रीतिकालीन प्रसिद्ध पंक्तियाँ

रीतिकालीन प्रसिद्ध पंक्तियाँ

रीतिकालीन कवियों की प्रसिद्ध पंक्तियाँ

बिहारी की पंक्तियाँ 

  • इत आवति चलि, जाति उत चली छ सातक हाथ।
    चढ़ि हिंडोरे सी रहै लागे उसासनु हाथ।।
    (विरही नायिका इतनी अशक्त हो गयी है कि सांस लेने मात्र से छः सात हाथ पीछे चली जाती है और सांस छोड़ने मात्र से छः सात हाथ आगे चली जाती है। ऐसा लगता है मानो जमीन पर खड़ी न होकर हिंडोले पर चढ़ी हुई है।) -बिहारी
  • दृग अरुझत, टूटत कुटुम्ब, जुरत चतुर चित प्रीति।
    पड़ति गांठ दुर्जन हिये दई नई यह रीति।। -बिहारी
  • सटपटाति-सी ससि मुखी मुख घूँघट पर ढाँकि -बिहारी

मेरी भव बाधा हरो -बिहारी

तंत्रीनाद कवित्त रस सरस राग रति रंग।
अनबूड़े बूड़ेतिरे जे बूड़ेसब अंग।। -बिहारी

केशवदास की पंक्तियाँ 

  • वासर की संपति उलूक ज्यों न चितवत
    (जिस तरह दिन में उल्लू संपत्ति की ओर नहीं ताकते उसी तरह राम अन्य स्त्रियों की तरफ नहीं देखते।) -केशवदास
  • जदपि सुजाति सुलक्षणी सुवरण सरस सुवृत्त।
    भूषण बिनु न विराजई कविता वनिता मीत।। -केशवदास

भिखारीदास की पंक्तियाँ 

  • आगे के कवि रीझिहें, तो कविताई, न तौ
    राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है।
    (आगे के कवि रीझें तो कविता है अन्यथा राधा-कृष्ण के स्मरण का बहाना ही सही।) -भिखारी दास
  • जान्यौ चहै जु थोरे ही, रस कविता को बंस।
    तिन्ह रसिकन के हेतु यह, कान्हों रस सारंस।। -भिखारी दास
  • काव्य की रीति सिखी सुकवीन सों
    (मैंने काव्य की रीति कवियों से ही सीखी है।) -भिखारी दास
  • तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार -भिखारी दास

चिंतामणि की पंक्तियाँ 

आँखिन मूंदिबै के मिस,
आनि अचानक पीठि उरोज लगावै -चिंतामणि

रीति सुभाषा कवित की बरनत बुधि अनुसार -चिंतामणि

घनानंद की पंक्तियाँ 

  • अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
    तहँ साँचे चलैं ताजि आपनपौ, झिझकै कपटी जे निसांक नहीं।। -घनानन्द
  • यह कैसो संयोग न सूझि पड़ै जो वियोग न एको विछोहत है -घनानंद
  • मोहे तो मेरे कवित्त बनावत। -घनानंद
  • रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागै ज्यौं ज्यौं निहारियै।
    त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहूँ नहिं आन तिहारियै। -घनानंद
  • घनानंद प्यारे सुजान सुनौ, इत एक तें दूसरो आँक नहीं।
    तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।।
    [सुजान-घनानंद की प्रेमिका का नाम: घनानंद ने प्रायः सुजान
    (एक अर्थ-सुजान, दूसरा अर्थ-श्रीकृष्ण) को संबोधित करते हुए अपनी कविताएँ रची है] -घनानंद

देव की पंक्तियाँ 

  • अपनी-अपनी रीति के काव्य और कवि-रीति -देव
  • युक्ति सराही मुक्ति हेतु, मुक्ति भुक्ति को धाम।
    युक्ति, मुक्ति और भुक्ति को मूल सो कहिये काम।। -देव
  • अभिधा उत्तम काव्य है मध्य लक्षणा लीन
    अधम व्यंजना रस विरस, उलटी कहत प्रवीन। -देव

मतिराम की पंक्तियाँ 

  • लोचन, वचन, प्रसाद, मुदृ हास, वास चित्त मोद।
    इतने प्रगट जानिये वरनत सुकवि विनोद।। -मतिराम
  • कुंदन का रंग फीको लगै, झलकै अति अंगनि चारु गोराई।
    आँखिन में अलसानि, चित्तौन में मंजु विलासन की सरसाई।।
    को बिन मोल बिकात नहीं मतिराम लहे मुसकानि मिठाई।
    ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे है नैननि त्यों-त्यों खरी निकरै सी निकाई।। -मतिराम

बोधा की पंक्तियाँ 

  • यह प्रेम को पंथ कराल महा तरवारि की धार पर धाबनो है -बोधा
  • एक सुभान कै आनन पै कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को -बोधा

ब्रजनाथ (घनानंद के कवि-मित्र एवं प्रशस्तिकार) की पंक्तियाँ

  • नेही महा बज्रभाषा प्रवीन और सुंदरतानि के भेद को जानै -बज्रनाथ
  • चाह के रंग मैं भीज्यौ हियो, बिछुरें-मिलें प्रीतम सांति न मानै।
    भाषा प्रबीन, सुछंद सदा रहै, सो घनजी के कबित्त बखानै।। -बज्रनाथ 

पद्माकर की पंक्तियाँ

  • फागु के भीर अभीरन में गहि
    गोविंदै लै गई भीतर गोरी।
    भाई करी मन की पद्माकर,
    ऊपर नाहिं अबीर की झोरी।
    छीनी पितंबर कम्मर ते सु
    विदा दई मीड़ि कपोलन रोरी
    नैन नचाय कही मुसकाय,
    ‘लला फिर आइयो खेलन होरी’ । -पद्माकर
  • गुलगुली गिलमैं, गलीचा है, गुनीजन हैं, चिक हैं, चिराकैं है, चिरागन की माला हैं।
    कहै पदमाकर है गजक गजा हूँ सजी,
    सज्जा हैं, सुरा हैं, सुराही हैं, सुप्याला हैं। -पद्माकर

अन्य रीतिकालीन कवियों की पंक्तियाँ

  • मानस की जात सभै एकै पहिचानबो -गुरु गोविंद सिंह
  • अमिय, हलाहल, मदभरे, सेत, स्याम, रतनार।
    जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत एक बार।। -रसलीन
  • भले बुरे सम, जौ लौ बोलत नाहिं
    जानि परत है काक पिक, ऋतु बसंत के माहिं। -वृन्द
  •  कनक छुरी सी कामिनी काहे को कटि छीन -आलम
  • आलम नेवाज सिरताज पातसाहन के
    गाज ते दराज कौन नजर तिहारी है -चन्द्रशेखर
  •  देखे मुख भावै अनदेखे कमल चंद
    ताते मुख मुरझे कमला न चंद। -केशवदास
  • साजि चतुरंग वीर रंग में तुरंग चढ़ि -भूषण
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