पृथ्वीराज रासो का परिचय

पृथ्वीराज रासो ढाई हजार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमें ६९ समय (सर्ग या अध्याय) हैं। प्राचीन समय में प्रचलित प्रायः सभी छंदों का इसमें व्यवहार हुआ है। मुख्य छन्द हैं-कवित्त (छप्पय), दूहा(दोहा), तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या ।

Hindi Sahity

रासो के अनुसार , जब शहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज को कैद करके ग़ज़नी ले गया, तब कुछ दिनों पीछे चंद भी वहीं गए। जाते समय कवि ने अपने पुत्र जल्हण के हाथ में रासो की पुस्तक देकर उसे पूर्ण करने का संकेत किया। जल्हण के हाथ में रासो को सौंपे जाने और उसके पूरे किए जाने का उल्लेख रासो में है

-पुस्तक जल्हण हत्थ दै चलि गज्जन नृपकाज।

रघुनाथनचरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्धरिय जिमि।

पृथिराजसुजस कवि चंद कृत चंदनंद उद्धरिय तिमि॥

रासो में दिए हुए संवतों का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अनेक स्थानों पर मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराजरासो के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में संदेह करते है और उसे १६वीं शताब्दी में लिखा हुआ ग्रंथ ठहराते हैं।

इस रचना की सबसे पुरानी प्रति बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय मे मिली है कुल ३ प्रतियाँ है। रचना के अन्त मे प्रथवीराज द्वारा शब्द भेदी बाण चला कर गौरी को मारने की बात भी की गयी है।

पृथ्वीराज रासो का परिचय

पृथ्वीराज रासो रासक परंपरा का एक काव्य है। जैसा इसके नाम से ही प्रकट है, दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट् पृथ्वीराज के जीवन की घटनाओं को लेकर लिखा गया हिंदी का एक ग्रंथ जो चंद का लिखा माना जाता रहा है।

पहले इस काव्य के एक ही रूप से हिंदी जगत्‌ परिचित था, जो संयोग से रचना का सबसे अधिक विशाल रूप था इसमें लगभग ग्यारह हजार रूपक आते थे। उसके बाद रचना का एक उससे छोटा रूप कुछ प्रतियों में मिला, जिसमें लगभग साढ़े तीन हजार रूपक थे। उसके भी बाद एक रूप कुछ प्रतियों में प्राप्त हुआ जिसमें कुल रूपक संख्या बारह सौ से अधिक नहीं थी। तदनंतर दो प्रतियाँ उसकी ऐसी भी प्राप्त हुई जिनमें क्रमश: चार सौ और साढ़े पाँच सौ रूपक ही थे।

ये सभी प्रतियाँ रचना के विभिन्न पूर्ण रूप प्रस्तुत करती थीं। रचना के कुछ खंडों की प्रतियाँ भी प्राप्त हुई हैं, जिनका संबंध उपर्युक्त प्रथम दो रूपों से रहा है। अत: स्वभावत: यह विवाद उठा कि उपर्युक्त विभिन्न पूर्ण रूपों का विकास किस प्रकार हुआ। कुछ विद्वानों ने इससे सर्वथा भिन्न मत प्रकट किया। उन्होंने कहा कि सबसे बड़ा रूप ही रचना का मूल रूप रहा होगा और उसी से उत्तरोत्तर अधिकाधिक छोटे रूप संक्षेपों के रूप में बनाकर प्रस्तुत किए गए होंगे।

इन्होंने इसका प्रमाण यह दिया कि रचना का कोई रूप, यहाँ तक कि सबसे छोटा रूप भी, अनैतिहासिकता से मुक्त नहीं है। किंतु इस विवाद को फिर यहीं पर छोड़ दिया गया और इसको हल करने का कोई प्रयास बहुत दिनों तक नहीं किया गया।

इसका प्रथम उल्लेखनीय प्रयास 1955 में हुआ। जब एक विद्वान ने पृथ्वीराज रासो के तीन पाठों का आकार संबंध (हिंदी अनुशीलन, जलन-मार्च 1955) शीर्षक लेख लिकर यह दिखाया कि पृथ्वीराज और उसके विपक्ष के बलाबल को सूचित करनेवाली जो संख्याएँ रचना के तीन विभिन्न पाठों : सबसे बड़े (बृहत्‌), उससे छोटे (मध्यम) और उससे भी छोटे (लघु) में मिलती हैं उनमें समानता नहीं है और यदि समग्र रूप से देखा जाय तो इन संख्याओं के संबंध में अत्युक्ति की मात्रा भी उपर्युक्त क्रम में ही उत्तरोत्तर कम मिलती है।

यदि ये पाठ बृहत्‌ मध्यम लघु लघुतम क्रम में विकसित हुए होते, तो संक्षेप क्रिया के कारण बलाबल सूचक संख्याओं में कोई अंतर न मिलता। इसलिये यह प्रकट है कि प्राप्त रूपों के विकास का क्रम लघुतम लघु मध्यम बृहत्‌ है।

