लक्षणा शब्द शक्ति

लक्षणा शब्द शक्ति

 मुख्यार्थ के बाधित होने पर जिस शक्ति के द्वारा मुख्यार्थ से संबंधित अन्य अर्थ रूढ़ि या प्रयोजन के कारण लिया जाए, वह ‘लक्षणा’ है।

उदाहरण-
(i) सभी मुहावरे व लोकोक्तियाँ- सभी मुहावरों एवं लोकोक्तियों में लक्षणा शब्द-शक्ति के सहारे अर्थ ग्रहण किया जाता है। जैसे- ”उसके लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात है।”- इस वाक्य में ‘चुल्लू भर पानी में डूब मरना (मुहावरा)’ से हमें शब्दों का मुख्यार्थ अभीष्ट नहीं है। हम इनसे दूसरा अर्थ लेते हैं कि ‘बड़ी लज्जा की बात है।’ इसी तरह ‘राम चरण की जगह उसके भतीजे पिण्टू के घर के मालिक होने पर उसके पड़ोसी ने कहा- हंसा थे सो उड़ गये, कागा भये दीवान।’- इस वाक्य में ‘हंसा थे सो उड़ गये, कागा भये दीवान (लोकोक्ति) से हम शब्दों का मुख्यार्थ नहीं लेते, बल्कि हम इनसे दूसरा अर्थ लेते हैं कि उक्त घर में ‘सज्जन/योग्य/गुणवान व्यक्ति के स्थान पर दुर्जन/अयोग्य/गुणहीन व्यक्ति का आधिपत्य हो गया है।’

(ii) एक पद्यबद्ध उदाहरण- निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविता की अंतिम पंक्ति-
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं।

दृष्टि मार नहीं खाती, प्राणी मार खाता है, दृष्टि नहीं रोती प्राणी रोता है। इसलिए दृष्टि ‘जो मार खा रोई नहीं’- इस कथन में अभिधेय अर्थ या मुख्य अर्थ लागू नहीं होता, बाधित हो जाता है। तब हम उससे संबंधित अन्य अर्थ दूसरा अर्थ लेते हैं- कवि उस स्त्री की बात कह रहा है जो जीवन संघर्ष में बार-बार मार खाकर या आघात झेलकर रोई नहीं।

(iii) एक और पद्यबद्ध उदाहरण- दिनकर की काव्य-कृति ‘रेणुका’ से-
विद्युत की इस चकाचौंध में,
देख, दीप की लौ रोती है,
अरी, ह्रदय को थाम,
महल के लिए झोपड़ी बलि होती है।

इस पद्य का मुख्यार्थ स्पष्ट है कि विद्युत की इस चकाचौंध में दीप की लौ रोती है। अरी ! हृदय को थाम ले, यहाँ महल के लिए झोपड़ी बलि होती है। किन्तु इसका लक्ष्यार्थ यह है कि महलों में रहनेवाले लोगों को जो वैभव प्राप्त है वह वस्तुतः झोंपड़ी में रहनेवाले मजदूरों के श्रम का ही परिणाम है। इस पद्य में ‘महल’ का अर्थ महल के निवासी अर्थात ‘धनी’ और ‘झोपड़ी’ का अर्थ झोंपड़ी के निवासी अर्थात ‘निर्धन’ अर्थ भी लक्षणा शब्द-शक्ति से गृहीत होते हैं। इसी प्रकार इस पद्य में प्रयुक्त ‘विद्युत की चकाचौंध’ का ‘वैभव’ अर्थ और ‘दीपक की लौ का रोना’ का ‘श्रमिक जीवन’ अर्थ भी लक्षणा शब्द-शक्ति द्वारा ज्ञात होते हैं।

लक्षणा के भेद

लक्षणा के भेद कारण के आधार पर लक्षणा के दो भेद हैं-
(1) रूढ़ा लक्षणा
(2) प्रयोजनवती लक्षणा

