रीतिकाल : हिंदी साहित्य का इतिहास
रीतिकाल : हिंदी साहित्य का इतिहास
- उत्तर-मध्यकाल का नामकरण
- रीतिकाल के उदय
- रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ
- रीति निरूपण
- श्रृंगारिकता
- रीतिबद्ध कवियों की श्रृंगारिकता :
- रीतिसिद्ध कवियों की श्रृंगारिकता :
- रीतिमुक्त कवियों की श्रृंगारिकता :
- रीतिकाल की गौण प्रवृत्तियाँ –
- रीतिकालीन कवियों का वर्गीकरण
- रीतिकालीन शिल्पगत विशेषताएँ :
- रीतिमुक्त/रीति स्वच्छन्द काव्य की विशेषताएँ :
- रीतिकालीन शिल्पगत विशेषताएँ :
- रीतिमुक्त/रीति स्वच्छन्द काव्य की विशेषताएँ :
- रीतिमुक्त काव्य की विशेषताएँ :
- रीतिकालीन प्रसिद्ध पंक्तियाँ
- बिहारी की पंक्तियाँ
- केशवदास की पंक्तियाँ
- भिखारीदास की पंक्तियाँ
- चिंतामणि की पंक्तियाँ
- घनानंद की पंक्तियाँ
- देव की पंक्तियाँ
- मतिराम की पंक्तियाँ
- बोधा की पंक्तियाँ
- ब्रजनाथ (घनानंद के कवि-मित्र एवं प्रशस्तिकार) की पंक्तियाँ
- पद्माकर की पंक्तियाँ
- अन्य रीतिकालीन कवियों की पंक्तियाँ
- रीतिकालीन रचना एवं रचनाकार
- सर्वरस निरूपक ग्रंथ और ग्रंथाकार (रीतिकाल)
- रीतिकाल की उपलब्धियां :
- निष्कर्ष:
उत्तर-मध्यकाल का नामकरण
विवादास्पद
मिश्र बंधु – ‘अलंकृत काल’, रामचन्द्र शुक्ल- ‘रीतिकाल’ ,विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – ‘श्रृंगार काल’
रीतिकाल के उदय
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : ‘इसका कारण जनता की रूचि नहीं, आश्रयदाताओं की रूचि थी, जिसके लिए वीरता और कर्मण्यता का जीवन बहुत कम रह गया था। …. रीतिकालीन कविता में लक्षण ग्रंथ, नायिका भेद, श्रृंगारिकता आदि की जो प्रवृत्तियाँ मिलती हैं उसकी परंपरा संस्कृत साहित्य से चली आ रही थीं।
डॉ० नगेन्द्र: ‘घोर सामाजिक और राजनीतिक पतन के उस युग में जीवन बाहय अभिव्यक्तियों से निराश होकर घर की चारदीवारी में कैद हो गया था। घर में न शास्त्र चिंतन था न धर्म चिंतन। अभिव्यक्ति का एक ही माध्यम था-काम। जीवन की बाहय अभिव्यक्तियों से निराश होकर मन नारी के अंगों में मुँह छिपाकर विशुद्ध विभोर तो हो जाता था’ ।
हजारी प्रसाद द्विवेदी: ‘संस्कृत के प्राचीन साहित्य विशेषतः रामायण और महाभारत से यदि भक्तिकाल के कवियों ने प्रेरणा ली तो रीतिकाल के कवियों ने उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य से प्रेरणा व प्रभाव लिया। …… लक्षण ग्रंथ, नायिका भेद, अलंकार और संचारी आदि भावों के पूर्वनिर्मित वर्गीकरण का आधार लेकर ये कवि बंधी-सधी बोली में बंधे-सधे भावों की कवायद करने लगे’ ।
समग्रतः रीतिकालीन काव्य जनकाव्य न होकर दरबारी संस्कृति का काव्य है। इसमें श्रृंगार और शब्द-सज्जा पर ज्यादा ध्यान दिया गया । कवियों ने सामान्य जनता की रुचि को अनदेखा कर सामंतों एवं रईसों की अभिरुचियों को कविता के केन्द्र में रखा। इससे कविता आम आदमी के दुख एवं हर्ष से जुड़ने के बजाय दरबारों के वैभव व विलास से जुड़ गई।
रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ
(1) रीति निरूपण
(2) श्रृंगारिकता।
