शमशेर बहादुर सिंह का साहित्यिक परिचय

शमशेर बहादुर सिंह प्रगतिशील त्रयी के कवि


(13 जनवरी 1911- 12 मई 1993) (जन्म : देहरादून, मृत्यु : अहमदाबाद)

आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभ हैं౼ शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन और त्रिलोचन शास्त्री।
हिंदी कविता में अनूठे माँसल ऐंद्रीक बिंबों के रचयिता शमशेर आजीवन प्रगतिवादी विचारधारा से जुड़े रहे।
दूसरे सप्तक (1951) से शुरुआत कर चुका भी नहीं हूँ मैं के लिए साहित्य अकादमी सम्मान पाने वाले शमशेर ने कविता के अलावा डायरी लिखी और हिंदी उर्दू शब्दकोश का संपादन भी किया।
शमशेर स्वयं पर इलियट-एजरा पाउंड-उर्दू दरबारी कविता का रुग्ण प्रभाव होना स्वीकार करते हैं। लेकिन उनका स्वस्थ सौंदर्यबोध इस प्रभाव से ग्रस्त नहीं है।
शमशेर एक तरफ ‘यौवन की उमड़ती यमुनाएं’ अनुभव कर सकते थे, दूसरी तरफ ‘लहू भरे गवालियर के बाजार में जुलूस’ भी देख सकते थे।


प्रमुख रचनाएँ


कविता-संग्रह : अमन का राग (1952), एक पीली शाम (1953), एक नीला दरिया बरस रहा, कुछ कविताएं (१९५६), कुछ और कविताएं (१९६१), चुका भी नहीं हूं मैं (१९७५), इतने पास अपने (१९८०), उदिता – अभिव्यक्ति का संघर्ष (१९८०), बात बोलेगी (१९८१), काल तुझसे होड़ है मेरी (१९८८), सुकून की तलाश।


निबन्ध-संग्रह : दोआब
कहानी-संग्रह : प्लाट का मोर्चा, कु्छ गद्य रचनायें तथा कुछ और गद्य रचनायें

संपादन : ‘रूपाभ’, इलाहाबाद में कार्यालय सहायक (1939), ‘कहानी’ में त्रिलोचन के साथ (1940), ‘नया साहित्य’, बंबई में कम्यून में रहते हुए (1946) माया में सहायक संपादक (1948-54), नया पथ और मनोहर कहानियाँ में संपादन सहयोग। दिल्ली विश्वविद्यालय में विश्वविद्यालय अनुदान की एक महत्वपूर्ण परियोजना ‘उर्दू हिन्दी कोश’ का संपादन (1965-77), प्रेमचंद सृजनपीठ, विक्रम विश्वविद्यालय के अध्यक्ष (1981-85)।

पुरस्कार व सम्मान• साहित्य अकादमी पुरस्कार (1977 ई.) ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ के लियेमैथिली शरण गुप्त पुरस्कार (1987) कबीर सम्मान (1989)

कुछ विचार

शमशेर ने संवेदनाओं के गुणचित्र उपस्थित करने के क्षेत्र में जो महान सफलताएँ प्राप्त की हैं, वे उस क्षेत्र में अन्यत्र दुर्लभ हैं। ౼गजानन माधव मुक्तिबोध


हम चाहें तो उन्हें रूमानी और बिंबवादी कवि भी कह सकते हैं। अभी तक और कभी इसके बाहर वह नहीं गए। …सहजता अगर मनुष्य का गुण है तो शमशेर बहादुर सिंह का जीवन और काव्य उसका उदाहरण है। …वे सौंदर्य के अनूठे चित्रों के स्त्रष्टा के रूप में हिंदी में सर्वमान्य हैं। ౼अज्ञेय


शमशेर उन कवियों में थे, जिनके लिए मा‌र्क्सवाद की क्रांतिकारी आस्था और भारत की सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा में विरोध नहीं था। ౼डॉ. अजय तिवारी

काव्य-पंक्तियाँ

  1. मोटी धुली लॉन की दूब,साफ मखमल-सी कालीन।ठंडी धुली सुनहली धूप।
  2. बादलों के मौन गेरू-पंख, संन्यासी, खुले है/ श्याम पथ पर/ स्थिर हुए-से, चल।
  3. ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ प्रतिनिधि कविताएँ नहीं मानी जाती। उनमें शमशेर ने लिखा है-‘दोपहर बाद की धूप-छांहमें खड़ी इंतजार की ठेलेगाड़ियां/ जैसे मेरी पसलियां../खाली बोरे सूजों से रफू किये जा रहे है।.जो/ मेरी आंखों का सूनापन है।’
  4. उषा शीर्षक कविता में उन्होंने भोर के नभ को नीले शंख की तरह देखा है।’प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे’।
  5. वैदिक कवियों की तरह वे प्रकृति की लीला को पूरी तन्मयता से अपनाते है-जागरण की चेतना से मैं नहा उट्ठा।सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता।
  6. सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करताकेश-तन में झिलमिला कर डूब जाता..
  7. उन्होंने स्वयं को ‘हिंदी और उर्दू का दोआब’ कहा है। रूढिवाद-जातिवाद का उपहास करते हुए वे कहते हैं-‘क्या गुरुजी मनु ऽ जी को ले आयेंगे?हो गये जिनको लाखों जनम गुम हुए।’
    8, मुझे बादशाहत नहीं चाहिएमगर तू ही कुल मेरी दुनिया है क्यों।
  8. अपने प्रिय कवि महाकवि निराला को याद करते हुए शमशेर ने लिखा है-भूल कर जब राह- जब-जब राह.. भटका मैंतुम्हीं झलके हे महाकवि,सघन तम की आंख बन मेरे लिए।

शमशेर काव्य की विचार-भूमि

शमशेर बहादुर सिंह आधुनिक दौर के सबसे जटिल कवि माने जाते हैं। यह सच है कि उनकी काव्य-संवेदना सरल नहीं है, लेकिन कविता के पाठकों के बीच शमशेर के दुरूह माने जाने के पीछे कुछ कारण रहे हैं। आम तौर पर हम किसी रचनाकार को पढ़ते समय पहले उसका विचार जानने की कोशिश करते हैं। अगर इस विचार के बारे में हमें किसी भी तरह कुछ पता चल जाता है, तो उसी के साँचे में उसकी सारी रचनाओं को बैठाकर देखने लगते हैं। उदाहरण के लिए, रामधारी सिंह दिनकर के विषय में प्रचलित मान्यता है कि वे उग्र राष्ट्रवादी विचारों के थे।

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उनकी अनेक कविताएँ इसकी पुष्टि करती हैं। उसी प्रकार यह कहा जाता है कि ‘नए पत्ते’ के दौर के ‘निराला’ साम्यवादी विचारों से प्रभावित हैं, नामार्जुन प्रगतिशील हैं, अज्ञेय रहस्यवादी हैं. राजकमल चौधरी अराजकतावादी हैं, इत्यादि। किंतु कवियों के साथ इस प्रकार के विशेषण एक सीमा तक ही कवि-संसार में प्रवेश करने में पाठक के लिए सहायक होते हैं। प्रायः तो यह देखा गया है कि इस प्रकार के विशेषण कवि के संपूर्ण कर्म को समझने के रास्ते में बाधक बन जाते हैं। सुसंगत विचार या विचारधारा खोजने में विश्वास रखने वालों की परेशानी तब और बढ़ जाती है जब लेखक अपनी टिप्पणियों, निबंधों और वक्तव्यों में जिन विचारों का समर्थन करता हुआ, जिनका प्रचार करता हुआ दिखलाई पड़ता है, उसकी कविताएँ कहीं भी उनके मेल में पड़ती नहीं दीखतीं। इसके चलते उलझन में पड़ा हुआ पाठक-आलोचक कवि में अंतर्विरोधों के दर्शन करने लगता है और फिर इन अंतर्विरोधों की सामाजिक-आर्थिक, मनोवैज्ञानिक व्याख्याएँ प्रस्तुत करता है।

किसी कवि को पढ़ने समझने और उससे आत्मीयता स्थापित करने के मार्ग में इस प्रकार की व्याख्याओं से दिशा-भ्रम के अलावा और कुछ नहीं होता। शमशेर बहादुर सिंह को पढ़ते समय इस दिशा में और भी सतर्कता ज़रूरी है।

शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं को लेकर अच्छे भले रसज्ञ शिकायत करते पाए जाते हैं कि इनका पूरा आनंद उठाने में उन्हें दिक्कत पेश आती है। शमशेर ने 1949 में जब अपना पहला कविता-संग्रह ‘उदिता ‘ तैयार किया (जो उस साल छप न सका) तो उसकी भूमिका में इस परेशानी का ज़िक्र यों किया – ‘बाज मेरे दोस्तों को मेरी कुछ रचनाओं से लुत्फ उठाने में दिक्कत महसूस हुई है, जहाँ मैं समझता हूँ कि न होनी चाहिए थी या जितनी हुई उससे बहुत कम होनी चाहिए थी।’ अपनी कविताओं को लेकर वे इतने आश्वस्त क्यों हैं?

वे आगे बताते हैं- ‘…….जब ये रचनाएँ लिखी गई. उस वक्त मुझे किसी पाठक की दिक्कत का ख्याल नहीं था…..सिवाय अपने उस पाठक के, जिसके सामने मैंने अपनी बातों को खास अपने लहजे में, खास अपने मन के रंग में, अपनी लय, अपने सुर में, खोलकर, एक ख़ाब की तरह, एक उलझी हुई याद के बहुत अपने छायाचित्र की तरह, रखने की कोशिश की है।’

तात्पर्य यह कि शमशेर अत्यंत ही निजी-भाव की कविताएँ लिख रहे थे। उनका कवितारंभ हिंदी में छायावादी स्वर के उत्कर्ष में हुआ। छायावाद की श्रेष्ठतम रचनाएँ लिखी जा चुकी और स्वयं उसके स्थपतियों को अब कविता के नए रूपाकार की आवश्यकता का अनुभव हो रहा था। इसी समय, छायावाद का गहरा रंग लिए लेकिन भावों और वाणी में सरलता के उद्दाम आवेग का एक रेला भी आया, जिसे बाद में सुविधा के लिए ‘उत्तर छायावादी काव्य’ कहा गया। दरअसल यह स्वच्छंदतावाद की ही एक धारा थी। शमशेर की आरंभिक कविताओं की पृष्ठभूमि छायावादी और उत्तर-छायावादी काव्य-संस्कारों से निर्मित हुई। लेकिन उनकी एकांत-प्रियता और विशिष्ट निजीपन ने उनकी कविताओं को नितांत भिन्न स्वर और रूप प्रदान किया। इसलिए आरंभिक दौर से लेकर तो बाद तक के शमशेर को पढ़ते समय इस बात के प्रति सावधान रहना भी आवश्यक है कि उन्हें किसी एक काव्य-धारणा के लक्षणों के आधार पर समझने की कोशिश न की जाए।

दूसरी गड़बड़ी, जो प्रायः शमशेर की कविताओं के साथ हुई है और जिसकी ओर आलोचक नंदकिशोर नवल ने इशारा किया है, वह है उनमें नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल की तरह ‘ठोस अर्थ की खोज’ करना, जबकि उनके अनुसार शमशेर ने ‘अर्थ को ज्यादा से ज्यादा छोड़कर कविता लिखी है।’ डॉ. नवल का मत है कि शमशेर ने ‘अर्थ को अधिक से अधिक छोड़कर कविता लिखी और उसमें वह जादू भर दिया, जो अधिक से अधिक मानवीय है और अधिक से अधिक कविता का जादु।’ दिक्कत सिर्फ यह है, जैसा कि ऊपर भी कहा गया है कि उन्हें ‘प्रायः कलावाद, रूपवाद, अतियथार्थवाद और प्रभाववाद के द्वारा समझने-समझाने की कोशिश की गई है, जिससे उनकी दुरूहता घटने के बदले बढ़ती ही चली गई है।’

अशोक वाजपेयी ने इसी बात को शमशेर की कविताओं के एक संचयन ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ की भूमिका में इस प्रकार कहा है – शमशेर की कविताओं का ‘आप किसी अन्य अभिप्राय के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते। वह अपने आत्यंतिक अर्थ में परम नैतिक कविता है, प्रार्थना की तरह पवित्र…।’ शमशेर की संपूर्ण काव्य-साधना के आशय को अशोक वाजपेयी इस प्रकार व्यक्त करते हैं – ‘उनकी दुनिया ‘टूटी हुई बिखरी हुई है, पर अपनी सुंदरता और अर्थमयता में मुकम्मल। उसमें टूटे-बिखरे हुए से ही सजग, पर सहज, संयमित, पर तनाव-भरी मानवीयता सहेजने और हम तक पहुँचाने की संकोच और संदेह भरी चेष्टा है।

‘ शमशेर की कविताओं को पढ़ने के पहले वैसी रुढ़ियों से मुक्ति आवश्यक है जो तथाकथित काव्य-आंदोलनों ने बना रखी हैं। इसलिए उनके काव्य-लोक में प्रवेश के लिए और उस संसार की सदस्यता प्राप्त करने के लिए किसी भी पाठक को शमशेर के मनोजगत, विचार के प्रति उनके दृष्टिकोण, संसार के प्रति उनकी दृष्टि तथा कविता के उनके व्यवहार को सावधानी से समझना ज़रूरी होगा। प्रायः हिंदी आलोचना ने यह दायित्व अब तक पूरा नहीं किया है. हालांकि शमशेर की श्रेष्ठता को सीधे-सीधे अस्वीकार करने का दुस्साहस भी एकाध को छोड़कर शायद ही किसी ने दिखाया हो। इसलिए हम शमशेर को पढ़ने का रास्ता उन्हीं की उंगली पकड़कर तय करेंगे और उस दरम्यान यह भी देखेंगे कि इस रास्ते से कई सुधी समीक्षक कैसे और क्यों भटक गए हैं।

लिविंग प्रिंसिपल की खोज

कोई रचनाकार या कलाकार शमशेर बहादुर सिंह के लिए आकर्षक इसलिए होता है कि वह कोई ऐसी चीज़ पैदा कर रहा होता है जिससे हम जाने-अनजाने अपनी अनुभूतियों या अपने अनुभवों की तुलना करते चलते हैं। ऐसे कलाकार को समझने के अपने तरीके के बारे में उनका कहना है, ‘चूंकि मेरी दिलचस्पी शैली और प्रकार में और तकनीक में रही है, तो अलग- अलग रचनाकारों की, कवियों की, आर्टिस्टों की जो शैलियाँ हैं उनमें भी रही है। मैं डिसकवर करना चाहता हूँ कि इस रचनाकार का जो एक लिविंग प्रिंसिपल है वह क्या है। यह उद्धरण खुद शमशेर को समझने के लिहाज़ से काफी महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण भी है। अक्सर रचनाकारों की विश्व-दृष्टि या विचारधारा की खोज की जाती है। इस विश्व-दृष्टि या विचारधारा की जगह शमशेर रचनाकार के ‘लिविंग प्रिंसिपल को खोजने-समझने की ज़रूरत बताते हैं, जो यह एक सही रवैया लगता है।

रघुवीर सहाय को शमशेर ने जिंदगी में जिन तीन चीज़ों की ‘बड़ी ज़रूरत’ बताई थी, उनमें एक था – मार्क्सवाद। एक इंटरव्यू में मार्क्सवाद से अपने रिश्ते को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया है कि मार्क्सवाद से नज़रिया बेहतर, वैज्ञानिक और विश्वसनीय होने के साथ-साथ दृष्टि में विस्तार मिलता है और विश्व-बंधुता का अहसास भी होता है। मार्क्सवाद से रचनाकार को दिशा मिलती है और उसकी वेदना में धार आ पाती है। लेकिन इसी मार्क्सवाद से शमशेर का रिश्ता हिंदी के आलोचकों के लिए खासा सिरदर्द बना रहा है।

प्रायः सबने अपनी मुश्किल किसी न किसी ढंग से बताई है और अपने-अपने हिसाब से उसका समाधान भी किया है, लेकिन उनकी चर्चा के पहले शमशेर की आरंभिक कविताओं के संकलन ‘उदिता’ की भूमिका की ये पंक्तियाँ पठनीय हैं – ‘…..अगर मेरी वाणी में इन्सान का दर्द है – छोटा सा दर्द सही, मगर सच्चा दर्द…..भावुकता, ललक, आकांक्षा, तड़प और आशा, कभी घोर रूप में निराशा भी लिए हुए, कभी उदासी, कभी-कभी उल्लास भी…… एक प्रेमी कलाकार, एक मध्यवर्गीय भावुक नागरिक का, जो मार्क्सवाद से रोशनी भी ले रहा है और सांस्कृतिक और धार्मिक विविध परंपराओं में अपनी नैसर्गिक शक्ति और ऊर्जा के स्रोत भी (अपनी सीमा में अपनी शक्ति भर तलाश रहा है, एक ऐसा व्यक्ति जिसको सभी देशों और साहित्यों से प्यार है और सबसे अपने दिल को जोड़ता है (प्रेम की भावुकता ने जो बीज बोया वह मैं देखता हूँ कि अकारथ नहीं गयाः क्योंकि पूरी मनुष्य जाति से प्रेम, युद्ध से नफरत और शांति की समस्याओं से दिलचस्पी – ये सब बातें उसी से धीरे-धीरे मेरे अंदर पैदा हुई…..) लो, अगर उपर्युक्त तमाम सूत्रों के साथ इन्सान से जुड़ता हुँ, तो मेरे लिए फिलहाल इतना काफी है।’ यहाँ चिह्नित करने लायक शब्द हैं – ‘सभी देशों और साहित्यों से प्यार’, ‘प्रेम की भावुकता’, ‘पूरी मनुष्य जाति से प्रेम, युद्ध से नफरत और शांति की समस्याओं से दिलचस्पी’ और फिर इन सभी सूत्रों के साथ इन्सान से जुड़ने की कोशिश। ये कुछ ऐसे सूत्र हैं, जिनके माध्यम से शमशेर को समझा जा सकता है।

सबसे अधिक दिलचस्प है ‘प्रेम की भावुकता’ को गौरव का स्थान दिया जाना। यह इसलिए कि आज भी मार्क्सवादी विचारक और रचनाकार अगर प्रेम को सम्मान देने को तैयार हो भी जाएँ, तो भावुकता को श्रेयस्कर मानने में उन्हें हिचकिचाहट बनी रहेगी। कम्युनिस्टों का प्रशिक्षण ही कुछ ऐसा होता है कि भावुक होने को वे कमज़ोर होने की निशानी मानते हैं। शमशेर भावुकता को वस्तुपरकता के साथ शत्रुतापूर्ण रिश्ते में नहीं रखते। प्रायः यह समझा जाता रहा है कि ठंडी वस्तुपरक दृष्टि अपनाने के लिए भावुकता से दूर रहना बहुत ज़रूरी है।

ऐसी धारणा वाले शमशेर को दुर्बल भावुक समझते रहे हैं। लेकिन उन्हें 1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों में मार्क्स के इस वाक्य को ध्यान से पढ़ना चाहिए : The dominion of the objective being in me, the sensuous outbrust of my life-activity, is passion, which thus becomes here the activity of my being.