(1) रूढ़ा लक्षणा-

 जहाँ रूढ़ि के कारण मुख्यार्थ से भिन्न लक्ष्यार्थ का बोध हो, वहाँ ‘रूढ़ा लक्षणा’ होती है।

उदाहरण :
(i) गद्यात्मक उदाहरण : ”आप तो एकदम राजा हरिश्चन्द्र है” का लक्ष्यार्थ है आप हरिश्चन्द्र के समान सत्यवादी हैं। सत्यवादी व्यक्ति को राजा हरिश्चन्द्र कहना रूढ़ि है।

(ii) पद्यबद्ध उदाहरण : ‘आगि बड़वाग्नि ते बड़ी है आगि पेट की’ (तुलसी) का मुख्यार्थ है- बड़वाग्नि यानी समुद्र में लगने वाली आग से बड़ी पेट की आग होती है। पेट में आग नहीं, भूख लगती है इसलिए मुख्यार्थ की बाधा है। लक्ष्यार्थ है तीव्र और कठिन भूख को व्यक्त करना जो पेट की आग के जरिये किया गया है। तीव्र और कठिन भूख के लिए ‘पेट में आग लगना’ कहना रूढ़ि है।

(2) प्रयोजनवती लक्षणा-

 जहाँ प्रयोजन के कारण मुख्यार्थ से भिन्न लक्ष्यार्थ का बोध हो, वहाँ ‘प्रयोजनवती लक्षणा’ होती है।

उदाहरण :
(i) ”शिवाजी सिंह है”- यदि हम कहें कि शिवाजी सिंह हैं। तो सिंह शब्द के मुख्यार्थ (विशेष जीव) में बाधा पड़ जाती है। हम सब जानते है कि शिवाजी आदमी थे, सिंह नहीं लेकिन यहाँ शिवाजी के लिए सिंह शब्द का प्रयोग विशेष प्रयोजन के लिए किया गया है। शिवाजी को वीर या साहसी बताने के लिए सिंह शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार ‘सिंह’ शब्द का ‘वीर’ या ‘साहसी’ अर्थ लक्ष्यार्थ है।

(ii) ”लड़का शेर है”- यदि हम कहें कि ‘लड़का शेर है।’ तो इसका लक्ष्यार्थ है ‘लड़का निडर है।’ यहाँ पर शेर का सामान्य अर्थ अभीष्ट नहीं है। लड़के को निडर बताने के प्रयोजन से उसके लिए शेर शब्द का प्रयोग किया गया है।

(iii) एक पद्यबद्ध उदाहरण :
कौशल्या के वचन सुनि भरत सहित रनिवास।
व्याकुल विलप्त राजगृह मनहुँ शोक निवास।। 
-तुलसी

कौशल्या के वचन सुनकर समस्त राजगृह व्याकुल होकर रो रहा है। ‘राजगृह’ अर्थात राजभवन नहीं रो सकता। ‘राजगृह’ का लक्ष्यार्थ है ‘राजगृह में रहनेवाले लोग’ । समस्त राजगृह के रोने से अत्यधिक दुःख को व्यक्त करने का विशेष प्रयोजन है।

