भाषा संप्रेषण का स्वरूप: भाषा का एक आंतरिक पक्ष है। भाषा एक रचना है। भाषा की व्याकरणिक रचना मन के जटिल भावों को एक-दूसरे पर प्रकट करने में सहायक है। इस दृष्टि से विचारों की अभिव्यक्ति यानी संप्रेषण की प्रक्रिया में भाषा को संरचना साधन का काम करती है।

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भाषा का एक बाह्य पक्ष है। भाषा का सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ ही भाषा के संप्रेषण का प्रयोजन है। यह भाषा का अर्थ पक्ष है। अर्थ के संदर्भ में हम सूचनाओं के आदान-प्रदान में योगदान करते हैं। भाषा के बारे में लोग यही सोचते थे कि भाषा एक व्याकरणबद्ध व्यवस्था है और दो लोगों के बीच विचारों के आदान-प्रदान’ का माध्यम है। लेकिन धीरे-धीरे भाषा की संकल्पना और भाषा के बारे में अध्ययन की दृष्टि में विस्तार होता गया। जहाँ पहले लोग बोलियों को भाषा का विकृत तथा तिरस्कृत रूप मानते थे, आज हम समाजभाषा विज्ञान के अंतर्गत भाषा के विविध रूपों की जीवंतता की चर्चा करते हैं। भाषा पूरे समाज के विविध संदर्भो में संप्रेषण का माध्यम है।
भाषा संप्रेषण क्या है?
संप्रेषण एक परस्पर क्रिया है, जिसमें एक पक्ष संदेश का संप्रेषण करता है. दूसरा पक्ष उस संदेश को ग्रहण करता है। संप्रेषण हर जीवित प्राणी का गुणधर्म है। चींटियाँ गंध द्वारा अपने समाज के अन्य प्राणियों को शिकार या खाद्यपदार्थ या शत्रु का संदेश देती हैं। मधुमक्खियाँ अपने साथियों को ‘नाच’ द्वारा संदेश संप्रेषित करती हैं। घोड़ा, कुत्ता आदि जानवर ध्वनियों के माध्यम से संप्रेषण करते हैं। लेकिन इनका संप्रेषण कथ्य, परिवेश तथा काल की दृष्टि से अति सीमित हैं। इनके मुकाबले मनुष्य की भाषा बसे उन्नत और जटिल संप्रेषण व्यवस्था है, जो काल, परिवेश की सीमाओं के बाहर जटिल से जटिल विषयों के प्रतिपादन में सक्षम है।
उन्नत संप्रेषण व्यवस्था का सबसे अच्छा उदाहरण मानवों की भाषा है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि भाषा संप्रेषण का सबसे अच्छा माध्यम है। भाषा की परिभाषा देते हुए कहा जाता है कि भाषा विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम है। यानी भाषा के इस्तेमाल में वक्ता और श्रोता (या लेखक और पाठक) ये दो पक्ष अनिवार्य हैं। भले ही हम अपने मन में (अपने आपसे) बातचीत कर लें, भाषा के व्यवहार के लिए दो पक्ष चाहिए ही। परस्पर व्यवहार में दोनों व्यक्ति क्रम से एक दूसरे को किसी व्यवहार के लिए प्रेरित करते हैं। यानी वाक् व्यापार परस्पर व्यवहार का आधार बनता है।
अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन ही भाषिक संप्रेषण का लक्ष्य है। संप्रेषण का संदेश इसी लक्ष्य की पूर्ति में व्यक्त होता है। इस तरह परस्पर व्यहवार के लिए संदेश के उ चित संप्रेषण की अनिवार्यता है। इस परस्पर भाषिक व्यवहार का माध्यम जो भी हो (पत्र लेखन, रेडियो प्रसारण, टेलीफ़ोन पर बातचीत) या उसका स्वरूप जो भी हो (लेखन, बातचीत. संकेत. हाव-भाव). कुल मिलाकर संदेश संप्रेषण ही हमारा प्रमुख ध्येय है। इस तरह संप्रेषण का केंद्र बिंदु संदेश है।
भाषा संप्रेषण का स्वरूप