प्रबंध की दृष्टि से यदि हम रचना की उक्ति श्रृंखलाओं और छंद श्रंखलाओं तथा प्रसंग श्रृंखलाओं पर ध्यान दें तो वहाँ भी देखेंगे कि ये श्रृंखलाएँ लघुतम लघु मध्यम बृहत्‌ क्रम में ही उत्तरोत्तर अधिकाधिक टूटी हैं और बीच बीच में इसी क्रम से अधिकाधिक छंद और प्रसंग प्रक्षेपकर्ताताओं के द्वारा रखे गए हैं। किंतु रचना का प्राप्त सबसे छोटा (लघुतम) रूप भी इन श्रृंखला त्रुटियों से सर्वथा मुक्त नहीं है, इसलिये स्पष्ट ज्ञात होता है कि ‘रासो’ का मूल रूप प्राप्त लघुतम रूप से भी छोटा रहा होगा।

पृथ्वीराज रासो की कथा

‘पृथ्वीराजरासो’ की कथा संक्षेप में इस प्रकार है : पृथ्वीराज जिस समय दिल्ली के सिंहासन पर था, कन्नौज के राजा जयचन्द ने राजसूय यज्ञ करने का निश्चय किया और इसी अवसर पर उसने अपनी कन्या संयोगिता का स्वयंवर भी करने का संकल्प किया। राजसूय का निमंत्रण उसने दूर दूर तक के राजाओं को भेजा और पृथ्वीराज को भी उसमें सम्मिलित होने के लिये आमंत्रित किया।

पृथ्वीराज और उसके सामंतों को यह बात खली कि बहुवचनों के होते हुए भी कोई अन्य राजसूय यज्ञ करे और पृथ्वीराज ने जयचंद का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया। जयचंद ने फिर भी राजसूय यज्ञ करना ठानकर यज्ञमंडप के द्वार पर द्वारपाल के रूप में पृथ्वीराज की एक प्रतिमा स्थापित कर दी। पृथ्वीराज स्वभावत: इस घटना से अपमान समझकर क्षुब्ध हुआ। इसी बीच उसे यह भी समाचार मिला कि जयचंद की कन्या संयोगिता ने पिता के वचनों की उपेक्षा कर पृथ्वीराज को ही पति रूप में वरण करने का संकल्प किया है और जयचंद ने इसपर क्रुद्ध होकर उसे अलग गंगातटवर्ती एक आवास में भिजवा दिया है।

इन समाचारों से संतप्त होकर वह राजधानी के बाहर आखेट में अपना समय किसी प्रकार बिता रहा था कि उसकी अनुपस्थिति से लाभ उठाकर उसके मंत्री कैवास ने उसकी एक करनाटी दासी से अनुचित संबंध कर लिया और एक दिन रात को उसके कक्ष में प्रविष्ट हो गया। पट्टराज्ञी को जब यह बात ज्ञात हुई, उसने पृथ्वीराज को तत्काल बुलवा भेजा और पृथ्वीराज रात को ही दो घड़ियों में राजभवन में आ गया। जब उसे उक्त दासी के कक्ष में कैवास को दिखाया गया, उसने रात्रि के अंधकार में ही उन्हें लक्ष्य करके बाण छोड़े। पहला बाण तो चूक गया किंतु दूसरे बाण के लगते ही कैंवास धराशायी हो गया।

रातो रात दोनों को एक गड्ढे में गड़वाकर पृथ्वीराज आखेट पर चला गया, फिर दूसरे दिन राजधानी को लौटा। कैंवास की स्त्री ने चंद से अपने मृत पति का शव दिलाने की प्रार्थना की तो चंद ने पृथ्वीराज से यह निवेदन किया। पृथ्वीराज ने चंद का यह अनुरोध इस शर्त पर स्वीकार किया कि वह उसे अपने साथ ले जाकर कन्नौज दिखाएगा। दोनों मित्र कसकर गले मिलते ओर रोए।

पृथ्वीराज ने कहा कि इस अपमानपूर्ण जीवन से मरण अच्छा था और उसके कविमित्र ने उसकी इस भावना का अनुमोदन किया। कैंवास का शव लेकर उसकी विधवा सती हो गई।चंद के साथ थवाइत्त (तांबूलपात्रवाहक) के शेष में पृथ्वीराज ने कन्नौज के लिए प्रयाण किया। साथ में सौ वीर राजपूत सामंतों सैनिकों को भी उसने ले लिया। कन्नौज पहुँचकर जयचंद के दरबार में गया।

