हिंदी आलोचना

हिंदी आलोचना का तात्पर्य है, किसी वस्तु, रचना या कृति का मूल्यांकन करना| किसी भी रचना को समझने के लिए आलोचना को समझना आवश्यक है|

आलोचक किसी भी रचना का मूल्यांकन एवं विश्लेषण करता है, साथ ही पाठक के समझ का भी विस्तार करता है क्योंकि आलोचना के माध्यम से पाठक किसी रचना के गुण-दोष को समझ सकता है| रचनाकार की मन: स्थिति को समझ सकता है, रचनाकार एवं रचना का परिवेश को समझ सकता है अंततः रचना का मूल्यांकन कर सकता है|

रचना की पद्धतियां

किसी भी रचना के गुण-दोष को लेकर साथ ही उसमें निहित मूल्यों के आधार पर रचना की विभिन्न पद्धतियां होती हैं–

  • सैद्धांतिक आलोचना,
  • ऐतिहासिक आलोचना,
  • तुलनात्मक आलोचना, आदि|

सैद्धांतिक आलोचना :-

इस आलोचना की शुरुआत विशेषकर द्विवेदी युग में होती है| यह दो रूप में विकसित होती है| कुछ आलोचकों ने रीतिकालीन लक्षण ग्रंथों की परंपरा में विवेचना पूर्ण लक्षण ग्रंथों की रचना कर दी और कुछ आलोचकों ने भारतीय काव्यशास्त्र और पाश्चात्य काव्यशास्त्र में सिद्धांत के स्तर पर समन्वय कर के कुछ नए शास्त्रीय सिद्धांतों की रचना की|

इस श्रेणी के आलोचक भागीरथ मिश्र, आचार्य नंददुलारे बाजपेई एवं डॉ रामकुमार वर्मा हैं| भागीरथ मिश्र ने “कार्य शास्त्र आलोचना”, नंददुलारे वाजपेई ने “नया साहित्य और नया प्रश्न” तथा रामकुमार वर्मा ने “साहित्य शास्त्र” की रचना की|

व्यावहारिक आलोचना :-

इसके तहत कतिपय सिद्धांतों एवं शास्त्रीय नियमों के आधार पर किसी भी रचना का मूल्यांकन किया जाता है|

इस वर्ग के प्रमुख आलोचक शिवदान सिंह चौहान, नंदकिशोर नवल एवं मलयज आदी हैं|

आधुनिक युग के कुछ आलोचक सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों प्रकार के आलोचक हैं| इस प्रकार के आलोचक सिद्धांत भी देते हैं और साथ ही व्यवहारिक रूप से कृतियों की समीक्षा भी करते हैं, जैसे- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ नामवर सिंह आदि हैं|
आचार्य शुक्ल ने सिद्धांत के तहत “कविता क्या है” काव्य में रहस्यवाद जैसे सैद्धांतिक आलोचना को बताया और अपने बाद के निबंधों में जैसे- सूर, तुलसी, जायसी आदि में व्यवहारिक समीक्षा पद्धति को अपनाया और इनका मूल्यांकन किया|

ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक आलोचना :-

इस आलोचना पद्धति में सबसे प्रमुख योगदान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का है| ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक आलोचना में किसी कृति का मूल्यांकन इतिहास एवं संस्कृति की परंपरा एवं उसके व्यापक आधारों के आधार पर की जाती है|

आचार्य द्विवेदी अपनी पुस्तकों “हिंदी साहित्य की भूमिका”, “हिंदी साहित्य का आदिकाल”, “कबीर” के माध्यम से उन्होंने हिंदी साहित्य की परंपरा को सामाजिक, सांस्कृतिक एवं जातीय तत्वों से जोड़ा और यह भी बताया कि वर्तमान हिंदी साहित्य हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक भी है| द्विवेदी जी प्रथम आलोचक थे जिन्होंने कबीर को हिंदी साहित्य में प्रमुख स्थान दिलाया| द्विवेदी जी के अतिरिक्त विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, परशुराम चतुर्वेदी आदि प्रमुख आलोचक इस श्रेणी में गिने जाते हैं|