संप्रेषण के दो प्रमुख पात्र हैं – वक्ता और श्रोता। जब तक दोनों में संदेश के आदान-प्रदान की सक्रिय सहभागिता न हो, सफल संप्रेषण नहीं हो सकता। इसके भी दो पहलू हैं जो सफल संप्रेषण में सहयोगी हैं।
सफल संप्रेषण का एक आधार भाषाई दक्षता है। वक्ता को संदर्भ के अनुसार उचित भाषा का उपयोग करना चाहिए। विचारों का तार्किक क्रम, वक्ता के कथन के संदर्भ में सही प्रतिक्रिया, अपने वक्तव्य के संदर्भ में अपने मनोभावों को यथोचित ढंग से व्यक्त करने के लिए सही शब्दावली और उपयुक्त भाव-भंगिमा का प्रदर्शन, वक्तव्य की स्पष्टता आदि विशेषताएँ संप्रेषण को प्रभावपूर्ण बनाती हैं। इसी को हम वक्तृत्व क्षमता की संज्ञा देते हैं।
संप्रेषण का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है कि हम जानें कि संदेश अभिप्रेत या अभीष्ट रूप में श्रोता तक पहुंच गया है या नहीं। आपने अनुभव किया होगा कि कभी आप गंभीरता से कोई बात कहते हैं और श्रोता समझता है कि आपने मज़ाक किया है।
भाषा संप्रेषण के बढ़ते चरण
प्रारंभिक युगों में संप्रेषण व्यक्तिगत संपर्क का दूसरा नाम था। मानव संस्कृति के विकास के साथ संप्रेषण में व्यापकता आती गई। लेखन के कारण लोगों के विचार काल और समय से परे संप्रेषित हो सके। आधुनिक युग में संचार साधनों के विकास के कारण स्प्रेषण ने संचार का रूप धारण किया और संप्रेषण सामूहिक सहभागिता के संदर्भ में जन संचार के रूप में व्यवहार में आया। आज कंप्यूटरों के कारण संप्रेषण में अभूतपूर्व क्रांति आयी है। चूंकि हम संचार साधनों के माध्यम से व्यापक स्तर पर संप्रेषण करते हैं, हमारे लिए आवश्यक हो जाता है कि हम सही ढंग से संदेश संप्रेषित करें।
सूचना समाज (The information society)
सभ्यता के आरंभ से अब तक के मनुष्य के इतिहास का वर्णन करते हुए उसे तीन विशिष्ट युगों में बाँटा जाता है। सबसे पहला युग था कृषि प्रधान समाज का। उसके बाद युग था औद्योगिक विकास के समाज का। आज के युग में सूचना समाज की प्रधानता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सूचना ने कृषि या उद्योगों को स्थानापन्न कर दिया हो। कृषि प्रधान समाज में सारे लोग कृषि पर आधारित थे औद्योगिक विकास के युग में कृषि का विकास और विस्तार हुआ, फिर भी समाज के कुछ ही लोग कृषि कार्यों में लीन थे। शेष उद्योग की स्थापना करने लगे। इसी तरह सूचना युग में सूचना प्रौद्योगिकी के कारण कृषि और उद्योगों में जूतपूर्व वृद्धि हुई, लेकिन इनमें पहले के मुकाबले में कम लोग लगे हैं, शेष
सूचना प्रौद्योगिकी को समुन्नत करने में लगे हैं। जिस समाज में सूचना और संचार का महत्व अधिक हो, वहाँ कृषि कैसे उन्नत हो सकती है? संचार के कारण अब लोगों के पास कृषि के तरीकों के बारे में अच्छी जानकारी है।
आज सूचना संचार ‘ज्ञान का उद्योग’ (knowledge industry) कहलाता है, जो अन्य उद्योगों से कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस सूचना समाज के क्रांतिकारी आविर्भाव में दो प्रमुख कारक तत्व हैं। एक, कंप्यूटर, जो सूचनाओं के कच्चे माल को ग्रहण करता है और संसाधित कर उसे उपभोक्ताओं लायक ‘ज्ञान’ में बदलकर प्रस्तुत करता है। दूसरे, उपग्रह संचार आदि संचार के उन्नत तरीके, जो उस ज्ञान को विश्व के कोने-कोने में पहुंचाते हैं।
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