रीतिकाल : हिंदी साहित्य का इतिहास
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रीतिकाल का नामकरण
विवादास्पद
मिश्र बंधु – ‘अलंकृत काल’, रामचन्द्र शुक्ल- ‘रीतिकाल’ ,विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – ‘श्रृंगार काल’
रीतिकाल के उदय
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : ‘इसका कारण जनता की रूचि नहीं, आश्रयदाताओं की रूचि थी, जिसके लिए वीरता और कर्मण्यता का जीवन बहुत कम रह गया था। …. रीतिकालीन कविता में लक्षण ग्रंथ, नायिका भेद, श्रृंगारिकता आदि की जो प्रवृत्तियाँ मिलती हैं उसकी परंपरा संस्कृत साहित्य से चली आ रही थीं।
डॉ० नगेन्द्र: ‘घोर सामाजिक और राजनीतिक पतन के उस युग में जीवन बाहय अभिव्यक्तियों से निराश होकर घर की चारदीवारी में कैद हो गया था। घर में न शास्त्र चिंतन था न धर्म चिंतन। अभिव्यक्ति का एक ही माध्यम था-काम। जीवन की बाहय अभिव्यक्तियों से निराश होकर मन नारी के अंगों में मुँह छिपाकर विशुद्ध विभोर तो हो जाता था’ ।
हजारी प्रसाद द्विवेदी: ‘संस्कृत के प्राचीन साहित्य विशेषतः रामायण और महाभारत से यदि भक्तिकाल के कवियों ने प्रेरणा ली तो रीतिकाल के कवियों ने उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य से प्रेरणा व प्रभाव लिया। …… लक्षण ग्रंथ, नायिका भेद, अलंकार और संचारी आदि भावों के पूर्वनिर्मित वर्गीकरण का आधार लेकर ये कवि बंधी-सधी बोली में बंधे-सधे भावों की कवायद करने लगे’ ।
समग्रतः रीतिकालीन काव्य जनकाव्य न होकर दरबारी संस्कृति का काव्य है। इसमें श्रृंगार और शब्द-सज्जा पर ज्यादा ध्यान दिया गया । कवियों ने सामान्य जनता की रुचि को अनदेखा कर सामंतों एवं रईसों की अभिरुचियों को कविता के केन्द्र में रखा। इससे कविता आम आदमी के दुख एवं हर्ष से जुड़ने के बजाय दरबारों के वैभव व विलास से जुड़ गई।
रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ
(1) रीति निरूपण
(2) श्रृंगारिकता।
रीति निरूपण
काव्यांग विवेचन के आधार पर दो वर्गो में बाँटा जा सकता है
सर्वाग विवेचन :
इसके अन्तर्गत काव्य के सभी अंगों (रस, छंद, अलंकार आदि) को विवेचन का विषय बनाया गया है। चिन्तामणि का ‘कविकुलकल्पतरु’, देव का ‘शब्द रसायन’, कुलपति का ‘रस रहस्य’, भिखारी दास का ‘काव्य निर्णय’ इसी तरह के ग्रंथ हैं।
विशिष्टांग विवेचन :
इसके तहत काव्यांगों में रस, छंद व अलंकारों में से किसी एक अथवा दो अथवा तीनों का विवेचन का विषय बनाया गया है। ‘रसविलास’ (चिंतामणि), ‘रसार्णव’ (सुखदेव मिश्र), ‘रस प्रबोध’ (रसलीन), ‘रसराज’ (मतिराम), ‘श्रृंगार निर्णय’ (भिखारी दास), ‘अलंकार रत्नाकर’ (दलपति राय), ‘छंद विलास’ (माखन) आदि इसी श्रेणी के ग्रंथ हैं।
रीति निरूपण का उद्देश्य सिर्फ नवोदित कवियों को काव्यशास्त्र की हल्की-फुल्की जानकारी देना है तथा अपने आश्रयदाताओं पर अपने पांडित्य का धौंस जमाकर अर्थ दोहन करना है।
श्रृंगारिकता
रीतिबद्ध कवियों की श्रृंगारिकता :
