हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल

हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल को सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह हिन्दी साहित्य की एक सशक्त और अत्यन्त लोकप्रिय काव्य – विधा है।

ग़ज़ल की शुरुआत

ग़ज़ल की शुरुआत लगभग पन्द्रह सौ वर्ष पहले अरबी भाषा में हुई थी। अरबी में मुख्य रूप से कसीदे ( राजाओं की प्रशंसा में लिखे जाने वाले काव्य ) और रजज ( वीर रस के काव्य ) लिखे जाते थे। कसीदे में मुख्य रूप से इश्क – मोहब्बत का जिक्र होता था। आगे चलकर फारसी के शायरों ने जब अरबी विधा को अपनाया तो तश्बीब के अशआर को अलग करके एक दूसरी विधा बनाई जिसे गजल कहने लगे।

हिन्दी गजल उर्दू से न आकर सीधे फारसी से हिन्दी में आई और उर्दू के जन्म ( मुगलकाल 2015 से 2017) से पहले अमीर खुसरों ने हिन्दी में पहली गजल लिखी।

गजल शब्द का अर्थ

गजल शब्द का अर्थ है – प्रेमिका से बातें करना । दरबारी संस्कृति एवं सभ्यता के प्रभाव में आकर गजल , जो वासनात्मक प्रेम की अभिव्यक्ति का माध्यम बन चुकी थी , परवर्ती कवियों ने उसे व्यापक आयाम प्रदान किया और गजल के अन्तर्गत प्रेमिका की कंघी , चोटी , अंगिया , कुर्ती के वर्णन के स्थान पर पवित्र प्रेम यथा पारिवारिक प्रेम , ईश्वर प्रेम , देश – प्रेम आदि भावनाओं की अभिव्यंजना होने लगी। इस प्रकार गजल अपने संकुचित शाब्दिक अर्थ से हटकर व्यापक स्वरूप में कवियों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनी।

ग़जल रेगिस्तान के प्यासे होंठों पर उतरती हुई शीतल तरंग की उमंग है। गजल घने अंधकार में टहलती हुई चिंगारी है। गजल नींद से पहले का सपना है। गजल जागरण के बाद का उल्लास है। गजल गुलाबी पाँखुरी के मंच पर बैठी हुई खुशबू का मौन स्पर्श है।।

डॉ कुँअर बेचैन

गजल न तो प्रकृति की कविता है न अध्यात्म की , वह हमारे उसी जीवन की कविता है , जिसे हम सचमुच जीते हैं। ….
यदि शुद्ध हिन्दी में गजल का स्वरूप विश्लेषण गजल लिखनी ही है तो हमें हिन्दी का वह स्वरूप तैयार करना होगा जो दैनिक जीवन की भाषा और कविता की भाषा की दूरी को मिटा सके ।

गोपाल दास नीरज


हिन्दी गजल से मेरा अभिप्राय उर्दू कविता से आयातित उस काव्य – विधा से है जो उर्दू गजल की शैल्पिक काया में हिन्दी की आत्मा को प्रतिष्ठित करती हुई अपनी गेयता को सुरक्षा देती हुई , आधुनिक जीवन और परिवेश की संगतियों और विसंगतियों को नूतन भावबोध के साथ स्थापित करती हुई आगे बढ़ रही है। जिस गजल में हिन्दी की प्रकृति और व्याकरण की सुरक्षा के साथ नवागत बिम्बों और प्रतीकों का विधान है , मेरी समझ में उसे हिन्दी गजल मान लेने में कोई हर्ज नहीं है। उर्दू के कवियों ने जिस तरह अपने काव्य में हिन्दी गीत को आत्मसात कर लिया है , वैसे ही हिन्दी कवि यदि गजल को अपनी तरह आत्मसात कर लें तो साहित्यिक साम्प्रदायिकता का मूलोच्छेद बहुत जल्दी हो जायेगा।