न प्रेम सीमित है, न ही उनकी भावुकता का दायरा तंग है। वे उन्हें क्रिस्टोफर काडवेल की तरह ही ग्रहण करते हैं, जिन्होंने ‘प्रेम’ शीर्षक अपने निबंध में लिखा है कि ‘सामाजिक संबंधों में विद्यमान भावात्मक तत्व को मनुष्य ने ‘प्रेम’ का नाम दे दिया है।’ मार्क्सवादियों का विरोध पूँजीवाद से दरअसल इस वजह से होना चाहिए कि वह तमाम सामाजिक संबंधों को आर्थिक संबंधों में और उन्हें भी बाज़ार द्वारा तय किए गए संबंधों में बदलते हुए इस भावात्मक तत्व को जला डालता है।

काडवेल इस व्यवस्था के बारे में लिखते हैं, ‘आज मानो प्रेम और आर्थिक संबंध दो विपरीत ध्रुवों पर जमा हो गए हैं।……विलगाव एक भयंकर तनाव को जन्म देता है और यही बूर्जुआ समाज में व्यापक परिवर्तन की प्रक्रिया आरंभ कर देता है।’ इसी निबंध में उन्होंने प्रेम को All the unused tenderness of man’s instincts कहा है। भावना, जिसे जबर्दस्ती ज़मीन के अंदर गाड़ दिया गया है, जब विस्फोट के साथ बाहर आती है तो समाज का पूरा ढाँचा चकनाचूर हो जाता है। यही क्रांति है। शमशेर इसी क्रांति के मुरीद हैं। इसीलिए प्रेम की भावुकता उन्हें कमज़ोर करने की जगह इन्सानों के साथ सही रिश्ते कायम करने में मदद करती है।

मार्क्सवाद : व्यक्तित्व निर्माण की आधारभूत सामग्री के रूप में

अज्ञेय ने शमशेर के बारे में कहा है, ‘शमशेर की कविता में निहित मूल्य-दृष्टि में और उनकी घोषित राजनीति में, राजनीतिक दृष्टि में, लगातार एक विरोध रहा है और अभी तक है। यह घोषित राजनीतिक दृष्टि मार्क्सवाद के अलावा और कुछ नहीं। पर इस संबंध में स्वयं कवि का विचार यह है – ‘मार्क्सवाद को मैं सामाजिक, राजनैतिक पहलुओं से नहीं देखता, बल्कि हमारे युग में वह मानव के गहनतम चिंतनों से जुड़ा है।’ अतः मार्क्सवाद उनके लिए राजनीतिक दृष्टि-मात्र न होकर उनके रचनाकार व्यक्तित्व के निर्माण की आधारभूत सामग्री है।

‘दूसरा सप्तक’ के अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा है कि यह कलाकार पर निर्भर करता है कि वह अपने चारों ओर बिखरे पड़े सुंदरता के खजाने का कितना इस्तेमाल कर सकता है। लेकिन कलाकार में यह क्षमता आए, इसके लिए ज़रूरी है कि वह अपने चारों तरफ की ज़िंदगी में दिलचस्पी ले, उसे ठीक-ठाक, यानी वैज्ञानिक आधार पर समझे। शमशेर के लिए यह वैज्ञानिक आधार मार्क्सवाद है।

मार्क्सवाद उन्हें अपनी अनुभूतियों और अनुभवों को सुलझाने में, उन्हें स्पष्ट करने में मदद करता है, जिससे उनकी ‘कला-चेतना’ जग पाती है। इसी वक्तव्य में वे आगे लिखते हैं, ‘इस तरह अपनी कला-चेतना को जगाना और उसकी मदद से जीवन की सच्चाई और सौंदर्य को अपनी कला में सजीव से सजीव रूप देते जाना : इसी को मैं साधना समझता हूँ। और इसी में कलाकार का संघर्ष छिपा हुआ देखता हूँ।’ इस तरह, यह देखना कठिन नहीं है कि शमशेर के प्रशंसकों ने उनकी कवि-दृष्टि या कला-चेतना और मार्क्सवाद में जो भेद देखा था, वह स्वयं शमशेर के लिए कहीं भी मौजूद नहीं था।

मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी, दोनों ही तरह के आलोचकों ने और पाठकों ने भी प्रायः अज्ञेय की तरह ही शमशेर के अंदर मार्क्सवाद को लेकर द्वंद्व चलते हुए देखा है। यहाँ मुक्तिबोध को लेकर अब तक चली आ रही उलझन की याद आना स्वाभाविक है। शमशेर और मुक्तिबोध में कई स्तरों पर समानता है। कभी-कभी ऐसा लगने लगता है कि मुक्तिबोध को लेकर जो बहस थी, उसने अपनी परिणति प्राप्त कर ली है और यह अंततः हिंदी की प्रौढ़ आलोचना-दृष्टि के कारण ही संभव हो सका है। लेकिन अभी हाल में, शमशेर की मृत्यु के बाद उनकी स्मृति में ‘सापेक्ष’ नामक पत्रिका का जो अंक निकला है, वह उसे गलत साबित कर देता है। मार्क्सवादी आलोचक डॉ.शिव कुमार मिश्र ने सुल्तान अहमद को दिए गए इंटरव्यू में यह विचार व्यक्त किया है – ‘मुक्तिबोध की कविता में ऐसा कुछ है जो दूसरों को पार्टिक्यूलरली मार्क्सवाद के विरोधियों को यह गुंजाइश देता है कि वे उन्हें अपने ढंग से एनालाइज़ करके महान सिद्ध कर दें।

…… उनमें भी ऐसा तमाम कुछ है, जो उनकी मार्क्सवादी, प्रगतिशील, ह्यूमन, मानसिकता से मेल नहीं रखता।’ ‘वह तमाम कुछ’ क्या है, जो प्रगतिशील, मानवीय मानसिकता के विरुद्ध है? पूरे इंटख्यू में शिवकुमार जी यह नहीं बताते। लेकिन वे यह ज़रूर कहते हैं कि शमशेर में मनुष्य, समाज, राष्ट्र और उनके भविष्य को लेकर गहरी चिंता का भाव है; वे तमाम मानव- विरोधी शक्तियों के आजीवन खिलाफ रहे; वे सेक्यूलर-माइंडेउ ह्यूमन थे; वर्ण, जाति, धर्म और नस्ल जैसी संकीर्ण विचारधाराओं से बहुत दूर थे; मनुष्यता के बारे में, उसके सुख-दुख के बारे में, सामान्यजन के बारे में, निर्धन जनता के बारे में, मध्य वर्ग की आर्थिक बदहाली के बारे में उन्हें चिंताएँ थीं। यह सब कुछ कहने के बाद, शमशेर की संवेदना का दायरा बहुत विशाल देखने के बाद भी शिवकुमार जी यह कहने को मजबूर हैं कि ‘बहुत से ऐसे प्रभाव भी शमशेर पर रहे, जिनको एक सीमा तक रुग्ण भी कह सकते हैं। ये रुग्ण प्रभाव क्या हैं और उनके कौन-से लक्षण शमशेर में प्रकट होते हैं, इसे स्पष्ट करना शिवकुमार जी को जरूरी नहीं लगा।

शमशेर पर रुग्ण प्रभाव देखने का यह रोग नया नहीं है, यह ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ में संकलित डॉ. रामविलास शर्मा के निबंध ‘शमशेर बहादुर सिंह का आत्म-संघर्ष और उनकी कविता’ को पढ़ने से पता चलता है। शमशेर इलियट-पाउण्ड के प्रशंसक थे। डॉ. शर्मा ने इस पर टिप्पणी की है — ‘शमशेर यह कहकर अपने मन को समझा लेते थे कि इलियट-पाउण्ड की अस्वस्थ’ विषय-वस्तु से हमें क्या लेना-देना है, हम तो उनके शिल्प सराहते हैं।

वास्तव में बात थी इन ‘अस्वस्थ’ कवियों के भाव-बोध पर मुग्ध होने की। उनका भाव-सौंदर्य उन्हें अपनी ओर खींचता था और उनका विवेक उन्हें फटकारता था कि यह सब व्यक्तिवादी प्रपंच है।’ अज्ञेय ने कवि की मूल्य-दृष्टि और उसकी घोषित राजनीति में विरोध देखा था। यहाँ डॉ. शर्मा कवि के भाव-बोध और उसके विवेक में खींचतान देखते हैं। यह विवेक मार्क्सवाद ही है। विवेक (मार्क्सवादी) और भाव-बोध (अस्वस्थ व्यक्तिवादी) के बीच बंद मुक्तिबोध में भी था। पर डॉ. शर्मा इन दोनों में फर्क यह पाते हैं कि जहाँ मुक्तिबोध में इसे लेकर काफी उलझन थी, वे तड़पते थे, अपने-आपसे लड़ते थे, लहूलुहान हो जाते थे, वहीं शमशेर सजीले जिस्म के गुनगुनाने पर रीझ कर रह जाते हैं, अंधेरे कुएँ या बावड़ी में उतरने की फुरसत उन्हें नहीं मिलती।

क्या संयोग है कि कुछ ऐसा ही द्वंद्व या संघर्ष डॉ. रघुवंश को भी दिखलाई पड़ता है……वैचारिक स्तर पर शमशेर में एक विरोधाभास बना रहा है।……व्यक्तित्व की प्रखर चेतना के साथ उसमें सामाजिक दायित्व का आग्रह भी है। इस प्रकार का आंतरिक द्वंद्व योरोप के तथा पश्चिम के ओडेन, स्पेण्डर, पाब्लो नेरूदा, लोर्का तथा आरेगा जैसे अनेक कवियों में पाया जाता है……..परंतु जिनमें यह द्वंद्व वैयक्तिक चेतना और सामाजिक दायित्व की भावना का है, उनको शमशेर की तरह शुद्ध कवि-दृष्टि और प्रभावानुभव में पलायन की सुविधा नहीं मिल सकी।’

सजीले जिस्म पर रीझकर रह जाने के रुग्ण स्वभाव के साथ यहाँ हमें शमशेर के पलायनवादी चरित्र का भी पता चलता है। रघुवंश जी की धारणा है कि कवि अपने इस अंतद्व का ‘समुचित समाधान सर्जन के स्तर पर’ नहीं कर सका है। ‘सापेक्ष ‘ के ‘शमशेर अक’ में डॉ. रामविलास शर्मा अपनी तीन दशक पुरानी धारणा को दुहराते हुए अपनी बात को स्पष्ट करते हैं- ‘शमशेर की रचनाओं में काव्य-कौशल को लेकर उधेड़बुन ज्यादा है। उनकी उलझनों का एक कारण यह है कि वे अपने रीतिवादी रुमानी सौंदर्य-बोध से अपने मार्क्सवादी विवेक की संगति नहीं बिठा पाए।

विवेक और भावबोध का द्वंद

विवेक यानी मार्क्सवाद और भाव-बोध के बीच कोई अंतर खुद शमशेर महसूस करते थे या नहीं, और अगर करते थे तो उनका समाधान उन्होंने किस तरह किया — इस पर हम आगे चलकर विचार करेंगे। अभी हिंदी आलोचना में बिल्कुल ही अलग पद्धतियों और विश्वासों को लेकर चलने वाले चिंतकों के बीच इस मसले पर जो एकमत स्थापित हुआ है, भले ही उनके मकसद अलग-अलग हों, उसे ठीक से देखना कवि को समझने के लिहाज से तो उपयोगी होगा ही, अपने आप में शिक्षाप्रद भी होगा। विजयदेव नारायण साही के चर्चित निबंध ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’ में भी कवि के विवेक और सौंदर्य-बोध के दरम्यान एक ऐसी खाई देखी गई है, जिसे यह नहीं पाट सका है।

साही ने मार्क्सवाद लेकर शमशेर के अंदर चलने वाली कशमकश के क्रमिक विकास को कुछ इस तरह देखा है – ‘दूसरा सप्तक’ के वक्तव्य में शमशेर ‘समाज-सत्य’ को आग्रहपूर्वक ‘मार्क्सवाद’ का पर्याय घोषित करना ज़रूरी समझते हैं। 1961 तक जो चीज़ मार्क्सवाद थी, यह ‘समाज’, ‘सत्य का मर्म’ हो गई। बेशक इन दस वर्षों में परिवर्तन हुआ है, कम से कम आग्रह का। कम से कम शमशेर के लिए एक लाभ इसमें अवश्य दिखता है कि ‘अपनी भावनाओं में’, ‘अपनी प्रेरणाओं में’, ‘अपने संस्कारों में, ‘समाज- सत्य के मर्म को ढालना’ और उसमें अपने को पाना उतना कठिन नहीं है जितना वह जिसे वे मार्क्सवाद के नाम से अभिहित करते हैं।’ दूसरे शब्दों में, शमशेर धीरे-धीरे मार्क्सवाद के बंद दायरे से बाहर निकलते हैं, उससे मुक्ति प्राप्त करते हैं। लेकिन इस मुक्ति के बाद भी वे समाज-सत्य के मर्म को अपनी प्रेरणाओं में ढालना चाहते हैं।

साही अपने इसी निबंध में इस संबंध में ये विचार व्यक्त करते हैं – ‘समाज-सत्य को निजी उपलब्धि बनाना उसे आत्मसात करना या उपयोग में लाना है। लेकिन शमशेर के लिए काव्यानुभूति के केंद्र में…..उसकी सत्ता नहीं है। …… वह एक तरह से हाशिये पर स्थित है।’ वे आगे कहते हैं ‘…….. उस दौर’ में भी जब वह वास्तविकता के बाहरी आकारों की ओर बहुत आकर्षित थे, तब भी उनके लिए मार्क्सवाद शुद्ध वस्तुपरकता का दूसरा नाम था।’ इसीलिए जो चीज़ ‘उस दौर’ में भी हाशिये से आगे नहीं बढ़ी थी, बाद में उसका (मार्क्सवाद का) ‘छूटता हुआ दामन उनके लिए मोह-भंग का रूप नहीं लेता, बल्कि केंथुल छोड़कर चुपचाप आगे बढ़ जाने की अनुभूति देता है।’ साही के अनुसार शमशेर का विकास प्रगतिवादी दौर के बाद मार्क्सवाद से मुक्ति की दिशा में हुआ है। वैसे तो उस दौर में भी वह हाशिये पर ही था, पर अब तो उतारी हुई केंचुल की तरह वह पीछे छूट गया है।’ इस मान्यता को शमशेर ने स्वयं आगे चलकर चुनौती दी है। यह देखना बहुत मुश्किल नहीं कि मार्क्सवादियों और गैर-मार्क्सवादियों को भी शमशेर के मार्क्सवाद को लेकर हमेशा संशय बना रहा। इसकी वजह उन्होंने खुद बताई है – ‘………मैं उस अर्थ में मार्क्सवादी कभी नहीं रहा जिस अर्थ में मेरे प्रगतिशील दोस्त, मसलन शिवदान. चौहान और राजीव सक्सेना हैं।’

1964 में साही ने बताया कि शमशेर ने मार्क्सवाद को केंचुल की तरह उतार दिया है, यहाँ 1991-92 में खुद शमशेर जोरों से मार्क्सवाद को अपनी सच्ची ज़रूरत बता रहे हैं। सिर्फ अपने लिए ही नहीं, रचना-कर्म मात्र के लिए मार्क्सवाद की क्या अहमियत है – एक इंटरव्यू में उसके बारे में वे कहते हैं, ‘एक लेखक के रूप में मार्क्सवादी होना जरूरी है, इस तथ्य को मैं व्यावहारिक रूप में मानता हूँ।’ यानी मात्र सैद्धांतिक स्तर पर नहीं, व्यावहारिक स्तर पर, रचना-कर्म के ठोस धरातल पर मार्क्सवाद की अनिवार्यता उनकी निगाह में बनी हुई है। लेकिन यह मार्क्सवाद, जो शमशेर का ‘लिविंग प्रिंसिपल’ है, वह उनके प्रगतिशील मित्रों के मार्क्सवाद से थोड़ा (!) भिन्न है। यह भिन्नता इसलिए है कि उन्होने मार्क्सवाद को विचारधारा मात्र के रूप में ग्रहण नहीं किया, बल्कि वह उसे मानव के गहनतम चिंतनों से जुड़ा हुआ मानकर चलते रहे।