प्रयोजनवती लक्षणा के भेद

भेदलक्षण/पहचान-चिह्नपरिभाषा एवं उदाहरण
(1) गौणी लक्षणासादृश्य संबंधजहाँ सादृश्य संबंध अर्थात समान गुण या धर्म के कारण लक्ष्यार्थ की प्रतीति हो।
उदाहरण : ‘मुख कमल’। सादृश्य संबंध के द्वारा लक्ष्यार्थ का बोध हो रहा है कि मुख कमल के समान कोमल है।
(i) सारोपा
(स +_आरोपा)
विषय/उपमेय/आरोप का विषय + विषयी/उपमान/आरोप्यमाण (दोनों)जहाँ विषय और विषयी दोनों का शब्द निर्देश करते हुए अभेद बताया जाए।
उदाहरण : ‘सीता गाय है।’ का लक्ष्यार्थ है- सीता सीधी-सादी है। यहाँ गाय (विषयी) का सीधापन-सादापन सीता (विषय) पर आरोपित है।
(ii) साध्यावसाना (स + अध्यवसाना) अध्यवसान =आत्मसात, निगरणविषयी (केवल)जहाँ केवल विषयी का कथन कर अभेद बताया जाए।
उदाहरण : यदि कोई मालिक खीझ कर नौकर को कहे कि ‘बैल कहीं का।’ तो इस वाक्य में विषय (नौकर) का निर्देश नहीं है, केवल विषयी (बैल) का कथन है।
(2) शुद्धा लक्षणासादृश्येतर संबंध सादृश्येतर
= सादृश्य + इतर
जहाँ सादृश्येतर संबंध (सादृश्य संबंध के अतिरिक्त किसी अन्य संबंध) से लक्ष्यार्थ की प्रतीति हो।
सादृश्येतर संबंध हैं- आधार-आधेय भाव, सामीप्य, वैपरीत्य, कार्य-कारण, तात्कर्म्य आदि।
उदाहरण :
(i) आधार-आधेय संबंध का उदाहरण : ‘महात्मा गाँधी को देखने के लिए सारा शहर उमड़ पड़ा।’ यहाँ ‘शहर’ का मुख्यार्थ (नगर) बाधित है, ‘शहर’ का लक्ष्यार्थ है- ‘शहर के निवासी’ । शहर है- आधार और शहर का निवासी है- आधेय।
(ii) सामीप्य संबंध का उदाहरण : आँचल में है दूध और आँखों में पानी। (यशोधरा) यहाँ आँचल का मुख्यार्थ (साड़ी का छोर) बाधित है, आँचल मैथलीशरण गुप्त का लक्ष्यार्थ है- स्तन। चूँकि आँचल सदा स्तन के समीप रहता है, इसलिए आँचल और स्तन में सामीप्य संबंध है।
(iii) वैपरीत्य संबंध का उदाहरण : ‘तुम सूख-सूख कर हाथी हुए जा रहे हो।’ कोई व्यक्ति सूख-सूखकर हाथी नहीं हो सकता है, लक्ष्यार्थ है- तुम बहुत दुर्बल हो गये हो।
(iv) वैपरीत्य संबंध का एक और उदाहरण : ‘उधो तुम अति चतुर सुजान’ यहाँ जब गोपियाँ उद्धव को चतुर और सुजान बता रही है तो सूरदास वे वस्तुतः उद्धव को सीधा और अजान कह रही है। यहाँ चतुर और सुजान के मुख्यार्थ बाधित है और उनमें चतुरता का अभाव और अज्ञता का बोध कराना लक्ष्यार्थ है।
(i) उपादान लक्षणा (उपादान = ग्रहण करना)मुख्यार्थ + लक्ष्यार्थ (दोनों)जहाँ मुख्यार्थ के साथ लक्ष्यार्थ का भी ग्रहण हो।
उदाहरण : ‘पगड़ी की लाज रखिए।’ यहाँ ‘पगड़ी’ का मुख्यार्थ है- पगड़ी, पाग और लक्ष्यार्थ है- ‘पगड़ी वाला’ । यहाँ लक्ष्यार्थ के साथ-साथ मुख्यार्थ का भी ग्रहण किया गया है।
(ii) लक्षण-लक्षणालक्ष्यार्थ (केवल)जहाँ मुख्यार्थ को छोड़कर (त्याग कर) केवल लक्ष्यार्थ का ग्रहण हो।
उदाहरण :
(i) ‘वह पढ़ाने में बहुत कुशल है।’- इस वाक्य में ‘कुशल’ का मुख्यार्थ (कुशलाने वाला) बाधित है और केवल लक्ष्यार्थ (दक्ष) का ग्रहण किया गया है।
(ii) ‘माधुरी नृत्य में प्रवीण है।’- इस वाक्य में ‘प्रवीण’ का मुख्यार्थ (वीणा बजाने में निपुण) बाधित है और केवल लक्ष्यार्थ (कुशल) को ग्रहीत किया गया है।
(iii) ‘देवदत्त चौकन्ना हो गया।’- इस वाक्य में ‘चौकन्ना’ का मुख्यार्थ (चार कानों वाला) बाधित है और केवल लक्ष्यार्थ (सावधान) का ग्रहण किया गया है।

