श्री वल्लभाचार्य जी : सगुण धारा कृष्ण-भक्ति शाखा के कवि

श्री वल्लभाचार्यजी वैष्णव धर्म के प्रधान प्रवर्त्तकों में से थे। ये वेदशास्त्र में पारंगत धुरंधर विद्वान् थे। वल्लभाचार्य ने सगुण रूप को ही असली पारमार्थिक रूप बताया और निर्गुण को उसका अंशतः तिरोहित रूप कहा।

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श्री वल्लभाचार्य जी : सगुण धारा कृष्ण-भक्ति शाखा के कवि

जीवन परिचय

आचार्य जी का जन्म संवत् 1535, वैशाख कृष्ण 11 को और गोलोकवास संवत् 1587, आषाढ़ शुक्ल 3 को हुआ।

प्रेमलक्षणा भक्ति की ओर जीव की प्रवृत्ति तभी होती है जब भगवान का अनुग्रह होता है जिसे ‘पोषण’ या पुष्टि कहते हैं। इसी से वल्लभाचार्य जी ने अपने मार्ग का नाम ‘पुष्टिमार्ग’ रखा है।

वल्लाभाचार्यजी के ग्रंथ

वल्लाभाचार्यजी के मुख्य ग्रंथ ये हैं- ( 1 ) पूर्वमीमांसा भाष्य, (2) उत्तर मीमांसा या ब्रह्मसूत्र भाष्य जो अणुभाष्य के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनके शुद्धाद्वैतवाद का प्रतिपादक यही प्रधान दार्शनिक ग्रंथ है; (3) श्रीमद्भागवत की सूक्ष्म टीका तथा सुबोधिनी टीका (4) तत्त्वदीपनिबंध तथा (5) सोलह छोटे-छोटे प्रकरण ग्रंथ इनमें से पूर्वमीमांसा भाष्य का बहुत थोड़ा सा अंश मिलता है।

वल्लभ संप्रदाय

रामानुजाचार्य के समान वल्लभाचार्य ने भी भारत के बहुत से भागों में पर्यटन और विद्वानों से शास्त्रार्थ करके अपने मत का प्रचार किया था। अंत में अपने उपास्य श्रीकृष्ण की जन्मभूमि में जाकर उन्होंने अपनी गद्दी स्थापित की और अपने शिष्य पूरनमल खत्री द्वारा गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथजी के बड़े भारी मंदिर का निर्माण कराया तथा सेवा का बड़ा भारी मंडान बाँधा । वल्लभ संप्रदाय में जो उपासना पद्धति या सेवापद्धति ग्रहण की गई उसमें भोग, राग तथा की प्रभूत सामग्री के प्रदर्शन की प्रधानता रही। मंदिरों की प्रशंसा ‘केसर की चक्कियाँ चले है’ कहकर होने लगी। भोगविलास के इस आकर्षण का प्रभाव सेवक सेविकाओं पर कहाँ तक अच्छा पड़ सकता था? जनता पर चाहे जो प्रभाव पड़ा हो पर उक्त गद्दी के भक्त शिष्यों ने सुंदर- सुंदर पदों द्वारा जो मनोहर प्रेमसंगीत धारा बहाई उसने मुरझाते हुए हिंदू जीवन को सरस और प्रफुल्ल किया। इस संगीतधारा में दूसरे संप्रदायों के कृष्णभक्तों ने भी पूरा योग दिया।

वल्लाभाचार्य ने कितने प्रकार के जीव माने हैं ?

वल्लभाचार्य जी

वल्लाभाचार्य ने जीव तीन प्रकार के माने हैं— (1) पुष्टि जीव जो भगवान के अनुग्रह का ही भरोसा रखते हैं और ‘नित्यलीला’ में प्रवेश पाते हैं, (2) मर्यादा जीव जो बेद की विधियों का अनुसरण करते हैं और स्वर्ग आदि लोक प्राप्त करते हैं और (3) प्रवाह जीव, जो संसार के प्रवाह में पड़े हुए सांसारिक सुखों की प्राप्ति में ही लगे रहते हैं।

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