावतः ईर्ष्या का संचार होता है। मनु (मन) भावी शिशु से भी ईर्ष्या करने लगता है। उसके प्रति श्रद्धा के अनुराग को सहन नही कर सकता। पुरूषत्व की स्वामित्व वृत्ति के वश होकर वे एकांकी ही श्रद्धा के अनुराग का उपभोग करना चाहते हैं।

अपनी इसी ‘अहं’ भावना की संतुष्टि के लिए वे परम विश्वासमयी श्रद्धा को छोड़कर चले जाते हैं, किन्तु मन को शान्ति नहीं मिलती। उनके मानसिक संघर्ष को उनके दर-दर भटकने के प्रतीक द्वारा व्यक्त किया गया है। आत्म संघर्ष की पीड़ा के लिए वे बुद्धि (इड़ा) के निर्देशानुसार कार्य करते हैं। अपनी स्वाभाविक अधिकार भावना के कारण वे इड़ा पर अपना अधिकार करना चाहते हैं, जिसमें असफल होने के साथ-साथ वे क्षत-विक्षत भी हो जाते हैं और अन्त में श्रद्धा द्वारा उनका पुनः उद्धार होता है।

मनु का अर्थ

प्रस्तुत कथा में मनु महाप्रलय से ध्वंस हुई देव संस्कृति के व्यक्ति हैं, किन्तु दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक अर्थ में वे मनोमय कोष में स्थित जीव के प्रतीक है।

श्रद्धा का अर्थ

श्रद्धा को कवि ने हृदय का प्रतीक माना है। उसे “शुक्ल’ जी ने ‘विश्वासमयी रागात्मिका पृत्ति’ कहा है। विश्वास एवं राग-वृत्ति का सम्बन्ध भी हृदय से होने के कारण वह हृदय की ही प्रतीक मानी गई है।

इड़ा का अर्थ

‘कामायनी’ की तीसरी प्रमुख पात्र इड़ा है। लौकिक संस्कृति के अनुसार इड़ा शब्द पृथ्वी अर्थात्, बुद्धि, वाणी आदि का पर्यायवाची है।

‘प्रसाद’ ने उसे बुद्धि का प्रतीक मानते हुए उसके व्यक्तित्व का प्रतीकात्मक चित्रण किया है।

“बिखरीं अलके ज्यों तर्क-जाल।

वह विश्व मुकुट सा उज्ज्वलतम्श शिखण्ड-सदृश था स्पष्ट भाल ।

दो पद्म-पलाश चषक से दृग देते अनुराग विराग ढाल ।’

(इड़ा सर्ग पृ 0 71 )

इड़ा को मनुष्यों का शासन करने वाली कहा गया है। ‘कामायनी में भी वह मनु अर्थात् मन का पथ प्रदर्शन करती है। इन मुख्य पात्रों में एक गौण पात्र श्रद्धा व मनु का पुत्र कुमार नव मानव का प्रतीक है। उसके व्यक्तित्व का अधिक विकास ‘कामायनी’ में नहीं दर्शाया गया है। वस्तुतः मानव का पूर्ण विकास हो भी तभी सकता है, जबकि उसके व्यक्तित्व में श्रद्धा एवं विश्वास के साथ-साथ बुद्धि तत्व का भी समावेश हो।

‘प्रसाद’ स्वयं भी मनु, श्रद्धा, तथा इड़ा को शाश्वत भावों का प्रतीक मानते हैं। ‘कामायनी’ का रुपक प्राचीन है। भाव शाश्वत हैं और समस्यायें आधुनिक हैं।

आधुनिक जल प्रलय के बाद हिम संतृप्ति पर उषा का आगमन, हिम-आच्छादन का धीरे-धीरे हटना और वनस्पतियों का जगना। हिम संस्तृति प्राचीन जड़ता को व्यंजित करती है, तो उषा नवजागरण को। वनस्पतियाँ समाज की नई शक्तियाँ हैं। जो नवजागरण का सहारा पाकर प्राचीन रुढ़ि को तोड़कर ऊपर उठ गई है।

‘प्रसाद’ ने ‘कामायनी’ में आधुनिक समाज के विविध प्रश्नों को प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत कर कथा को प्रतीकात्मक अर्थ प्रदान किया है। इसी कारण कामायनी भारत की आधुनिक सभ्यता का प्रतिनिधि महाकाव्य बन गया है।