काव्यांग निरूपण करते हुए उदाहरणस्वरूप श्रृंगारिकता । केशवदास, चिंतामणि, देव, मतिराम आदि की रचना।
रीतिसिद्ध कवियों की श्रृंगारिकता :
काव्य रीति निरूपण से तो दूर, किन्तु रीति की छाप। बिहारी, रसनिधि आदि की रचना।
रीतिमुक्त कवियों की श्रृंगारिकता :
इनके श्रृंगार में प्रेम की तीव्रता भी है एवं आत्मा की पुकार भी। घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा आदि की रचना।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है : ”श्रृंगार रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान ‘बिहारी सतसई’ का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है।
बिहारी ने इस सतसई के अतिरिक्त और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही एक ग्रंथ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है।
मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई संदेह नहीं।
जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समाहार शक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से वे दोहे ऐसे छोटे छंद में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या है रस के छोटे-छोटे छीटें है।”
थोड़े में बहुत कुछ कहने की अदभुत क्षमता को देखते हुए किसी ने कहा है-
सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगे, घाव करै गंभीर।।
रीतिकाल की गौण प्रवृत्तियाँ –
भक्ति वीरकाव्य-भक्ति की प्रवृत्ति मंगलाचरणों, ग्रंथों की समाप्ति पर आशीर्वचनों, काव्यांग विवेचन
राज प्रशस्ति व नीति-अपने संरक्षक राजाओं का ओजस्वी वर्णन
रीतिकालीन कवियों का वर्गीकरण
रीतिकालीन कवियों को तीन वर्गों में बाँटा जाता है-
रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध एवं रीतिमुक्त।
(i) रीतिबद्ध कवि :
- रीतिबद्ध कवियों (आचार्य कवियों) ने अपने लक्षण ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से रीति परम्परा का निर्वाह किया है; जैसे- केशवदास, चिंतामणि, मतिराम, सेनापति, देव, पद्माकर आदि।
- आचार्य राचन्द्र ने केशवदास को ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा है।
(ii) रीतिसिद्ध कवि :
- रीतिसिद्ध कवियों की रचनाओं की पृष्ठभूमि में अप्रत्यक्ष रूप से रीति परिपाटी काम कर रही होती है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से साफ पता चलता है कि उन्होंने काव्य शास्त्र को पचा रखा है।
- बिहारी, रसनिधि आदि इस वर्ग में आते है।
(iii) रीतिमुक्त कवि :
- रीति परंपरा से मुक्त कवियों को रीतिमुक्त कवि कहा जाता है।
- घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा, द्विजदेव आदि इस वर्ग में आते हैं।
- रीतिकालीन आचार्यों में देव एकमात्र अपवाद है जिन्होंने रीति निरूपण के क्षेत्र में मौलिक उद्भावनाएं की।
रीतिकाल की उपलब्धियां :
ऐसी क्या बात है कि, हिंदी आचार्यों के दोष पहले सामने आते हैं और गुण बाद में ??
