पाश्चात्य काव्यशास्त्र के वाद

पाश्चात्य काव्यशास्त्र के वाद

हिन्दी काव्यशास्त्र
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अरस्तू का विरेचन सिद्धांत 

अरस्तू के द्वारा प्रयुक्त शब्द कैथार्सिस का अर्थ है सफाई करना या अशुद्धियों को दूर करना, अतः कैथार्सिस का व्युत्पत्तिपरक अर्थ हुआ शुद्धिकरण। अरस्तू ने ‘विरेचन’ शब्द का ग्रहण चिकित्साशास्त्र से किया था, इस मत का प्रचार सं १८५७ में जर्मन विद्वान बार्नेज के एक निबंध से हुआ, और तदुपरांत इस प्रायः स्वीकार किया जाने लगा। इन अनुमान के दो कारण थे:- (१) अरस्तू स्वयं वैध पुत्र थे और (२) उनके पूर्व प्लेटो या किसी अन्य विचारक ने साहित्य के संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग नहीं किया था।
चिकित्साशास्त्र में इस शब्द का अर्थ था रोचक औषधि द्वारा उदारगत विकारों का निदान, अस्वास्थ्यकर पदार्थों का बहिष्कार कर शरीर को स्वस्थ करना। सम्भावना यही है की प्लेटो के काव्य प्रभाव सम्बन्धी आक्षेपों का उत्तर देने के लिए अरस्तु ने चिकित्साशास्त्र से इस शब्द को ग्रहण कर त्रासदी के प्रसंग में इसका प्रयोग लाक्षणिक अर्थ में किया।
अरस्तू के परवर्ती व्याख्याकारों ने लक्षण के आधार पर ‘विरेचन’ के तीन अर्थ किये-
१. धर्म-परक
२. नीति-परक
३. कला-परक

१) धर्म-परक:- यूनान में भी भारत की तरह नाटक का आरम्भ धार्मिक उत्सवों से ही हुआ। अरस्तू के जीवन काल में ही रोम में यूनानी त्रासदी का प्रवेश हो चूका था और वह किसी कलात्मक उद्देश्य के लिए नहीं, अपितु अन्धविश्वाश के कारण हुआ था। वहाँ के लोग मानते थे कि धार्मिक उत्सव मानाने से दैवी विपत्ति दूर हो सकती है। स्पष्ट है कि यूनान कि धार्मिक संस्थाओं में बाह्य विकारों के द्वारा आंतरिक विकारों कि शांति और उसके शमन का यह उपाय अरस्तू को ज्ञात था और संभव है उन्हें ‘विरेचन’ सिद्धांत की प्रेरणा मिली हो। काव्यशास्त्र के बाईवाटर कृत अनुवाद की भूमिका लिखते हुए गिलबर्ट ने यह स्पष्ट किया कि लिवी के अनुसार रोम में यूनानी का प्रवेश कलात्मक परितोष के लिए नहीं, बल्कि एक धार्मिक अन्धविश्वाश के रूप में महामारी के निवारण के लिए हुआ था।
‘विरेचन का धर्म परक अर्थ स्वीकार करने वाले विद्वानों का मत है की अरस्तू ने विरेचन का लाक्षणिक प्रयोग धार्मिक आधार पर किया है और उसका अर्थ था-बाह्य उत्तेजना और अंत में शमन द्वारा आत्मिक शुद्धि और शांति।

२) नीतिपरक:- विरेचन कि नीतिपरक व्याख्या का श्रेय जर्मन विद्वान् बर्नेज को दिया जाता है। उनके अनुसार मानव मन में अनेक मनोविकार वासना रूप में स्थिर रहते है। त्रासदी रंगमंच पर ऐसे दृश्य प्रस्तुत करती है जिसमे ये मनोवेग अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किये जाते है। प्रेक्षक त्रासदी को देख कर मानसिक सुख का अनुभव करता है क्यूंकि उसके मन में वासना रूप में स्थित परना और त्रास आदि मनोवेगों का दंश समाप्त हो जाता है। यही भाव-विचार हमे हमारा खोया हुआ मानसिक संतुलन लौटकर हमें स्वस्थ बनता है।इस प्रकार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विरेचन का अर्थ हुआ करुणा और भय नामक मनोवेगों कि उत्तेजना द्वारा संपन्न अंतर्वृत्तियों का शमन अथवा मन कि शांति और परिष्कृति।अरस्तु के शब्दों में शुद्धि का अनुभव अर्थात आत्मा की विशदता और प्रसन्नता।

