द्विवेदी युग या जागरण-सुधार काल

द्विवेदी युग या जागरण-सुधार काल के बारे में जानेंगे

द्विवेदी युग का नामकरण

द्विवेदी युग या जागरण-सुधार काल, इस कालखंड के पथ प्रदर्शक, विचारक और सर्वस्वीकृत साहित्य नेता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर  रखा गया है।

हिन्दी के कवियों और लेखकों की एक पीढ़ी का निर्माण करने, हिन्दी के कोश निर्माण की पहल करने, हिन्दी व्याकरण को स्थिर करने और खड़ी बोली का परिष्कार करने और उसे पद्य की भाषा बनाने आदि का श्रेय बहुत हद तक महावीर प्रसाद द्विवेदी को ही है।

द्विवेदी युग की धारा

अनुशासन की धारा

द्विवेदी युग में अधिकांश कवियों ने द्विवेदी जी के दिशा निर्देश के अनुशासन में काव्य रचना की।जिन्हें  द्विवेदी मंडल के कवियों की काव्यधारा को ‘अनुशासन की धारा’ कहा जाता है

अनुशासन की धारा के कवि:-

द्विवेदी मंडल के कवियों में मैथलीशरण गुप्त, हरिऔध, सियारामशरण गुप्त, नाथूराम शर्मा ‘शंकर’, महावीर प्रसाद द्विवेदी आते हैं।

स्वच्छंदता की धारा

कुछ कवि ऐसे भी थे जो उनके अनुशासन में नही थे और काव्य सृ जन कर रहे थे , उन द्विवेदी मंडल के बाहर के कवियों की काव्यधारा को ‘स्वच्छंदता की धारा’ कहा जाता है।

स्वच्छंदता की धारा के कवि:-

स्वच्छंदता की धारा के कवियों में श्रीधर पाठक, मुकुटधर पाण्डेय, लोचन प्रसाद पांडेय, राम नरेश त्रिपाठी आदि प्रमुख हैं।इन कवियों की विशेषताएँ है:- 

स्वच्छंदता वादी काव्य की यही धारा आगे चलकर छायावाद में गहरी हो जाती है।

द्विवेदी युग की प्रसिद्ध पंक्तियाँ

मैं ढूंढ़ता तुझे था जब कुंज और वन में,

तू मुझे खोजता था जब दीन के वतन में।

तू आह बन किसी को मुझको पुकारता था,

मैं था तुझे बुलाता संगीत के भजन में।।

-राम नरेश त्रिपाठी

द्विवेदी युग में प्रकृति को आलंबन तथा प्रस्तुत विधान के रूप में मान्यता मिली। पर द्विवेदी युग में प्रकृति का स्थिर-चित्रण हुआ है, गतिशील चित्रण नहीं।द्विवेदी युगीन कविता कथात्मक तथा अभिधात्मक होने के कारण इतिवृत्तात्मक/विवरणात्मक हो गई है।

प्रबंध काव्य : ‘प्रिय प्रवास’ व ‘वैदेही वनवास’ (हरिऔध), ‘साकेत’ व ‘यशोधरा’ (मैथली शरण गुप्त), ‘उर्मिला’ (बालकृष्ण शर्मा नवीन) आदि।

खण्ड काव्य : ‘रंग में भंग’, ‘पंचवटी’, ‘जयद्रथ वध’ व ‘किसान’ (मैथलीशरण गुप्त), ‘मिलन’, ‘पथिक’ व ‘स्वप्न’ (राम नरेश त्रिपाठी) आदि।

द्विवेदीयुगीन रचना एवं रचनाकार

द्विवेदी युग की प्रवृत्तियाँ

1. राष्ट्रीय-भावना या राष्ट्र-प्रेम –

भारतेंदु युग में जागृत राष्ट्रीय चेतना क्रियात्मक रूप धारण करने लगी। उसका व्यापक प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा और कवि समाज राष्ट्र-प्रेम का वैतालिक बनकर राष्ट्र-प्रेम के गीत गाने लगा।जय जय प्यारा भारत देश     … श्रीधर पाठक लोक-प्रचलित पौराणिक आख्यानों,इतिहास वृत्तों और देश की राजनीतिक घटनाओं में इन्होंने अपने काव्य की विषय वस्तु को सजाया।

2.  रुढ़ि-विद्रोह –

पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव एवं जन जागृति के कारण इस काल के कवि में बौद्धिक जागरण हुआ और वह सास्कृतिक भावनाओं के मूल सिद्धांतों को प्रकाशित कर बाहरी आडम्बरों का विरोध करने लगा । स्त्री-शिक्षा,बालविवाह,अनमेल विवाह,विधवा-विवाह,दहेज-प्रथा,अंधविश्वास आदि विषयों पर द्विवेदी युग के कवियों ने रचनाएं लिखी हैं।हे ईश,दयामय, इस देश को उबारो।
कुत्सित कुरीतियों के वश से इसे उबारो॥
( मैथिलीशरण गुप्त)

3. मानवतावाद: 

इस काल का कवि संकीर्णताओं से ऊपर उठ गया है। वह मानव-मानव में भ्रातृ-भाव की स्थापना करने के लिए कटिबद्ध है। अत: वह कहता है-जैन बोद्ध पारसी यहूदी,मुसलमान सिक्ख ईसाई।
कोटि कंठ से मिलकर कह दो हम हैं भाई-भाई॥

4. शृंगार की जगह आदर्शवादिता :

इस युग की कविता प्राचीन प्राचीन सांस्कृतिक आदर्शों से युक्त आदर्शवादी कविता है। रति के पति! तू प्रेतों से बढ़कर है संदेह नहीं,
जिसके सिर पर तू चढ़ता है उसको रुचता गेह नहीं।