लोक वादी आलोचना :-

जिस आलोचना पद्धति में आलोचक लोक धर्म, लोकमंगल, लोक मर्यादा आदि प्रतिमानो को आधार बनाकर आलोचना के प्रतिमान स्थापित करता है, उसे लोक वादी समीक्षक कहा जाता है| इन आधारों एवं इन कसौटीयो पर ही आलोचक सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक आलोचना करता है|

इस पद्धति के प्रमुख आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं उनकी रचना “लोकमंगल की साधना अवस्था एवं लोकमंगल की सीधा अवस्था” है| आचार्य रामचंद्र शुक्ल उन्हीं प्रतिमनो के कारण लोकवादी समीक्षक कहे जाते हैं|

स्वच्छंदतावादी आलोचना :-

इस आलोचना पद्धति का विकास हिंदी में छायावादी काव्य के मूल्यांकन के समय शुरू हुआ| रामचंद्र शुक्ल का प्रभाव होने के बावजूद आचार्य नंददुलारे बाजपेई नए तरीके से छायावादी काव्य धारा के सौंदर्य का उद्घाटन करते हैं| वह छायावादी काव्य धारा के स्वायत्त सत्ता होने की घोषणा करते हैं| उनका कहना है कि काव्य का सौंदर्य काव्य के अंदर ही है, किसी बाहरी वस्तु में नहीं इन्होंने ही पहली बार छायावादी काव्य के जीवन दर्शन को उजागर किया और उनका कहना था कि छायावादी काव्य में अनुभूति दर्शन और शैली का अद्भुत समन्वय है| यह कविता राष्ट्रीय चेतना और आध्यात्मिकता से पूर्ण है|

वाजपेई जी की इस आलोचना पद्धति में स्वच्छंदता को अधिक महत्व देने के कारण उन्हें स्वच्छंदतावादी कहा गया और काव्य सौष्ठव को महत्व देने के कारण उन्हें सोषठव वादी गया| नंददुलारे वाजपेई की पुस्तकें “नए साहित्य नए प्रश्न”, “जयशंकर प्रसाद” आदि हैं|

इसी धारा में डॉ नगेंद्र को भी रखा जाता है| डॉ नगेंद्र ने छायावादी काव्य का जो मूल्यांकन किया है, उसने स्वच्छंदता वादी आलोचना को और भी अधिक बल प्रदान किया| उन्होंने अपनी पुस्तकों “आधुनिक हिंदी कविता की प्रवृत्तियां” और “सुमित्रानंदन पंत” के माध्यम से अपने सिद्धांत एवं व्यवहार को प्रस्तुत किया| डॉ नगेंद्र अपनी आलोचना में आत्माभीव्यक्ति और व्यक्ति को महत्व प्रदान किया| उन्होंने छायावाद को स्थूल के विरूध सूक्ष्म का विद्रोह कहा है|


डॉ नगेंद्र अपनी आलोचना पद्धति में रसवादी समीक्षक कहे जाते हैं क्योंकि वे इस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या करते हैं|

मनोवैज्ञानिक आलोचना:-

इस आलोचना पद्धति में “फ्रायड” के सिद्धांत को महत्व दिया जाता है| फ्रायड यह मानता है कि प्रत्येक व्यक्ति में दमित काम वासनाएं, दमित इच्छाएं होती हैं| साहित्यकार कला के माध्यम से इन्हीं दमित इच्छाओं एवं रचनाओं को साहित्य के माध्यम से उदात शब्दों में व्यक्त करता है|

मनोवैज्ञानिक आलोचक यह मानता है कि कवि के व्यक्तिगत जीवन का भी उसकी वासनाओं के आधार पर विश्लेषण करना चाहिए और उसके साहित्य में इसकी अभिव्यक्ति को भी देखा जाना चाहिए| चुंकि वासनाएं व्यक्ति मुलक होती हैं, अतः साहित्य का संबंध समाज की अपेक्षा व्यक्ति चेतना से अधिक होता है| अर्थात साहित्य सामाजिक ना होकर के व्यक्तिगत होता है और इस प्रकार कला भी मूल रूप से व्यक्ति विशेष को महत्व देती है|