रीति निरूपण
काव्यांग विवेचन के आधार पर दो वर्गो में बाँटा जा सकता है
सर्वाग विवेचन :
इसके अन्तर्गत काव्य के सभी अंगों (रस, छंद, अलंकार आदि) को विवेचन का विषय बनाया गया है। चिन्तामणि का ‘कविकुलकल्पतरु’, देव का ‘शब्द रसायन’, कुलपति का ‘रस रहस्य’, भिखारी दास का ‘काव्य निर्णय’ इसी तरह के ग्रंथ हैं।
विशिष्टांग विवेचन :
इसके तहत काव्यांगों में रस, छंद व अलंकारों में से किसी एक अथवा दो अथवा तीनों का विवेचन का विषय बनाया गया है। ‘रसविलास’ (चिंतामणि), ‘रसार्णव’ (सुखदेव मिश्र), ‘रस प्रबोध’ (रसलीन), ‘रसराज’ (मतिराम), ‘श्रृंगार निर्णय’ (भिखारी दास), ‘अलंकार रत्नाकर’ (दलपति राय), ‘छंद विलास’ (माखन) आदि इसी श्रेणी के ग्रंथ हैं।
रीति निरूपण का उद्देश्य सिर्फ नवोदित कवियों को काव्यशास्त्र की हल्की-फुल्की जानकारी देना है तथा अपने आश्रयदाताओं पर अपने पांडित्य का धौंस जमाकर अर्थ दोहन करना है।
श्रृंगारिकता
रीतिबद्ध कवियों की श्रृंगारिकता :
काव्यांग निरूपण करते हुए उदाहरणस्वरूप श्रृंगारिकता । केशवदास, चिंतामणि, देव, मतिराम आदि की रचना।
रीतिसिद्ध कवियों की श्रृंगारिकता :
काव्य रीति निरूपण से तो दूर, किन्तु रीति की छाप। बिहारी, रसनिधि आदि की रचना।
रीतिमुक्त कवियों की श्रृंगारिकता :
इनके श्रृंगार में प्रेम की तीव्रता भी है एवं आत्मा की पुकार भी। घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा आदि की रचना।
• आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है : ”श्रृंगार रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान ‘बिहारी सतसई’ का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है। …. बिहारी ने इस सतसई के अतिरिक्त और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही एक ग्रंथ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है। …. मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई संदेह नहीं।
जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समाहार शक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से वे दोहे ऐसे छोटे छंद में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या है रस के छोटे-छोटे छीटें है।”
थोड़े में बहुत कुछ कहने की अदभुत क्षमता को देखते हुए किसी ने कहा है-
सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगे, घाव करै गंभीर।।
रीतिकाल की गौण प्रवृत्तियाँ –
भक्ति वीरकाव्य-भक्ति की प्रवृत्ति मंगलाचरणों, ग्रंथों की समाप्ति पर आशीर्वचनों, काव्यांग विवेचन
राज प्रशस्ति व नीति-अपने संरक्षक राजाओं का ओजस्वी वर्णन
रीतिकालीन कवियों का वर्गीकरण
रीतिकालीन कवियों को तीन वर्गों में बाँटा जाता है-
रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध एवं रीतिमुक्त।
(i) रीतिबद्ध कवि :
- रीतिबद्ध कवियों (आचार्य कवियों) ने अपने लक्षण ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से रीति परम्परा का निर्वाह किया है; जैसे- केशवदास, चिंतामणि, मतिराम, सेनापति, देव, पद्माकर आदि।
