काव्य रचना का उद्देश्य ही काव्य प्रयोजन होता है.
संस्कृत आचार्यों के अनुसार काव्य-प्रयोजन
भरत मुनि –
धर्म्यं यशस्यं आयुष्यं हितं बुद्धि विवर्धनम्।
भरत मुनि
लोको उपदेश जननम् नाट्यमेतद् भविष्यति।।
धर्म, यश, आयु-साधक, हितकर, बुद्धि-वर्धक और लोक उपदेश। (एक स्थान पर इन्होंने पीङित मनुष्य को विश्रांति करना भी काव्य का एक प्रयोजन माना है।)
भामह –
आचार्य भामह ने काव्य प्रयोजनों की चर्चा करते हुए लिखा है:
धर्मार्थ काम मोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
भामह
करोति कीर्ति प्रीतिश्च साधुकाव्य निबन्धनम्।।
अर्थात् धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की प्राप्ति कलाओं में निपुणता के साथ-साथ उत्तम काव्य से कीर्ति और प्रीति (आनन्द) की भी प्राप्ति होती है।
आचार्य वामन –
वामन के अनुसार:
’’काव्यं सद्द्रष्टा द्रष्टार्थ प्रीति-कीर्ति-हेतुत्वात्।’’
आचार्य वामन
आचार्य दण्डी के अनुसार –
’’काव्य का प्रयोजन अज्ञानांधकार को नष्ट करके ज्ञानज्योति का प्रसार करना है।’’ एक अन्य स्थल पर दण्डी ने अमर कीर्ति का प्रसार करना काव्य का प्रयोजन स्वीकार किया है।
आचार्य मम्मट –
काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
आचार्य मम्मट
सद्यः परिनिर्वृत्तये कान्तासम्मित तयोपदेशयुजे।।
अर्थात् काव्य यश के लिए, अर्थ प्राप्ति के लिए, व्यवहार ज्ञान के लिए, अमंगल शान्ति के लिए, अलौकिक आनन्द की प्राप्ति के लिए और कान्ता के समान मधुर उपदेश प्राप्ति के लिए प्रयोजनीय होते है।
मम्मट ने मूलतः छः काव्य प्रयोजन बताए हैं :
- यश प्राप्ति,
- अर्थ प्राप्ति,
- लोक व्यवहार ज्ञान,
- अनिष्ट का निवारण या लोकमंगल,
- आत्मशान्ति या आनन्दोपलब्धि,
- कान्तासम्मित उपदेश।
इनमें से काव्य की रचना करने वाले कवि के प्रयोजन है-यश प्राप्ति, अर्थ प्राप्ति, आत्मशान्ति तथा काव्य का अस्वादन करने वाले पाठक के काव्य प्रयोजन है
-लोक व्यवहार ज्ञान, अमंगल की शान्ति, आनन्दोपलब्धि और कान्तासम्मित उपदेश। मम्मट के ये काव्य प्रयोजन अत्यन्त व्यापक हैं। अब हम इनमें से प्रत्येक पर अलग-अलग विचार करेंगे।
यश प्राप्ति –
यश प्राप्ति की इच्छा से कविगण काव्य रचना में प्रवृत्त होते रहे हैं। अतः यश प्राप्ति को मम्मट ने काव्य का प्रमुख प्रयोजन माना है।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है:
’’निज कवित्त केहि लाग न नीका।
तुलसीदास
सरस होहु अथवा अति फीका।।
जो प्रबन्ध कुछ नहिं आदरहीं।
सो श्रम वाद बाल कवि करहीं।।’’
जायसी ने भी पद््मावत में यह स्वीकार किया है कि मैं चाहता हूं कि अपनी कविता के द्वारा संसार में जाना जाऊं।
’’औ मैं जान कवित अस कीन्हा।
मकु यह रहै जगत मंह चीन्हा।।’’
अर्थ प्राप्ति –
काव्य रचना का एक प्रयोजन धन प्राप्ति भी रहा है। धनोपार्जन की इच्छा से रीतिकालीन कवियों ने राजदरबारों में आश्रय ग्रहण किया। कहते हैं कि बिहारी को प्रत्येक दोहें की रचना के लिए एक अशर्फी प्राप्त होती थी। आधुनिक युग में कवि सम्मेलनों में अनेक कवि अपनी कविताओं को गाकर, सुनाकर अच्छा-खासा धन पैदा कर रहे हैं। इस प्रकार कविता धनोपार्जन का माध्यम बन गई है। इसीलिए सम्भवतः मम्मट ने अर्थ प्राप्ति को काव्य प्रयोजनों में स्थान दिया है।
