काव्य हेतु

काव्य हेतु से तात्पर्य काव्य की उत्पत्ति का कारण है। बाबू गुलाबराय के अनुसार ‘हेतु’ का अभिप्राय उन साधनों सेे है, जो कवि की काव्य रचना में सहायक होते है। काव्य हेतु पर सर्वप्रथम् ‘अग्निपुराण ‘ में विचार किया गया है।
काव्य हेतु पर विभिन्न आचार्यो के मत इस प्रकार है-

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काव्य हेतु

आचार्य भामह का मत-

इनके अनुसार ” उन्होंने कविता के लिए प्रतिभा के महत्व को असंदिग्ध रूप से उसे स्वीकार किया है।उन्होंने माना है कि गुरु के उपदेश से मन्द बुद्धि व्यक्ति भी शास्त्रो का यथेष्ट (जैसा है) अध्ययन करके शास्त्रज्ञ बन सकता है किन्तु काव्य रचना तो किसी प्रतिभावान आदमी के बस की बात है।

प्रतिभा के महत्व को स्वीकार करते हुए भामह ने काव्य के लिए छः साधनों को आवश्यक माना है-
1-सब्द 2-छंद 3-अभिधानाय 4-इतिहास कथा 5-लोक कथा 6-युक्ति और कला

आचार्य भामह ने अपने ग्रंथ ‘काव्यालंकार’ में वर्णित किया है-
गुरुदेशादध्येतुं शास्त्रं जङधिममोअ्प्यलम् ।
काव्यं तु जापते जातु कस्यचित् प्रतिभावतः।।

आचार्य दण्डी के अनुसार,

आचार्य दण्डी ने काव्य के लिए नैसर्गिक प्रतिभा,विवेकयुक्त शास्त्रज्ञान तथा सतत् अभ्यास काव्य हेतुओ के लिए आश्यक माना है आचार्य दण्डी का यह विचार है कि नैसर्गिक प्रतिभा की न्यूनता हो तो भी परिश्रम पूर्वक सरस्वती की उपासना एवं साधना द्वारा काव्य रचना का सामर्थ्य प्राप्त किया जा सकता।
दण्डी के अनुसार,
नेसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहु निर्मलम् ।
आनन्दाश्चयाभियोगो अस्याः कारणं काव्य सम्पदा।।
अर्थात निर्मल शास्त्र ज्ञान, नैसर्गिक प्रतिभा और बढ़ा-चढ़ा अभ्यास काव्य संपत्ति में कारण होते है।

आचार्य वामन का मत

आचार्य वामन को काव्य सौन्दर्य का पर्यायवाची मानने वाले तथा रीति को काव्य की आत्मा घोसित करने वाले आचार्य के रूप में जाना जाता है।उनका मानना है कि विचारो में व्युत्पत्ति एवं अभ्यास की प्रधानता होनी चाहिए किन्तु ‘कवित्व बीजं प्रतिभानं कवित्वस्य बिजम् ‘ कहकर उन्होंने प्रतिभा को कवित्त अर्थात कविता की आत्मा माना है जिसका उल्लेख ही उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘काव्यालंकार’ सूक्त बृत्ति में किया ।

आचार्य रुद्रट का मत

आचार्य रुद्रट ने अपने ग्रंथ ‘काव्यालंकर’ में तीन हेतुओं का विशेष रूप में उल्लेख किया है-
(1) शक्ति (2)व्युत्पत्ति (3)अभ्यास
शक्ति को प्रतिभा का पर्यायवाची मानते हुए आचार्य रुद्रट ने बताया है कि मन की एकाग्रता द्वारा कवि के मन मे काव्य रचने के उनके प्रकारों का तथा आकृष्ट पदों की अपने आप उपलब्धि प्राप्त हो जाती है वह शक्ति है। रुद्रट ने प्रतिभा व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनो के संयोग को उत्तम काव्य की रचना के लिए आवश्यक माना है।

रुद्रट प्रतिभा को दो प्रकार का बताते है – (1)सहजा (2)उत्पाद्या

ध्वनिकार आनंदवर्धन का मत,

ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक आनंदवर्धन जन्मजात एवं संस्कार रूप में विद्यमान प्रतिभा को काव्य का सबसे आवश्यक हेतु माना है।इसके साथ ही उन्होंने चित्त की एकाग्रता तथा अवधान को भी काव्य के लिए आवश्यक माना है।