अन्सर्ट फिशर ने ‘आर्ट आइडियोलॉजी’ में लिखा है ‘ मार्क्सवाद एक विचारधारा नहीं है, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों ने एक विचारधारात्मक व्यवस्था खड़ी की और उसे ‘मार्क्सवाद-लेनिनवाद’ का नाम दिया। उनका कहना है कि विचारधारा में विचार अपनी गति खो देते हैं, इस कारण वे अपनी द्वंद्वात्मकता खो देते हैं और परिणामस्वरूप अपनी वास्तविकता भी। विचारधाराएँ बंद किलों की तरह हैं। यहाँ विचार ‘डॉग्मा’ के ताबूत में बंद कर दिया जाता है। फिशर लिखते हैं कि प्रत्येक विचारधारा में सत्य का परिणाम नहीं, बल्कि ‘ताकत का सबूत’ ही निर्णायक तत्व हो जाता है। पर मार्क्सवाद के बारे में उनका विचार है कि वह शक्ति-परीक्षा पर नहीं, बल्कि यथार्थ की सापेक्षता में तुलनीय अपने वैज्ञानिक निष्कर्षों के सत्य पर निर्भर करता है।

मार्क्सवाद का लक्ष्य, उसका स्वप्न है – संपूर्ण मनुष्य। जो अलगाव का शिकार न हो, जिसकी प्रत्येक क्षमता विकसित हो, यानी सृजनशील मनुष्य! मार्क्सवाद को ‘गाइड टु एक्शन’ कहा जाता रहा है, पर वह ‘डायरेक्ट गाइड टु एक्शन’ नहीं है। फिशर ठीक ही कहते हैं कि मार्क्सवाद का विलक्षण सर्जनात्मक पक्ष यह नहीं है कि वह वर्ग-संघर्ष का आह्वान करता है। (क्योंकि मार्क्स के बहुत पहले ही वर्गों और वर्ग-संघर्ष के अस्तित्व की खोज की जा चुकी थी), बल्कि यह है कि वह वर्ग-संघर्ष के दौरान अपने आपको पहचान पाने, उद्घाटित करने, स्वयं को प्राप्त कर पाने के मनुष्य के ऐतिहासिक लक्ष्य की चेतना प्रदान करता है।

कला या साहित्य के इतिहास से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि रचनाकार प्रायः विचारों के प्रति आकर्षित होता है, विचार-प्रणाली के प्रति नहीं। विचार प्रणाली या विचारधारा उसे हमेशा अपर्याप्त और बंधनकारी जान पड़ी है। दुनिया भर के रचनाकारों पर मार्क्सवाद का असर उसमें निहित समाजवाद के उस विचार के चलते हुआ, जिसमें आज़ादी, न्याय, मानवीयता – मनुष्य का स्वप्न और एक स्वप्न की भांति मनुष्यता निर्णयकारी तत्व है। रचनाकार का संघर्ष मनुष्य के अकेले होते जाने, उसके संवेदनहीन होते जाने, विकृत, अपाहिज होते जाने के विरुद्ध है। इसीलिए उस व्यवस्था के विरुद्ध भी है जो व्यक्ति को इन स्थितियों की ओर ज्यादा से ज्यादा ढकेलते जाती है, उसे और दबाती जाती है।

कम्युनिज़्म इससे मुक्ति का ही नाम है, जैसा मार्क्स ने 1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों में लिखा है – ‘कम्युनिज्म को इसकी चेतना है कि वह मनुष्य का पुनः एकीकरण या मनुष्य की स्वयं उसके पास वापसी है, मनुष्य के आत्म-निर्वासन का अतिक्रमण है….और…. इस प्रकार मनुष्य के लिए मनुष्य के द्वारा ही मानवीय सत्व का वास्तविक अर्थ में अधिग्रहण है।’ उनकी निगाहों में कम्युनिज़्म यह है – ‘यह मनुष्य और प्रकृति के बीच और मनुष्य और मनुष्य के बीच के द्वंद्व का वास्तविक समाधान है; स्वतंत्रता और आवश्यकता के बीच, व्यष्टि और प्रजाति के बीच के संघर्ष का वारतविक समाधान है।’ वर्ग-संघर्ष चल रहा हो या नहीं, इतिहास के किसी भी दौर में मनुष्य की पूरे तौर पर वापसी, उसके अधूरेपन का खात्मा, यह कल्पना हमेशा ही आदमी की, जो है, उससे बेहतर की ओर जाने की प्रेरणा देती रहेगी। वास्तविकता कितनी ही कठिन क्यों न हो, यह स्वप्न उसका सामना करने की शक्ति प्रदान करता रहेगा। मार्क्सवाद इस रूप में ही सार्थक बना रह सकता है कि वह इस चेतना को बनाए रखे।

शमशेर कहते हैं – ‘मार्क्सवाद के मूल में व्यक्ति की जो सकारात्मक आज़ादी का पक्ष छिपा है, उसे ठीक से समझे बिना मनुष्य की बराबरी के समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।’ पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में हुई तब्दीलियों को ध्यान में रखें, तो यह कथन बहुत सार्थक हो जाता है। व्यक्ति की सकारात्मक आज़ादी से क्या मतलब है? पूँजीवादी समाज में यह किस तरह गुम हो जाती है? आदमी के महसूस करने की ताकत यदि कुंद कर दी जाए तो वह कई तरफ से गुलाम हो जाता है। पूँजीवादी समाज में पूरा समाज ही उपयोगितावाद का कैदी होता है

मार्क्सवाद, दरअसल, उपयोगितावाद से मुक्ति का कार्यक्रम है। लेकिन अगर कम्युनिस्ट पार्टियों की शासन-व्यवस्था में व्यक्ति की उन्हीं आंतरिक क्षमताओं, उन्हीं संवेदनाओं, उन्हीं कल्पनाओं को स्वतंत्रता दी जाएगी, जो उनके हिसाब से पार्टी के लिए, समाज के लिए, वर्ग-संघर्ष को आगे ले जाने के लिए, समाजवाद को दृढ़ करने के लिए उपयोगी हैं और अगर यहाँ बाकी भावनाओं, संवेदनाओं को अनुपयोगी, इसलिए अंधेरे कोने में डाल दिए जाने लायक मान लिया जाएगा तो यह व्यवस्था भी अंततः मानव-विरोधी ही साबित होगी। मार्क्सवाद को ‘सर्विस मैनुअल’ में बदलते ही मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का एक ‘मैनुअल’ तैयार किया जाने लगा और संवेदनाओं की काट-छाँट शुरू हो गई। इस तरह, समाजवाद के उन्मुक्त विचार को विचारधारा के ताबूत में बंद कर दिया गया। समाजवादी विश्व में जो परिवर्तन होने वाले थे, शमशेर को एक सच्चे मार्क्सवादी की तरह उनका पूर्वाभास था, ‘कम्युनिस्टों के पुराने, हठी और पत्थरनुमा चरित्र के विरुद्ध जनता कहीं न कहीं विचारों की मुक्ति चाहती है, जीवन में सकारात्मक, संवेदनात्मक आज़ादी की माँग करती है।’

अर्ट फिशर ने लिखा है कि पत्थर हो चुकी विचारधाराओं के विरुद्ध उत्पन्न होने वाले नए विचार उथल-पुथल मचा देते हैं, विरोध को जन्म देते हैं और अंततः जनता को अपनी गिरफ्त में लेकर एक वास्तविक शक्ति में परिणत हो जाते हैं। शमशेर ने जनता के अंदर विचारों की ही नहीं, जीवन में संवेदनात्मक आज़ादी की भूख को भी बिल्कुल सही पहचाना था। ऊपर से इस बात में कोई खासियत नज़र नहीं आती, लेकिन जब हम अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी पर थोड़ी गहराई .से नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि दिन-भर में हमें न जाने कितने प्रकार के अनुभव होते हैं, यह दुनिया, यह प्रकृति कितने रूपों में हमसे टकराती है, लेकिन हम उन सारे अनुभवों, उन सारी मुठभेड़ों का अर्थ नहीं समझ पाते। रास्ता चलते किसी नन्हे बच्चे की आँखों में भरी शरारत, खास ढंग से किसी पेड़ की डाली का हिल उठना, किसी कमज़ोर बूढ़े या औरत का थककर अचानक ही सड़क पर ही बैठ जाना और अपने ही हाथों अपने पाँव दबाने लगना – जाने कितनी ही चीजें हमारे आगे से हवा की तरह गुज़र जाती हैं, हमें छू नहीं पातीं, हम खुद उन पर ध्यान देने के लिए मुक्त नहीं होते।

संवेदनाओं की समृद्धि और संवेदनाओं की आज़ादी का गहरा रिश्ता है। शमशेर आजीवन मार्क्सवाद के पक्षधर इसीलिए बने रहे कि वह मानवीय संवेदनाओं के उपयोगिता के दायरे से अलग, उनकी स्वतंत्र सत्ता में स्वीकार करने के प्रति आग्रहशील हैं और संघर्षशील भी। इस रूप में देखें तो 1936 में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ के नेतृत्व में चलने वाली प्रगतिवादी धारा की सौंदर्य-दृष्टि से वे उसी तरह अलग दिखलाई पड़ते हैं जैसे मुक्तिबोध। इस भिन्नता को इन दोनों से कहीं ज्यादा प्रगतिवाद के सिद्धांत- निर्माताओं ने चिह्नित किया।

सकारात्मक मनुष्य, सकारात्मक मूल्य और उनकी उपयोगिता उन पर इतनी हावी थी कि इनसे अलग जो कुछ भी दिखा, उसे गैस्ज़रूरी और पतनशील तक घोषित कर दिया गया। ‘समीक्षा की समस्याएँ ‘ नामक निबंध में मुक्तिबोध ने इस स्थिति को यों व्यक्त किया – ‘प्रगतिवादियों के व्यवहार से यह सूचित होता (था) कि वे मुक्ति-संघर्ष, राष्ट्र-प्रेम, प्राकृतिक सौंदर्य, नारी-सौंदर्य, यथार्थ आलोचना-भावना, आशा, उत्साह तथा तत्समान अन्य भावों को प्रगतिशील समझते हैं। किंतु शेष सब भावनाएँ, जैसे भयानक ग्लानि, निराशा-अनाशा, वैफल्य तथा इसी श्रेणी की अन्य सभी भावनाएँ प्रतिक्रियावादी हैं।’ इस प्रवृत्ति पर अफसोस ज़ाहिर करते हुए वे कहते हैं कि चूंकि मार्क्सवादी दर्शन यथार्थ-विकास का, मानव-संज्ञा के विकास का दर्शन है, इसलिए उसके लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और मूलभूत है ‘जीवन-तथ्यों की वास्तविकता।’

वे कहते हैं कि साहित्य के प्रश्न मूलतः जीवन के प्रश्न होते हैं। ‘अतः लेखक के वास्तविक मनोवैज्ञानिक-संवेदनात्मक जीवन और उसकी अभिव्यक्ति के प्रश्न, वस्तुत: उसके जीवन के प्रश्न होते हैं।’ ज़रूरी नहीं कि एक आर्थिक वर्ग में रहने वाले या एक ही सामाजिक उद्देश्य को समर्पित दो व्यक्तियों के मनोवैज्ञानिक-संवेदनात्मक जीवन भी एक से हों। इसलिए ज़रूरत हो जाती है – दूसरे की संवेदनाओं के प्रति सहिष्णुता और सम्मान की भावना की। शमशेर की तरह मुक्तिबोध भी विचारों के विकास, विचारों की मुक्ति की ज़रूरत महसूस करते हैं।

कहते वे इसे इस रूप में हैं, ‘विचारधारा या भावधारा, सिद्धांत-व्यवस्था अर्थात् ज्ञान-व्यवस्था से प्राप्त सत्य, मूलतः यथार्थ का निकटतम चित्र है। किंतु और निकट पहुंचने की आवश्यकताएँ और संभावनाएं बढ़ती ही जाती हैं। इसलिए सैद्धांतिक विकास भी आवश्यक होता है।’ यहाँ मार्क्सवाद को विचारधारा से भिन्न रूप में ग्रहण करने पर बल है। लेकिन आरंभिक प्रगतिवाद, उस दौर के अनुरूप ही, मार्क्सवाद की एक सिद्धांत-व्यवस्था के अनुकूल संवेदन-व्यवस्था तैयार करके उसी कसौटी पर रचनाओं को परखता भी इसका नतीजा यह हुआ, जैसा इसी लेख में मुक्तिबोध ने लिखा, ‘यह भी पाया जाता है कि हम लोग, अपने से जो भिन्न है और भिन्न प्रकार के मनोविज्ञान को प्रदर्शित करता है……..उसके बारे में यों ही विरोध भाव बना लेते हैं……हम उसकी रचनाओं की उपेक्षा कर जाते हैं, यद्यपि उसकी रचनाएँ उपेक्षा-योग्य नहीं होतीं।’

शमशेर बहादुर सिंह को प्रगतिवादियों ने प्रतिपक्षी तो नहीं समझा, लेकिन अपने से भिन्न प्रकार के मनोविज्ञान को अभिव्यक्त करने वाली उनकी रचनाओं को बर्दाश्त करने में उन्हें खासी तकलीफ होती रही। अपने जीवन में मार्क्सवादी मूल्यों को स्वीकार करके चलने वाले रचनाकारों में सबसे अधिक संघर्ष मुक्तिबोध और शमशेर को ही करना पड़ा क्योंकि इनका ढंग बिल्कुल निराला था। इन दोनों को दुश्मन नहीं, लेकिन दुश्मन को मदद पहुँचाने वालों रूप में सशंकित भाव से देखा जाता रहा। मुक्तिबोध के विस्फोटकारी सामाजिक, राजनीतिक स्वर ने और उनके भीषण सैद्धांतिक संघर्ष ने मार्क्सवादियों के बीच उनके प्रति विरोध को तो कम किया, लेकिन शमशेर के संपूर्ण कृतित्व को स्वीकार करने में हिचकिचाहट बनी हुई है। इसकी वजह है – भावबोध या सौंदर्यबोध के स्तर पर विचारधारात्मक जड़ता का बने रहना। इसका प्रमाण यह है कि शमशेर को मार्क्सवादी सिद्ध करने के लिए ‘समय साम्यवादी’ या ‘लेकर सीधा नारा’ जैसी कविताओं का ही उदाहरण देना पड़ता है। ‘जनाधार’ और ‘भनाधार’ वाले प्रगतिवादी दौर का विभाजन, जिसे प्रगतिवाद विरोधियों ने भी स्वीकार कर लिया, अभी भी बना हुआ है। इसे ‘सापेक्ष ‘ के ‘शमशेर अंक’ में नागार्जुन, डॉ.रामविलास शर्मा, डॉ. शिवकुमार मिश्र आदि के विचारों को देखकर भी समझा जा सकता है। उनके संपूर्ण कृतित्व को अलग-अलग खानों में बाँटने की प्रवृत्ति नागार्जुन के इस कथन में है .यों करें (कहें?) कि 60 परसेंट प्रयोगवादी, 20 परसेंट प्रगतिशील हैं, और 20 परसेंट जीवनधर्मी……कुछ इधर-उघर और भी हैं।’ यह दिलचस्प खानाबंदी प्रगतिशीलों ने ही की हो, ऐसा नहीं। शमशेर बहादुर सिंह को समझने और पसंद कर पाने के लिए कविता पढ़ने की कुछ वैसी आदत विकसित करने की जरूरत है जिसके अभाव का अफसोस ‘दूसरा सप्तक’ के ही कवि रघुवीर सहाय की इन पंक्तियों में है।

मेरी कविता में ऊषा के
भीतर मेरी मृत्यु लिखी
चिड़िया के भीतर है मेरी
राष्ट्रभावना, बच्चों में दुख।
माना सब कुछ गबड़ सबड़ है
पर मैंने यों ही देखा था…


कवि ने जिस तरह चीज़ों को देखा था, लोग उस तरह उसकी कविताओं को पढ़ते नहीं, पढ़े तो / उसमें कुछ चटपटा नहीं रह / जाता, बच बचता विषाद है।’

शमशेर बहादुर सिंह के लिविंग प्रिंसिपल की पहचान उनके मार्क्सवादी नज़रिए को समझे बिना संभव नहीं। ऐसा नहीं था कि कवि-जीवन की शुरूआत से ही वे मार्क्सवादी थे। ‘दूसरा सप्तक’ के अपने वक्तव्य में उन्होंने अपने शुरूआती दौर के बारे में लिखा है, ‘.
सन 38-39 …. से सन 42 तक मेरा रुझान ज्यादातर क्या बिल्कुल अपनी ही दुनिया के अंदर खिंचते चले जाने की तरफ रहा।’ रंजना अरगड़े से बातचीत में उन्होंने कहा, ’37-38-39 उस समय की मेरी कविताएँ (अधिकांश) बड़ी Grim होती थीं। मेरे जीवन में कुछ उल्लास नहीं रह गया था।’ उल्लास न रह जाने का कारण था – जीवन में भयानक अकेलापन। उनके भाई डॉ. तेज बहादुर चौधरी ने उन पर लिखे अपने संस्मरण में छुटपन में माँ के गुज़र जाने, फिर पिता द्वारा दूसरा विवाह कर लेने के बाद उनमें पुत्रों के प्रति आ गई उपेक्षा और घर से अलग हॉस्टल की जिंदगी की चर्चा की है। अपनों के स्नेह के अभाव के साथ-साथ बाकी अभाव भी थे। इस जीवन की चर्चा करते हुए रंजना अरगड़े को शमशेर ने बताया, ‘मैं अपने संसार में रहा। मेरी अपनी जिंदगी बन गई।’ यह ज़िंदगी कला की थी, साहित्य की थी।