व्यवहार ज्ञान
– आचार्य मम्मट ने व्यवहार ज्ञान को भी काव्य का प्रयोजन माना है।
शिवेतरक्षतये –
’शिवेतर’ का अर्थ है-अमंगल और ’क्षतये’ का अर्थ है-विनाश। इसका तात्पर्य है कि काव्य अमंगल का विनाश करता है और कल्याण का विधान करता है।
आत्मशान्ति –
काव्य पढ़ने के साथ ही तुरन्त आनन्द का अनुभव होता है और परम शान्ति की प्राप्ति होती है। काव्य का रसास्वादन करने से अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है। वस्तुतः आनन्दोपलब्धि ही काव्य का प्रमुख प्रयोजन है।
कान्ता सम्मित उपदेश –
काव्य प्रियतमा के समान मधुर उपदेश देने वाला है। उपदेश तीन प्रकार के होते हैं:
- प्रभु सम्मित उपदेश
- मित्र सम्मित उपदेश
- कान्ता सम्मित उपदेश
रुद्रट –
पुरुषार्थ-चतुष्ट्य, अनर्थ का शमन, विपत्ति-निवारण, रोग-मुक्ति और अभिमत वर की प्राप्ति।
भोजराज –
कीर्ति और प्रीति।
कुंतक –
पुरुषार्थ-चतुष्ट्य, व्यवहार, ज्ञान व परमाह्लाद। (अंतश्चमत्कार)।
हिंदी के कवियों-विद्वानों के अनुसार काव्य-प्रयोजन
कबीरदास के अनुसार काव्य प्रयोजन –
’’तुम जिन जानौ गीत है यह निज ब्रह्म विचार।’’
गोस्वामी तुलसीदास के काव्य प्रयोजन –
रामचरित मानस में तुलसीदास ने दो काव्य प्रयोजनों की चर्चा की है:
(। ) स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
(।। ) कीरति भनिति भूति भल सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होइ।।
वे काव्य में दो प्रयोजन मानते हैं:
(। ) स्वान्त: सुख, (।। ) लोक मंगल।
वही कविता श्रेष्ठ होती है जो गंगा के समान सबका हित करने वाली हो।
भिखारीदास द्वारा निर्दिष्ट काव्य प्रयोजन –
एक लहै, तप पुंजन के फल, ज्यों तुलसी अरु सूर गुसाईं।
एक लहै बहु सम्पति केशव, भूषण ज्यों बर बीर बङाई।।
एकन्ह को जस-ही सों प्रयोजन, है रसखानि रहीम की नाईं।
दास कवित्तन्ह की चरचा बुद्धिवन्तन को सुख दै सब ठाईं।।
यहां यश प्राप्ति, फल प्राप्ति, आनन्द प्राप्ति आदि को काव्य प्रयोजन के रूप में स्वीकार किया गया है।
’’औ मन जानि कवित्त अस कीन्हा।
मलिक मुहम्मद जायसी
मकु यह रहै जगत् महँ चीन्हा।।
धनि सोई जस कीरति जासू।
फूल मरै पै मरै न बासू।।’’
सूरदास –
सूरदास ने कृष्ण के ’सगुण-लीला पदों का गान’ ही अपनी काव्य रचना का प्रयोजन माना है।
मैथिलीशरण गुप्त का मत –
गुप्तजी काव्य का प्रयोजन केवल मनोरंजन नहीं अपितु उपदेश स्वीकार करते हुए लिखते हैं।
’’केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।’’
इसी प्रकार वे काव्य कला के लिए सिद्धान्त का भी खण्डन करते हुए कहते हैं कि कला लोकहित के लिए होनी चाहिए:
’’मानते हैं जो कला को बस कला के अर्थ ही।
स्वार्थिनी करते कला को व्यर्थ ही।।’’
कुलपति मिश्र –
’’जस संपत्ति आनंद अति दुरितन डारे खोइ।
होत कवित तें चतुरई जगत राम बस होइ।।’’
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत –
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने काव्य प्रयोजनों पर विस्तार से विचार किया है। वे काव्य का प्रमुख प्रयोजन रसानुभूति मानते हैं।
’’कविता का अन्तिम लक्ष्य जगत में मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उसके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य स्थापन है।’’
कविता से केवल मनोरंजन के उद्देश्य का विरोध करते हुए वे लिखते हैं:
’’मन को अनुरंजित करना उसे सुख या आनन्द पहुंचाना ही यदि कविता का अन्तिम लक्ष्य माना जाए तो कविता ही विलास की एक सामग्री हुई। …… काव्य का लक्ष्य है जगत और जीवन के मार्मिक पक्ष को गोचर रूप में लाकर सामने रखना।’’
पाश्चात्य समीक्षाशास्त्र में काव्य प्रयोजन पर कला के सन्दर्भ में विचार किया गया है। इस सम्बन्ध में दो प्रमुख मत हैं।कलावादियों के अनुसार कला का एकमात्र प्रयोजन सौन्दर्य सृष्टि है और इसीलिए वे काव्य कला के लिए सिद्धान्त के समर्थक है, जबकि उपयोगितावादियों के अनुसार कला का उद्देश्य लोकहित का विधान करना है।
देव –
’’रहत घर न वर धाम धन, तरुवर सरवर कूप।
जस सरीर जग में अमर, भव्य काव्य रस रूप।।’’
डाॅ. नगेंद्र के अनुसार काव्य-प्रयोजन ’आत्माभिव्यक्ति’ होता है।
महादेवी वर्मा ’मानव हृदय में समाज के प्रति विश्वास उत्पन्न करना’।
भिखारीदास –
’’एक लहैं, तप-पुंजह के फल ज्यों तुलसी अरु सूर गोसाई।
एक लहैं बहु संपत्ति केशव, भूषन ज्यों बरवीर बङाई।।
एकन्ह को जसही सों प्रयोजन है रसखानि रहीम की नाई।
दास कवित्तन्ह की चरचा बुधिबत्तन को सुख दै सब ठाई।।’’
महावीरप्रसाद द्विवेदी ’ज्ञान का विस्तार’ और ’आनन्द की अनुभूति।’
नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार काव्य-प्रयोजन ’आत्मानुभूति’ होता है।
हरिऔध के अनुसार काव्य-प्रयोजन ’आनन्दानुभूति’ होता है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ’आनन्द की अनुभूति’और ’लोकहित की भावना’ को प्रमुख काव्य-प्रयोजन माना है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार काव्य-प्रयोजन ’मानव-कल्याण’ होता है।
सुमित्रानन्दन पंत ने ’स्वान्तःसुखाय’ और ’लोकहिताय’ को काव्य-प्रयोजन माना है।
पाश्चात्य काव्यशास्त्र में काव्य-प्रयोजन को लेकर आलोचकों की तीन श्रेणियाँ निर्धारित की जाती हैं –
- कला, कला के लिये (होमर, लोंजाइनस, शिलर, स्विनवर्ग, ऑस्कर वाइल्ड और डाॅ. ब्रेडले इसके समर्थक रहे।)
- कला, जीवन के लिये (प्लेटो, रस्किन, टाॅलस्टाय आदि इसके समर्थक थे। इन्हें ’लोकमंगलवादी’ भी कहा जाता है।)
- समन्वयवादी (कुछ ऐसे चिंतक भी रहे जो काव्य का प्रयोजन जीवन और आनंद, दोनों को मानने के समर्थक थे। अरस्तू, होरेस, ड्राइडन, काॅलरिज, वड्र्सवर्थ, मैथ्यू आर्नल्ड और आई.ए. रिचड्र्स इसे मानने वाले चिंतक थे।)
निष्कर्ष – प्रत्येक व्यक्ति का काव्य प्रयोजन एक-जैसा नहीं होता।आनन्द प्राप्ति काव्य का प्रमुख प्रयोजन है जिसे रसानुभूति से प्राप्त किया जाता है।यश प्राप्ति, अर्थ प्राप्ति, व्यवहार ज्ञान, अमंगल का विनाश, लोकोपदेश भी काव्य प्रयोजन है।