- आचार्य राचन्द्र ने केशवदास को ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा है।
(ii) रीतिसिद्ध कवि :
- रीतिसिद्ध कवियों की रचनाओं की पृष्ठभूमि में अप्रत्यक्ष रूप से रीति परिपाटी काम कर रही होती है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से साफ पता चलता है कि उन्होंने काव्य शास्त्र को पचा रखा है।
- बिहारी, रसनिधि आदि इस वर्ग में आते है।
(iii) रीतिमुक्त कवि :
- रीति परंपरा से मुक्त कवियों को रीतिमुक्त कवि कहा जाता है।
- घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा, द्विजदेव आदि इस वर्ग में आते हैं।
- रीतिकालीन आचार्यों में देव एकमात्र अपवाद है जिन्होंने रीति निरूपण के क्षेत्र में मौलिक उद्भावनाएं की।
रीतिकालीन शिल्पगत विशेषताएँ :
(1) सतसई परम्परा का पुनरुद्धार
(2) काव्य भाषा-वज्रभाषा
(3) मुक्तक का प्रयोग
(4) दोहा छंद की प्रधानता
(5) दोहे के अलावा ‘सवैया’ (श्रृंगार रस के अनुकूल छंद) और ‘कवित्त’ (वीर रस के अनुकूल छंद) रीति कवियों के प्रिय छंद
रीतिमुक्त/रीति स्वच्छन्द काव्य की विशेषताएँ :
(1) रीति स्वच्छंदता
(2) स्वानुभूत प्रेम की अभिव्यक्ति
(3) विरह का आधिक्य
(4) कला पक्ष के स्थान पर भाव पक्ष पर जोर
(5) पृथक काव्यादर्श/प्राचीन काव्य परम्परा का त्याग
(6) सहज, स्वाभाविक एवं प्रभावी अभिव्यक्ति
(7) सरल, मनोहारी बिम्ब योजना व सटीक प्रतीक विधान
रीतिकालीन शिल्पगत विशेषताएँ :
(1) सतसई परम्परा का पुनरुद्धार
(2) काव्य भाषा-वज्रभाषा (श्रुति मधुर व कोमल कांत पदावलियों से युक्त तराशी हुई भाषा)
(3) काव्य रूप-मुख्यतः मुक्तक का प्रयोग
(4) दोहा छंद की प्रधानता
(दोहे ‘गागर में सागर’ शैली वाली कहावत को चरितार्थ करते है तथा लोकप्रियता के लिहाज से संस्कृत के ‘श्लोक’ एवं अरबी-फारसी के शेर के समतुल्य है।); दोहे के अलावा ‘सवैया’ (श्रृंगार रस के अनुकूल छंद) और ‘कवित्त’ (वीर रस के अनुकूल छंद) रीति कवियों के प्रिय छंद थे। केशवदास की ‘रामचंद्रिका’ को ‘छंदों’ का अजायबघर’ कहा जाता है।
रीतिमुक्त/रीति स्वच्छन्द काव्य की विशेषताएँ :
बंधन या परिपाटी से मुक्त रहकर रीतिकाव्य धारा के प्रवाह के विरुद्ध एक अलग तथा विशिष्ट पहचान बनाने वाली काव्यधारा ‘रीतिमुक्त काव्य’ के नाम से जाना जाता है।
रीतिमुक्त काव्य की विशेषताएँ :
(1) रीति स्वच्छंदता
(2) स्वअनुभूत प्रेम की अभिव्यक्ति
(3) विरह का आधिक्य
(4) कला पक्ष के स्थान पर भाव पक्ष पर जोर
(5) पृथक काव्यादर्श/प्राचीन काव्य परम्परा का त्याग
(6) सहज, स्वाभाविक एवं प्रभावी अभिव्यक्ति
(7) सरल, मनोहारी बिम्ब योजना व सटीक प्रतीक विधान
रीतिकालीन देव ने फ्रायड की तरह, लेकिन फ्रायड के बहुत पहले ही, काम (Sex) को समस्त जीवों की प्रक्रियाओं के केन्द्र में रखकर अपने समय में क्रांतिकारी चिंतन दिया।
रीतिकालीन प्रसिद्ध पंक्तियाँ
रीतिकालीन कवियों की प्रसिद्ध पंक्तियाँ
बिहारी की पंक्तियाँ
- इत आवति चलि, जाति उत चली छ सातक हाथ।
चढ़ि हिंडोरे सी रहै लागे उसासनु हाथ।।