निष्कर्ष

‘कामायनी’ की वस्तु योजना में ऐतिहासिकता को साम्मिलित किया है। इसमें मिथकीय, वैदिक, पैराणिक, दार्शनिक पक्षों का भी उत्कृष्ट समन्वयन किया है। ‘कामायनी’ के पात्रों को प्रतीक स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। इन्हीं प्रतीकों के माध्यम से कवि ने कई अधुनातन समस्याओं को उठाया है। उनके समाधान भी प्रस्तुत किये हैं।

  • सर्ग – 15
  • मुख्य छंद – तोटक
  • कामायनी पर प्रसाद को मंगलाप्रसाद पारितोषिक पुरस्कार मिला है
  • काम गोत्र में जन्म लेने के कारण श्रद्धा को कामायनी कहा गया है।
  • कामायनी के पांडूलिपी संस्करण का प्रकाशन 1971 में हुआ।
  • प्रसाद ने कामायनी में आदिमानव मुन की कथा के साथ साथ युगीन समस्याओं पर प्रकाश डाला है।
  • कामायनी का अंगीरस शांत रस है।
  • कामायनी दर्शन समरसता – आनन्दवाद है।
  • कामायनी की कथा का आधार ऋग्वेद,छांदोग्य उपनिषद् ,शतपथ ब्राहमण तथा श्री मद्भागवत हैं।
  • घटनाओं का चयन शतपथ ब्राह्मण से किया गया है।
  • कामायनी की पूर्व पीठिका प्रेमपथिक है।
  • कामायनी की श्रद्धा का पूर्व संस्करण उर्वशी है।
  • कामायनी का हृदय लज्जा सर्ग है।

कामायनी के विषय में कथन:-

1. कामायनी मानव चेतना का महाकाव्य है।यह आर्ष ग्रन्थ है।–नगेन्द्र
2. कामायनी फैंटेसी है।- मुक्तिबोध
3.कामायनी एक असफल कृति है।- इन्द्रनाथ मदान
4. कामायनी नये युग का प्रतिनिधि काव्य है।- नन्द दुलारे वाजपेयी
5.कामायनी ताजमहल के समान है- सुमित्रानन्दन पंत
6.कामायनी एक रूपक है- नगेन्द्र
7.कामायनी विश्व साहित्य का आठवाँ महाकाव्य है- श्यामनारायण
8. कामायनी दोष रहित दोषण सहित रचना रामधारी सिंह दिनकर
9. कामायनी समग्रतः में समासोक्ति का विधान लक्षित करती है- डॉ नगेन्द्र
10. कामायनी आधुनिक सभ्यता का प्रतिनिधि महाकाव्य है- नामवार सिंह
11. कामायनी आधुनिक हिन्दी साहित्य का सर्वोत्तम महाकाव्य है- हरदेव बाहरी
12.कामायनी मधुरस से सिक्त महाकाव्य है- रामरतन भटनाकर
13. कामायनी विराट सांमजस्य की सनातन गाथा है -विशवंभर मानव
14.कामायनी का कवि दूसरी श्रेणी का कवि है -हजारी प्रसाद द्विवेदी
15. कामायनी वर्तमान हिन्दी कविता में दुर्लब कृति है- हजारी प्रसाद द्विवेदी
16. कामायनी में प्रसाद ने मानवता का रागात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है जिस प्रकार निराला ने तुलसीदास के मानस विकास का बड़ा दिव्य और विशाल रंगीन चित्र खिंचा है-रामचन्द्र शुक्ल
17. कामायनी छायावाद का उपनिषद है- शांति प्रिय द्विवेदी
18.कामायनी को कंपोजिशन की संज्ञा देने वाले-रामस्वरूप चतुर्वेदी
19.मुक्तिबोध का कामायनी संबंधि अध्ययन फूहड़ मारक्स वाद का नमूना है-बच्चन सिंह
20.कामायी जीबन की पूनर्रचना है -मुक्तिबोध
21.कामायनी मनोविज्ञान की ट्रीटाइज है -नगेन्द्र
22.कामायनी आधुनिक समीक्षक और रचनाकार दोनों के लिए परीक्षा स्थल है -रामस्वरूप चतुर्वेदी

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