उनके अनुसार,”जब तक चित्त का अवधान नही है और ग्राह्य अर्थो के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार के अर्थो से चित्त निवृत्त नही होता काव्य रचना सम्भव नही है।”

राजशेखर का मत,

राजशेखर ने प्रतिभा को विशेष महत्व देते हुए व्युत्पत्ति एवं अभ्यास को उसी के अंतर्गत समाहित कर दिया।राजशेखर ने काव्य रचने के लिए आठ हेतुओं को आवश्यक माना है-
(1) स्वास्थ्य (2)प्रतिभा (3)अभ्यास (4)भक्ति (5) वृत्त कथा (6)बहुज्यता (निपुणता) (7)स्मृति (8)दृढ़ता और अनुराग
इन्होंने प्रतिभा को दो रूपो में बाटा है-
(1) कवयित्री (2)भावयित्री
काव्ययित्री प्रतिभा जन्मजात होती है तथा भावयित्री प्रतिभा का संबंध पाठक से होता है।काव्ययित्री प्रतिभा का संबंध कवि से होता है।

आचार्य मम्मट का मत ,

मम्मट ने अपने ग्रंथ “काव्यप्रकाश” में काव्य के तीन हेतु मानते है शक्ति,लोक शास्त्र अंवेक्षण(निपुणता) और अभ्यास अर्थात विद्धत जनो द्वारा शिक्षा प्राप्ति के लिए किया गया ज्ञान।
मम्मट ने लिखा है-
शक्तिनिपूर्णता लोकशास्त्र काव्याधवेक्षणात्।
काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्ववे।।
अर्थात काव्य के तीन हेतु है-शक्ति,लोकशास्त्र का अंवेक्षण तथा अभ्यास ।वे मानते है कि काव्य का बीज संस्कार है।इसके अभाव में काव्य रचना नही हो सकती।

पंडित जगन्नाथ का मत,

पंडित जगन्नाथ ने अपने ग्रंथ रस गंगाधर में प्रतिभा को काव्य हेतु स्वीकार किया है।उनके अनुसार ” काव्य का एकमात्र कारण प्रतिभा है जिसके द्वारा काव्य रचना के अनुकूल शब्द और अर्थ प्रकट किए जाते है। यह प्रतिभा अनेक रूपो में घटित हो सकती है।कवि संस्कार के रूप में मनुष्य के भीतर सहज एवं जन्मजात होती है।कभी महापुरुषों और देवताओं की कृपा से अकस्मात प्रस्तुत होती है और कभी निरन्तर व्युत्पत्ति एवं अभ्यास द्वारा साध्य होती है।

हेमचन्द्र का मत,

हेमचन्द्र ने अपने ग्रंथ शब्दानुशासन में ‘प्रतिभा’ को काव्य का हेतु माना है वे अपने ग्रंथ में लिखते है कि “प्रतिभाअ्स्य हेतुः प्रतिभा नवन्वोन्मेषशालिनी “
अर्थात् प्रतिभा काव्य का हेतु है तथा नवन्वोन्मेषशालिनी को प्रतिभा कहते है ।

काव्य का प्रमुख हेतु

प्रतिभा :-

वक्रोक्ति सम्प्रदायके प्रवर्तक आचार्य कुंतक ने प्रतिभा उस शक्ति को माना है जो शब्द और अर्थ में अपूर्व सौन्दर्य की सृष्टि करती है।महिम भट्ट प्रतिभा को काव्य का तृतीय नेत्र मानते है जिससे समस्त भावो का साक्षात्कार होता है।प्रतिभा नए सृजन में सहायक होती है। प्रतिभा के अभाव में सृजन संभव नही हो पाता है। आचार्य मम्मट प्रतिभा को शक्ति का नाम देते है और प्रतिभा को काव्य का बीज मानते है।मम्मट कहते है कि
“शक्तिः कवित्व बीज रूपः संस्कार विशेषः “
अर्थात शक्ति का बीज रूप संस्कार विशेष है।
डॉ नगेन्द्र प्रतिभा को असाधारण कोटि का मेधा मानते है।वे कहते है कि प्रतिभा को नीरस और साधारण वातावरण अच्छे नहिं लगते इस प्रकार प्रतिभा काव्य का मूल है, ईश्वर प्रदत्त शक्ति है, काव्य का बीज है, प्रतिभा के बल पर ही सर्जना और काव्य को रचा जा सकता है।

