अस्तित्ववाद

अस्तित्ववादी विचार या प्रत्यय की अपेक्षा व्यक्ति के अस्तित्व को अधिक महत्त्व देते हैं। इनके अनुसार सारे विचार या सिद्धांत व्यक्ति की चिंतना के ही परिणाम हैं। पहले चिंतन करने वाला मानव या व्यक्ति अस्तित्व में आया, अतः व्यक्ति अस्तित्व ही प्रमुख है, जबकि विचार या सिद्धांत गौण। उनके विचार से हर व्यक्ति को अपना सिद्धांत स्वयं खोजना या बनाना चाहिए, दूसरों के द्वारा प्रतिपादित या निर्मित सिद्धांतों को स्वीकार करना उसके लिए आवश्यक नहीं। इसी दृष्टिकोण के कारण इनके लिए सभी परंपरागत, सामाजिक, नैतिक, शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक सिद्धांत अमान्य या अव्यावहारिक सिद्ध हो जाते हैं। उनका मानना है कि यदि हम दुख एवं मृत्यु की अनिवार्यता को स्वीकार कर लें तो भय कहाँ रह जाता है।

अस्तित्वादी के अनुसार दुख और अवसाद को जीवन के अनिवार्य एवं काम्य तत्त्वों के रूप में स्वीकार करना चाहिए। परिस्थितियों को स्वीकार करना या न करना व्यक्ति की ही इच्छा पर निर्भर है। इनके अनुसार व्यक्ति को अपनी स्थिति का बोध दु:ख या त्रास की स्थिति में ही होता है, अतः उस स्थिति का स्वागत करने के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए। दास्ताएवस्की ने कहा था- ‘‘यदि ईश्वर के अस्तित्व को मिटा दें तो फिर सब कुछ (करना) संभव है।’’

अस्तित्ववाद ‘अतित्व’ में ‘अस्ति’ होने का बोध कराता है। यों तो पेड़-पौधे, पशु-पंछी आदि सभी का अस्तित्व होता है। किंतु अस्तित्ववादी अर्थ में मनुष्य का ही अस्तित्व को स्वीकारा गया हैं। व्यक्ति की ‘वैयक्तिकता’ या ‘यूनिकनेस’ अस्तित्ववाद का केंद्रीय विवेच्य है। सात्र के अनुसार, गुण के पहले अस्तित्व होता है। वो कहते है – “मनुष्य पहले अस्तित्व में आता है, आत्मसंघर्स करता है, दुनिया से टकराता है और अपने को परिभाषित करता है।”

अस्तित्ववादी दर्शन में अनेक विषयों का विवेचन किया गया है, जैसे- स्वतंत्रता, चुनाव, संवेदना, समाज आदि। पर इन सभी की केंद्रीय मुद्दा व्यक्ति ही है।

सार्त्र का कहना है कि मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए अभिशप्त है। अतः स्वतत्रंता ‘होने’ की बुनियादी शर्त है। स्वतंत्र होकर ही प्रमाणिक जीवन जीया जा सकता है। कामू ‘विद्रोह’ को स्वतंत्रता का पर्याय कहता है – “मैं विद्रोह करता हूं इसलिए अस्तित्ववान हूँ।”

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