फ्रॉयड का मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्त

मनोविश्लेषणवाद का प्रवर्तक फ्रायड को माना जाता है। फ्रायड ने मानव मस्तिष्क के तीन भाग चेतन, अवचेतन और अर्ध-चेतन किये। उन्होंने काम और व्यक्ति की दमित भावनाओं को सर्वाधिक महत्व दिया। फ्रायड के शिष्य एडलर ने काम की जगह अहम को मुख्य माना जबकि उनके एक अन्य शिष्य युंग ने दोनो को एक साथ रखा। हिंदी में इलाचंद्र जोशी,जैनेन्द्र, अज्ञेय आदि इसी विचारधारा से प्रभावित साहित्यकार हैं।

फ्रॉयड का मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्त या फ्रॉयड का सिद्धान्त-

व्यक्तित्व विकास के सम्बन्ध में फ्रॉयड ने अपने विचार मनोविश्लेषणवाद पर आधारित किए हैं। उन्होंने अपने विचारों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि मानव व्यक्तिगत चेतना, अर्द्ध चेतना तथा अवचेतना पर निर्भर करता है। ये तीनों चेतना के स्तर होते हैं।

फ्रॉयड के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में प्रमुख बिन्दु निम्नलिखित हैं-

सब व्यवहार अनुप्रेरित है, जो कुछ भी व्यक्ति करता है। उस सब में अर्थ होता है, चाहे व्यक्ति स्वयं उस अर्थ के सम्बन्ध में चेतना रखता है अथवा नहीं। अतएव प्रत्येक कार्य का कारण होता है और इसका इतिहास होता है, जो व्यक्ति के पूर्व अनुभवों में होता है।

सब मानव व्यवहार की शक्ति मूल-प्रवृत्यात्मक होती है। मनुष्य एक पशु ही है, जो मानव उस समय बनता है जब वह अपनी मूल-प्रवृत्यात्मक प्रकृति में परिवर्तन ले जाता है। मानव एक बन्द संस्थान है जिसके आकार उत्पन्न होने के समय ही निश्चित हो जाते हैं। एक सीमा में लचीलापन जीवन के प्रथम तीन वर्षों में रहता है, जबकि विशिष्ट प्रकार सीखना (खाना खाना, दूध पीना, मल-मूत्र त्याग करने का प्रशिक्षण) नाटकीय एवं स्थायी प्रभाव विकासशील व्यक्तित्व पर डालता है।

व्यक्तित्व की संरचना कई प्रकार से विचार की जा सकती है। अन्तिम अनुमान के सम्बन्ध में तीन विचारों के गुट मान्यता प्राप्त कर गए हैं, जो व्यक्तित्व संगठन की चेतना तथा कामेच्छा के विकास की व्याख्या करते हैं। ये गुट हैं

चेतना की तीन स्तर-

मनोविश्लेषणवाद चेतना के तीन स्तरों को मानता है— चेतना, अर्द्धचेतना तथा अवचेतना।

व्यक्तित्व संगठन के तीन स्तर-

ये स्तर हैं- इदम, अहं एवं अत्यहम एक मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति में ये तीनों स्तर मिलकर एक एकीकृत तथा सामंजस्यपूर्ण संगठन बनाते हैं और व्यक्ति को अपने वातावरण में सन्तोषजनक समायोजन करने योग्य बनाते हैं। यदि तीनों स्तर अथवा संस्थान एक सामंजस्यपूर्ण इकाई नहीं बनाते तो कुसमायोजन हो जाता है।

फ्रॉयड का मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्त

इदम् –

यह वह स्तर है, जिसमें वह सब होता है, जो जन्मजात है। यह मानव संरचना में निश्चित होता है। सब मानसिक शक्ति का स्रोत यही है। यह प्राणी को आराम की अवस्था में रखता है। यह सुख की खोज करता है और दुःख से बचता है। यह नैतिकता, मूल्यों या तर्क से नियन्त्रित नहीं होता है। यह तुरन्त इच्छाओं की पूर्ति चाहता है। इसकी शक्ति या तुरन्तकालीन कार्यों में कामनाओं की पूर्ति के ख्याल में व्यय होती है अथवा अहम् के अधिकार में आती हैं।