३) कला-परक:- विरेचन की कलापरक व्याख्या करने वाले विद्वानों में प्रमुख रूप से प्रो. बूचर शामिल है। बूचर का कहना है कि: ”त्रासदी का कार्य केवल करुणा या त्रास के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना भर नहीं है, बल्कि इन्हे सुनिश्चित परितोष प्रदान करना है। इन्हें कला के माध्यम में ढालकर परिष्कृत तथा स्पष्ट करना है।” इसी प्रकार विरेचन का चिकित्सा शास्त्रीय अर्थ करना अरस्तू के अभिप्राय को सीमित कर देना होगा। बूचर के अनुसार मानसिक संतुलन इस प्रक्रिया का पूर्व पक्ष है जिसकी परिणति कलात्मक परिष्कृति और उससे उत्पन्न कलागत आस्वाद से होता है। त्रासदी के अस्वाद का वृत्त उसके बिना पूरा नहीं होता।
डॉ. नगेन्द्र ने उपर्युक्त व्याख्या पर विचार करते हुए अपने मत प्रस्तुत किया है। इनके अनुसार विरेचन की प्रक्रिया के दो पक्ष है: भावात्मक और अभावात्मक। करुणा और त्रास का उद्रेक और शमन से निष्पन्न मानसिक संतुलन इसका अभावात्मक अर्थात पूर्व पक्ष है। उनके अनुसार अरस्तू ने जिस रूप में विरेचन का प्रयोग और चर्चा की है उसमे भावों का उद्रेक और शमन एवं तज्जन्य मनःशांति अर्थात अभावात्मक पक्ष की व्यंजना तो मिलती है किन्तु विरेचन में कलात्मक आनंद अर्थात भावात्मक पक्ष का अंतर्भाव करना उचित नहीं होगा।

लोंजाइनस का औदात्य-सिद्धान्त

  • लोंजाइनस के इस सिद्धांत की अवधारणा ने साहित्येतर इतिहास, दर्शन और धर्म जैसे विषयों को भी अपने अंतर्गत समावेशित किया।
  • उनके अनुसार औदात्य वाणी का उत्कर्ष, कांति और वैशिष्ट्य है जिसके कारण महान कवियों, इतिहासकारों, दर्शनिकों को प्रतिष्ठा सम्मान और ख्याति प्राप्त हुई है। इसी से उनकी कृतियाँ गरिमामय बनी हैं और उनका प्रभाव युग-युगांतर तक प्रतिष्ठित हो सका है।
  • उन्होंने ‘उदात्त’ को काव्य का प्रमुख तत्त्व माना।
  • उनके अनुसार विचारों की उदात्तता, भावों की उदात्तता, अलंकारों की उदात्तता, शब्द-विन्यास की उदात्तता तथा वाक्य-विन्यास की उदात्तता किसी भी काव्य को श्रेष्ठ बनाती है।
  • एक श्रेष्ठ कविता लोगों को आनंद प्रदान करती है तथा दिव्य-लोक में पहुँचाती है। इस सिद्धांत ने पाश्चात्य जगत को काफ़ी प्रभावित किया।

 होरेस ने कहा कि- काव्य में सामंजस्य और औचित्य का होना आवश्यक है। काव्य में श्रेष्ठ विचारों के सामंजस्य के साथ ही पुरातन एवं नवीन का समन्वय होना चाहिए। काव्य के भावपक्ष तथा कलापक्ष दोनों की उत्कृष्टता के प्रति कवि को सजग तथा प्रयत्नशील होना चाहिए।

  • पाँचवीं से लेकर पंद्रहवीं शताब्दी के समय को पाश्चात्य काव्यशास्त्र की दृष्टि से अंधायुग माना जाता है।
  • इस दौरान चर्च और पादरियों के प्रभाव के कारण काव्य तथा समीक्षा बुरी तरह से प्रभावित हुई।
  • काव्य में उपेदशात्मकता को अधिक महत्त्व दिया गया।
  • इस काल के काव्यशास्त्रियों में दांते प्रमुख हैं।
  • उनका समय 1265 से 1391 के बीच का माना गया है।
  • उन्होंने गरिमामण्डित स्तरीय जन- भाषा को काव्य के लिए सबसे उपयुक्त माना।
  • काव्य में जन- भाषा के आग्रही दांते ने कहा कि प्रतिभा के साथ ही कवि के लिए परिश्रम और अभ्यास भी आवश्यक है।
  • उनके मुताबिक उच्च विचार, राष्ट्र-प्रेम, मानवप्रेम और सौंदर्यप्रेम काव्य को महत्त्व प्रदान करते हैं।