इस धारा के प्रमुख आलोचक इलाचंद जोशी हैं| इन्होंने अपनी पुस्तक “साहित्य संरचना” के माध्यम से मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों को स्थापित किया और अपनी रचनाओं “देखा-परखा”, “विवेचना”, “विश्लेषण” आदि के माध्यम से मनोवैज्ञानिक आलोचना के व्यावहारिक पक्ष को उजागर किया| उनका मानना है कि हिंदी का भक्ति साहित्य दमित काम का, कुंठा का प्रतीक है| छायावादी काव्य को भी यह यौन कुंठाओं की अभिव्यक्ति मानते हैं|
इनके अलावा अज्ञेय (त्रिशंकु), डॉ नगेंद्र (रस सिद्धांत का विश्लेषण) और डॉक्टर देवराज (साहित्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन) भी मनोवैज्ञानिक आलोचक हैं| इनकी रचनाओं में भी मनोविश्लेषणवादी समीक्षा दृष्टि का सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक रूप दिखाई देता है

प्रभाववादी समीक्षा:-

समीक्षा की इस पद्धति में कोई आलोचक किसी कृति या रचना को पढ़ कर अपने मन पर पड़ने वाले प्रभाव को अत्यंत ही संवेदनात्मक तथा मार्मिक तरीके से प्रस्तुत करता है| इस दौरान जिस प्रभाव आदि तरीके से वह कृती का मूल्यांकन करता है, वह दूसरों तक पहुंच जाती है| इस प्रक्रिया में आलोचना एक नई रचना के समान आनंद देने लगता है, परंतु ध्यान देने की बात यह है कि इस प्रक्रिया में कभी- कभी आलोचना अपने मूल विषय से दूर निकल जाती है| हिंदी में महत्वपूर्ण प्रभाववादी आलोचक “शांतिप्रिय द्विवेदी” हैं| इन्होंने छायावाद की मूल्यांकन किसी सिद्धांत के सहारे नहीं बल्कि मुक्त रूप से की है और छायावाद में विशेष करके सुमित्रानंदन पंत की कविताओं का भावपूर्ण विश्लेषण किया है| इस दौरान कई बार उनका आलोचना, गध एवं काव्य के समान आनंद देने लगता है| इसी प्रकार “डॉ नगेंद्र” भी एक प्रभाववादी आलोचक माने जाते हैं, परंतु आलोचना में संतुलन के कारण उनकी आलोचना में भावातिरेक बहुत कम है| आलोचना की इस पद्धति में हिंदी साहित्य में बहुत अधिक विकास नहीं हुआ है|

मार्क्सवादी समीक्षा:-

इसे प्रगतिवादी समीक्षा भी कहते हैं|शुक्ला जी के बाद समीक्षा की यह पद्धति अधिक प्रभावित रही, 1936 में प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में अध्यक्ष के रूप में यह घोषणा की कि साहित्य के नए उद्देश्य और नए सौंदर्य को नई कसौटी यों के साथ प्रस्तुत किया जाए और इसी के साथ हिंदी साहित्य में प्रगतिशील लेखन का दौर शुरू होता है| ईस धारा में वैचारिक आधार पर मार्क्सवाद के दर्शन को स्वीकार किया जाता है| यह दर्शन वस्तु जगत को यथार्थ और सत्य मानता है और यह मानता है कि समाज का विकास द्वंद्वात्मक प्रणाली में होता है| यह दर्शन यह भी विश्वास करता है कि मानव चेतना, समाज की परिस्थितियों के आधार पर संचालित होती है| कला की चेतना मानव चेतना का सबसे उदात रूप है| यह, यह भी मानता है कि युग चाहे जो भी हो, जो भी कलाकार है वह किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करता है| समाज दो वर्गों में बांटा है शोषक एवं शोषित, शोषक वर्ग पूंजीपति है और उसका प्रणाली पर एकाधिकार है, जबकि शोषित वर्ग श्रम पर आधारित सर्वहारा वर्ग है| जब समाज से शोषण का अंत कर दिया जाएगा तब समाज में समतामूलक वितरण हो सकेगा| मार्क्सवादी रचनाकार यह मानते हैं कि किसी भी रचनाकार का सबसे बड़ा धर्म यह है कि वह अपनी रचनाओं के माध्यम से शोषित वर्ग के अंदर ऐसा साहस पैदा करें जिससे शोषित वर्ग अपने हक की लड़ाई लड़ सके| इस धारणा के कारण मार्क्सवादी समीक्षक रचना में सीधी-सपाट और सहज शब्दों पर बल देते हैं तथा प्रतीकात्मक भाषा का निषेध करते हैं| यह पक्ष ही मार्क्सवादी आलोचना का आधार है|
इन सिद्धांतों के आधार पर हिंदी में मार्क्सवादी आलोचना करने वाले प्रमुख आलोचक- रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान, प्रकाशचंद्र गुप्त, नामवर सिंह आदि हैं| यदि उनकी कृतियों को देखा जाए तो मार्क्सवादी आलोचना का सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों पक्ष उजागर होते हैं| जैसे- शिवदान सिंह चौहान की रचना “प्रगतिवाद साहित्य की परख”, “साहित्य की समस्याएं” प्रकाशचंद्र गुप्त की रचनाएं “हिंदी साहित्य”, “आधुनिक हिंदी साहित्य”, “हिंदी साहित्य की जनवादी परंपराएं” रामविलास शर्मा की रचनाएं “प्रगति एवं परंपराएं”, “आस्था एवं सौंदर्य”, “प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं”|
इन आलोचकों ने यह माना कि किसी भी कृति या रचना की सामाजिक उपयोगिता होती है| इनका मानना है कि वह रचनाएं ही श्रेष्ठ होती हैं, जो कि सामाजिक परिवर्तन में क्रांतिकारी भूमिका निभा सके|