‘यात्रा’ नामक गद्य-खंड में शमशेर की इस मनःस्थिति की सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है – ‘मैं गरीब, मगर अपने दीन वस्त्रों में, अपनी बाह्य दशा में संतुष्ट। कारण कि काव्य और कला और नए प्रेम के हरिताभ सपनों और कुसुमित आशाओं और सुनहरी छाया में भ्रमा हुआ मेरा मन, सुख और पीड़ा से एक साथ विह्वल। अपना परिवार अपने चारों ओर केवल मूक वृक्षों और बादलों, और शाम के प्रहरों और चाँदनियों में देखता।’ इस मनोदशा में मनुष्य की दुनिया निजी संसार से एकदम अलग ही जाति की मालूम पड़ती थी। पत्नी की मृत्यु ने इस मनोदशा को और गहरा कर दिया। फिर तो कला की दुनिया ही अपनी दुनिया लगने लगी, ‘केवल एक पूर्ण कलित कला की आभा मेरी दौलत, मेरी निधि और मेरी अपनी गति, प्रेम और कला-साधना के संकेतों से संचालित।’ इस उद्धरण में प्रेम शब्द पर ध्यान देने की ज़रूरत है। बाद में खुद शमशेर सचेत भाव से अपने इस दौर का विश्लेषण करते हुए खुद को ‘मध्य वर्ग का करैक्टर’ मानकर इसे एक स्तर पर नरेन्द्र और बच्चन के अभाव’ और ‘सोशल घुटन’ से भी जोड़ते हैं।

लेकिन अपनी इस ज़िंदगी को एक हद तक ही पलायन कहते हैं क्योंकि जिंदगी के कुछ ज्यादा टूटे-फूटेपन और उखड़े बहाव की वजह से जीवन में खामोश लेकिन तेज़ भंवर बन जाते हैं। इस तरह, एकाकीपन शमशेर के लिए चुनाव की वस्तु नहीं रह गया था। एकाकीपन शमशेर के लिए उतनी ही ठोस हकीकत था, जितनी उनके लिए मौत थी। एक दूसरे ढंग से कहा जा सकता है कि मौत उनकी जिंदगी का नक्शा बना रही थी। शमशेर के भाव-जगत के सदस्य वे लोग थे जो अब इस जिंदगी में नहीं रह गए थे। जैसे अंधकार में आँखों के कारगर न रह जाने पर शेष इंद्रियों का बोध अत्यंत तीक्ष्ण हो उठता है, वैसे ही अकेलेपन ने प्रकृति, पृथ्वी और समाज से खुद को जोड़ने वाले तंतुओं के प्रति शमशेर की संवेदनशीलता को अत्यंत तीव्र कर दिया था। उनकी रचनाओं के विषाद-भरे स्वर की विशिष्टता को पहचानना उनके इस जीवन-तथ्य को समझे बिना संभव नहीं। कारण यह है कि उनके संपूर्ण काव्य में जिस गहन वेदना की अंतर्धारा प्रवहमान है, वह उनकी वास्तविक जीवन- परिस्थितियों से उत्पन्न है।

‘समीक्षा की समस्याएँ’ शीर्षक लेख में मुक्तिबोध ने लिखा है – ‘एक विशेष जीवनावस्था की विशेष परिस्थितियों में और उन परिस्थितियों की प्रायः नित्यता की स्थिति में, एक विशेष प्रकार की रूप-शैली की संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ अपनी तीव्रतम बारबरता स्थापित कर लेती हैं। इसीलिए मुक्तिबोध रचनाकार के वर्ग के साथ-साथ उसके परिवार, परिवेश, परिस्थिति, व्यक्तित्व और मनोरचना के प्रति दिलचस्पी रखना ज़रूरी मानते हैं। उसकी रचनाओं को समझने के लिए वे लेखक के व्यापक अध्ययन को भी वांछनीय मानते हैं। शमशेर के व्यक्तित्व-निर्माण में और बातों के साथ-साथ उनका यह एकाकीपन केंद्रीय स्थान रखता है। ऐसा नहीं कि ‘सोशलिज्म’ के विचार से संपर्क तथा कम्युनिस्ट पार्टी के संसर्ग के कारण यह भाव तिरोहित हो गया हो। दूसरा रूप इसने ज़रूर ग्रहण कर लिया था, जैसा कि 1963 की उनकी डायरी के इन वाक्यों से पता लगता हैं, ‘सहज वार्तालाप, सहज संग मेरा खो गया है। मेरा अकेलापन मेरे युग में अकेलापन जैसा हो गया है। अपने अकेलेपन को अपने युग के साथ जोड़कर एक बहुत ही जटिल एकाकीपन की रचना उन्होंने अपने लिए की थी। यह उन्हें अपने समकालीनों में, उनके भावों, उनके विचारों में घुल-मिल जाने से कहीं न कहीं रोक देता है, लेकिन ज़माने से काट नहीं देता पूरी तरह। उनका यह विश्वास भरा वाक्य इस प्रमाण है – ‘फिर भी मैं युग की नब्ज़ को शायद ज्यादा अच्छी तरह पहचानता हूँ।

इस अकेलेपन में रहते हुए स्नेह, प्रेम की तलाश भी शमेशर में लगातार दिखलाई पड़ती है। मार्च, 1963 की डायरी का एक हिस्सा है – कुछ अपने लिए. स्नेह के क्षण के अलावा (अगर निर्मल और सहज है) और कुछ नहीं चाहता। वह क्षण क्या काफी नहीं।… ‘यह स्नेह का क्षण मिलना मुश्किल था, सितंबर 1962 की डायरी की ये तड़प भरी पंक्तियाँ इसी ओर इशारा करती हैं, ‘दूसरों के लिए ललक कर बढ़ने, कुछ करने ही में क्या है? इसमें सिवाय हवा बनने के और कुछ हासिल नहीं चाहता हूँ मैं एक तोल-मशीन की झिरी होऊँ।’ पूरा माहौल, जो उन्हें चारों ओर से घेरकर दबा रहा था, भरोसे से इतना खाली हो चुका था कि वे तोल-मशीन की तरह विश्वसनीय बन जाना चाहते थे। वे आगे लिखते हैं, ‘मुझे किसी से कुछ नहीं कहना चाहिए। यह भी नहीं चाहता कि मुझरो कोई कुछ चाहे। कोई रोक नहीं। पर मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए’ दूसरों से कोई अपेक्षा न करने का यह भाव बाद में भी बना रहता है।

मार्च, 1967 के एक पत्र की ये पंक्तियाँ 56 साल की उनकी जिंदगी का अनुभव बताती हैं- ‘दुनिया में कोई किसी को प्यार-व्यार नहीं करता । (यह मैं अपनी कह रहा हूँ…..) …..मुझे…..कभी किसी से कोई उम्मीद नहीं रही है। लेकिन अगर उनकी दुनिया उम्मीद से खाली होती तो, शायद मार्बिड या रुग्ण होकर रह जाती। दूसरों से उम्मीद न रखने पर भी एक दूसरा अहसास उनमें था, जो बड़े ही मार्मिक ढंग से यों व्यक्त हुआ है – ‘मगर मैं उसे कतई नहीं जानता…. आगे टैगोर के हवाले से प्रेमी का आदर्श रूप खींचते हुए वे कहते हैं कि वह ऐसा होना चाहिए कि जिसे वह चाहता है, उस पर कोई दबाव न डाले, उसे पूरी तरह आज़ाद छोड़ दे। उसे ऐसा होना चाहिए, ‘इतना नि:संग, इतना बेगरज, इतना तटस्थ और फिर भी हमारे रग-रग के सुख और दुख से वाकिफ। वाकिफ है मगर हमें यह जानने नहीं देता कि वह वाकिफ है। न हमसे मिलने का आग्रह, न हमें अपनी तरफ खींचने की रत्ती भर कोशिश’ प्रेम का यह ऐसा उच्चादर्श है, जो औरों को बकवास लग सकता है – इतना अहसास शमशेर को भी है। और वे यह भी जानते हैं कि जिस दुनिया में वे रह रहे हैं, यहाँ इस आदर्श को लेकर चलने से ठगे जाने के खतरे ज्यादा हैं। वे खुद किसी पर दबाव डालना न चाहें, लेकिन ऐसा लगता है, जैसे, ‘….कहीं मैं चेखोव का ऐसा पात्र हूँ जो खुद कुछ नहीं, जिसे दूसरे हर वक्त अपने साँचे में ढालते रहते हैं। वे पूछते हैं ‘क्या यही जिंदगी है?’ इसलिए शमशेर ‘एक अदृश्य कवच-निरहंकार, तटस्थ निर्मलता का’ चाहते हैं, जिसे पहनकर वे इस क्रूरता-भरे जीवन का सामना कर सकें। आश्चर्य नहीं कि तरुणावस्था में जिस कला ने उन्हें अपने अंदर खींचकर अकेलेपन से मुक्त किया, विश्व से जुड़ने का रास्ता दिखाया, वह आगे भी उनके लिए वैसी ही बनी रही, ‘अगर्चे कोई चीज़ बजाहिर मुझे बाँधती. नहीं : सिवाय शायद कला की सच्चाई के जिंदगी को मैं शायद उसी के सहारे, उसी की परतों में टटोलता, समझता, झेलता चलता आ रहा हूँ।’ अपनी चेखोवियन जिंदगी और उसकी नियति को निरहंकार तटस्थता के साथ देखने की कूवत शमशेर ने कहाँ से पाई, जिससे वे खुद किनारे पर खड़े होकर अपने आपको, अपने रिश्तों को निःसंग भाव से देख पाते थे? वेदना के साथ-साथ यह निःसंगता उनकी भावुकता को महज उन तक नहीं रहने देती, उसे ऑसुओं से लथपथ नहीं करती, उसमें एक विलक्षण कठोरता भर देती है।

शमशेर चाहते तो जीवन भर अकेलेपन के गीत गाते रह सकते थे। लेकिन जो कला की सच्चाई उन्हें बांधती थी, वह अकेलेपन में गर्क होने की जगह संपूर्ण प्रकृति और समाज से जुड़ने का आह्वान करती थी। जैसा उन्होंने लिखा है, वे अस्तित्ववाद के संपर्क में भी आए और सुर्रियलिज़म ने भी उन्हें प्रभावित किया, पर जल्दी ही वे इनके असर से निकल आए। अपने आपको टूटते हुए मध्य वर्ग का एक सदस्य मानकर, अपने बारे में ‘उदिता’ की भूमिका में उन्होंने लिखा – ‘….. एक तिनके का सहारा फिर सोशलिज्म ही आड़े आया।’ यह एक आकर्षक और उत्तेजक विचार था, जो पूरे व्यक्तित्व पर गहरा असर डालने की ताकत रखता था। इसीलिए शमशेर के लिए यह एक व्यक्तिगत और रचनात्मक अनिवार्यता बनकर सामने आया। मलयज ने अपने निबंध ‘बात बोलेगी पर कब?’ में उन्हें उद्धृत किया है, ‘.. मार्क्सवाद मेरी ज़रूरत थी, सच्ची जरूरत, उसने मुझे मार्बिड और रुग्ण मनःस्थिति से, जिसमें कि मुझे डर था कि पड़ा रहकर मैं बिल्कुल डूब ही जाऊँगा, सपाट हो जाऊँगा, मुझे उबारा।’ शमशेर ने कहा, ‘वह (मार्क्सवाद) मेरी एक रूहानी ज़रूरत की पूर्ति करता था।

मार्क्स ने अपने अध्ययन में बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि मनुष्य दूसरे जानवरों से अलग और विशिष्ट इस अर्थ में है कि उसमें अपने आपसे बाहर निकलने की क्षमता है। वह अपने शरीर को बचाए रखने और अपनी प्रजाति में वृद्धि के काम के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा करता है, जिसका इन ज़रूरतों से सीधे कोई संबंध नहीं है। उसके स्वभाव .के इस पक्ष को, कठोर अर्थ में आवश्यकता के दायरे से बाहर सृजन की उसकी क्षमता और प्रवृत्ति को मार्क्स ‘सौंदर्य ‘ के नियमों से परिचालित मानते हैं। कला इसी क्षेत्र में पड़ती है। पूँजीवाद मनुष्य के इस अतिरिक्तपन को सीमित करता जाता है, उसके लिए अवसर घटाता जाता है और इसीलिए वह मानवीयता का पोषक नहीं रह जाता।

मनुष्य के इस अतिरिक्तपन की रक्षा और उसका विकास एक मानवीय कार्यक्रम है और यह मार्क्सवाद के मूल में है। शमशेर के सामने भी सवाल यही था – चारों ओर अबाध फैले जीवन की पूरी शक्तियों और सारे सौंदर्य को कलाकार मुक्त रूप से कैसे दर्शा सकेगा? ‘ वे कहते हैं – ‘यहीं से उठती है सच्चे प्रगतिशील साहित्य की बहस और उसकी जिम्मेदारियाँ। ‘ जीवन की सारी शक्तियाँ, जिनमें मनुष्य की समस्त आंतरिक क्षमताएँ भी शामिल हैं, और चारों तरफ फैला हुआ सौंदर्य – यह है कलाकार का विचरण-क्षेत्र । समस्या इसकी मुक्त रूप से अभिव्यक्ति की है। मार्क्सवाद कला के लिए और कलाकारों के लिए इसीलिए महत्वपूर्ण हो उठता है कि वह कलाकार की इस समस्या को एक ठोस जीवन- यथार्थ की समस्या के रूप में उठाता है, कलाकार के संघर्ष को एक वास्तविक सामाजिक संघर्ष मानता है और इसे शेष सामाजिक प्रश्नों-संघर्ष के साथ जोड़ देता है। वह सुंदर को उपयोगी बनाने का उद्यम है।

अफसोस कि हिंदी के प्रगतिवादी आंदोलन ने इस बहस को एकांगी तरीके से उठाया, भले ही उसके तात्कालिक कारण रहे हों, जिन्हें रणनीति के लिहाज से सही भी ठहराया जाए, लेकिन शमशेर जैसे कलाकार ने मार्क्सवाद के मूल स्वप्न को पहचान लिया था, मनुष्य की सौंदर्य- चेतना से उसकी प्रतिबद्धता को समझ लिया था, इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी से अलग होने के बाद भी, जीवन के बिल्कुल आखिरी सालों में उन्हें अपनी कला-चेतना और मार्क्सवादी चेतना में कोई अंतर्विरोध नहीं मालूम पड़ता था। उन्हें इस बात पर ताज्जुब होता था कि आलोचक उनमें किस तरह यह अंतर्विरोध देख लेते हैं। जैसा हम पहले ही देख चुके हैं, हिंदी आलोचकों के बीच इसे लेकर कमोबेश सहमति है कि शमशेर का एक पक्ष मार्क्सवादी है, दूसरा नहीं। स्वाभाविक ही है कि मार्क्सवादी आलोचना उनके मार्क्सवादी पक्ष को तरजीह देना चाहे। डॉ. शिवकुमार मिश्र कहते हैं,

‘सहज रूप से……. विचारधारा के स्तर पर जो रचनाएँ हैं, उनको हम ज्यादा स्थान देते हैं।’ गैर- मार्क्सवादियों में तो यह धारणा बद्धमूल है, जैसा अज्ञेय, साही या दूसरों के लेखन से मालूम पड़ता है कि वे शमशेर के यहाँ मार्क्सवाद को हाशिए पर पाते हैं। दोनों तरह के विचारकों के साथ संकट यह है कि वे शमशेर के मार्क्सवाद का प्रमाण उनकी कविताओं के विषयों से ही खोजते हैं। चूँकि उनके यहाँ राजनीति, समाज को स्थूल रूप से विषय बनाकर लिखी गई कविताएँ कम मिलती हैं, इसलिए उनकी कला-दृष्टि और जीवन- दृष्टि में अनिवार्य असंगति मान ली जाती है। शमशेर के लिए मार्क्सवाद एक ज्यादा बड़ी जरूरत बनकर आया था। वह चारों तरफ बिखरे पड़े सौंदर्य की, जो हमें अपनी जकड़ी जिंदगी में उपयोगी नहीं जान पड़ता, सार्थकता बताता था। उनके लिए, उन्हीं के शब्दों में कहें तो, मार्क्सवाद ‘सघनतम की आँख’ बनकर उभरा। दूसरे शब्दों में उसने उन्हें ज्यादा व्यापक और गहन अर्थ में सौंदर्यवादी बनाया।