जयचंद ने उसका बहुत सत्कार किया और उससे पृथ्वीराज के वय, रूप आदि के संबंध में पूछा। चंद ने उसका जैसा कुछ विवरण दिया, वह उसके अनुचर थवाइत्त में देखकर जयचंद कुछ सशंकित हुआ। शंकानिवारणार्थ उसने कवि को पान अर्पित कराने के बहाने अन्य दासियों के साथ एक दासी को बुलाया जो पहले पृथ्वीराज की सेवा में रह चुकी थी। उसने पृथ्वीराज को थ्वाइत्त के वेष में देखकर सिर ढँक लिया। किंतु किसी ने कहा कि चंद पृथ्वीराज का अभिन्न सखा था इसलिये दासी ने उसे देख सिर ढँक लिया और बात वहीं पर समाप्त हो गई। किंतु दूसरे दिन प्रात: काल जब जयचंद चंद के डेरे पर उससे मिलने गया, थवाइत्त को सिंहासन पर बैठा देखकर उसे पुन: शंका हुई। चंद ने बहाने करके उसकी शंका का निवारण करना चाहा और थवाइत्त से उसे पान अर्पित करने का कहा। पान देते हुए थवाइत्त वेशी पृथ्वीराज ने जो वक्र दृष्टि फेंकी, उससे जयचंद को भली भाँति निश्चय हो गया कि यह स्वयं पृथ्वीराज है और उसने पृथ्वीराज का सामना डटकर करने का आदेश निकाला।इधर पृथ्वीराज नगर की परिक्रमा के लिये निकला। जब वह गंगा में मछलियों को मोती चुगा रहा था, संयोगिता ने एक दासी को उसको ठीक ठीक पहचानने तथा उसके पृथ्वीराज होने पर अपना (संयोगिता का) प्रेमनिवेदन करने के लिये भेजा। दासी ने जब यह निश्चय कर लिया कि वह पृथ्वीराज ही है, उसने संयोगिता का प्रणयनिवेदन किया। पृथ्वीराज तदनंतर संयोगिता से मिला और दोनों का उस गंगातटवर्ती आवास में पाणिग्रहण हुआ। उस समय वह वहाँ से चला आया किंतु अपने सामंतों के कहने पर वह पुन: जानकर संयोगिता का साथ लिवा लाया। जब उसने इस प्रका संयोगिता का अपहरण किया, चंद ने ललकाकर जयचंद से कहा कि उसका शत्रु पृथ्वीराज उसकी कन्या का वरण कर अब उससे दायज के रूप में युद्ध माँग रहा था।

परिणामत: दोनों पक्षों में संघर्ष प्रारंभ हो गया।दो दिनों के युद्ध में जब पृथ्वीराज के अनेक योद्धा मारे गए, सामंतों ने उसे युद्ध की विधा बदलने की सलाह दी। उन्होंने सुझाया कि वह संयोगिता को लेकर दिल्ली की ओर बढ़े और वे जयचंद की सेना को दिल्ली के मार्ग में आगे बढ़ने से रोकते रहें जब तक वह संयोगिता को लेकर दिल्ली न पहुँच जाए। पृथ्वीराज ने इस स्वीकार कर लिया और अनेक सामंतों तथा शूर वीरों यौद्धाओं की बलि ने अनंतर संयोगिता को लेकर दिल्ली गया। जयचंद अपनी सेना के साथ कन्नौज लौट गया।दिल्ली पहुँचकर पृथ्वीराज संयोगिता के साथ, विलासमग्न हो गया। छह महीने तक आवास से बाहर निकला ही नहीं, जिसके परिणामस्वरूप उसके गुरु, बांधव, भत्य तथा लोक में उसके प्रति असंतोष उत्पन्न हो गया। प्रजा ने राजगुरु से कष्ट का निवेदन किया तो राजगुरु चंद को लेकर संयोगिता के आवास पर गया। दोनों ने मिलकर पृथ्वीराज को गोरी के आक्रमण की सूचिका पत्रिका भेजी और संदेशवाहिका दासी से कहला भेजा : ‘गोरी रत्ततुअधरा तू गोरी अनुरत्त।’ राजा की विलासनिद्रा भंग हुई और वह संयोगिता से विदा होकर युद्ध के लिये निकल पड़ा।शहाबुद्दीन इस बार बड़ी भारी सेना लेकर आया हुआ था।

पृथ्वीराज के अनेक शूर योद्धा और सामंत कन्नोज युद्ध में ही मारे जा चुके थे। परिणामत: पृथ्वीराज की सेना रणक्षेत्र से लौट पड़ी और शाहबुद्दीन विजयी हुआ। पृथ्वीराज बंदी किया गया और गजनी ले जाया गया। वहाँ पर कुछ दिनों बाद शहाबुद्दीन ने उसकी आँखें निकलवा लीं।जब चंद पृथ्वीराज के कष्टों का समाचार मिला, वह गजनी अपने मित्र तथा स्वामी के उद्धार के लिये अवधूत के वेष में चल पड़ा। वह शहाबुद्दीन से मिला। वहाँ जाने का कारण पूछने पर उसने बताया कि अब वह बदरिकाश्रम जाकर तप करना चाहता था किंतु एक साध उसके जी में शेष थी, इसलिये वह अभी वहाँ नहीं गया था। उसने पृथ्वीराज के साथ जन्म ग्रहण किया था और वे बचपन में साथ साथ ही खेले कूदे थे। उसी समय पृथ्वीराज ने उससे कहा था कि वह सिंगिनी के द्वारा बिना फल के बाध से ही सात घड़ियालों को एक साथ बेध सकता था। उसका यह कौशल वह नहीं देख सका था और अब देखकर अपनी वह साध पूरी करना चाहता था। गोरी ने कहा कि वह तो अंधा किया जा चुका है। चंद ने कहा कि वह फिर भी वैसा संधानकौशल दिखा सकता है, उसे यह विश्वास था। शहाबुद्दीन ने उसकी यह माँग स्वीकार कर ली और तत्संबंधी सारा आयोजन कराया।