5. नारी का उत्थान 

इस काल के कवियों ने नारी के महत्त्व को समझा,उस पर होने वाले अत्याचारों का विरोध किया और उसको जागृत करते हुए कहा -जहां कवियों ने नारी के दयनीय रूप देखें,वहां उसके दु:ख पर आंसू बहाते हुए कहा –

अबला जीवन  हाय! तुम्हारी यही कहानी।
आचल में है दूध और अआंखों में पानी ॥                

  ( यशोधरा में मैथिलीशरण गुप्त)

6. प्रकृति-चित्रण: 

द्विवेदी युग के कवि का ध्यान प्रकृति के यथा-तथ्य चित्रण की ओर गया। प्रकृति चित्रण कवि के प्रकृति-प्रेम स्वरूप विविध रूपों में प्रकट हुआ। श्रीधर पाठक,रामनरेश त्रिपाठी,हरिऔद्य तथा मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं में प्रकृति आलंबन,मानवीकरण तथा उद्दीपन आदि रूपों में चित्रित किया गया है।

7. इतिवृत्तात्मकता-

इतिवृत्तात्मकता का अर्थ है -वस्तु वर्णन या आख्यान की प्रधानता।

आदर्शवाद और बौद्धिकता की प्रधानता के कारण द्विवेदी युग के कवियों ने वर्णन-प्रधान इतिवृत्तात्मकता को अपनाया।

इस युग के अधिकांश कवि एक ओर तो प्राचीन ग्रंथों की महिमा, प्रेम की महिमा, मेघ के गुण-दोष, कुनैन, मच्छर,खटमल आदि शीर्षकों से वस्तु-वर्णन-प्रधान कविताओं को रच रहे थे और दूसरी ओर प्राचीन आख्यानों को नवीनता का पुट  देकर उपस्थित किया जा रहा था; यद्यपि इस प्रकार की कुछ कविताएं मनोहारी हैं,हास्य-विनोदात्मक हैं, किंतु अधिकतर निरस हैं।

इतिवृत्तात्मकता के कारण इस काव्य में नीरसता और शुष्कता है, कल्पना और अनुभूति की गहराई कम है, रसात्मकता एवं कोमल कांत पदावली का उसमें अभाव है।

8. स्वच्छंदतावाद –

प्राचीन रुढ़ियों को तोड़कर नई शैलियों में नए काव्य विषयों को लेकर साहित्य-सर्जना की प्रवृत्ति को स्वच्छंदता कहा जाता है। हिंदी में स्वच्छंदतावादी काव्य का पूर्ण विकास छायावादी युग में हुआ। परंतु द्विवेदी युग में श्रीधर पाठक और रामनरेश त्रिपाठी में स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं।

प्रकृति-चित्रण और नए विषयों को अपनाने के कारण रामचंद्र शुक्ल ने श्रीधर पाठक को हिंदी का पहला स्वच्छंदतावादी कवि कहा है।

9.  भाषा संस्कार :

द्विवेदी जी के प्रयासों के परिणामस्वरूप इस समय में साहित्य के समस्त रूपों में खड़ी बोली का एकछत्र राज्य स्थापित हो गया। उसका रूखापन जाता रहा, उसमें एकरूपता स्थापित हो गई और वह अपने शुद्ध रूप में प्रकट हुई।

श्री हरदेव बाहरी के शब्दों में – “मैथिलीशरण गुप्त ने भाषा को लाक्षणिकता प्रदान की, ठाकुर गोपालशरण सिंह ने प्रवाह दिया, स्नेही ने उसे प्रभावशालिनी बनाया और रूपनारायण पांडेय,मनन द्विवेदी, रामचरित उपाध्याय आदि ने उसका परिष्कार तथा प्रचार करके आधुनिक हिंदी काव्य को सुदृढ़ किया।”

10. काव्य रूप में विविधता:

इस युग में प्रबंध और मुक्तक,दोनों ही रूपों में काव्य रचनाएं हुई। प्रबंध रचना के क्षेत्र में इस युग के कवियों को अति सफलता मिली। ‘प्रिय-प्रवास’, ‘वैदही-बनवास’, ‘साकेत’, तथा ‘राचरित-चिंतामणि’ इस काल के प्रसिद्ध महा काव्य हैं।

‘जयद्रथ-वध’,’पंचवटी’,’पथिक’,’स्वपन’ आदि प्रमुख खंडकाव्य हैं। मुक्तक और गीत भी लिखे गए,परंतु अधिक सफलता प्रबंध काव्य प्रणयन में ही मिली।

11. विविध छंद :

इस काल-खंड में विविध छंदों को अपनाने की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है,फिर भी पुराने छंदों और मात्रा-छंदों की ही प्रधानता रही। श्रीधर पाठक ने कुछ नए छंदों तथा मुक्त-छंदों का भी प्रयोग किया।

12. शैली :

शैली की दृष्टि से इस युग का काव्य विविधमुखी है। गोपालशरण सिंह आदि पुराने ढ़ंग के और नई शैली के मुक्तक लिख रहे थे तथा उपाध्याय एवं गुप्त जी प्रबंध शैली को महत्व दे रहे थे। गीति-शैली के काव्यों का सृजन भी होने लगा था।काव्य के कलेवर के निर्माण में स्वच्छंदता से काम लिया गया।

13.अनुवाद कार्य :

इन सबके अतिरिक्त अंग्रेजी और बंगला से अनुवाद करने की प्रवृत्ति,भक्तिवाद की ओर झुकाव आदि अन्य नाना गौण प्रवृत्तियां भी इसी काल में देखी जाने लगी थी।


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