अनुसंधान परक आलोचना:-

यह पद्धति द्विवेदी युग में प्रारंभ होती है वस्तुतः महावीर प्रसाद द्विवेदी के समय इस पद्धति की शुरुआत होती है| सामान्य शब्दों में इसे अन्वेषण एवं अनुसंधान परक आलोचना कहते हैं| आलोचना की इस पद्धति में विश्वविद्यालय में हिंदी को एक विषय के रूप में शुरू करने तथा हिंदी विभाग की स्थापना करने के बाद बड़े पैमाने पर शोध कार्य होता है| भारी मात्रा में शोध ग्रंथों के लेखन द्वारा तथा शोध पत्रों के प्रकाशन के बाद हिंदी में अनुसंधान परक आलोचना की पद्धति अत्यंत सशक्त हो गई| इसमें नई प्रवृत्तियों, नई दृष्टियों और नए भावबोध का विकास किया गया| इसके द्वारा हिंदी की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक आलोचना पद्धति भी सशक्त हुई| इसके द्वारा साहित्य का उसके प्रमाणिक स्वरूप में मूल्यांकन हुआ और नए ग्रंथ सामने आए|
जैसे माता प्रसाद गुप्ता कृत “तुलसी दास”, बलदेव प्रसाद मिश्र कृत “तुलसी दर्शन” ,लक्ष्मी सागर कृत “आधुनिक हिंदी साहित्य”, फादर कामिल बुल्के कृत “रामकथा: उत्पत्ति एवं विकास”| हाल के समय में आलोचना की इस पद्धति का स्तर दिनों दिन गिरता जा रहा है, क्योंकि यह पद्धति शोध प्रबंध पर आधारित है और शोध प्रबंधों का स्तर विभिन्न कारणों से लगातार गिर रहा है|

