वृन्द का साहित्यिक परिचय

वृन्द (1643-1723) हिन्दी के कवि थे। इनके नीति के दोहे बहुत प्रसिद्ध हैं।

वृन्द जी का साहित्यिक जीवन परिचय

पं॰ रामनरेश त्रिपाठी इनका जन्म सन् 1643 में मथुरा (उ.प्र.) क्षेत्र के किसी गाँव का बताते हैं, जबकि डॉ॰ नगेन्द्र ने मेड़ता गाँव को इनका जन्म स्थान माना है। इनका पूरा नाम ‘वृन्दावनदास’ था।  सन् 1723 में किशनगढ़ में ही वृन्द का देहावसान हो गया।

वृन्द जी की रचनाएँ

वृन्द की ग्यारह रचनाएँ प्राप्त हैं- समेत शिखर छंद, भाव पंचाशिका, शृंगार शिक्षा, पवन पचीसी, हितोपदेश सन्धि, वृन्द सतसई, वचनिका, सत्य स्वरूप, यमक सतसई, हितोपदेशाष्टक, भारत कथा, वृन्द ग्रन्थावली नाम से वृन्द की समस्त रचनाओं का एक संग्रह डॉ॰ जनार्दन राव चेले द्वारा संपादित होकर 1971 ई० में प्रकाश में आया है।

वृन्द जी का वर्ण्य विषय

 वृन्द के “बारहमासा” में बारहों महीनों का सुन्दर वर्णन है। “भाव पंचासिका” में शृंगार के विभिन्न भावों के अनुसार सरस छंद लिखे हैं। “शृंगार शिक्षा” में नायिका भेद के आधार पर आभूषण और शृंगार के साथ नायिकाओं का चित्रण है। नयन पचीसी में नेत्रों के महत्व का चित्रण है। इस रचना में दोहासवैया और घनाक्षरी छन्दों का प्रयोग हुआ है। पवन पचीसी में ऋतु वर्णन है।

वृन्द जी का लेखन कला

वृन्द कवि की रचनाएँ रीतिबद्ध परम्परा में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इन्होंने सरल, सरस और विदग्ध सभी प्रकार की काव्य रचनाएँ की हैं।

वृन्द जी साहित्य में स्थान

रीतिकालीन परम्परा के अन्तर्गत वृन्द का नाम आदर के साथ लिया जाता है।

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