चंद के प्रोत्साहित करने पर जीवन से निराश पृथ्वीराज ने भी अपना संघान कौशल दिखाने के बहाने शत्रु के वध करने का उसका आग्रह स्वीकार कर लिया। पृथ्वीराज से स्वीकृति लेकर चंद शहाबुद्दीन के पास गया और कहा कि वह लक्ष्यवेध तभी करने को तैयार हुआ है जब वह (शहाबुद्दीन) स्वयं अपने मुख से उसे तीन बार लक्षवेध करने का आह्वाहन करे। शहाबुद्दीन ने इसे भी स्वीकार कर लिया1 शाह ने दो फर्मान दिए, फिर तीसरा उसने ज्यों ही दिया पृथ्वीराज के बाण से विद्ध होकर वह धराशायी हुआ। पृथ्वीराज का भी अंत हुआ। देवताओं ने उस पर पुष्पवृष्टि की और पृथ्वी ने म्लेच्छा गोरी से त्राण पाकर हर्ष प्रकट किया।यहाँ पर ‘पृथ्वीराजरासो’ की कथा समाप्त होती है।

पृथ्वीराज रासो की ऐतिहासिकता

ऊपर लिखे वृत्तांत और रासो में दिए हुए संवतों का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बिल्कुल मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराजरासो के पृथ्वीराज समसामयिक किसी कवि की रचना होने में पूरा संदेह किया है और उसे सोलहवीं शताब्दी में लिखा हुआ एक जाली ग्रंथ ठहराया है।

रासो में चंगेज, तैमूर आदि कुछ पीछे के नाम आने से यह संदेह और पुष्ट होता है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा रासो में वर्णित घटनाओं तथा संवतों को बिल्कुल भाटों की कल्पना मानते हैं।

पृथ्वीराज की राजसभा के काश्मीरी कवि जयानक ने संस्कृत में ‘पृथ्वीराज विजय’ नामक एक काव्य लिखा है, जो पूरा नहीं मिलता है। उसमें दिए संवत् तथा घटनाएँ ऐतिहासिक खोज के अनुसार ठीक ठहरती हैं। उसमें पृथ्वीराज की माता का नाम कर्पूरदेवी लिखा है, जिसका समर्थन हाँसी के शिलालेख से भी होता है। उक्त ग्रंथ अत्यंत प्रामाणिक और समसामयिक रचना है।

उसके तथा ‘हम्मीर महाकाव्य’ आदि कई प्रामाणिक ग्रंथों के अनुसार सोमेश्वर का दिल्ली के तोमर राजा अनंगपाल की पुत्री से विवाह होना और पृथ्वीराज का अपने नाना की गोद जाना, राणा समरसिंह का पृथ्वीराज का समकालीन होना और उनके पक्ष में लड़ना, संयोगिताहरण इत्यादि बातें असंगत सिद्ध होती हैं। इस प्रकार आबू के यज्ञ से चौहान आदि चार अग्निकुलों की उत्पत्ति की कथा भी शिलालेखों की जाँच करने पर कल्पित ठहरती हैं, क्योंकि इनमें से सोलंकी, चौहान आदि कई कुलों के प्राचीन राजाओं के शिलालेख मिले हैं, जिनमें वे सूर्यवंशी, चंद्रवंशी आदि कहे गए हैं, अग्निकुल का कहीं कोई उल्लेख नहीं है।

चंद ने पृथ्वीराज का जन्मकाल संवत् 1175 में, दिल्ली गोद जाना 1122 में, कन्नौज जाना 1151 में और शहाबुद्दीन के साथ युद्ध 1158 में लिखा है।पर शिलालेखों और दानपत्रों में जो संवत् मिलते हैं, उनके अनुसार रासो में दिए हुए संवत् ठीक नहीं हैं। अब दानपत्र या शिलालेख, जिनमें पृथ्वीराज,जयचंद और परमर्दिदेव (महोबे के राजा परमाल) के नाम आए हैं, इस प्रकार मिलें हैं-