नई समीक्षा:-

इस समीक्षा का जन्म हिंदी में आजादी के बाद मार्क्सवादी आलोचना के साथ-साथ होता है| वस्तुतः छायावादी प्रवृत्ति के विरोध में प्रगतिवाद / मार्क्सवाद आलोचना का जन्म होता है| बाद में धीरे-धीरे इस पर समाजवादी विचारधारा का रंग हावी होने लगता है| ध्यान देने की बात यह भी थी, कि छायावादी समीक्षा में व्यक्ति-चेतना पर बल था| जबकि मार्क्सवादी पद्धति में मार्क्स के सिद्धांतों को अपनाकर प्रगतिवादी आलोचना आगे बढ़ती है| 1942 में हिंदी साहित्य के आलोचक यह अनुभव करने लगते हैं, कि छायावाद एवं प्रगतिवाद इन दोनों विचारधाराओं से मुक्ति आवश्यक है | 1942 में अज्ञेय के संपादन में “तारसप्तक” का प्रकाशन होता है| आगे अब विचारधाराओं के स्थान पर कवियों के स्थान पर कवियों के राहों के अन्वेषी बनने का आग्रह करते हैं| यहीं पर आगे कहते हैं कि अब आलोचना के क्रम में नए भाव बोध की आवश्यकता है | 1942 का यह दौर हिंदी साहित्य में प्रयोगवाद का दौर माना जाता है| 1950 तक आते-आते आधुनिक भाव बोध से युक्त नई कविता का जन्म होता है| अज्ञेय इस दौरान “तारसप्तक” में यह कहते हैं कि जीवन की जटिलता कवि की उलझी हुई संवेदना और बिखरी हुई परिस्थितियों के बीच नए आलोचना के प्रतिमान की जरूरत है| उनका मानना था कि इस नए बोध को पकड़ने में पारंपरिक प्रतिमान एवं मान्यताएं इतने प्रभावी नहीं हो सकते इसलिए आलोचक को नई दृष्टि की आवश्यकता है| उन्होंने काव्य दृष्टि का विवेचन अपनी कृति- “भवंति”, “त्रिशंकु”, “आत्मनेपद” में किया |
1954 में “नई कविता” पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ नई कविता पत्रिका, नई कविता को हिंदी साहित्य में प्रतिष्ठित करती है| इस प्रकार हिंदी साहित्य के क्षेत्र में आलोचना में नई समीक्षा का जन्म हुआ| इसी समय विजयदेव नारायण साही यह कहते हैं कि कविता को समाजशास्त्र की परिधि से बाहर रखकर मूल्यांकन की जरूरत है, साथ ही कविता का मूल्यांकन करते समय ऐसे भाव-भूमि की आवश्यकता है, जहां लेखक अपनी व्यक्तिकता सुरक्षित रखने के साथ-साथ समाज को भी अपने साथ जोड़ कर चल सके| इसी दौर में हिंदी कविता दो भागों में बैठ जाती है, इनमें पहली धारा आधुनिकता वादियों की है जो कि साहित्य में नई समीक्षा के नाम से जाने जाते हैं और दूसरी धारा यथार्थ को केंद्र में रखकर रचना करने वाले मार्क्स वादियों की है, जो रचना का उद्देश्य दलितों और पिछड़ों की रक्षा करना मानते हैं|
इसमें से पहली धारा यानी आधुनिकता के प्रतिनिधि “अज्ञेय” बन जाते हैं| जबकि दूसरी धारा यानी मार्क्सवाद के प्रतिनिधि “मुक्तिबोध” बन जाते हैं| विशेषकर हिंदी साहित्य में नई समीक्षा का संबंध कविता से ही रहा है और यह ध्यान देने की बात है कि हिंदी में नई समीक्षा की परिभाषा देते समय कुछ आलोचक यह कहते हैं कि यह कविता केंद्रित एक ऐसी आलोचना पद्धति है, जिसमें कविता की स्वायत्तता एवं सृजनात्मकता शक्ति पर विशेष बल दिया| उपन्यास,नाटक,कहानी आदि गद्य विधाओं के मूल्यांकन में इसका अधिक प्रयोग नहीं किया|