 उर्दू कविता (ग़ज़ल) और शमशेर

सौंदर्यवाद और रीतिवाद में गहरा रिश्ता है। शमशेर के बारे में एक धारणा-सी प्रचलित हो गई है कि उन पर उर्दू की रीतिवादी कविता का गहरा असर था। डॉ.रामविलास शर्मा उनमें रूमानियत और रीतिवाद का संगम देखते हैं। रूप, रस, गंध के प्रति उनकी गहरी संवेदनशीलता को ‘मोह’ की संज्ञा देते हैं और बताते हैं कि हालांकि शमशेर ने पंत और निराला को विशेष रूप से पढ़ा, लेकिन ‘इनका प्रभाव उनके रीतिवादी संस्कारों को निर्मूल नहीं कर सका।’

शब्दों के माधुर्य, पूर्ण प्रकारात्मक न्यास तथा सुरुचिपूर्णता के प्रति उनके आग्रह को उर्दू ग़ज़लियत से जोड़ते हुए इसे भी उनके रीतिवादी रुझान का सबूत माना गया है। ‘किस तरह आखिर मैं हिंदी में आया’ शीर्षक निबंध में शमशेर लिखते हैं – ‘ग़ज़ल मेरी भावुकता और आंतरिक अभावों की, अपने तौर पर भली-बुरी एक मौन साथी थी।’

शमशेर के लिए ग़ज़ल क्या है, यह बताने के लिए डॉ.रामविलास शर्मा ने उन्हें ही उद्धृत किया है, ‘किसी अकेले खामोश गुल के बिखरते हुए रंग में विभोर होकर जीवन-सुख की बहार और खिजां के दर्द से परिपूर्ण हो उठना बस यही संकेत तो ग़ज़ल का एक शेर है।’ यह जानना ज़रूरी है कि डॉ.शर्मा ने वाक्य अधूरा उद्धृत किया है। यह वाक्य शुरू इस प्रकार होता है, ‘एक संकेत में समाज और मानध-हृदय और उसके अनंत की बातें कह-सा जाना, और उसमें कभी-कभी बीसवीं का भ्रम खोजने लगना, अपना इन सबसे दिल हटाकर… ।

इन पंक्तियों के बाद वाक्य का वह हिस्सा शुरू होता है, जिसका इस्तेमाल शमशेर की रुमानियत को सिद्ध करने के लिए डॉ.शर्मा ने किया है। कहने की ज़रूरत नहीं कि जब वाक्य को पूरेपन में एक-साथ पढ़ा जाता है, तो शमशेर के लिए ग़ज़ल क्या है, यह ज्यादा सही ढंग से स्पष्ट हो जाता है। कवि की निगाह में शायरी की खूबी यह है .कुछ समझ-बूझकर बहकाना और बहक जाना – यही तो शायरी है। इसमें बहकाने और बहक जाने को गुण बताना जितना अर्थपूर्ण है, उतना ही उसके आगे समझ- बूझकर लगाना सार्थक है।

उर्दू कविता, जिसने शमशेर के संस्कारों को ढाला है, एक रूपक में उनके सामने आती है, ‘…मर्माहता विषाद-नगरी दिल्ली की भोली-बालिका…….स्वर कुछ बचपन से ही करुण…..पर आज उसका यौवन-स्वर बहुत गंभीर बहुत कोमल तथा मधुर – किंतु बहुत गंभीर हो गया है।’ उनके सामने उर्दू कविता का पूरा विकास है। वे उसकी उस विशिष्टता से परिचित हैं, जिसके चलते वह महत्वपूर्ण है। ‘उर्दू कविता’ नामक लेख में इस विकासक्रम की छानबीन करते हुए वे आधुनिक उर्दू कविता के बारे में यह विचार व्यक्त करते हैं, ‘युग-परिवर्तन के साथ-साथ सुसंस्कृत होकर ग़ज़ल में आज प्रत्येक विषय का समावेश हो गया है, किंतु है यह पूर्व-परिचित ‘शृंगारिक लक्षण के आधार पर ही, चाहे वह नाम-मात्र को ही क्यों न हो, तथापि उसका संकेत- व्यापार उतना गूढ हो गया है और अनुभूतियाँ ऐसी सूक्ष्माभिव्यक्ति ढूँढती जान पड़ती हैं कि प्रत्येक विशिष्ट कवि एक प्रकार के आध्यात्मिक रंग में रंग गया-सा दिखाई पड़ता है।’

शमशेर की निगाह में ग़ज़ल की परंपरा का महत्वपूर्ण पक्ष है – शब्द-संगठन और लोच, मुहावराबंदी और सफाई का महत्व बढ़ाकर क्लिष्टता से खुद को बचाना। दूसरी चीज़, जो उन्हें खींचती है, वह है इसकी शुद्धता और सुडौलपन और इसकी वह शोखी, जिसका कहीं कोई जवाब नहीं। डॉ. शर्मा का यह विचार है कि हिंदी में तो छायावादी काव्य ने रीतिवादी परंपरा को छिन्न-भिन्न कर” दिया, लेकिन चूंकि उर्दू में रीतिवादी काव्य की जड़ें गहरी थी, इसलिए वहाँ इतना व्यापक परिवतर्न नहीं हुआ। बीसवीं सदी में उर्दू गद्य और शायरी के विकास को जिसने भी ध्यान से समझा है, वह 1937 या 1938 में शमशेर द्वारा लिखे गए निबंध की इस बात से सहमत होगा कि हालांकि उर्दू कविता की पिछली शताब्दी का पूर्वार्द्ध रीतिकाल ही था, पर बाद की उर्दू कविता के भाव-संसार की सीमा ‘गुल’, ‘बुलबुल’, ‘शमा’, ‘परवाना’ आदि शब्दों के खूटों से स्थिर करना इनके गूढ़ अर्थ-संकेतों की व्यापकता को समझने से इन्कार करना है। उर्दू भाषा और उर्दू कविता से शमशेर के संबंध पर कुछ विस्तार से विचार करने का कारण यह है कि उनके कवि-संस्कार के निर्माण में इनका काफी योगदान है। शमशेर को उर्दू कविता किन वजहों से अपनी ओर खींचती है – यह जानना उचित ही होगा।

डॉ.शर्मा ने ‘अच्छे गद्य – की पहचान नामक लेख में लिखा है कि शमशेर जानते हैं कि उर्दू में रीतिवाद के अलावा बहुत कुछ है, फिर भी ‘रीतिवाद उन्हें मोहता है।’ जरा देखें कि उर्दू काव्य में क्या कुछ है, जो शमशेरं को पसंद है। नवयुक इकबाल की बेताली, जोश और तड़प, उसका स्वदेश-प्रेम, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वतंत्रता के लिए उसकी महत्वाकांक्षा, एकता और प्रेम की विश्वविजयिनी शक्ति और चमत्कार – ये सब उन्हें खींचते हैं। इकबाल में शमशेर को ‘प्रेम- साधना और आत्म-विश्वास और आत्म-ज्ञान का संदेश’ सुनाई पड़ता है। ‘उर्दू कवयित्रियाँ’ शीर्षक निबंध में वे बताते हैं कि उर्दू शावरी में ये एकदम अपने निजी सुख-दुख के निजीपन को भुलाकर एक सामाजिक आदर्श पर हमारी भावनाओं को उठा ले जाती हैं, उसी का चित्रण हमें मिलता है…..। इस चित्रण में परोक्षता, संकेत-व्यापार आदि मुख्य हो गए हैं। लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ‘उसमें क्या मानव-हृदय का स्वर मद्धिम हुआ? ‘

शमशेर पर उर्दू कविता इस कारण से असर डालती है कि उसमें कला अनुप्राणित करने वाला ‘मनुष्य का निजत्व’ स्वाभाविक रूप से मिलता है, विनष्ट अथवा अप्राप्य सुख के ध्यान की विह्वलता मिलती है, तो आनंद की शांति और मोक्ष के लिए उन्मन मनुष्य की शक्तियों की कार्य संलग्नता और गति का व्यक्त राग भी यहाँ सुनाई पड़ता है। उन्हें गालिब अपनी व्यापकता के केंद्र में एक बड़ा हीरो नज़र आता है तो इसलिए कि वह हर बात में अपने व्यक्तित्व को सामने रखता है। उन्हें गालिब को पढ़ते हुए यह देखकर हैरानी होती है कि ‘उसमें आज के आधुनिक साहित्यकार की-सी पूरी तड़प और वेदना के बीच एक तटस्थ यथार्थवादी दृष्टि है।’ गालिब की दूसरी विशेषता, शमशेर के लिए, यह थी कि उनकी दिलचस्पी किसी प्रकार के आदर्शवाद में नहीं थी ‘थी तो केवल इंसान में। उसके विडम्बनापूर्ण मगर हौसलेमंद जीवंत नाटक में।’ शमशेर ने अपने इस तरह के निबंधों में जो शेर उद्धृत किए हैं, उनसे उनकी पसंद और मोह का पता चलता है। वे उर्दू कविता के असर में थे तो इसलिए कि वह इंसान के विडम्बनापूर्ण मगर हौसलेमद जीवंत नाटक की सूक्ष्माभिव्यक्ति थी, उसके रीतिवादी सौंदर्यवाद के चलते नहीं।

आत्म-सत्य बनाम समाज-सत्य

उर्दू कविता से शमशेर के घनिष्ठ संबंध और पाश्चात्य काव्य के प्रति उनके गहरे आकर्षण ने आलोचकों को प्रेरित किया है कि वे इनके बारे में अपनी बनी-बनाई धारणाओं के आधार पर शमशेर की काव्य-दृष्टि की परिभाषा करें। एक तरफ डॉ.रामविलास शर्मा उन पर आरोप लगाते हैं कि निराला से प्रभावित होने के बावजूद उनका मन पश्चिम के ‘हासभान कवियों’ से बंधा हो तो दूसरी तरफ विजयदेव नारायण साही और मलयज जैसे विचारक उनके कुछ पश्चिमी कवियों का आदरपूर्ण उल्लेख देखकर उन्हें ‘मलार्मीय विडम्बना’ की कविता आदि कहकर अत्यंत ही मुग्च हो उठते हैं।

शमशेर ने 1937 में लिखे निबंध ‘उर्दू कविता’ में कहा है कि आज हमारे साहित्य का सवाल हो गया है, इसलिए हमारे काव्य की सृष्टि भी बंधे हुए तंग दायरों में नहीं बढ़ सकती। सच्चे कवि की उनकी कसौटी यह है कि वह ‘संस्कृतियों की ठोस अनुभूति के द्वारा हमारे व्यापक जीवन के सत्य-सौंदर्य से हमारा परिचय कराने में सशक्त है या नहीं।’ वे चाहते हैं कि उसकी कविता का स्पर्श हमारे भूत और भविष्य को नए अर्थ से गौरवान्वित करे और हमारे वर्तमान की आधारभूत प्रेरणाओं और लक्ष्यों को और स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि कवि का मुख्य धर्म है – भावनाओं के परिष्कार के द्वारा अनुभूतियों को गहरा करना और कुछ इस तरह अर्थपूर्ण बनाना कि घोर से घोर एकाकी परिस्थिति में भी कवि को तो शांति मिले ही, उसके माध्यम से पाठक और पाठक समुदाय को भी शांति मिले। यह शांति पलायन नहीं है। इसे बाद में शमशेर ने स्पष्ट किया है।

कला से मिलने वाली शांति समाज और प्रकृति के साथ व्यक्ति के रिश्तों की सही समझदारी में है। यह इस बात से साफ होता है कि शमशेर के अनुसार आत्म-सत्य का अन्वेषण सच्चा कलाकार अपनी अनुभूतियों में नहीं, उनके मूलों में करता है, उन मूलों में जो उसके समाज और संस्कृति की परंपरा में बहुत गहरे चले गए हैं। इस तरह, कलाकार के आत्म-सत्य के बाहर वह समाज-सत्य नहीं है, जिसके मर्म को अपने आंतरिक संस्कारों ढालने को दे कवि का काम समझते हैं। समाज-सत्य, कलाकार के आत्म-सत्य और कलात्मक सत्य में गहराई से धंसे मूलों में आत्म- सत्य का अन्वेषण करके समाज-सत्य के मर्म को उद्घाटित करता है, उसी का धंधा है वस्तु और शिल्प के प्रयोग के द्वारा कलात्मक सत्य के यथार्थ को प्राप्त करना।

शमशेर की व्याख्या करते हुए साही की नज़रों से यह सूत्र ओझल रहता है, तभी वे यह कह पाते हैं कि ‘शमशेर का वक्तव्य है कि कविता में हम अपनी भावनाओं की सच्चाई खोजते हैं….तलाश की यह मुद्रा वस्तुपरकता या सच्चाई की अनुपस्थिति को मानकर चलती है।’ (ज़ोर मेरा) सच्चाई की अनुपस्थिति? लेकिन शमशेर का तो मानना है कि ‘कवि जिन सत्यों को उद्घाटित करता है, उनका यह अपनी अनुभूतियों में साक्षी होता है। कोई भी रचनाकार उन्हें तभी सार्थक लगता है जब वह सामाजिक चिंता, युग की झांकी और हमारी समस्याओं के किसी न किसी रूप को प्रस्तुत करे। वे कविता को ‘जीवन के जीवित संदर्भो से संयुक्त’ मानते हैं इसलिए संघर्ष के इलाके को रचनाकार की ऊर्जा भूमि के रूप में ग्रहण करते हैं। लेकिन बारंबार कविता की सामाजिकता और यथार्थवाद पर ज़ोर डालते हुए भी वे प्रगतिवादी दौर की प्रचलित कला-दृष्टि से अर्थपूर्ण ढंग से अलग होते हुए यह विचार व्यक्त करते हैं – ‘कला की अभिव्यक्ति व्यक्ति और समाज की आशाओं-आकांक्षों और क्षणिक समर्थताओं का एक सजीव और गतिशील दर्पण है।’ यहाँ क्षणिक पर जितना ध्यान देना चाहिए, उतना ही दर्पण के सजीव और गतिशील होने पर भी।

शमशेर के लिए यह दर्पण बड़ा महत्वपूर्ण है, लेकिन उनके यहाँ यह कभी भी स्थिर किसी चौखटे में बंद नहीं मिला, हमेशा गति से भरा हुआ दिखलाई पड़ता है। इसी प्रकार, कला जिस यथार्थ को प्रस्तुत करती है, वह भी एक संश्लिष्ट अवधारणा है। शमशेर के लिए थार्थ वह सब कुछ है जो मनुष्य के जीवन में घटित और अनुभूत होता है। मनुष्य के स्वप्न, योजनाएँ, उसके समस्त कार्यकलाप, संघर्ष, आंदोलन, क्रांतियाँ, उसका सारा व्यक्तिगत और सामूहिक इतिहास…..यथार्थ है। मनुष्य की कल्पनाएँ भी उसके मानसिक जीवन का यथार्थ है।’ कविता इस संपूर्ण यथार्थ को व्यक्त करने का दायित्व लेकर चलती है।

सामाजिकता और यथार्थवाद

‘पूर्वग्रह’ में प्रकाशित नेमिचंद जैन और मलयज के साथ अपनी बातचीत में शमशेर ने कहा कि ‘प्रगतिशील किरम की पत्रिकाओं ने कभी परवाह नहीं की मेरी कविताओं की आम तौर से। जब वे खास विषयों पर लिखते थे, तब इन पत्रिकाओं को उत्साह होता था। परेशानी यह थी कि ये खास विषय, जिन्हें सरलीकृत अंदाज़ में सामाजिक या राजनीतिक (डॉ.शिव कुमार मिश्र के शब्दों में ‘विचारधारात्मक’) कहा जा सकता था उनकी मौलिक विषय-वस्तु के दायरे में उस तरह नहीं आते थे, जिस तरह नागार्जुन, रामविलास शर्मा या केदारनाथ अग्रवाल के यहाँ उनके लिए मुख्य रूप से आत्माभिव्यक्ति का दायरा बड़ा ही व्यापक था, कुछ वैसे ही जैसे सामाजिक यथार्थ मात्र बाहर दिखलाई पड़ रही घटनाओं और परिवर्तनों के अलावा ज्यादा गहराई लिए हुए था।

ऊपर उनके यथार्थ की परिभाषा हम देख चुके हैं। कला के क्षेत्र में यथार्थ और अयथार्थ के झगड़े को वे व्यर्थ मानते थे, यह ‘अमूर्त कला’ शीर्षक उनके निबंध से पता लगता है जिसमें वे कहते हैं कि महत्वपूर्ण सिर्फ यह है कि ‘कलाकार अपने विषय के अंदर किन तत्वों, किन विशेषताओं को दिखाना चाहता है और वह उन्हें कहाँ तक दिखाने में सफल होता है।’ कलाकृति का मूल्य इस पर निर्भर करता है कि वह किसी अनुभूति को कितनी सच्चाई और सफलता से ‘व्यक्त करती है। इसलिए किसी शैली-विशेष को किसी दूसरी शैली के मुकाबले तरजीह नहीं दी जा सकती। शमशेर यह समझते थे कि कला का क्षेत्र अपने-आप में अलग ज़रूर है और यह मूलतः वस्तु और शिल्प के प्रयोग का क्षेत्र है। वे इस बात को भी अच्छी तरह समझते थे कि कलाकार जिस चीज़ को व्यक्त करना चाहता हैं, ‘वह जाहिरी रूप-रेखा नहीं है बल्कि वह कलात्मक रूप है जो कलाकार स्वयं अपने पर्दे में महसूस करता है।’ इसलिए रूप और शिल्प और शैली या टेकनीक का अभ्यास कलाकार के लिए आवश्यक ही नहीं होता, वह ते उसकी प्राथमिकता बन जाता है। नहीं तो वह किसी समाजशास्त्री, वैज्ञानिक, राजनीतिक चिंतक से अलग किस रूप में है? बचपन से ही अंग्रेज़ी, उर्दू, बंगला, हिंदी आदि के माध्यम से बिल्कुल अलग-अलग शिल्प या शैली और टेकनीक का प्रयोग करने वाले कवियों ने शमशेर को इसी वजह से प्रभावित किया कि उनमें उन्हें वे नियम मिलते थे, जिनका विकास इन कवियों ने अपनी कलात्मक अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए खुद किया था। इस तरह उनकी सफलता-असफलता और उनके प्रयोगों की सार्थकता की परीक्षा करते हुए शमशेर स्वयं अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे क्योंकि कला जितना प्रतिभा का मामला है. कहीं उससे ज्यादा अभ्यास या ‘मश्क’ का भी है।