नव्यशास्त्रवाद

  • सत्रहवीं और अट्ठारहवीं शताब्दी के बीच के समय को नव्यशास्त्रवादी समीक्षा के नाम से जाना जाता है।
  • इसकी स्थापनाओं के अनुसार साहित्य में उन्नत विचारों का गाम्भीर्य होना चाहिए।
  • हृदय पक्ष की तुलना में बुद्धि और तर्क का महत्त्व अधिक है। इस समीक्षा के अंतर्गत उत्कृष्ट प्राचीन साहित्य के अध्ययन की अभिरुचि, पुरातन साहित्यिक मानदण्डों के पालन, साहित्य के वाह्य पक्ष की उत्कृष्टता तथा कलात्मक सौष्ठव पर बल दिया गया।

स्वच्छंदतावाद

  • अट्ठारहवीं सदी के उत्तरार्ध तथा उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में स्वच्छंदतावाद ने ज़ोर पकड़ा और वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, शेली तथा कीट्स जैसे कवियों ने स्वच्छंदतावादी काव्य के ज़रिये स्वछंदतावाद नियामक समीक्षा सिद्धांत की प्रस्थापना दी।
  • इसके तहत काव्य में कवि-कल्पना को महत्त्व प्रदान किया गया।
  • आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति पर अधिक बल तथा काव्य के भाव पक्ष को केंद्र में रखा गया।
  • काव्य का उद्देश्य स्वांतःसुखाय तथा आनंद मानते हुए स्वच्छंदतावादी काव्य में प्रेरणा, प्रतिभा तथा कल्पना को प्रमुखता मिली।

यथार्थवाद

  • इस समीक्षा सिद्धांत में वस्तुस्थिति तथा तथ्यपरकता का आग्रह था।
  • साहित्य की नवीनता, प्राचीन साहित्यिक मानदण्डों, परम्पराओं तथा रूढ़ियों को नकारने की प्रवृत्ति तथा शिल्पगत नवीनता आदि के आग्रह के कारण यर्थाथवाद का काफ़ी विकास हुआ
  • आगे चलकर इसी के गर्भ से प्रगतिवाद, समाजवादी यर्थाथवाद तथा मनोवैज्ञानिक यर्थाथवाद का विकास हुआ।

कलावाद

  • इस के अनुसार कला कला के लिए हैं।
  • रचना किसी सिद्धि के लिए नहीं होती।
  • नैतिकता, उपदेश या मनोरंजन काव्य का उद्देश्य नहीं है अपितु वह स्वांतःसुखाय है।
  • इसके अंतर्गत अनुभूति की मौलिकता एवं नवीनता पर विशेष ज़ोर रहा।

अभिव्यंजनावाद

  • इस सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए बेनेदितो क्रोचे ने कहा कि काव्य-वस्तु नहीं बल्कि काव्यशैली महत्त्वपूर्ण है।
  • अर्थ की अपेक्षा शब्द महत्त्वपूर्ण हैं।
  • अभिव्यंजना ही काव्य का काव्यतत्त्व है।

प्रतीकवाद

  • उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में बादलेयर, मेलार्मे, बर्लेन, तथा वैलरी आदि ने प्रतीकवाद को बल प्रदान किया।
  • 1886 में कवि ज्याँ मोरेआस ने फ़िगारो नामक पत्र में प्रतीकवाद का घोषणापत्र प्रकाशित किया।
  • इस समीक्षा-सम्प्रदाय ने काव्य में शब्द का महत्त्व सर्वोपरि बताया और कहा कि कविता शब्दों से लिखी जाती है, विचारों से नहीं।
  • काव्य सर्वसाधारण के लिए नहीं बल्कि उसे समझ सकने वाले लोगों के लिए होता है।
  • कवि किसी अन्य के प्रति नहीं अपनी आत्मा के प्रति प्रतिबद्ध होता है।
  • शब्द अनुभूतियों और विचारों के प्रतीक होते हैं।

टी.एस. एलियट ने परम्परा तथा वैयक्तिक प्रतिभा के समन्वय, निर्वैयक्तिकता के सिद्धांत, वस्तुनिष्ठ समीकरण के सिद्धांत तथा अतीत की वर्तमानता के सिद्धांत का प्रतिपादन करके तुलनात्मकता के माध्यम से वस्तुनिष्ठ समीक्षा का तानाबाना खड़ा किया।

आई.ए. रिचर्ड्स ने आधुनिक ज्ञान के आलोक में मूल्य-सिद्धांत की नयी व्याख्या करते हुए व्यावहारिक समीक्षा का सिद्धांत प्रस्तुत किया।

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