पृथ्वीराज के 4, जिनके संवत् 1224 और 1244 के बीच में हैं। जयचंद के 12, जिनके संवत् 1224 और 1243 के बीच में हैं। परमर्दिदेव के 6, जिनके संवत् 1223 और 1258 के बीच में हैं। इनमें से एक संवत् 1239 का है, जिसमें पृथ्वीराज और परमर्दिदेव (राजा परमाल) के युद्ध का वर्णन है। इन संवतों से पृथ्वीराज का जो समय निश्चित होता है उसकी सम्यक् पुष्टि फारसी तवारीखों से भी हो जाती है।

फारसी इतिहासों के अनुसार शहाबुद्दीन के साथ पृथ्वीराज का प्रथम युद्ध 587 हिजरी (वि.सं. 1248, ई. सन् 1191) में हुआ। अतः इन संवतों के ठीक होने में किसी प्रकार का संदेह नहीं।

माना कि रासो इतिहास नहीं है,काव्यग्रंथ है। पर काव्यग्रंथों में सत्य घटनाओं में बिना किसी प्रयोजन कोई उलट-फेर नहीं किया जाता। जयानक का पृथ्वीराज विजय भी तो काव्यग्रंथ ही है, फिर उसमें क्यों घटनाएँ और नाम ठीक-ठीक हैं? इस संबंध में इसके अतिरिक्त और कुछ कहने की जगह नहीं कि यह पूरा ग्रंथ वास्तव में जाली है। यह हो सकता है कि इसमें इधर-उधर कुछ पद्य चंद के भी बिखरे हों पर उनका पता लगाना असंभव है। यदि यह ग्रंथ किसी समसामयिक कवि का रचा होता और इसमें कुछ थोड़े से अंश ही पीछे से मिले होते तो कुछ घटनाएँ और कुछ संवत् तो ठीक होते।

रहा यह प्रश्न कि पृथ्वीराज की सभा में चंद नाम का कोई कवि था या नहीं। ‘पृथ्वीराज विजय’ के कर्ता जयानक ने पृथ्वीराज के मुख्य भाट या बंदिराज का नाम ‘पृथ्वीभट्ट’ लिखा है, चंद का नाम उसमें कहीं नहीं लिया है।

महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री का कहना है कि नागौर में अब तक चंद के वंशज रहते हैं। इसी वंश के वर्तमान प्रतिनिधि नानूराम भाट से शास्त्रीजी की भेंट हुई। उसमें उन्हें चंद का वंशवृक्ष प्राप्त हुआ जो इस प्रकार है-

  • चंदबरदाई
  • गुणचंद–जल्लचंद
  • सीताचंद
  • वीरचंद
  • हरिचंद
  • रामचंद्र
  • विष्णुचंद-उद्धरचंद-रूपचंद-बुद्धचंद-देवचंद-सूरदास
  • खेमचंद–गोविंदचंद
  • जयचंद
  • मदनचंद-शिवचंद-बलदेवचंद
  • चौथचंद-बेनीचंद
  • गोकुलचंद-वसुचंद-लेखचंद
  • कर्णचंद
  • गुणगंगचंद-मोहनचंद
  • जगन्नाथ-रामेश्वर
  • गंगाधर
  • भगवान-सिंह
  • कर्मसिंह
  • माथुरसिंह
  • वाग्गोविंदसिंह
  • मानसिंह
  • विजयसिंह
  • आनंदरायजी
  • आसोजी-गुमानजी-कर्णीदान-जैथमलजी-बीरचंदजी
  • घमंडीरामजी-बुधजी
  • वृद्धिचंदजी
  • नानूरामजी

पृथ्वीराज रासो का काव्य रूप

हिंदी साहित्य के पाठकों के बीच पृथ्वीराज रासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य होने का गौरव प्राप्त है। हमारे यहाँ काव्य-भेद पर अधिकांशतः संस्कृत साहित्य को ध्यान में रखकर विचार हुआ है। रासो में महाकाव्य के सभी लक्षण घटित नहीं होते।

उदाहरणार्थ रासो में छंदों का विधान संस्कृत महाकाव्य जैसा नहीं है। पृथ्वीराज रासो में मध्यकाल में प्रचलित प्रबंध काव्यों के अनेक रूपों का सम्मिश्रण हुआ है। उसमें कथा काव्य, चरित काव्य, आख्यायिका आदि के लक्षण मिल जाएंगे। रासो तो वह है ही। ‘कथा’ की कहानी दो व्यक्तियों के संवाद के रूप में प्रस्तुत की जाती थी। इस दृष्टि से रासो को कथा कह सकते हैं क्योंकि उसकी कहानी शुक-शुकी एवं कवि एवं कवि-पत्नी के संवाद के रूप में प्रस्तुत की गई है। ‘आख्यायिका’ की कहानी का नायक कल्पित नहीं (ऐतिहासिक) होता है।

पृथ्वीराज रासो को आख्यायिका भी कह सकते हैं क्योंकि नायक पृथ्वीराज कल्पित नहीं है और उसमें बाणभट्ट की भाँति चंद का भी वर्णन है। रासो चरितकाव्य भी है क्योंकि उसमें पृथ्वीराज का जीवन-चरित वर्णित है।