कला संबंधी अपने इसी रवैये के चलते वे कविता पर विचार करते समय यथार्थवादी, अयथार्थवादी जैसी कोटियों में विभाजन को मुनासिब नहीं मानते, हालांकि आरंभिक काल में वे भी अलग-अलग कवियों के लिए ‘स्वस्थ’ और ‘अस्वस्थ’ जैसे विशेषणों का प्रयोग करते थे। साथ ही ‘प्रगतिशील’ रचनाओं के उलट ‘पतनशील’ रचनाओं का भी उनके दिमाग में अस्तित्व था। इलियट, पाउंड, रशिद, फैज, मूर, पैचन आदि के प्रति अपने आकर्षण को वे स्वीकार करते हैं, इसलिए कि इन्होंने जीवन के रोग-शोक, आत्मा की हाय, दैन्य, पराजय भ्रम, क्रूरता आदि को उघाड़ कर रख दिया है, लेकिन इसके साथ ही वे यह कहना भी जरूरी समझते हैं कि इस आकर्षण के बावजूद इनमें कुछ है जिसके विरूद्ध ‘मेरा स्वस्थ मन विद्रोह करता है! डॉ. शर्मा ने उनकी इस स्वीकारोक्ति को अपने इस निष्कर्ष को पुष्ट करने के लिए उद्धृत किया है कि संस्कार शमशेर के अस्वस्थ थे, विवेक उन्हें इससे दूर हटाता था।

1952 में लिखे अपने इस निबंध की इन पंक्तियों के संदर्भ में बाद में शमशेर ने एक नोट लगाया – ‘सन’ 52 में मैं जैसा कुछ देखता-समझता था, वह बहुत कुछ या काफी कुछ भ्रम भी था, और साहित्यिक समझ की कमी।’ यानी ऐसे सारे कवियों की अपनी विशिष्टता है, वे एक विशेष कलात्मक सत्य की अभिव्यक्ति हैं, उन्हें महत्व देने में अस्वस्थ होने का अपराध-बोध सही नहीं है। बल्कि ऐसा अपराध-बोध साहित्य समझ की कमी का सूचक है।

‘एक बिल्कुल पर्सनल एसे’ शमशेर का एक दिलचस्प निबंध है। इसमें वे ‘अनाम’ नामक एक कवि की कल्पना की मौलिक उड़ान, उसका घोर सोफिस्टकेशन, विचित्र व्यंग्य और खास प्रयोग जैसे गुणों के चलते उसके प्रति अपनी पसंद जाहिर करते हैं, पर तुरंत नरेश मेहता से उसकी तुलना करके नरेश को ज्यादा ‘स्वस्थ’ मानते हैं। यह सारी बातचीत ‘अनाम’ से ही हो रही है। इसके ठीक बाद जरा-सी आँख दबाकर ‘अनाम’ शमशेर से पूछते हैं कि यह स्वस्थ और अस्वस्थ क्या चीज़ हुई ‘अनाम’ द्वारा व्यंग्यपूर्वक किए गए इस सवाल के ज़िक्र से मालूम पड़ता है कि कला में ‘स्वस्थ’ और ‘अस्वस्थ’ के विभाजन को उस वक्त शमशेर भले ही स्वीकार कर रहे हों, लेकिन इसके औचित्य को लेकर उन्हें संशय तब भी था।

‘स्वस्थ’ और ‘अस्वस्थ’ तथा ‘प्रगतिशील’ और ‘पतनशील’ को कला-चिंतन और विश्लेषण में निर्णायक शब्दों का दर्जा भारत में ही नहीं, पश्चिम में भी मिला हुआ था। इस हिसाब से कामू, काफ्का, दोस्तोव्स्की, बेकेट, अख्मातोवा आदि को अस्वस्थ और पतनशील घोषित करके अवांछित तत्वों के रूप में प्रचारित किया गया था। ज्याँ पाल सात्र ने एक विचार-विमर्श में भाग लेते हुए बड़े ही आग्रहपूर्ण ढंग से निवेदन किया था कि कला-साहित्य पर बात करते समय इन शब्दों का सहारा नहीं लिया जाना चाहिए। भारत में और हिंदी में निश्चयपूर्वक यह कहा जा सकता है कि मार्क्सवादियों में सबसे पहले इस ओर शमशेर ने ध्यान दिलाया।

दूसरे व्यक्ति थे – मुक्तिबोध, जो काव्य-विवेचना की अपनी भाषा विकसित करने का आग्रह कर रहे थे और मात्र समाजशास्त्रीय अवधारणाओं की कसौटी पर कवियों के गुण-दोष परीक्षण को गलत कह रहे थे। आगे चलकर मार्क्सवादियों के कला-साहित्य संबंधी विचारों में भी जो एक संतुलन-सा दिखलाई देता है, उसके पीछे मुक्तिबोध और शमशेर का जीवट भरा संघर्ष चल रहा है। मुक्तिबोध ने इस वाद-विवाद में गहरे धंसकर सैद्धांतिक स्तर पर कड़ी लड़ाई की, शमशेर बिल्कुल अपने ढंग की कविता लिखना जारी रखते हुए और अपने आत्माभिव्यक्ति वाले अंदाज़ के महत्व पर ज़ोर देते हुए यह कान कर रहे थे।

कला और सामाजिक दायित्व

कला या कविता के दायित्व और उसके कार्य-क्षेत्र को लेकर चलने वाले वाद-विवाद में शमशेर शुरू से अंत तक इस मत के बने रहे कि ‘जनता के प्रति जो दायित्व है उसे कवि को नहीं भूलना चाहिए। लेकिन जनता के प्रति दायित्व के लिए कटोरता से कार्यक्रम नहीं बनाया जा सकता।” कला के सामाजिक दायित्व-निर्वाह का यह मसला उन्हें शुरू से परेशान करता रहा था। कारण यह था कि खुद उन्हें नागार्जुन, केदार, सुमन, दिनकर आदि के मुकाबले समाज के लिए उपयोगी नहीं पाया गया था।

अपने संग्रहों की भूमिकाओं में या अन्यत्र यह कहकर कि उनकी रचनाएँ सामाजिक दृष्टि से उपयोगी नहीं है, भले ही शमशेर ने इस प्रचलित धारणा को कुछ बल पहुंचाया हो, लेकिन इससे यह समझना गलत होगा कि कला की सामाजिक उपयोगिता की सरलीकृत अवधारणा को उन्होंने स्वीकार कर लिया था। वे यह मानते रहे कि ‘एक बड़ा रचनाकार अंततः जनता की ही सेवा करता है। विश्व-साहित्य के व्यापक और गहन अध्ययन ने उन्हें यह मत स्थिर करने की ओर प्रेरित किया था कि विषय कुछ भी हो, यदि रचनाकार खरा है तो वह मानवीय संवेदना का संस्कार ही करता है। इसी प्रकार वह उपयोगी हो सकती है। अच्छी कविता उनके लिए वह थी जो विचार ही नहीं, कविता का आनंद, रस और गहरी काव्यानुभूति भी प्रदान करे।

ऐसी कविता वे ही लिखते हैं, जिनमें समकालीन नाना परिस्थितियों के प्रति नैसर्गिक संवेदना’ हो, जो खुद को इन परिस्थितियों में कहीं न कहीं बौद्धिक, नैतिक या आध्यात्मिक रूप से गहराई से जुड़ा हुआ महसूस करते हों, जिनमें अभिव्यक्ति की अनिवार्यता तो हो ही, उसमें विशेष बल या ज़ोर भी हो। इन गुणों से युक्त कवि जब भी रचना करते हैं तो वे हमारे चारों ओर बिखरे पड़े सौंदर्य से बेखबर हमारे मन को उसके किसी न किसी पक्ष की तरफ मोड़ने में सफल होते हैं। इस तरह वे अपने तरीके से उस माहौल का मुकाबला तैयार करते हैं जो हमारे सोचने-विचारने की ताकत को कुंद करने से पहले हमारी इंद्रियों की संवेदन-क्षमता को सीमित करता है।

शमशेर के लिए कविता या कला का काम, दुनिया में, समाज में जो कुछ घट रहा है, उसे अभिव्यक्त करना भर नहीं है। इस रूप में तो बाकी दुनियावी कामों के मुकाबले उसका दर्जा दोयम ठहरता है। पर शमशेर उसे यह हीन पद देने को तैयार नहीं। कविता जीवन-व्यापार की अभिव्यक्ति मात्र नहीं, वह स्वयं एक जीवन-व्यापार है।’ ‘चुका भी हूँ मैं नहीं’ की भूमिका का अंत उन्होंने इस सार्थक वाक्य से किया है जो कविता की उपयोगिता को एक नए अंदाज़ में चिह्नित करता है – ‘काव्य-कला समेत जीवन के सारे व्यापार एक लीला ही हैं – और यह लीला मनुष्य के सामाजिक जीवन के उत्कर्ष के लिए निरंतर सघर्ष की ही लीला है।’ इसलिए उन्हें ‘यह कहने में कोई हिचक नहीं कि कला का संघर्ष समाज के संघर्षों से अलग कोई चीज़ नहीं हो सकती।

शमशेर के काव्य की संवेदना के आयाम

शमशेर को सौंदर्य का कवि माना गया है। विजयदेव नारायण साही ने लिखा है कि अगर उनकी सारी कविताओं के शीर्षक हटाकर उन पर एक ही शीर्षक लगा दिया जाए – सौंदर्य, तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ‘दूसरा सप्तक’ के वक्तत्व में शमशेर ने कहा कि सुंदरता का अवतार हमारे सामने पल-छिन होता रहता है। इसके ठीक पहले का वाक्य है, ‘हम-आप ही अगर अपने दिल और नज़र का दायरा तंग न कर लें तो देखेंगे कि हम सबकी मिलीजुली ज़िदगी में कला के रूपों का खजाना हर तरफ बेहिसाब बिखरा चला गया है। यह स्पष्ट है कि चारों ओर हर पल होने वाला सुंदरता का अवतार ही कला के रूपों का खजाना है।

‘मैं एक कहानी लेखक हूँ’ में लेखक कहता है, ‘… मुझे वह पचड़ेवाली दुनिया – जब मैं उसको अपने से ज़रा दूरी पर रखकर देखता हूँ – रंगीन और सुंदर दिखाई देती है। उसका एक-एक काम। उसके एक-एक भाव, एक-एक संकेत! प्रत्येक उलझाव। पांसे-जाल-संबंध … उसकी हँसी- खुशी और रोना-गाना-यह सब राग-रंग …’ कोई रचनाकार जब जीवन-व्यापार को देखता है तो उसे हर जगह एक सौंदर्यात्मक पैटर्न नज़र आता है। एक अत्यंत ही कल्पनाशील ‘डिज़ाइन’ पेड़-पौधों, लोगों के चेहरों, उनके शरीर, चलने-फिरने आदि तक में अपने लिए कोई-न-कोई ‘डिजाइन’ खोज लेता है। अगर ऐसा न होता तो एक समय के बाद नई ‘डिज़ाइनों’ का आविष्कार रुक जाता। उसी तरह शमशेर को जीवन की हर एक हलचल में, हरकत में किसी एक नए कला-रूप की संभावना नज़र आ जाती है। ..

कविता लिखने के साथ-साथ शमशेर चित्र भी बनाते थे। दिल्ली में जब वे ‘उकील आर्ट स्कूल में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे, तब की अपनी रूटीन के बारे में लिखते हैं,’ हर चीज़ और हर चेहरे को बगौर देखता कि उसमें अपनी ड्राइंग के लिए क्या तत्व खोज सकता हूँ …। उस खोज़ का, हर चीज़, और चेहरे और दृश्य या स्थिति और गति का, अपना विशिष्ट आकर्षण कम न होता था ।’ कहा जा सकता है कि कलाकार का नज़रिया ‘सौंदर्यात्मक’ ही हो सकता है और कुछ नहीं, भले ही वह राजनीतिक मसले पर लिख रहा हो या किसी चेहरे की खूबसूरती आंक रहा हो। हम पहले शमशेर का वह कथन देख चुके हैं कि कलाकार किसी जाहिरी रूप को अभिव्यक्त नहीं करता, वह उसके कलात्मक रूप को अभिव्यक्त करता है।

यथार्थ रूप को कलात्मक रूप में तब्दील करने के लिए कवि का सौंदर्यात्मक दृष्टिकोण ही मध्यस्थ की भूमिका अदा करता है। उनका यह रवैया समझना ज़रूरी है, नहीं तो इस तरह के सरलीकृत निष्कर्षों पर पहुंचना आसान होगा कि वे हर चीज़, हर घटना, हर भाव को खुशनुमा बना देते हैं या उनका दिल खुशनुमा दुनिया में ही रमता, या फिर साही की तरह हम उनकी हर कविता के ऊपर ‘सौंदर्य’ शीर्षक चिपकाकर उन सबकी अलग-अलग विषय वस्तु, उनमें व्यक्त अलग-अलग मनोभावों पर पटरा फेरते हुए उन्हें सौंदर्यवादी करार देंगे।

शमशेर बहादुर सिंह की निज भाव की कविताएँ

मुक्तिबोध ने शमशेर को मनोवैज्ञानिक यथार्थवादी मानते हुए भी आत्मपरक कवि कहा है। अपनी आरंभिक कविताओं के संग्रह ‘उदिता’ में (जो बहुत बाद में छपा) शमशेर ने कहा था कि वे उस पाठक का ख्याल रखकर लिखते हैं, जो उनकी हँसी-खुशी और दुख-दर्द की आवाज़ सुनता और समझता है। वे लिखते हैं कि ऐसे पाठक के सामने ‘मैंने अपनी बातों को खास अपने लहजे में खास अपने मन के रंग में, अपनी लय, अपने सुर में, खोलकर, एक ख्वाब की तरह, एक उलझी हुई याद के बहुत अपने छायाचित्र तरह रखने की कोशिश की है। लेकिन शमशेर का अपना खास लहज़ा, उनका अपना खास रंग शुरू-शुरू में ‘प्रभुत्वशाली छायावादी स्वर के नीचे दबा हुआ-सा लगता है। ‘सहन-सहन् बहता है वायु’ की ये पंक्तियाँ देखिए:


रह जाते हैं सिहर सिहर
मृदु कलिका के विस्मित गात :
बहका फिरता मधुप अधीर
तितली अस्थिर गति अवदात।

या फिर इसका यह अंत कोई अपने सुख-दुख भूल/ सूने पथ पर राग-विहीन/ विस्मृति के बिखराता फूल/ फिर आया है मूक-मलीन।’ न सिर्फ शब्दों के चुनाव में, बल्कि पूरे अंदाज़ में छायावादी प्रभाव गहरा दिखाई देता है। हालाँकि पेड़-पौधों के बीच से गुज़रती हवा को लेकर
कवि ने एक सुंदर चित्र खींचा है, लेकिन ‘क्षितिज-दुकूल हेरती ‘ हुई ‘स्वप्निल श्वेत छाया’ कुहरे में ही छिपी हुई है।


उसी तरह ‘सहज स्नेह का भूषण केवल’ में किया गया यह प्रश्न भी छायावादी कवि का ही है, ‘सहसा आ सम्मुख चुपचाप/ सन्ध्या की प्रतिमा-सी मौन/ करती प्रेमालाप, परिचिता-सी वह कौन?’ यहाँ भी स्नेह-प्रतीति धूमिल-सी ही है। कविता का अंत इस प्रकार होता है :

मेरे अंतर में भर जाती
केवल अपना करुणा-राग :
वह अजान सुलगाती
क्यों नव यौवन में अबोध वैराग?