ध्यान देने की बात है कि यूरोप एवं अमेरिका में भी नई समीक्षा आंदोलन का जन्म होता है| 1911 में कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर “रिपन गोर्न” ने नई समीक्षा पर शोध पत्र “नई समीक्षा” के नाम से प्रस्तुत किया| यह शोध पत्र 1913 में पूरे विश्व में प्रकाशित होता है| इस पद्धति में रिपन गॉरन यह कहते हैं कि नई समीक्षा एक व्यक्तिगत प्रतिक्रिया है और उन्होंने “क्लासिकल”, “रोमांटिक”, समाजशास्त्री आदि सभी समीक्षा पद्धतियों को स्वीकार्य कर दिया| बाद में चलकर “टी. एस. इलियट”, “जॉन रन सम”, “आई. ए. रिचर्ड्स” ने इस आलोचना पद्धति को नई समीक्षा के नाम से तैयार किया| जिसके तहत उन्होंने यह कहा कि रचना अपने आप में एक पूर्ण एवं स्वायत्त भाषिक संरचना है, इसलिए भाषा के तत्वों का विश्लेषण,समीक्षा का प्रमुख कार्य है| ऐतिहासिक,सामाजिक,शास्त्रीय समीक्षाएं साहित्य की समीक्षा नहीं कर सकते क्योंकि यह साहित्यिक प्रतिमान नहीं है और रचना का मूल्यांकन रचना के रूप में करना उचित होगा|
समीक्षा की यह पाश्चात्य पद्धति भारतीय शिक्षकों को भी प्रभावित करती है| हिंदी के आलोचक जटिल भाव-बोध और उसी के अनुरूप कलात्मक प्रतिमान जैसे-बिंब,प्रतीक,उपमान आदि से युक्त एक संश्लिष्ट काव्य भाषा वाली नई समीक्षा पद्धति की आवश्यकता महसूस करते हैं और नई समीक्षा का प्रसार करते हैं| इसके प्रमुख आलोचक–गिरिजाकुमार माथुर, विजयदेव नारायण साही, मलयज, रामस्वरूप चतुर्वेदी, अशोक बाजपेई आदि हैं| इन आलोचकों ने अपने समय में व्याप्त कुंठा,अजनबीपन,तनाव,विसंगति बोध,एकाकीपन, असहायता आदि का विश्लेषण किया और अनुभूति की प्रमाणिकता तथा व्यक्ति की अद्वितीयता पर बल देते हैं और अस्मिता के संकट से गुजरते हुए,मानव के मुक्ति की कामना करते हैं| साथ ही भाषा के स्तर पर काव्य-भाषा के विश्लेषण को यह समीक्षा का केंद्र बिंदु बना लेते हैं| इस दृष्टि में अज्ञेय कृत “भवंति”,”आत्मनेपद”,”त्रिशंकु” लक्ष्मीकांत वर्मा कृत “नई कविता के प्रतिमान” धर्मवीर भारती कृत “मानव मूल्य एवं साहित्य” अशोक वाजपेई कृत “फिलहाल” आदि प्रमुख हैं|
नई समीक्षा का आंदोलन हिंदी समीक्षा में यद्यपि भाषा के महत्व को स्वीकार करता है,किंतु अमेरिका या यूरोप के समीक्षकों के समान रचना को उसके ऐतिहासिक संदर्भ से पूरी तरह काट कर नहीं देखता और भाषा को सृजनात्मकता, कला तत्व के आधार पर इतिहास से प्रभावित मानता है| भाषा पर जोर देने के कारण यह कला आबादी रुझान की ओर मुड़ जाता है| नई समीक्षा का यह आंदोलन बाद में उतना प्रभावी नहीं रह जाता, लेकिन फिर भी कुछ समय के लिए इस धारा ने मार्क्सवादी समीक्षकों को भी प्रभावित किया| वैसे मुक्तिबोध की रचना “कामायनी: एक पुनर्विचार” नामवर सिंह की रचना “कविता के नए प्रतिमान” में देखा जा सकता है स्वयं नामवर सिंह भी यह स्वीकार करते हैं कि काव्य धारा की सृजनशीलता काव्य अनुभूति के विश्लेषण में सही प्रकार से व्यक्त हो सकती है| मार्क्सवादी समीक्षक जिसे व्यक्तिवादी समीक्षक कहा जाता है, धीरे-धीरे यह मानने को मजबूर हो गए थे कि रचना का सौंदर्य वस्तु एवं रूप के सम्मिलित सौंदर्य में निहित है| इसलिए इन आलोचकों ने भी रचना के सापेक्ष भाषिक स्वायत्तता को स्वीकार किया| (इलियट ने नई समीक्षा को “नींबू निचोड़” समीक्षा कह कर खारिज कर दिया)|

