देवनागरी लिपि के विशेष चिह्न और उनका प्रयोग

देवनागरी लिपि के विशेष चिह्न और उनका प्रयोग

हिंदी की लिपि देवनागरी है और इसका उद्भव ब्राह्मी, गुप्त, सिद्धम, शारदा, नागरी आदि से हुआ है। इसमें 52 (13 स्वर, 33 व्यंजन, 5 यौगिक और 2 विशेष) अक्षर और कुछ मात्राएँ व चिह्न हैं, जिनका प्रयोग लोगों को सबसे अधिक भ्रमित करता है।

उदाहरण के लिए,

 ‘चाँद’ को ‘चांद’ लिखना कुछ लोगों को एक-सा लगता है, जिसका मतलब हुआ कि उनके लिए बिंदु और चन्द्रबिंदु समान है। पर फिर ‘हंस’ और ‘हँस’ के अर्थ और बोलने के तरीके में जमीन-आसमान का अन्तर है। 

सामान्तया सभी व्यंजन स्वरों (मात्राओं) के मिलने से पूरे होते हैं। यदि आप मानते हैं कि ‘क’ में कोई मात्रा नहीं है तो आप गलत हैं, क्योंकि बोलने पर आपको इसके अन्त में ‘अ’ की ध्वनि सुनाई देगी। पर यदि किसी व्यंजन में स्वर की पूरी तरह अनुपस्थिति दिखानी हो, तो उसमें हलन्त (्) लगा कर ऐसा किया है। मम्, व्यक्त (व् + य + क् + त) आदि में आप इसका प्रयोग देखकर यह समझ सकते हैं कि आधे अक्षरों या अन्त में बिना ‘अ’ की ध्वनि के ख़त्म होने वाले अक्षरों के नीचे हलन्त लगता है।

विसर्ग का प्रयोग संस्कृत में बहुत अधिक होता है, हिंदी के कुछ ही शब्दों में यह दिखाई देता है, उदाहरण के लिए – प्रातः, प्रायः, आदि। यह शब्द में ‘ह’ के मौन होने का बोध कराता है।

अवग्रह के चिन्ह को उसके नाम से बहुत ही कम लोग जानते होंगे। लेख लिखते समय मुझे खुद इसका नाम बहुत देर में याद आया। पुराने संस्कृत श्लोकों, जैसे श्रीमद्भगवतगीता के श्लोकों में आपको यह आसानी से मिल जाएगा। संधि के कारण विलुप्त हुए ‘अ’ को प्रदर्शित करने के लिए इसे लगाया जाता है, जैसे – ‘शिव’ + ‘अहम्’ = ‘शिवोऽहम्’।

चूँकि हिंदी भाषा ने उर्दू से भी कई शब्द लिए हैं, इसके उर्दू के भी कुछ चिन्ह भी आ गए हैं। नुक़्ता उर्दू/अरबी/फ़ारसी आदि में इस्तेमाल होने वाला एक चिन्ह है जो प्रायः ऐसे शब्दों के साथ ही दिखता है। जिस वर्ण के नीचे इसका इस्तेमाल होता है, शब्द में उसे कुछ विशिष्ट तरह से बोला जाता है। यदि आपको अभी भी समझ न आया हो, तो ख़त, ज़मीन, बेग़ैरत, फ़कीर आदि शब्दों में क्रमशः ‘ख’, ‘ज’ , ‘ग’ और ‘फ’ के नीचे लगी हुई बिन्दी को देखिए। यही नुक़्ता है। इसको क, ख, ग, ज, फ के साथ ही लगाया जाता है।

प्रणव या ॐ के उच्चारण में तीन अक्षरों का प्रयोग होता है – अ (आविर्भाव)+ उ् (उत्पत्ति) + म् (मौन)।

कहते हैं ब्रह्माण्ड का पहला नाद है ‘ॐ’। इसके बारे में श्लोकों आदि में काफी कुछ वर्णित है। ओउ्म् को संस्कृत साहित्य में एक अति-विशिष्ट अक्षर का दर्जा प्राप्त है।

सबसे ज्यादा लोग बिंदु और चन्द्रबिंदु के अन्तर को समझने में गलती करते हैं। यदि आप भी ऐसा ही करते हैं, जान लीजिए कि बिंदु को अनुस्वार भी कहते हैं, यानी जिसे नासिका से बोला जाए। संस्कृत शब्दों में हमेशा अनुस्वार ही प्रयोग होता है। यदि आपको किसी शब्द को बोलते समय शुद्ध ‘न’ की ध्वनि महसूस हो तो वह अनुस्वार ही होगा।

उदाहरण – चंचल, कंकड़, अंग, चंद, आदि।

चन्द्र-बिंदु तद्भव, देशज और विदेशज शब्दों में ही मिलता है। किसी तत्सम शब्द में इसका प्रयोग नहीं होता। यह अनुनासिक है – यानी इसमें ‘न’ की ध्वनि नाक के साथ-साथ मुँह का प्रयोग करके निकलती है। एक और बात – शिरोरेखा से ऊपर की मात्राओं (‌ि, ी, ‌े, ‌ै, ‌ो, ‌ौ) में अनुनासिक यानी चन्द्रबिंदु का प्रयोग नहीं होता, बल्कि अनुस्वार (ं) ही इस्तेमाल होता है।

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