डॉ० उर्मिलेश

गजल में भाषा का सौन्दर्य , ताजा मक्खन की कोमलता एवं महक , केशर का रंग एवं सुगंध तथा प्रेम का सम्पूर्ण रोमांच विद्यमान है। नवीनतम विषयों का निचोड़ है।


गजल का स्वरूप विश्लेषण डॉ० नरेन्द्र वशिष्ठ का मत है कि गजल का मूल क्षेत्र नारी विषयक भावों से सम्बन्धित है। दरअसल गजल गोई का अधिकार सम्बन्ध विरह जन्य व्यथा से रहा है। अतः इसमें हृदय को छू लेने की क्षमता को बहुत ऊँचा गुण माना गया है।

हिन्दी गजल उर्दू – फारसी से आयातित वह काव्य – विधा है जो पूर्व निर्धारित लघुखण्डों में आबद्ध अनेक शेरों के माध्यम से प्रतीकों एवं बिम्बों के सहारे पढ़े – लिखे आम आदमी की भाषा में आधुनिक जीवन मूल्यों की प्रतिस्थापना में सहायक सिद्ध हुई है। अनुभूति की तीव्रता एवं संगीतात्मकता हिन्दी गजल के प्राण हैं।

गजल शब्द का अर्थ होता है – प्रेमी और प्रेमिका के बीच का वार्तालाप इसके शेर एक तरह से भिन्न – भिन्न काफिया ( तुकान्त ) और एक ही रदीफ से सुसज्जित एक ही वजन और एक ही बहर ( छन्द ) में लिखे गये होते हैं। इसका प्रत्येक शेर अपने आप में पूर्ण होता है। तथा स्वतंत्र अर्थ अभिव्यक्त करता है। गजल में न्युनतम तीन शेर और अधिकतम पच्चीस शेर हो सकते हैं। इन सबके संतुलित संगठन और समुचित निर्वाह से ही गजल अपनी आकारगत् पूर्णता को प्राप्त करती है , प्रेम , सौन्दर्य , सुक्तिभयता , साकेतिकता संक्षिप्तता , संश्लिष्टता , प्रतीकात्मकता और संगीतात्मकता आदि गजल की अनिवार्य विशेषताएँ हैं।

हिंदी ग़ज़ल के प्रवर्तक

  • डॉक्टर रोहिताश्व अस्थाना ने आमिर खुसरो को हिंदी ग़ज़ल का प्रवर्तक स्वीकार किया है।
  • कुछ विद्वान कबीरदास को हिंदी ग़ज़ल का आदि प्रवर्तक मानते हैं ।
  • आधुनिक हिंदी ग़ज़ल का प्रवर्तक दुष्यंत कुमार को माना जाता है।

हिंदी के कुछ महत्वपूर्ण गजल संग्रह निम्नांकित हैं

(क) अमीर खुसरो

(1) शबाने हिजरां दराज़ यू जुल्फ बरोजे वसला तू उम्र कीताह, सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे का अंधेरी रतिया।

(ख) जयशंकर प्रसाद

(1) सरासर भूल करते हैं, उन्हें जो प्यार करते हैं, बुराई कर रहे हैं और अस्वीकार करते हैं। उन्हें अवकास ही इतना कहाँ है मुझसे मिलने का, किसी से पूछ लेते हैं यह उपकार करते हैं।

(ग) गोपालदास ‘नीरज’

(1) समय ने जब अँधेरों से दोस्ती की है जला के अपना ही घर, हमने रोशनी की है।

(2) बदन पे जिसके शराफत का पैरहन देखा, वो आदमी भी यहाँ हमने बदचलन देखा ॥

(घ) रामदरश मिश्र

(1) बाजार को निकले हैं लोग बेच के घर को । क्या हो गया है जाने आज मेरे शहर को ।

(ङ) कुँवर बेचैन

(1) अपने मन में ही अचानक यू सजल हो जायेंगे। क्या ख़बर थी आपसे मिलकर ग़ज़ल हो जायेंगे ॥

(2) जब तेरी याद ने सीने से लगाया मुझको। याद आकर भी कोई याद न आया मुझको ॥

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