यहाँ भी छायावादी परिपाटी का निर्वाह मात्र दिखलाई पड़ता है, इस प्रश्न में कवि की अपनी व्यग्रता कहीं बहुत नीचे दबी हुई है।’ नव कवि का आह्वान’ में इस जीवन और संसार को लेकर एक ललक दिखाई पड़ती है, जैसे इन पंक्तियों को देखिए :

पागल कवि शिशु केलि-विभोर
कूद कूद कर द्वंव मचाता
सब देवों को मुकुर दिखाता
यह अनन्त चिर-विस्मय में खो जाता।

इस कविता में ध्यान देने योग्य है इस भौतिक जीवन के प्रति तीव्र आकर्षण : आह, प्रेम धन! वह आनंद नहीं है।। जोगी हो जाने में/ जो कुछ खोकर पा जाने में/ अपने अंदर ही है। नए-नए बादलों को देखकर जो उछाह होता है, उसके चलते ही कवि उस अंतःद्धार को खोलने का आह्वान करता है, जिसके अंदर युगों का धुंआधार पावस’ घुटा हुआ है। यह ऐसी भीतरी दुनिया है, जहाँ सृष्टि-सृष्टि का वैभव बरस रहा है और ‘व्योम-व्योम के वक्ष ‘ टूटे पड़ रहे हैं। इस कविता की विशिष्टता नए बादलों के रस से भीगती दुनिया के उस कोर्न की तरफ इशारे में है:

‘वह कोना खाली है, देखो, देखो।’
सिर पर है स्मृतियों के दल के दल।

छायावादी शब्दों के बाहुल्य के बावजूद इसमें एक नयापन है। इसी रंग में रंगी हुई है उनकी ‘मैं भारत-गुण-गौरव गाता’ शीर्षक कविता, जिसमें उन्होंने भारत की वंदना की है। इस राष्ट्र-वंदना में कोई नई ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती। ध्यान देने योग्य है तो सिर्फ यह चीज़ कि भारत को सारी दुनिया से न्यारा दिखाने की कोशिश नहीं है। इस कविता में राष्ट्रवादी आक्रामकता भी नहीं है। ऐसे भारत को माथा झुकाया गया है, जो ‘भविष्य का प्रेम-सूत’ है। वैसे, राष्ट्र को लेकर आक्रामकता या उत्तेजना शमशेर में प्रायः नहीं दिखलाई देती।

‘इकबाल की कविता’ शीर्षक लेख में उन्होंने समर्थनपूर्वक कहा है कि पश्चिमी आदर्शों से अनुप्रमाणित देशभक्ति भी जीवन की सच्ची महान् प्रेरणाओं को एक संकुचित सीमा में परतंत्र कर देती है। लगता है इसी धारणा की वजह से शमशेर के यहाँ उग्र राष्ट्रभक्ति के उद्बोधनात्मक गीत नहीं मिलते। अपने ऊपर निराला और पंत के गहरे प्रभाव की चर्चा शमशेर ने एकाधिक बार की है, बल्कि हिंदी की ओर अपने खिंचने की एक बड़ी वजह वे इन्हीं दोनों कवियों को मानते हैं। लेकिन उनके संग्रहों में ऐसी प्रभाववाली कविताएँ कम हैं।

1934 के बाद 1936 तक उनकी कोई कविता संग्रहों में नहीं मिलती। इसकी वजह यह है कि वे इस दरम्यान दिल्ली में चित्रकला का प्रशिक्षण ले रहे थे, अंग्रेज़ी और उर्दू में लिखते भी रहे थे। पत्नी की मृत्यु के बाद जीवन में गहरे हो गए अकेलेपन में हिंदी कविता शमशेर से छूट-सी गई थी। बच्चन के प्रति लगाव महसूस करने का एक कारण यह भी था कि वे भी पत्नी विहीन हो गए थे। दिल्ली से देहरादून लौटने के बाद ससुराल में दवा की दुकान संभालते हुए बच्चन ने उन्हें देखा और खींचकर इलाहाबाद ले आए। वे ले तो गए थे उन्हें इसलिए कि वहां से एम.ए. करके सांसारिक आवश्यकताओं को पूरा करने लायक बन सकें। पर इलाहाबाद पहुंचकर उन्हें एक ही बात समझ में आई कि उनको अब हिंदी कविता गंभीरता से लिखनी है जिससे उनका संपर्क डिल्कुल छूट चुका था। भाषा और शिल्प भी अजनबी से हो गए थे।

इस दौर के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘… सन् 37 में मेरा हाल यह था, जैसे मैं फिर से तैरना सीख रहा हूँ • तीन सालों में बहुत कुछ भुला देने के बाद’ यह स्वाभाविक ही था कि ‘निशा-निमंत्रण’ की कविताओं ने उन पर जबर्दस्त असर डाला। उनके ‘रूप-प्रकार’ ने भी उन्हें आकृष्ट किया और उस तर्ज़ पर कुछ अभ्यास भी उन्होंने किया। ‘निशा-निमंत्रण के कवि से ‘नामक कविता की सच्ची महान् प्रेरणाओं को एक संकुचित सीमा में परतंत्र कर देती है। लगता है इसी धारणा की वजह से शमशेर के यहाँ उग्र राष्ट्रभक्ति के उद्बोधनात्मक गीत नहीं मिलते। अपने ऊपर निराला और पंत के गहरे प्रभाव की चर्चा शमशेर ने एकाधिक बार की है, बल्कि हिंदी की ओर अपने खिंचने की एक बड़ी वजह वे इन्हीं दोनों कवियों को मानते हैं। लेकिन उनके संग्रहों में ऐसी प्रभाववाली कविताएँ कम हैं।

1934 के बाद 1936 तक उनकी कोई कविता संग्रहों में नहीं मिलती। इसकी वजह यह है कि वे इस दरम्यान दिल्ली में चित्रकला का प्रशिक्षण ले रहे थे, अंग्रेज़ी और उर्दू में लिखते भी रहे थे। पत्नी की मृत्यु के बाद जीवन में गहरे हो गए अकेलेपन में हिंदी कविता शमशेर से छूट-सी गई थी। बच्चन के प्रति लगाव महसूस करने का एक कारण यह भी था कि वे भी पत्नी विहीन हो गए थे। दिल्ली से देहरादून लौटने के बाद ससुराल में दवा की दुकान संभालते हुए बच्चन ने उन्हें देखा और खींचकर इलाहाबाद ले आए। वे ले तो गए थे उन्हें इसलिए कि वहां से एम.ए. करके सांसारिक आवश्यकताओं को पूरा करने लायक बन सकें। पर इलाहाबाद पहुंचकर उन्हें एक ही बात समझ में आई कि उनको अब हिंदी कविता गंभीरता से लिखनी है जिससे उनका संपर्क डिल्कुल छूट चुका था। भाषा और शिल्प भी अजनबी से हो गए थे।

इस दौर के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘… सन् 37 में मेरा हाल यह था, जैसे मैं फिर से तैरना सीख रहा हूँ • तीन सालों में बहुत कुछ भुला देने के बाद’ यह स्वाभाविक ही था कि ‘निशा-निमंत्रण’ की कविताओं ने उन पर जबर्दस्त असर डाला। उनके ‘रूप-प्रकार’ ने भी उन्हें आकृष्ट किया और उस तर्ज़ पर कुछ अभ्यास भी उन्होंने किया। ‘निशा-निमंत्रण के कवि से ‘नामक कविता में इस आकर्षण का कारण शमशेर ने यों बताया हैइस आकर्षण का कारण शमशेर ने यों बताया है

यह खंडहर की साँस
तुम जिसे भर रहे हो वंशी में-
है तंग घुटी-सी सुबह
लाल सफेद सियाह!

इन पंक्तियों में ध्यान देने योग्य है ‘खंडहर की साँस’, ‘तंग घुटी-सी सुबह’ जो ‘लाल सफेद सियाह है। ये शब्द बच्चन की कविता के बारे में जितना बताते हैं, उससे कम खुद शमशेर की मनोभूमि का परिचय नहीं देते। कविता के अंत में एक भयानक बेचैनी की अभिव्यक्ति है :

‘मत गाओ यह गीत/ मैं बिखर पडूंगा पागलपन में/ ओ देर अजान मुसाफिर/ यह हँसी मरुस्थल की है।’

‘मरुस्थल की हँसी’ के विषण्ण भाव में छायावादी गीलापन नहीं है। उत्तर छायावादी कविता का वह स्वर, जो ‘निशा-निमंत्रण’ में अभिव्यक्त हुआ था, शमशेर को अपने करीब लगता था। अक्सर हिंदी आलोचना में इस दौर को मस्ती, फक्कड़पन, बेपरवाही, अर्थात् अबौद्धिकता और अगंभीरता से भरा हुआ माना गया है। लेकिन इस युग की कविता में जो सशक्त स्वर है, उसमें मस्ती, फक्कड़पन से ज्यादा एक बेचैनी दिखाई पड़ती है।

डॉ. नामवर सिंह ने एक भाषण में ठीक ही कहा था कि मजाज की पंक्ति ‘ऐ गर्म-दिल क्या करूं, ऐ वहशते-दिल क्या करूं’ से इस व्यग्रता का ठीक-ठीक अंदाज़ मिलता है। यह दौर व्यक्तित्व के निजी धरातल की एक नई ढंग की खोज का, और उसमें महसूस होने वाले सुख-दुख की खासियत को नया महत्व देने का भी है। छायावाद में व्यक्त भावनाओं में सामान्यीकरण-सा हो गया लगता था, उससे मुक्त होकर अपने-अपने रंग को पाने की तड़प-सी इस युग के कवियों में दिखाई पड़ती है।

शमशेर उत्तरछायावादी काव्य में यहाँ से वहाँ तक मौजूद तड़प और चुभन के साथ अपनापन महसूस करते हैं, यह उस समय की उनकी कविताओं से भी परिलक्षित होता है। इस दृष्टि से उनकी ‘आज हृदय भर-भर आता है’, ‘ज्योति’, ‘कवि-कला का फूल हूँ मैं’ जैसी कविताओं से ही नहीं, ‘वाणी’ जैसी कविता में भी इस दौर के सुर में उनका सुर मिलता हुआ नज़र आता है।

क्षार का उन्मत्त वैभव/ लाल कर आशा लहू से/ एक स्वस्करवाल-ज्याला से/ हृदय को फूंकता हूँ/ सान्ध्य-जीवन के ज्वलित कंदील-उर की तूल हूँ मैं’

(कवि कला)

या

‘पथ नदियों के मोड़े होंगे। देश-देश तरसाया होगा। विकल सहस्र मीन-सा तब तो/ यह पानी मन पाया होगा। आज हृदय और ‘कर्म कठोर बनेगा मन/ बरसेगा घिर कर गुरुधन/ विहर-विहर कर वन-वन पानी/ वन-वन देश घिरकर/ घन बरसाएगा पानी।’

(वाणी)

जैसी पंक्तियों से कवि की क्षमता का पता तो चलता है, पर वह किस तरह अपने समकालीनों में खास है, यह नहीं मालूम पड़ता। अकेलेपन की चुभन और तड़प के साथ ही सर उठाता आशा का भाव भी है।’ आज हृदय में सैकड़ों मछलियों की तड़प से भरे हुये मन के क्षितिज के बाहर न जाने कितने करुणा के बादल हैं’. पर वे कभी-कभी हौले-हौले चलते हुए अपनी छाया उस पर डाल भी जाते हैं। इसके चलते हृदय का मरुस्थल सुख से सिहर उठता है। इसी तरह कवि-कला’ में वासंती उषा में अपने पंख रंगकर इंद्रधनुषी बादलों के रास्तों से होकर उड़ते हंस के रूप में कवि खुद को देखता है। शमशेर ने लिखा है, प्रभाव किसी का भी, उन पर रहता थोड़ी देर ही है।

‘उदिता’ के 1980 वाले संस्करण की भूमिका में अपने भावुक व्यक्तित्व को ढालने वाले प्रभावों का ज़िक्र करने के साथ ही वे कहते हैं, मगर मैं अपने कवि को मात्र उन प्रभावों का पुंज नहीं मानता! मेरी अपनी एकांत, और शायद गहरी, अनुभूतियाँ और संघर्ष की यातनाएँ भी आखिर कुछ अपनी ज़मीन कविता में रखेंगी ही…।’ उनके हिंदी कविता में पुनः प्रवेश के वक्त की कविताओं में धीरे-धीरे उनका अपना स्वर उठता दिखलाई पड़ता है। उनके सारे प्रेमियों ने ‘स्थिर है शव-सी बात’ शीर्षक कविता के नएपन को ठीक ही नोट किया है। एक बड़ी उदास रात का चित्र इसमें खींचा गया है। हया बिल्कुल स्थिर है, जैसे शव हो। आसमान में चाँद भी लटका हुआ-सा है और नीली रात सीसे की तरह भारी है। गति का अभाव और सीसे का भारीपन, चाँद में कोई चमक भी नहीं। नीली पृष्ठभूमि में कांसे का रंग कोई हलचल नहीं उठाता। इस रात में पेड़ ऐसे स्थिर हैं, मानों ठिठुर गए हों। कहीं उल्लास का कोई कारण नहीं है। सपनों की ओट से झांकती आँखें निश्चल हैं। इस रात की यह भयावह स्थिरता हौंठ सुखा देती है। रात न सिर्फ गतिहीन है, बल्कि किसी ऊष्मा से भी रिक्त है। इसके चलते गहरी उदासी, गहन निराशा पैदा होती है।

‘नत जीवन का भाल/ प्रेम पड़ा है ठंडा मानव-उर का/ निद्रा तम के शून्य शिविर में अंधा पंगु बंधा है काल।’

यहाँ जीवन का भाव बिल्कुल झुका हुआ है। भाल और नत के प्रयोग से निराशा का भाव और सघन हो गया है। ‘वह भी दिन था एक’ में भी ‘आज/ कलुष गहन करुण भाल/ है मेरे/ विनत वयस का!’जीवन का जो भाल झुका हुआ है, वह कवि का ही है। उसमें कोई तेज़ नहीं रह गया है, वह निराशा से मलिन (कलुषित) हो चुका है। यह निराशा कितनी गहरी हो चुकी है और कितने भयावह तरीके से जीवन पर छा गई है, यह ‘मृत्यु का प्रस्तस्-खण्ड’ कविता पढ़कर ही समझा जा सकता है :

‘एक बुझा काला विशाल मार्तण्ड/ कितने मौन युगों से डूब रहा हूँ महाशून्य में।’

यह सूरज ऐसा है जो न डूबता है और न उगता है – वह महाशून्य में स्थिर-सा हो गया है। सूरज के डूब जाने की कल्पना मात्र से मन कांप उठता है, यहाँ तो कवि ने खुद अपनी कल्पना एक बहुत बड़े काले सूरज के रूप में की है, जो बुझ चुका है। वह अपनी जगह छोड़कर नीचे गिर पड़ा है, तभी उसकी विशालता का अंदाज़ हो पा रहा है। ‘मार्तण्ड’ का प्रयोग एक विशेष प्रकार की थर्राहट तो उत्पन्न करता ही है, निराशा के इस भाव को भी अत्यंत उदात्त स्तर पर प्रतिष्ठित कर देता है।

जीवन का अभाव कुछ इस कदर मन को पीस रहा है, जैसे कवि स्वयं ‘मृत्यु का प्रस्तर खण्ड’ हो गया हो। यहाँ भी ‘स्थिर है शव-सी बात’ कविता की तरह ही कहीं कोई गर्मी नहीं है. ऊष्मा का स्रोत, सूर्य, बुझ जो चुका है! हरकत दिलाने के लिये यहाँ गर्मी नहीं, ठंड है : ‘चेतन करने को अंतर में जग उठती-सी कुछ ठण्ड’ पूरा वातावरण सर्द है और ‘प्रस्तर खण्ड’ और ‘मार्तण्ड’ की उपस्थिति के कारण भारी भी। यहाँ मृत्यु को लेकर कोई संगीत नहीं रचा गया है न ही मन के विषाद पर रहस्य का पर्दा डालकर उसे आकर्षक बनाने की कोशिश है। यह निराशा बहुत गहराई में, शमशेर की अपनी एकांतिक अनुभूति है, जो कविताओं की भीड़ में भी अपने खास इशारों से अपनी पहचान बना लेती है।

शमशेर का विषाद, मुक्तिबोध के शब्द लेकर कहें तो उनका ‘मनो-वैज्ञानिक यथार्थ’ था और एक सच्चे कवि की तरह उन्होंने इसे व्यक्त किया। ‘उदिता’ के आरंभ में जगदीश अग्रवाल के नाम ‘एक पत्र’ शीर्षक कविता में अपने टूटे हुए मन के बारे में वे बताते हैं : ‘गद्य के आवरण में
टूटा हुआ था काव्य/ बहुत टूटा हुआ-सा था/ स्वयं जीवन के समान। ‘ वे खुद को ऐसा महसूस करते हैं : ‘छंद से बाहर, पंगु मानो, भावना से रहित-/ शून्य।’ ऐसी स्थिति में गहरे काले, नीले रंगों के प्रति कवि का आकर्षण स्वाभाविक ही मालूम होता है, क्योंकि वे उसकी मनोदशा के अधिक निकट पड़ते हैं। उदासी और अकेलेपन का यह अहसास ‘उदिता’ की कई कविताओं में है, ‘चुका भी हूँ मैं नहीं’ में संकलित कुछ कविताओं में भी जो आरंभिक दौर की ही है) यह मिल जाता है। अंधकार, मौन गतिहीनता को इस दौर की कविताओं में कई रूपों में
देखा जा सकता है। एक बहुत छोटी कविता ‘घिरते आकाश को’ देखिए :


घिरते आकाश को ताकता हताश।
गहरे नभ में चाँद खोता जाता है :
अंधकार
चुप-चुप हँसता आता सब ओर


यह गहराते अंधेरे वाली रात का चित्र है, उतना ही कवि के मन का भी। यह रात गुज़र जाए, सुबह हो जाए, फिर भी प्रकाश उल्लसित नहीं करता : यह सुबह जो शाम सी हुई है/ मानों यह अभी नहीं हुई है। सुबह भी शाम की तरह मालूम पड़ती है, इसका कारण यह भी है कि कवि का घर बंद है, उसमें कहीं से रोशनी आने की उम्मीद नहीं।
शाम हो या रात, अंधेरा शमशेर को घेरता ही है। ‘कमरे में आभा’ शीर्षक कविता में वह ‘शाम का कोमल अंधियाला’ धीरे-धीरे छा जाता है : ‘दीवारों पर, छत पर चुप-चुप/कुहरे-सा काला कुछ उदास/ मन छाया।’ यह अंधियाला धीरे-धीरे इतना गाढ़ होता जाता है कि पता ही नहीं लगता कि कवि का मन ‘कहाँ कौन जाने कब/ बैठा उस तम की मिट्टी में/ उसके संग समाया। यही अकेलेपन की अनुभूति ‘शाम की मटमैली खपरैल’ में व्यक्त हुई है और ‘चिड़िया-सा छिपा-लुका मेरा मन’ या ‘उठती है मतवाली’ में तो इस निराशा और अकेलेपन की काली लहरें इतनी भयावह हो उठी हैं कि नागिन-सी लगने लगी है : ‘मैंने कैसी नागन पाली/हर ली जिसने उर की लाली। अधर जिह्वा पल भौंह कपोल चूम लिए जीवन विष मोल।” यह निराशा अपनों के अभाव की वास्तविक अनुभूति है। इसी संग्रह की एक कविता ‘कौन बुलाता मेरे पथ से मुझको’ में उन्होंने बताया है कि पिता-माता और पत्नी जिस ओर गए हैं, उसी ओर से उनको बुलावा आता है। उनका मन जैसे उनसे अलग हो गया है और ‘अपनी ही छाया सशरीर/ अकेली मौन’ खड़ी देखती रहती है।

अकेलेपन और दुख की इस तीव्रता में चेतना सो नहीं जाती, अत्यंत ही जाग्रत हो जाती है, सारी इंद्रियाँ जैसे हज़ार-हज़ार आँखें लेकर इस घने अंधेरे को भेदकर कुछ देखती रहती हैं। इस जाग्रत चेतनावस्था में वह प्राकृतिक स्थितियों का सूक्ष्म अंकन कर पाता है। इस लिहाज से ‘आधी रात’ कविता है, जो आधुनिक हिंदी कविता में प्रकृति-संवेदना के एक बिल्कुल नए स्तर का उद्घाटन करती है।

बहुत धीरे-धीरे
बजे हैं बा ऽरा S…
गिना है रुक रुक कर मैंने
बारह बार
सुनो!
अब भी वैसे ही हवा में
बा रा बज रहे हैं…
(बादल घिरे हुए हैं दिन भर।)
एक का एक

श्वान भूकने लगे!
गा उठा बिरहा कोई दूर जाता पथ
पर..
नीम के सन्नाटे में एकाएक जोड़ा
उल्लुओं का चीख उठा
प्री ई अ, प्री ई अ! प्रईअ!