अहम् –

प्राणी को यथार्थता तथा प्रतिमाओं में विभेद करना चाहिए। ऐसा करने के लिए, इदम का एक भाग विशेष प्रकार से विकसित होता है और इड तथा बाहरी संसार के बीच एक माध्यम बन जाता है। यह अहम् होता है। इसका मुख्या कार्य इड तथा अत्यहम् को नियंत्रण करना है तथा वातावरण में सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखना है।

अहम् यथार्थता के सिद्धान्त का अनुसरण करता है। यथार्थता सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार करने से तात्पर्य यह है कि व्यक्ति वास्तविक वस्तु की खोज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करता है और तनाव उस समय तक दूर नहीं होता जब तक कि सन्तोष देने वाली वस्तु की खोज नहीं हो जाती है।

अहम्- इदम्, अत्यहम् तथा वातावरण की आवश्यकताओं से सामंजस्य स्थापित करने की चेष्टा करता है। इसलिए अहम् का विकास होना एक व्यक्ति के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हॉल के अनुसार, यद्यपि अहम् बहुत कुछ वातावरण से अन्तः क्रियाओं की उपज है, फिर भी इसकी वृद्धि में वंशानुक्रम तथा परिपक्वता शक्तिशाली शक्तियाँ हैं। व्यक्ति में जन्मजात निहिताएँ विचारपूर्ण व्यवहार की होती हैं, जो अनुभव, प्रशिक्षण तथा शिक्षा द्वारा वृद्धि कर जाती हैं।

अत्यहम् –

फ्रायड का कहना है कि बालकों की अपने अभिभावकों पर निर्भरता उनके अहम् पर एक स्थायी छाप छोड़ देती है। यह इस प्रकार होता है जैसे कि कोई विशेष संस्थान अहं के अन्दर बन गया हो, जिसमें अभिभावकों का प्रभाव जीवित रहता है। इसको ही अत्यहम् कहते हैं। यह समाज के पारस्परिक मूल्यों एवं विचारों का आन्तरिक प्रतिनिधि है, जो बालक पर उसके माता-पिता द्वारा आरोपित किए जाते हैं। यह आदर्श को प्रस्तुत करता है और इसका उद्देश्य है परिपूर्णता, न कि आनन्द माता-पिता पुरस्कार तथा सजा के द्वारा अत्यहम् के विकास के रूप देते हैं।

इदम् तथा अत्यहम् दोनों पूर्वकाल को प्रस्तुत करते हैं, जबकि अहम् वर्तमान की ओर प्रतिक्रियाशील होता है। हॉल कहते हैं कि अहम् का निर्माण इदम से होता है और अत्यहम् का अहम् से और वह व्यक्ति के जीवन भर आपस में अन्तः क्रिया करते रहते हैं। व्यक्तित्व एक इकाई के रूप में ही कार्य करता है, इंदम् व्यक्तित्व का जैविका तत्त्व है, अहम् मनोवैज्ञानिक भाग है और अत्यहम् सामाजिक संघटक है।

(iii) विकास की क्रिया में काम सम्बन्धी स्तर-

मनोयौगिक विकास सम्बन्धी विभिन्न काल हैं मुखवर्ती, गुदा, लिंगीय, सुप्त तथा जनन सम्बन्धी कामेच्छा।

मुखवर्ती काल ( जीवन का पहला वर्ष ) –

मुख कामुकता का प्रभाव क्षेत्र होता है। इस काल में निर्भर रहने का भाव प्रकट हो जाता है जो जीवन भर रह सकता है।

गुदा सम्बन्धी काल –

इस काल में व्यक्ति को चैन का भाव मल-मूत्र त्याग करने में प्राप्त होता है। कामेच्छा गुदा केन्द्रित होती है।

लिंगीय सम्बन्धी काल (3 से 5 वर्ष की आयु तक) –

बालक अपनी जननेन्द्रियों से खेलना पसन्द करता है।

सुप्तकाल –

किशोरावस्था के प्रारम्भ तक होता है। इस काल में कामेच्छा सुप्त रहती है।

जनन सम्बन्धी कामेच्छा काल-

यह किशोरावस्था के बाद का काल है। इसमें मुख, गुदा तना लिंगीय कामुकता जनन सम्बन्धी आवेगों के साथ संगठित हो जाती है।

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