रासो काव्य

रासो, रासा, रास, रासउ समानार्थक शब्द हैं। इनका विकास रास नामक नृत्य से हुआ है। रास मूलतः वन्य नृत्य था। हर्ष चरित में रास का उत्लेख नृत्य और गान दोनों रूपों में हुआ है। अपभ्रंश के महान कवि स्वयंभु ने रास छंद का लक्षण दिया है। सो, रास नृत्य है, गान है और छंद भी। गान शब्दों से बनता है। एक बार शब्दों का आगमन हुआ तो कथा का समावेश हो गया और रास प्रबंध काव्य भी बन गया होगा। रास नृत्य से कृष्ण का रासलीला का संबंध है।

पृथ्वीराज रासो ऐतिहासिक एवं वीरतापरक रासो काव्य है।

चरित काव्य

पृथ्वीराज रासो आदिकाल की ऐसी रचना है जो मूलतः रासो काव्य है किंतु उसमें कथा, चरित, आख्यायिका आदि काव्य रूपों का भी समावेश है जिसमें कथानक रूढ़ियों का भरपूर उपयोग किया गया है।

डॉ. नित्यानंद तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘मध्यकालीन रोमांचक आख्यान’ में दिखाया है कि पृथ्वीराज रासो रोमांचक आख्यान है। उसमें कथानक तो है किंतु उसमें आंतरिक गठन नहीं, उसमें अनेक परस्पर असंबद्ध कथाओं का संकलन और विस्तार है। कथाओं, घटनाओं का विकास आंतरिक घात-प्रतिघात से नहीं है, उनमें जोड और गांठें हैं। जोर कथनात्मकता या कहते जाने की की प्रवृत्ति पर है। चरित्र तो हैं किंतु इनकी चरित्रगत वैयक्तिक विशेषताएँ प्रायः नहीं हैं। संभवतः इसीलिए कथा के विकास के लिए कथानक रूढ़ियों की आवश्यकता पड़ती है। इन रोमांचक आख्यानों का कोई ऐतिहासिक उद्देश्य भी नहीं है। उद्देश्य होता तो इनका कथानक उद्देश्य की अंतस्सूत्रता से बंधा होता। डॉ. नित्यानंद तिवारी पृथ्वीराज रासो को ‘पंवारा मानते हैं।

पृथ्वीराज रासो की भाषा

पृथ्वीराज रासो की भाषा पर टिप्पणी करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है:

“भाषा की कसौटी पर कसते हैं तो और भी निराश होना पड़ता है क्योंकि वह बिल्कुल बेठिकाने है- उसमें व्याकरण आदि की कोई व्यवस्था नहीं। दोहों की और कुछ-कुछ कवित्तों (छप्पयों) की भाषा तो ठिकाने की है, पर त्रोटक आदि छोटे छंदो में तो कहीं कहीं अनुस्वरान्त शब्दों की ऐसी मनमानी भरमार है जैसे किसी ने संस्कृत प्राकृत की नकल की है

(हिंदी साहित्य का इतिहास)


लंदन की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी में एक हस्तलिखित प्रति में लिखा है चंदवरदायी लिखित पिंगल भाषा में ‘पृथुराज का इतिहास’; गार्सा द तासी ने इसे कन्नौजी बोली का काव्य कहा। (वीरकाव्य, लेखक डॉ. उदय नारायण तिवारी)

डॉ. धीरेन्द्र वर्मा रासो की भाषा के व्याकरणिक ढाँचे को ब्रजभाषा का मानते हैं। (संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो, डॉ. नामवर सिंह)

डॉ. दशरथ शर्मा तथा मीनाराम रंगा इसे ‘प्राचीन राजस्थानी ‘ मानते हैं। (उपर्युक्त से उद्धृत)

डॉ. नामवर सिंह का विचार है कि “वस्तुतः अपभ्रंश के बाद प्रायः पश्चिमी भारत में दो मुख्य भाषाएँ उत्पन्न हुई – दक्षिणी-पश्चिमी राजस्थान में डिंगल तथा पूर्वी राजस्थान और ब्रजमंडल में पिंगल। काव्य- परंपरा की दृष्टि से डिंगल में रचना करने वाले प्रायः चारण हुए और पिंगल के कृती कवि प्रायः भाट। पृथ्वीराज रासो पूर्वी राजस्थान में मूलतः “चंदबलिद्द भट्ट” द्वारा अपभ्रंशोत्तर युग में रचा गया और अनेक प्रक्षेपों के साथ अपने विभिन्न रूपांतरों में भी वह पिंगल की रचना है। (संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो)