(विरही नायिका इतनी अशक्त हो गयी है कि सांस लेने मात्र से छः सात हाथ पीछे चली जाती है और सांस छोड़ने मात्र से छः सात हाथ आगे चली जाती है। ऐसा लगता है मानो जमीन पर खड़ी न होकर हिंडोले पर चढ़ी हुई है।) -बिहारी - दृग अरुझत, टूटत कुटुम्ब, जुरत चतुर चित प्रीति।
पड़ति गांठ दुर्जन हिये दई नई यह रीति।। -बिहारी - सटपटाति-सी ससि मुखी मुख घूँघट पर ढाँकि -बिहारी
मेरी भव बाधा हरो -बिहारी
तंत्रीनाद कवित्त रस सरस राग रति रंग।
अनबूड़े बूड़ेतिरे जे बूड़ेसब अंग।। -बिहारी
केशवदास की पंक्तियाँ
- वासर की संपति उलूक ज्यों न चितवत
(जिस तरह दिन में उल्लू संपत्ति की ओर नहीं ताकते उसी तरह राम अन्य स्त्रियों की तरफ नहीं देखते।) -केशवदास - जदपि सुजाति सुलक्षणी सुवरण सरस सुवृत्त।
भूषण बिनु न विराजई कविता वनिता मीत।। -केशवदास
भिखारीदास की पंक्तियाँ
- आगे के कवि रीझिहें, तो कविताई, न तौ
राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है।
(आगे के कवि रीझें तो कविता है अन्यथा राधा-कृष्ण के स्मरण का बहाना ही सही।) -भिखारी दास - जान्यौ चहै जु थोरे ही, रस कविता को बंस।
तिन्ह रसिकन के हेतु यह, कान्हों रस सारंस।। -भिखारी दास - काव्य की रीति सिखी सुकवीन सों
(मैंने काव्य की रीति कवियों से ही सीखी है।) -भिखारी दास - तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार -भिखारी दास
चिंतामणि की पंक्तियाँ
आँखिन मूंदिबै के मिस,
आनि अचानक पीठि उरोज लगावै -चिंतामणि
रीति सुभाषा कवित की बरनत बुधि अनुसार -चिंतामणि
घनानंद की पंक्तियाँ
- अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलैं ताजि आपनपौ, झिझकै कपटी जे निसांक नहीं।। -घनानन्द - यह कैसो संयोग न सूझि पड़ै जो वियोग न एको विछोहत है -घनानंद
- मोहे तो मेरे कवित्त बनावत। -घनानंद
- रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागै ज्यौं ज्यौं निहारियै।
त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहूँ नहिं आन तिहारियै। -घनानंद - घनानंद प्यारे सुजान सुनौ, इत एक तें दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।।
[सुजान-घनानंद की प्रेमिका का नाम: घनानंद ने प्रायः सुजान
(एक अर्थ-सुजान, दूसरा अर्थ-श्रीकृष्ण) को संबोधित करते हुए अपनी कविताएँ रची है] -घनानंद
देव की पंक्तियाँ
- अपनी-अपनी रीति के काव्य और कवि-रीति -देव
- युक्ति सराही मुक्ति हेतु, मुक्ति भुक्ति को धाम।
युक्ति, मुक्ति और भुक्ति को मूल सो कहिये काम।। -देव - अभिधा उत्तम काव्य है मध्य लक्षणा लीन
अधम व्यंजना रस विरस, उलटी कहत प्रवीन। -देव
मतिराम की पंक्तियाँ
- लोचन, वचन, प्रसाद, मुदृ हास, वास चित्त मोद।
इतने प्रगट जानिये वरनत सुकवि विनोद।। -मतिराम - कुंदन का रंग फीको लगै, झलकै अति अंगनि चारु गोराई।
आँखिन में अलसानि, चित्तौन में मंजु विलासन की सरसाई।।
को बिन मोल बिकात नहीं मतिराम लहे मुसकानि मिठाई।
ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे है नैननि त्यों-त्यों खरी निकरै सी निकाई।। -मतिराम
बोधा की पंक्तियाँ
- यह प्रेम को पंथ कराल महा तरवारि की धार पर धाबनो है -बोधा
