रीतिकाल की काव्य प्रवृत्तियाँ

रीतिकाल की काव्य प्रवृत्तियाँ

रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ

(1) रीति निरूपण
(2) श्रृंगारिकता।

रीति निरूपण

काव्यांग विवेचन के आधार पर दो वर्गो में बाँटा जा सकता है

सर्वाग विवेचन :

इसके अन्तर्गत काव्य के सभी अंगों (रस, छंद, अलंकार आदि) को विवेचन का विषय बनाया गया है। चिन्तामणि का ‘कविकुलकल्पतरु’, देव का ‘शब्द रसायन’, कुलपति का ‘रस रहस्य’, भिखारी दास का ‘काव्य निर्णय’ इसी तरह के ग्रंथ हैं।

विशिष्टांग विवेचन :

इसके तहत काव्यांगों में रस, छंद व अलंकारों में से किसी एक अथवा दो अथवा तीनों का विवेचन का विषय बनाया गया है। ‘रसविलास’ (चिंतामणि), ‘रसार्णव’ (सुखदेव मिश्र), ‘रस प्रबोध’ (रसलीन), ‘रसराज’ (मतिराम), ‘श्रृंगार निर्णय’ (भिखारी दास), ‘अलंकार रत्नाकर’ (दलपति राय), ‘छंद विलास’ (माखन) आदि इसी श्रेणी के ग्रंथ हैं।

रीति निरूपण का उद्देश्य सिर्फ नवोदित कवियों को काव्यशास्त्र की हल्की-फुल्की जानकारी देना है तथा अपने आश्रयदाताओं पर अपने पांडित्य का धौंस जमाकर अर्थ दोहन करना है।

श्रृंगारिकता

रीतिबद्ध कवियों की श्रृंगारिकता :

काव्यांग निरूपण करते हुए उदाहरणस्वरूप श्रृंगारिकता । केशवदास, चिंतामणि, देव, मतिराम आदि की रचना।

रीतिसिद्ध कवियों की श्रृंगारिकता :

काव्य रीति निरूपण से तो दूर, किन्तु रीति की छाप। बिहारी, रसनिधि आदि की रचना।

रीतिमुक्त कवियों की श्रृंगारिकता :

इनके श्रृंगार में प्रेम की तीव्रता भी है एवं आत्मा की पुकार भी। घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा आदि की रचना।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है : ”श्रृंगार रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान ‘बिहारी सतसई’ का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है।

बिहारी ने इस सतसई के अतिरिक्त और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही एक ग्रंथ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है।

मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई संदेह नहीं।

जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समाहार शक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से वे दोहे ऐसे छोटे छंद में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या है रस के छोटे-छोटे छीटें है।”

थोड़े में बहुत कुछ कहने की अदभुत क्षमता को देखते हुए किसी ने कहा है-

सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगे, घाव करै गंभीर।।

 रीतिकाल की गौण प्रवृत्तियाँ –

भक्ति वीरकाव्य-भक्ति की प्रवृत्ति मंगलाचरणों, ग्रंथों की समाप्ति पर आशीर्वचनों, काव्यांग विवेचन

राज प्रशस्ति व नीति-अपने संरक्षक राजाओं का ओजस्वी वर्णन

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