पश्चिमी भारत की किसी बोली पर आधारित भाषा मध्यदेश की परिनिष्ठित एवं काव्य भाषा रही है। प्राचीन ब्रजी, पूर्वी राजस्थानी कहने से यही बात प्रकट होती है। वस्तुतः पृथ्वीराज रासो मूलतः अपने रचना काल की परिनिष्ठित मध्यदेशीय काव्य भाषा में रखा गया होगा जिसका व्याकरणिक ढाँचा अनेक प्रक्षेपों के बावजूद अभी भी सुरक्षित है।

रासो की भाषा पर विचार करते समय स्वयं रासोकार की इस उक्ति की उपेक्षा नहीं की जा सकती जिसके अनुसार उन्होंने अपनी काव्य भाषा को “षड्भाषा पुरानं च कुरानं च कथितं मया” कहा है। यह “षड्माषा” एक प्रकार की उक्ति-रूदि है।

रासों की भाषा आदिकालीन साहित्य की काव्यभाषा है। आदिकाल को संधिकाल कहा जाता है। उसकी काव्यभाषा में क्षीयमाण अपभ्रंश की भाषाई प्रवृत्तियों और उदीयमान आधुनिक भारतीय आर्यमाषाओं का मेल है। अपभ्रंश की प्रवृत्तियों पूरी तरह समाप्त नहीं हुई हैं और आधुनिक भारतीय भाषाएँ. पूर्णतः प्रतिष्ठित नहीं हुई है। किंतु रासो में पुरानी हिंदी का स्वरूप झलकने लगता है।

पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता

रचना के प्रकाशित होने के पहले ही इसकी प्रामाणिकता को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया और इसका प्रकाशन रोक दिया गया। बाद में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने इसे प्रकाशित किया। जो ग्रंथ अपने जन्म से ही विवादों से घिरा हो उसे पढ़ने से पहले इस संबंध में दृष्टि साफ हो जानी चाहिए।

इसी उद्देश्य से पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता पर विचार सबसे पहले करने का प्रयास किया जा रहा है। प्रामाणिकता के संबंध में जो मुख्य सवाल उग गए हैं से इस प्रकार हैं:

  • पृथ्वीराज रासो का मूल रूप क्या है?
  • पृथ्वीराज रासो की रचना मूलतः कब की गई?
  • क्या चंदवरदायी ही मूल पृथ्वीराज रासो के रचयिता हैं?
  • क्या कवि चंदवरदायी इतिहास प्रसिद्ध राजा पृथ्वीराज चौहान के समकालीन थे?

पृथ्वीराज रासो आदिकाल का सर्वाधिक विख्यात काव्य है। यह काव्य जितना विख्यात है उतना ही विवादग्रस्त। इस विवाद की पृष्ठभूमि से हमें परिचित हो लेना चाहिए।
पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता जाँचने के लिए विद्वानों ने उसे इतिहास की कसौटी पर कसने की कोशिश की और उन्हें निराशा हाथ लगी। जिन विद्वानों ने इसे इतिहास ग्रंथ के रूप में देखा उन्होंने तो इसे जाली ग्रंथ ठहरा दिया। इसमें कोई शक नहीं कि यदि पृथ्वीराज रासो में हम इतिहास ढूंढने चलेंगे तो हमें निराशा ही हाथ लगेगी।

पृथ्वीराज रासो की ऐतिहासिकता

पृथ्वीराज रासो के विषय मे जो अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं उनसे यह आशा रखना स्वाभाविक है कि इस काव्य से पृथ्वीराजकालीन इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ेगा। कहते हैं कि इस काव्य के रचयिता चंदवरदायी अपने आश्रयदाता पृथ्वीराज के दरबारी कवि ही नहीं उनके अंतरंग मित्र भी थे।

यह काव्य भी पृथ्वीराज के जीवन पर आधारित है। डॉ. बूलर ने तुलना करके देखा कि पृथ्वीराज विजय में उल्लिखित घटनाएँ एवं तिथियाँ इतिहास सम्मत हैं जबकि रासो की इतिहास विरूद्ध इसके विपरीत अनेक विद्वानों ने रासो की प्रामाणिकता पर संदेह करने वाले तकों के विरुद्ध मत प्रकट किया और रासो की प्रामाणिकता का आग्रह किया। परिणामस्वरूप रासो की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता का विवाद चल पड़ा। रासो को अप्रामाणिक मानने वालों के तर्क संक्षेप में इस प्रकार हैं:

  • पृथ्वीराज रासो के अनुसार आबू के शासक जेत और सलक थे। किंतु इनका कोई उल्लेख तत्कालीन शिलालेखों में नहीं मिलता। इतिहास सम्मत तथ्य यह है कि उस समय आबू पर धारावर्ष परमार का शासन था।
  • रासो के अनुसार गुजरात के राजा भीमसेन को पृथ्वीराज ने मारा था। शिलालेखों के अनुसार वह पृथ्वीराज के बाद भी जीवित था। इसी प्रकार रासो में लिखा है कि मुहम्मद गोरी को पृथ्वीराज चौहान ने शब्दबेधी बाण से मारा था। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि मुहम्मद गोरी 1203 ई. में गक्करों के हाथों मारा गया।
  • रासो में लिखा है कि पृथ्वीराज की बहन पृथा का विवाह चित्तौड़ के राजा समरसिंह से हुआ था। यह असंभव है क्योंकि राजा समरसिंह का समय 13वीं शताब्दी ई. का उत्तरार्ध है जबकि पृथ्वीराज की मृत्यु 12वीं शती ई. में ही हो गई थी।
  • राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार महामहोपाध्याय गौरी शंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार “इस तरह हमने जाँच कर देखा कि पृथ्वीराज रासो बिल्कुल अनैतिहासिक ग्रंथ है। उसमें चौहानों, प्रतिहारों और सोलंकियों की उत्पत्ति संबंधी कथा, चौहानों की वंशावली, पृथ्वीराज की माता, भाई, बहिन, पुत्र और रानियों आदि के विषय की कथाएं तथा बहुत सी घटनाओं के संवत् और प्रायः सभी घटनाएँ तथा सामंतों आदि के नाम अशुद्ध और कल्पित हैं। कुछ सुनी सुनायी बातों के आधार पर इस बृहत् काष्य की रचना की गई है…..| भाषा की दृष्टि से यह ग्रंथ प्राचीन नहीं दीखता। (हिंदी साहित्य उद्भव और विकास, हजारी प्रसाद द्विवेदी से उद्धृत)
  • आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का विचार है कि “….ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बिल्कुल मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराज रासो के पृथ्वीराण के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में पूरा संदेह किया है और 16वीं शताब्दी में लिखा हुआ एक जाली ग्रंथ टहराया है। रासो में चंगेज़, लैमूर आदि पीछे के नाम आने से यह संदेह ओर भी पुष्ट होता है।” (हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल) शुक्ल जी ने इसे परवर्ती रचना और मट्ट-भणन्त कहा।
  • रासो को प्रामाणिक मानने वाले विद्वानों में बाबू श्यामसुंदर दास और रासो के सम्पादक मोहन लाल विष्णु लाल पंड्या उल्लेखनीय हैं। बाबू श्यामसुंदर दास इसे काव्य ग्रंथ मानकर इसे ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर कसे जाने को उचित नहीं मानते। पंड्या जी ने तो इसकी तिथियों को इतिहास-सम्मत सिद्ध करने के लिए एक संवत् – आनंद संवत् की कल्पना कर डाली। पंड्या जी के अनुसार रासो के उल्लिखित संवतों में विक्रमसंवत् से सर्वत्र 90-91 वर्षों का अंतर पड़ता है। इसका कारण यह है कि रासो की उल्लिखित तिथियाँ विक्रमसंवत् की नहीं आनंद संवत् के अनुसार हैं। अपने पक्ष के समर्थन में उन्होंने रासो के इस दोहे को प्रस्तुत कियाः


एकादश सै पंचदह विक्रम साक अनंद
तिहि रिपुजय पुरहरन को भए पृथिराज नरिंद ।

उनके मतानुसार ‘ विक्रम साक अनंद’ का अर्थ है – 90 (नब्बे) । अ का अर्थ शून्य और नंद का अर्थ नौ। अर्थात 91विक्रम संवत् में से 90 वर्ष घटा देने से ‘अनंद संवत्’ बनते हैं। (हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल के आधार पर) पंड्या जी के इस विचार पर विद्वानों ने संदेह प्रकट किया और आनंद संवत् की धारणा मान्य नहीं हुई।

पृथ्वीराज रासो की रचनाकार और रचनाकाल

इस काव्य का रचनाकाल और भी विवादास्पद है। ओझा जी ने इसका रचनाकाल 16वीं शताब्दी अनुमानित किया था। शुक्ल जी इसे पृथ्वीराज चौहान के समय का काव्य नहीं मानते। पं. हजारीप्रसाद ‘द्विवेदी का विचार है कि रासो का वर्तमान रूप अधिक से अधिक सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में ही प्राप्त हुआ होगा। पृथ्वीराज रासो के एक महत्वपूर्ण सम्पादक डॉ. माताप्रसाद गुप्त के अनुसार सभी दृष्टियों से पृथ्वीराज रासो की रचना सं. 1400 के लगभग हुई मानी जा सकती है. इससे पूर्व नहीं।
प्रसिद्ध अपभ्रंश-विद्वान् मुनिजिनविजय जी का विचार है कि इससे प्रमाणित होता है कि चंदकवि निश्चिततया एक ऐतिहासिक पुरुष था और वह दिल्लीश्वर हिंदू सम्राट पृथ्वीराज का समकालीन और उसका सम्मानित एवं राजकवि था। उसी ने पृथ्वीराज के कीर्ति-कलाप का वर्णन करने के लिए देश्य प्राकृत भाषा में एक काव्य की रचना की थी जो पृथ्वीराज रासो के नाम से प्रसिद्ध हुई। 

Leave A Reply