हिंदी आचार्यों के दोष
पहला दोष : सिद्धांत प्रतिपादन में मौलिकता का अभाव
काव्यशास्त्र में मौलिकता की दो कोटियां हैं
- नवीन सिद्धांतों की उद्भावना ,और
- प्राचीन सिद्धांतों का पुनरख्यान।
हिंदी के रीती आचार्य निश्चय ही किसी नवीन सिद्धांत का विस्तार नहीं कर सके। किसी ऐसे आधारभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन जो काव्य चिंतन को नवीन दिशा प्रदान कर सके संपूर्ण रीतिकाल में संभव नहीं हुआ। वास्तव में हिंदी की रीति कवियों ने आरंभ से ही गलत रास्ता अपनाया और उन्होंने मौलिकता का विकास विस्तार के द्वारा ही करने का प्रयास किया ।
उदाहरण के लिए,
ध्वनि का भेद विस्तार हजारों तक नायिका भेद की संख्या सैकड़ों तक पहुंच चुकी थी। अलंकार वर्णन शैली को छोड़ वर्ण्य शैली के क्षेत्र में प्रवेश करने लग गए थे . लक्षणा और दोषादि की सूक्ष्म भेद एक दूसरे की सीमा का उल्लंघन कर रहे थे। परिणामतः भारतीय काव्यशास्त्र कि वह स्वच्छ व्यवस्था जो मम्मट समय में स्थित हो चुकी थी ,अस्त व्यस्त हो गई थी।
दूसरा दोष: अस्पष्ट और उलझा विवेचन
दूसरा रीति आचार्यों का दूसरा दोष यह था कि उनका था कि उनका विवेचन अस्पष्ट और उलझा हुआ था. एक तो कुछ कवियों का शास्त्र ज्ञान अपने आप में निभ्रांत नहीं था और दूसरा पद्य में साहित्य के गंभीर प्रश्नों का समाधान संभव नहीं था ।
कारण:
उपर्युक्त दोषों के लिए अनेक परिस्थितियां उत्तरदायी थी . पंडितराज को छोड़ को छोड़ कोई आचार्य मौलिक चिंतन का प्रमाण नहीं दे सका । उसमें कवि शिक्षा का लक्ष्य था रसिकों को को सामान्य काव्य रीति की शिक्षा देना , जिज्ञासु मर्मज्ञ के लिए कर्म अथवा काव्यास्वाद के रहस्यों का व्याख्यान करना नहीं।
रीति आचार्यों की योगदान का मूल्यांकन
काव्यशास्त्र के क्षेत्र में आचार्यों की सामान्यतः 3 वर्ग है:
- उद्भावक आचार्य
पहला उद्भावक आचार्य, जिन्होंने मौलिक सिद्धांत प्रतिपादन का श्रेय प्राप्त है ,जैसे भरत, वामन, आनंदवर्धन, भट्टनायक, अभिनवगुप्त, कुंतल ।
- व्याख्याता आचार्य
दूसरा व्याख्याता आचार्य जो नवीन सिद्धांतों की भावना न कर प्राचीन सिद्धांतों की आख्यान करते थे । जैसे, मम्मट, विश्वनाथ और पंडितराज जगन्नाथ ।
- कवि शिक्षक
तीसरा वर्ग है कवि शिक्षकों का । जिनका लक्ष्य अपने स्वच्छ व्यवहारिक ज्ञान के आधार पर सरस सुबोध पाठ्यग्रंथ प्रस्तुत करना होता है । इसके अंतर्गत जयदेव, अप्पय ,दीक्षित ,केशव ,मिश्र ,भानुदत्त आदि की गणना होती है।
हिंदी के रीति आचार्य स्पष्ट रूप से प्रथम श्रेणी में नहीं आते . उन्होंने किसी व्यापक आधारभूत काव्य सिद्धांत का प्रवर्तन ही नहीं किया । उनमें किसी भी प्रकार की प्रतिभा नहीं थी। दूसरी श्रेणी में सर्वांग निरूपक आचार्य आचार्य की गणना की जा सकती है . वह इस स्थान पर के अधिकारी भी नहीं हो सकते। वे न शास्त्रकार थे, न शास्त्र के भाष्यकार । उनका काम शास्त्र की की परंपरा को सरस रूप में हिंदी में अवतरित करना था और इसमें निश्चय ही कृतकार्य हुए। उनके कृतित्व का मूल्यांकन इसी आधार पर होना चाहिए।
निष्कर्ष:
हिंदी के रीति आचार्य ने भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा को हिंदी में सरस रूप में अवतरित किया। इस प्रकार भी हिन्दी काव्य को शास्त्र चिंतन की पौढ़ि प्राप्ति हुई और शास्त्रीय विचार सरस रूप में प्रस्तुत हुए। भारतीय भाषाओं में हिंदी को छोड़ अत्यंत अन्यत्र कहीं भी यह प्रवृत्ति नहीं मिलती। इसके अपने दोष हो सकते हैं परंतु वर्तमान हिंदी आलोचना पर इसका प्रभाव ही स्पष्ट है।