- एक सुभान कै आनन पै कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को -बोधा
ब्रजनाथ (घनानंद के कवि-मित्र एवं प्रशस्तिकार) की पंक्तियाँ
- नेही महा बज्रभाषा प्रवीन और सुंदरतानि के भेद को जानै -बज्रनाथ
- चाह के रंग मैं भीज्यौ हियो, बिछुरें-मिलें प्रीतम सांति न मानै।
भाषा प्रबीन, सुछंद सदा रहै, सो घनजी के कबित्त बखानै।। -बज्रनाथ
पद्माकर की पंक्तियाँ
- फागु के भीर अभीरन में गहि
गोविंदै लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की पद्माकर,
ऊपर नाहिं अबीर की झोरी।
छीनी पितंबर कम्मर ते सु
विदा दई मीड़ि कपोलन रोरी
नैन नचाय कही मुसकाय,
‘लला फिर आइयो खेलन होरी’ । -पद्माकर - गुलगुली गिलमैं, गलीचा है, गुनीजन हैं, चिक हैं, चिराकैं है, चिरागन की माला हैं।
कहै पदमाकर है गजक गजा हूँ सजी,
सज्जा हैं, सुरा हैं, सुराही हैं, सुप्याला हैं। -पद्माकर
अन्य रीतिकालीन कवियों की पंक्तियाँ
- मानस की जात सभै एकै पहिचानबो -गुरु गोविंद सिंह
- अमिय, हलाहल, मदभरे, सेत, स्याम, रतनार।
जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत एक बार।। -रसलीन - भले बुरे सम, जौ लौ बोलत नाहिं
जानि परत है काक पिक, ऋतु बसंत के माहिं। -वृन्द - कनक छुरी सी कामिनी काहे को कटि छीन -आलम
- आलम नेवाज सिरताज पातसाहन के
गाज ते दराज कौन नजर तिहारी है -चन्द्रशेखर - देखे मुख भावै अनदेखे कमल चंद
ताते मुख मुरझे कमला न चंद। -केशवदास - साजि चतुरंग वीर रंग में तुरंग चढ़ि -भूषण
रीतिकालीन रचना एवं रचनाकार
- चिंतामणि -कविकुल कल्पतरु, रस विलास, काव्य विवेक, श्रृंगार मंजरी, छंद विचार
- मतिराम -रसराज, ललित ललाम, अलंकार पंचाशिका, वृत्तकौमुदी
- राजा जसवंत सिंह -भाषा भूषण
- भिखारी दास -काव्य निर्णय, श्रृंगार निर्णय
- याकूब खाँ -रस भूषण
- रसिक सुमति -अलंकार चन्द्रोदय
- दूलह कवि- कुल कण्ठाभरण
- देव -शब्द रसायन, काव्य रसायन, भाव विलास, भवानी विलास, सुजान विनोद, सुख सागर तरंग
- कुलपति मिश्र- रस रहस्य
- सुखदेव मिश्र- रसार्णव
- रसलीन- रस प्रबोध
- दलपति राय- अलंकार रत्नाकर
- माखन -छंद विलास
- बिहारी- बिहारी सतसई
- रसनिधि- रतनहजारा
- घनानन्द -सुजान हित प्रबंध, वियोग बेलि, इश्कलता, प्रीति पावस, पदावली
- आलम -आलम केलि
- ठाकुर -ठाकुर ठसक
- बोधा -विरह वारीश, इश्कनामा
- द्विजदेव- श्रृंगार बत्तीसी, श्रृंगार चालीसी, श्रृंगार लतिका
- पद्माकर -भट्ट हिम्मत बहादुर विरुदावली (प्रबंध)
- सूदन -सुजान चरित (प्रबंध)
- खुमान -लक्ष्मण शतक
- जोधराज -हम्मीर रासो
- भूषण- शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक
- वृन्द -वृन्द सतसई
- राम सहाय दास- राम सतसई
- दीन दयाल गिरि -अन्योक्ति कल्पद्रुम
- गिरिधर कविराय -स्फुट छन्द
- गुरु गोविंद सिंह-सुनीति प्रकाश, सर्वसोलह प्रकाश, चण्डी चरित्र
सर्वरस निरूपक ग्रंथ और ग्रंथाकार (रीतिकाल)
सर्वरस निरूपक ग्रंथ और ग्रंथाकार
1. बलभद्र मिश्र : रसविलास (लगभग सं. 1640 वि. )
2. केशवदास : रसिकप्रिया (सं. 1648 वि. )
3. ब्रजपति भट्ट : रंगनाथ माधुरी (सं. 1680 वि. )
4. तोष : सुधानिधि (सं. 1691 वि.)