पूरी कविता ध्वनियों के अलग-अलग ‘शेड्स’ के प्रयोग से एकदम नई हो गई है। यह आधी रात’ शमशेर की बिल्कुल अपनी है। पहली दो पंक्तियों में दीर्घ ध्वनियों से रात के घिरने का भाव मूर्त होता है। फिर ‘रुक-रुक’ का प्रयोग और ‘बारह-बारह’ के सारे अक्षरों को तोड़कर एक-दूसरे से अलग-अलग कर देने पर एक जगे हुए, सांस रोक कर इंतज़ार करते हुए, आधी रात को देख रहे व्यक्ति की अनुभूति मिलती है। कुत्ते भूकने लगते हैं, दूर जाते किसी पथिक के बिरहा गाने की आवाज़ अचानक सुनाई दे जाती है – इन दोनों ही ध्वनियों से रात के अकेलेपन का अहसास और गहरा हो जाता है। कविता का अंत तो इस आधी रात के विषाद को और तीखा कर देता है – नीम का पेड़ बिल्कुल खामोश खड़ा है, पत्तियाँ स्थिर हैं, अचानक उल्लुओं के एक जोड़े की कर्कश आवाज़ इस सन्नाटे और स्थिरता को चीर देती है। गहरी, तीखी अवसाद की यह अनुभूति हिंदी कविता में उस अंदाज़ के जन्म की सूचना देती है, जिसे बाद में श्याम कश्यप ने ‘शमशेरियत’ का नाम दिया।


‘शमशेरियत’ की नींव अकेलेपन के अवसाद की ज़रूर है, और यही उनका मूल भाव है इसलिए बहुत बाद में भी हलचल और भीड़ में भी वे अकेले खड़े दिखाई दे जाते हैं। पर ऐसा नहीं कि उनमें एकाकीपन और अवसाद ही अवसाद है। मुक्तिबोध ने लिखा है कि लेखक को ‘भयानक से भयानक परिस्थितियों में भी मानव-ऊष्मा प्राप्त होती रहती है। मानव-ऊमा का यह सुख स्पर्श जो मनुष्य को अगतिकता के भाव से बचाता है या कम करता है, अपने-आप में एक बड़ा मानव-मूल्य है।”आज हृदय भर-भर आता है’ मैं भयानक वेदना के बीच भी, करुणा के बादलों की छांह कभी-कभी मन पर पड़ती है। उसके कारण :


उठता सुख से सिहर मरुस्थल
मेरे उर का – दो कण पाकर
उस सुषमा की छाँह निमिष का
जिसमें अस्फुट-सा आशा का स्वर।


सुषमा के दो कण भी सुख की सिहरन पैदा करने की क्षमता रखते हैं, अकेलेपन से बाहर निकलने की प्रेरणा देते हैं।

शमशेर की सौंदर्य-संवेदना का विस्तार प्रकृति

शमशेर की सौंदर्य-संवेदना का विस्तार प्रकृति, मनुष्य से लेकर मानवीय भावों तक है। शुरू से ही प्रकृति के अलग-अलग रंग उन पर गहरा असर डालते रहे हैं। वे प्रायः रंगों में और गतियों में ही प्राकृतिक रूपों को ढलता हुआ देखते हैं। प्रकृति से उनके कवि-मन के विचित्र संबंध को समझने के लिहाज से ‘उदिता’ की भूमिका का यह खंड देखना उपयोगी होगा, ‘शामों की झुरमुट में, जब पच्छिम के मैले होते हुए लाल पीले बैंगनी रंग हर चीज़ को लपेट कर अपने गहरे मिले-जुले धुंधलके में खोने-से लगते हैं – आपने क्या उस वक्त कभी ध्यान दिया है कि कैसे हर चीज़ एक ही खामोश राग में डूबने लगती है…?’ शुरू से ही आसमान और रंग उन पर एक खास ढंग से असर डालते हैं। दूसरी खासियत यह है कि प्रकृति के दृश्यों का अंकन उस ख्याल के साथ ज़रूर होता है, जो उन्हें देखते हुए मन में उठता है।

‘उदिता’ में ही संकलित ‘लहरें। शाम/ वह नगर’ शीर्षक कविता में शाम के समय के बादलों का अंकन मिलता है, जिनके बीच से तरह-तरह से रोशनी आ-जा रही है और कई रंगों की सृष्टि कर रही है। यह बादल बैंगनी-संदली, भूरे, सुर्मयी-सिंदूरी, धुले-सांवले, पीले-गुलाबी से, ऊदे-कारी, नीले- गहरे-से मटमैले हैं। देखने की बात है कि शमशेर ने कितनी बारीकी से रंगों को पहचाना और अलग किया है। उनकी इस तरह की कविताओं को देखने के बाद कहना पड़ता है कि हिंदी के किसी और कवि ने इतना मगन होकर सांध्यकालीन आकाश को नहीं देखा। पर ये बादल स्थिर हैं या चल रहे हैं भारी/शांत ढलते, नींद से भरे/ सपनों से बोझिल धीर/ अपने अंत से विज्ञ/ संतुष्ट।” जिन सपनों से बोझिल ये बादल हैं, वे दरअसल किसी की याद है। शमशेर शेष कविता में उस ख्याल की बातें करते हैं, जो इस शाम ने उनके मन में किसी की याद दिलाकर पैदा कर दिया है।

बहुत तटस्थ भाव से. तथाकथित यथार्थवादी ढंग से प्राकृतिक दृश्यों का अंकन शमशेर नहीं करते। उनका मन उस चित्र में कुछ इस कदर घुला-मिला रहता है कि कविता पढ़कर यह बताना कठिन हो जाता है कि प्राकृतिक दृश्य मन पर असर डाल रहे हैं या कवि का मन ही प्रकृति को अपने ख्याल के रंग में निहार रहा है। इसीलिए ऐसे चित्रों में और गतियों का विशेष तौर पर अंकन मिलता है। ‘संध्या’ कविता में बादलों का यह चित्र द्रष्टव्य है;

बादल अक्टूबर के
हल्के रंगीन रुदे
मद्धम मद्धम रुकते
रुकते-से आ जाते
इत ने पास अपने।

शमशेर बहादुर सिंह

शब्दों को तोड़कर गति को विलंबित कर देने से धीमे-धीमे सरकते बादलों का एक अद्भुत चित्र मिलता है। निगाह बादलों से हटकर पेड़-पौधों पर घूम जाती है :

एक-इक पत्ता साकत्
है रा, सन्ध्या भा में
सु न ता – सा कुछ किस को
इत ने पास अपने।

शमशेर बहादुर सिंह

बादलों में तो फिर भी गति है, यहाँ तो मानो शाम की रोशनी में हर चीज़ साध कर कुछ सुनने की कोशिश में है। इसी बीच अचानक कुछ यादें कौंध जाती हैं.

या दों की द्वा भा एँ
बा दल के भा लों पर
चमकी-सी लय होने
धीरे-धीरे-धीरे
इत ने पास अपने।

शमशेर बहादुर सिंह

जैसे क्षितिज के नीचे जाते सूरज का मंद प्रकाश अचानक बादलों के ऊपर चमक उठता है, वैसे ही मन में यादें कौंध जाती हैं। फिर उसी प्रकाश की तरह लय भी हो जाती है।
डॉ. रामविलास शर्मा की शिकायत शमशेर से यह है कि वे प्राकृतिक दृश्यों का अंकन करते हैं, जैसे शाम के समय के आसमान का, या बादलों का, या पेड़-पौधों का, तो यह पता नहीं लग पाता कि उस चित्र का संबंध किस गाँव से, किस अंचल से है। इसलिए उनकी धारणा है कि प्रकृति के जो बिंब शमशेर की कविताओं में आते हैं, उन्हें किताबें पढ़कर भी रचा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, ये प्रकृति-चित्र रंगीन तो हो सकते हैं, पर हैं प्राणहीन ही। डॉ. शर्मा कहते हैं, “ये शहर का आदमी है जो बिना इस बात का ध्यान रखे हुए कि मैं शाम कहां देख रहा हूँ शाम के बारे में बात करता है। उनके यथार्थवाद में यह कमजोरी है।” कहने की ज़रूरत नहीं कि डॉ. शर्मा का खास ढंग का यथार्थवाद शमशेर के अपने यथार्थ को स्वीकार नहीं कर पाता। इस टिप्पणी से ऐसा ज़ाहिर होता है, मानो शहर के आदमी को प्रकृति को निहारने की, उससे आनंदितः होने की इजाज़त ही नहीं है। क्या डॉ. शर्मा यह कहना चाहते हैं कि आसमान में बदलते रंगों का चित्र तब तक पूरा नहीं होगा, जब तक कि उसके नीचे की मिट्टी की गंध उसमें न मिल जाए? यथार्थ-दर्शन का कोई एक मानक तरीका ही रवीकृत हो, यह ज़रूरी नहीं। इस संदर्भ में ‘उदिता’ में दिया गया शमशेर का वक्तव्य महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं कि शाम के धुंधलके में जब सारी चीजें गुग होने लगती हैं, तब कभी-कभी “वक्त के बहते हुए धारे में एक ठहराव-सा आता महसूस होता है – अब मान लीजिए यह पृष्टभूमि आपके दिल की किसी खास चोट की है। मुमकिन है वह शाम आपको अपनी जिंदगी का एक टुकड़ा लगे जिसका फैलाव अब पश्चिम से पूर्व तक और ज़मीन से आसमान तक-देख रहे हैं।” हो सकत है, इस मंजर को देखते हुए आपके मन में यों ही एक ख्याल उभर आए। शमशेर कहते हैं ‘इसी. ख्याल के सुर ताल और रंग और नक्श और लहर मेरी कविता है। सवाल यह है कि यह ख्याल यथार्थ है या नहीं?

डॉ. रामविलास शर्मा की धारणा के विपरीत सच तो यह है कि शमशेर ने प्रकृति के कुछ अत्यंत अछूते बिंब और उनसे जुड़ी हुई अपनी खास संवेदना के चित्र हिंदी कविता को दिए हैं. जो उनके अलावा और कहीं नहीं मिल सकते थे। जैसे इस चांद को देखिए, “सॅवलाती ललाई में लिपटा हुआ/ काफी ऊपर/ तीन चौथाई खामोश गोल सादा चाँद”। आगे चलकर यह चाँद जब कवि के मन में गहरा उतर जाता है, तो यह बिंब मिलता है, ‘रात में ढलती हुई तमतमायी-सी/ लाजभरी शाम के अंदर/ वह सफेद मुख/ किसी ख्याल के बुखार का वॉ13/25 अब भी चाँद है, पर वह अपना रूप छोड़कर एक संवेदना में बदल जाता है। ‘क्षीण नीले बादलों, में ‘ में ढलती शाम और गहराती रात का चित्र है। देखने वाले की मनःस्थिति का अंकन भी साथ-साथ है:

बादलों में दीर्घ पश्चिम का
आकाश
मलिनतम।
ढके पीले पाँव
जा रही रुग्णा संध्या।
नील आभा विश्व की
हो रही प्रति पल तमस ।

शमशेर बहादुर सिंह

बीमार शाम का पीलापन रात के गहरे अंधेरे में बदल रहा है। लेकिन इस समय चॉद आसमान पर कुछ इस तरह है मानों बीत चुकी शाम की एक खिड़की-सी खुली रह गई है। जैसे शाम बीत गई है, वैसे ही कवि के जीवन से भी किसी का भाव बीत चुका है। वह इस खुली खिड़की से झाँकने लगता है। इसी खुली खिड़की की वजह से कवि के मन पर छाया अंधेरा उसे पूरी तरह ग्रस नहीं पाता

विगत सन्ध्या की
रह गई है एक खिड़की खुली।
झाँकता है विगत किसका भाव।

शमशेर बहादुर सिंह

कविता का अंत इस तरह होता है : बादलों के घने नीले केश चपलतम आभूषणों से भरे लहरते हैं वायु – संग सब ओर

शाम को रात में ढलते देखने वाला मन रुग्ण नहीं, इसका प्रमाण यह है कि बादल उसे आभूषणों से सजे घने नीले लहराते केश की तरह लग रहे हैं। स्थिरता और अवसाद का जो भाव कविता के आरंभ से चला आ रहा था, वह गति में बदल गया लगता है। शमशेर के प्रकृति-चित्रों को उन्हीं के नज़रिए से देखना चाहिए, न कि उस दृष्टि से जिससे केदारनाथ अग्रवाल या नागार्जुन के प्रकृति-चित्रण को देखा जाता है। शाम की नीलाहट, रात का अंधेरा, जाड़े की सुबह की कोमल धूप, सागर की लहरें – ये सब उनके संवेदनलोक के अभिन्न अंग हैं। प्रकृति के अलग-अलग रंगों, उसकी अलग-अलग भंगिमाओं के साथ मानवीय संवेदनाओं का जो विचित्र संबंध है, वह आधुनिक हिंदी कविता में जितने सशक्त ढंग से शमशेर के यहाँ अभिव्यक्त हुआ है, उतना शायद कहीं और नहीं। डॉ. शर्मा की शिकायत है कि उनकी प्रकृति संबंधी कविताएँ प्रतीकात्मक हो जाती हैं। इसके विपरीत, जैसा हम ऊपर की कविताओं को देख सकते हैं, शमशेर-प्रकृति-चित्रों को प्रतीक नहीं बनाते, वे उनके मन में जैसे उतरते हैं, वैसे ही वे उनका अंकन करते हैं।


शमशेर के प्रकृति-चित्र सिर्फ नीले, पीले और काले रंगों से बने हों, ऐसा नहीं। वे हवा में ‘सन सन ज्योति के हर तीखे बान’ चलते हुए देखते हैं और उनके यहाँ आकाशवन सुलगता भी है, उसमें लाल, गौहर और जमुर्रद के निशान उड़ते हुए मिलते हैं। दरअसल प्रकृति उन पर चारों ओर से हमला करके उनकी सारी इंद्रियों को उत्तेजित कर देती है। वह उनकी मानवीय संवेदना का विस्तार बन जाती है। शमशेर के लिए प्रकृति सामाजिक जटिलताओं से पलायन के बाद शरण-स्थली नहीं है, वह हर रूप में, हर बार एक नए ढंग से समाज की ओर लौटा ले जाती है। प्रकृति जैसे उनकी त्वचा से होकर अंदर समाई हुई है। ‘जाड़ों की सुबह के सात- आठ बजे’ शीर्षक कविता में वे कहते हैं :

उड़ते पंखों की परछाइयाँ
हल्के झाडू से धूप को समेटने की
कोशिश हो जैसे

शमशेर बहादुर सिंह


धूप को समेटने की यह कोशिश व्यर्थ है, क्योंकि अगर वह सिर्फ बाहर फैली हो, तो झाडू से समेटी भी जा सके, पर धूप मेरे अंदर भी/ इस समय तो ।’ इस अदंर की धूप को पकड़ना और कवि से अलग करना जितना कठिन है, उतना ही मुश्किल है शमशेर की प्रकृति-संवेदना को अलग से पकड़ना क्योंकि वह उनकी मानवीय संवेदना के अंदर धंसी है।

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