व्युत्पत्ति :-

राजशेखर व्यूयुत्पत्ति का बहुज्ञता से लगाते है ज्ञान की प्राप्ति भी व्युत्पत्ति कहलाती है। ज्ञान की उपलब्धता शास्त्रों के अध्ययन और लोक व्यवहार से मिलती है।आचार्य वामन ने “विद्या परिज्ञान” को व्युत्पत्ति माना है। रुद्रट ने छन्द, व्याकरण, लोक स्थिति कला के सम्यक् ज्ञान को व्युत्पत्ति माना है।

आचार्य मम्मट व्युत्पत्ति को ‘निपुणता’ का नाम देते है जबकि राजशेखर की मान्यता है कि उचित-अनुचित का विवेक ही व्युत्पत्ति है।राजशेखर कहते है कि” उचितानुचित विवकौ व्युत्पत्तिः ” व्युत्पत्ति के कारण ही व्यक्ति निर्णय ले पाता है कि किस स्थान पर किस शब्द का प्रयोग किया जाए। वस्तुतः प्रतिभा और व्युत्पत्ति ही समग्रतः काव्य रचना का हेतु है। व्युत्पत्ति दो प्रकार की होती है-

(1)शास्त्रीय (2)लौकिक
शास्त्रीय व्युत्पत्ति शास्त्रो के अध्ययन से मिलती है।लौकिक व्युत्पत्ति लोक व्यवहार के निरीक्षण से प्राप्त होती है।लोक व्यवहार में हम सीखते है।

शास्रीय व्युत्पत्ति से काव्य में सौंदर्य और व्यवस्था का समावेश होता है लौकिक व्युत्पत्ति से विषय की सम्यक् प्रस्तुति सम्भव हो पाती है।कवि तभी दोषरहित काव्य रचना कर पाता है जब वह उपरोक्त दोनो प्रकार की व्युत्पत्ति से युक्त हो।लोक व्यवहार व शास्त्रो पुस्तकों का अध्ययन करने से व्यक्ति को वण्य विषय का ज्ञान,ऋतु, देश भौगोलिक जानकारी आदि प्राप्त होती है।उपरोक्त सभी जानकारी होने से वह त्रुटियों से बच जाता है।

अभ्यास:-

प्रतिभा और व्युत्पत्ति के बाद काव्य निर्धारण का तीसरा हेतु अभ्यास है।अभ्यास न होने पर प्रतिभा व्यर्थ हो जाती है।आचार्य वामन अभ्यास के महत्व को बताते हुए लिखते है कि अभ्यास के द्वारा ही कवि कर्म में कुशलता प्राप्त करना है।
“अभ्यासोही कर्मसु कोशलं भावहिती “
आचार्य दण्डी अभ्यास को काव्य का प्रमुख हेतु मानते है।

उनकी मान्यता है कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति के अभाव में काव्य रचना में कोई भी कुशल नही हो पाता।अभ्यास के महत्व को अस्वीकार नही किया जा सकता।”करत-करत अभ्यास नित जड़मति हो सुजान।”अभ्यास से तो जड़बुद्धि भी प्रखर हो जाती है।निरंतर अभ्यास करते रहने से काव्य में निखार आता है। कवि अच्छी कविता का सृजन कर पाता है।रीतिकालीन कवि भिखारी दास काव्य रचनाओ की शक्ति को जन्मजात मानते है।

भिखारी दास लिखते है कि
“सक्ति कवित्त बनाइबे की, जिन जन्म नक्षत्र में दीनी विधाता।”

(1) आचार्य श्रीपति ने अपने काव्य ग्रंथ ‘काव्य सरोज’ मे काव्य हेतुओं की चर्चा की है।अरस्तु भी कवि की प्रतिभा को जन्मजात मानते है।उनकी मान्यता है कि मनुष्य बुद्धिमान पैदा होते है।

(2)आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी’प्रतिभा’को कवि के लिए महत्वपूर्ण मानते है।

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