शैली विज्ञान:-

यह वह समीक्षा पद्धति है जो की संरचना केंद्रित पद्धति पर बल देता है| यह भाषिक विश्लेषण कि वह वैज्ञानिक पद्धति है, जो भाषा के सभी तत्वों जैसे-शब्द,पद, ध्वनि,छंद आदि को अध्ययन का विषय बनाता है| हिंदी साहित्य में “रविंद्र नाथ श्रीवास्तव” इस पद्धति के जनक माने जाते हैं| इसके अलावा “शशिभूषण शीतांशु और सुरेश कुमार” प्रमुख हैं| रविंद्र नाथ श्रीवास्तव ने अपनी इस आलोचना पद्धति की व्यवहारिक समीक्षा “केदारनाथ सिंह की कविता (इस अनागत का करें क्या) में कि” इस आलोचना पद्धति की आलोचना बच्चन सिंह यह कह कर करते हैं कि यह पद्धति कविता की समीक्षा शव की तरह करती है क्योंकि यह बिना मतलब के कविता को छोटे-छोटे खंडों में काट देती है, परंतु उससे वास्तव में निकलता कुछ नहीं| जल्द ही यह आलोचना पद्धति कमजोर पड़ गई|

समाजशास्त्रीय आलोचना:-

समाजशास्त्रीय आलोचना एक नई पद्धति है| वर्तमान में हिंदी आलोचना में यह काफी ज्यादा चर्चित है| यह आलोचना की वह पद्धति है जो केवल कृति की व्याख्या नहीं करता बल्कि,कृति के सामाजिक अस्मिता की पहचान भी करता है| यह साहित्य का समाज से सिर्फ रिश्ता ही नहीं मानता बल्कि उस रिश्ते और उसकी प्रक्रिया को ठीक से पहचानने का प्रयास भी करता है|इसमें साहित्य के लिखने की प्रक्रिया से लेकर उसके प्रकाशन और पाठक द्वारा स्वीकार अस्वीकार की प्रक्रिया भी शामिल होती है| ‘डॉ मैनेजर पांडे’ के शब्दों में कहा जाए तो “साहित्य के समाजशास्त्र में उस पूरी प्रक्रिया को समझने की कोशिश होती है जिसमें कोई रचना साहित्यिक कृति बनती है इस प्रक्रिया में सामाजिक संरचना तथा सांस्कृतिक संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है| प्रकाशन एवं वितरण व्यवस्था का योगदान होता है|राजनीति तथा सत्ता का हस्तक्षेप होता है और आलोचना की माध्यमिकता होती है|” इस प्रक्रिया के दूसरे छोर पर वह पाठक समुदाय होता है, जिसके स्वीकार अस्वीकार के बिना कोई लेखन अच्छा या बुरा साहित्य कहा नहीं जा सकता|
साहित्य में वस्तुतः सिर्फ स्वरूप एवं संवेदना ही नहीं होती बल्कि इस प्रक्रिया के तीन प्रमुख तत्व होते हैं-लेखक,रचना और पाठक|
इस धारा के प्रमुख आलोचक ‘श्री राम मेहरोत्रा,डॉ नगेंद्र,मैनेजर पांडे,बच्चन सिंह,निर्मला जैन हैं|’ इनकी आलोचना पद्धति को इनकी रचनाओं में देखा जा सकता है|

समकालीन आलोचना:-

मार्क्सवादी धारा के अंतर्गत यह माना जाता है कि आर्थिक आधार से होने वाला परिवर्तन पूरे समाज को प्रभावित करता है| इसे आलोचना की वस्तु वादी धारा भी कहते हैं| इसका तात्पर्य है कि साहित्य की व्याख्या में बाहरी परिस्थितियों का महत्व अधिक होता है| प्रमुख आलोचक- ‘रामविलास शर्मा, नामवर सिंह,निर्मला जैन,नंदकिशोर नवल,धनंजय वर्मा आदि हैं|’


आलोचना की दूसरी धारा जिसे रूप वादी धारा कहते हैं या भागवत-कथा रचनाकार की चेतना के आधार पर कृति का मूल्यांकन या समीक्षा करता है| प्रमुख आलोचक-अशोक वाजपेयी,मदन सोनी,विष्णु खरे आदि हैं| इस धारा के आलोचक बाहरी परिस्थितियों को अधिक महत्व नहीं देते बल्कि रचनाकार के अनुभूति तत्व को प्रस्तुत करने के लिए अनुभूति एवं भाषा को अधिक महत्व देते हैं| कुछ का यह भी मानना है कि मार्क्सवादी,रूपवादी दोनों ही धाराओं के समन्वय के लिए एक तीसरी पद्धति उभरती है,जिसे समन्वयवादी धारा कहते हैं| प्रमुख आलोचक- ‘रामदरश मिश्र,रामस्वरूप चतुर्वेदी’ आदि हैं|

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