5. तुलसीदास : रसकल्लोल ( सं. 1711 वि. )
6. गोपाल राम : रससागर (सं. 1726 वि.)
7. सुखदेव मिश्र : रसरत्नाकर, रसार्णव (सं. 1730 लगभग वि. )
8. देव : भावविलास (सं, 1746 वि.)
9. श्रीनिवास : रससागर (सं. 1750 वि. )
10. लोकनाथ चौबे : रसतरंग (सं. 1760 वि. )
11. बेनीप्रसाद : रसश्रृंगार समुद्र (सं. 1765 वि.)
12. श्रीपति : रससागर (सं. 1770 वि. )
13. याक़ूबख़ां : रसभूषण (सं. 1775 वि. )
14. भिखारीदास : रससारांश (सं. 1791 वि.)
15. रसलीन : रसप्रबोध (सं. 1798 वि.)
16. गुरुदत्तसिंह (भूपति) : रसरत्नाकर रसदीप (सं. 18वीं शती का अंत)
17. रघुनाथ : काव्यकलाधर (सं. 1802 वि. )
18. उदयनाथ कवीन्द्र : रसचन्द्रोदय (सं. 1804 वि.)
19. शम्भूनाथ : रसकल्लोल, रसतरंगिणी (सं. 1806 वि.)
20. समनेस : रसिकविलास (सं. 1827 वि.)
21. शिवनाथ : रसवृष्टि (सं. 1828 वि.)
22. दौलतराम उजियारे : रसचन्द्रिका, जुगलप्रकाशवत् (सं. 1837 वि.)
23. रामसिंह : रसनिवास (सं. 1839 वि.)
24. सेवादास : रसदर्पण (सं. 1840 वि.)
25. बेनीबंदीजन : रसविलास (सं. 1849 वि.)
26. पद्माकर : जगतविनोद (सं. 1867 वि.)
27. बेनीप्रवीण : नवरसतरंग (सं. 1874 वि.)
28. करन कवि : रसकल्लोल (सं. 1890 वि.)
29. नवीन : रसतरंग (सं. 1899 वि.)
30. चन्द्रशेखर : रसिकविनोद (सं. 1903 वि.)
31. ग्वाल कवि : रसरंग (सं. 1904 वि.)
रीतिकाल की उपलब्धियां :
ऐसी क्या बात है कि, हिंदी आचार्यों के दोष पहले सामने आते हैं और गुण बाद में ??
हिंदी आचार्यों के दोष
पहला दोष : सिद्धांत प्रतिपादन में मौलिकता का अभाव
काव्यशास्त्र में मौलिकता की दो कोटियां हैं
- नवीन सिद्धांतों की उद्भावना ,और
- प्राचीन सिद्धांतों का पुनरख्यान।
हिंदी के रीती आचार्य निश्चय ही किसी नवीन सिद्धांत का विस्तार नहीं कर सके। किसी ऐसे आधारभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन जो काव्य चिंतन को नवीन दिशा प्रदान कर सके संपूर्ण रीतिकाल में संभव नहीं हुआ। वास्तव में हिंदी की रीति कवियों ने आरंभ से ही गलत रास्ता अपनाया और उन्होंने मौलिकता का विकास विस्तार के द्वारा ही करने का प्रयास किया ।
उदाहरण के लिए,
ध्वनि का भेद विस्तार हजारों तक नायिका भेद की संख्या सैकड़ों तक पहुंच चुकी थी। अलंकार वर्णन शैली को छोड़ वर्ण्य शैली के क्षेत्र में प्रवेश करने लग गए थे . लक्षणा और दोषादि की सूक्ष्म भेद एक दूसरे की सीमा का उल्लंघन कर रहे थे। परिणामतः भारतीय काव्यशास्त्र कि वह स्वच्छ व्यवस्था जो मम्मट समय में स्थित हो चुकी थी ,अस्त व्यस्त हो गई थी।
दूसरा दोष: अस्पष्ट और उलझा विवेचन
दूसरा रीति आचार्यों का दूसरा दोष यह था कि उनका था कि उनका विवेचन अस्पष्ट और उलझा हुआ था. एक तो कुछ कवियों का शास्त्र ज्ञान अपने आप में निभ्रांत नहीं था और दूसरा पद्य में साहित्य के गंभीर प्रश्नों का समाधान संभव नहीं था ।
कारण:
उपर्युक्त दोषों के लिए अनेक परिस्थितियां उत्तरदायी थी . पंडितराज को छोड़ को छोड़ कोई आचार्य मौलिक चिंतन का प्रमाण नहीं दे सका । उसमें कवि शिक्षा का लक्ष्य था रसिकों को को सामान्य काव्य रीति की शिक्षा देना , जिज्ञासु मर्मज्ञ के लिए कर्म अथवा काव्यास्वाद के रहस्यों का व्याख्यान करना नहीं।
रीति आचार्यों की योगदान का मूल्यांकन
काव्यशास्त्र के क्षेत्र में आचार्यों की सामान्यतः 3 वर्ग है:
- उद्भावक आचार्य
पहला उद्भावक आचार्य, जिन्होंने मौलिक सिद्धांत प्रतिपादन का श्रेय प्राप्त है ,जैसे भरत, वामन, आनंदवर्धन, भट्टनायक, अभिनवगुप्त, कुंतल ।
- व्याख्याता आचार्य
दूसरा व्याख्याता आचार्य जो नवीन सिद्धांतों की भावना न कर प्राचीन सिद्धांतों की आख्यान करते थे । जैसे, मम्मट, विश्वनाथ और पंडितराज जगन्नाथ ।
- कवि शिक्षक
तीसरा वर्ग है कवि शिक्षकों का । जिनका लक्ष्य अपने स्वच्छ व्यवहारिक ज्ञान के आधार पर सरस सुबोध पाठ्यग्रंथ प्रस्तुत करना होता है । इसके अंतर्गत जयदेव, अप्पय ,दीक्षित ,केशव ,मिश्र ,भानुदत्त आदि की गणना होती है।
हिंदी के रीति आचार्य स्पष्ट रूप से प्रथम श्रेणी में नहीं आते . उन्होंने किसी व्यापक आधारभूत काव्य सिद्धांत का प्रवर्तन ही नहीं किया । उनमें किसी भी प्रकार की प्रतिभा नहीं थी। दूसरी श्रेणी में सर्वांग निरूपक आचार्य आचार्य की गणना की जा सकती है . वह इस स्थान पर के अधिकारी भी नहीं हो सकते। वे न शास्त्रकार थे, न शास्त्र के भाष्यकार । उनका काम शास्त्र की की परंपरा को सरस रूप में हिंदी में अवतरित करना था और इसमें निश्चय ही कृतकार्य हुए। उनके कृतित्व का मूल्यांकन इसी आधार पर होना चाहिए।
निष्कर्ष:
हिंदी के रीति आचार्य ने भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा को हिंदी में सरस रूप में अवतरित किया। इस प्रकार भी हिन्दी काव्य को शास्त्र चिंतन की पौढ़ि प्राप्ति हुई और शास्त्रीय विचार सरस रूप में प्रस्तुत हुए। भारतीय भाषाओं में हिंदी को छोड़ अत्यंत अन्यत्र कहीं भी यह प्रवृत्ति नहीं मिलती। इसके अपने दोष हो सकते हैं परंतु वर्तमान हिंदी आलोचना पर इसका प्रभाव ही स्पष्ट है।