लक्षणा का महत्त्व : काव्य में लक्षणा के प्रयोग से जीवन के अनुभव को समृद्ध किया जाता है। कल्पना के सहारे सादृश्य और साधर्म्य के अनेकानेक विधानों द्वारा अनुभवों की सूक्ष्मता और विस्तार को प्रकट किया जाता है। इसलिए काव्य में लक्षणा शब्द-शक्ति की प्रबलता है।

(3) व्यंजना (Suggestive Sense Of a Word)-

अभिधा व लक्षणा के असमर्थ हो जाने पर जिस शक्ति के माध्यम से शब्द का अर्थ बोध हो, उसे ‘व्यंजना’ कहते हैं।
दूसरे शब्दों में-शब्द के जिस व्यापार से मुख्य और लक्ष्य अर्थ से भिन्न अर्थ की प्रतीति हो उसे ‘व्यंजना’ कहते हैं।

‘अंजन’ शब्द में ‘वि’ उपसर्ग लगाने से ‘व्यंजन’ शब्द बना हैं; अतः व्यंजन का अर्थ हुआ ‘विशेष प्रकार का व्यंजन’। आँख में लगा हुआ अंजन जिसप्रकार दृष्टि-दोष दूर कर उसे निर्मल बनाता हैं, उसी प्रकार व्यंजना-शक्ति शब्द के मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ को पीछे छोड़ती हुई उसके मूल में छिपे हुए अकथित अर्थ को प्रकाशित करती हैं।

अभिधा और लक्षणा अपने अर्थ का बोध करा कर जब अलग हो जाती हैं तब जिस शब्द-शक्ति द्वारा व्यंग्यार्थ का बोध होता हैं उसे व्यंजना-शक्ति कहते हैं। व्यंग्यार्थ के लिए ‘ध्वन्यार्थ’, ‘सूच्यार्थ’, ‘आक्षेपार्थ’, ‘प्रतीयमानार्थ’ जैसे शब्दों का प्रयोग होता हैं।

उदाहरण :

(i) प्रसिद्ध उदाहरण : ‘सूर्य अस्त हो गया।’ इस वाक्य के सुनने के उपरांत प्रत्येक व्यक्ति इससे भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करता है। प्रसंग विशेष के अनुसार इस वाक्य के अनंत व्यंजनार्थ हो सकते हैं।

वाक्यप्रसंग विशेष (वक्ता-श्रोता)अर्थ
सूर्य अस्त हो गयापिता के पुत्र से कहने परपढ़ाई-लिखाई शुरू करो।
सास के बहू से कहने परचूल्हा-चौका आरंभ करो।
किसान के हलवाहे से कहने परहल चलाना बंद करो
पशुपालक के चरवाहे से कहने परपशुओं को घर ले चलो।
पुजारी के चेले से कहने परसंध्या-पूजन का प्रबंध करो।
राहगीर के अपने साथी से कहने परठहरने का इंतजाम करो।
कारवाँ-प्रमुख के उपप्रमुख से कहने परपड़ाव की व्यवस्था करो।

इस तरह इस एक वाक्य से वक्ता-श्रोता के अनुसार न जाने कितने अर्थ निकल सकते हैं। यहाँ जिसने भी अर्थ दिये गये है वे साक्षात् संकेतित नहीं है, इसलिए इनमें अभिधा शक्ति नहीं है। इनमें लक्षणा शक्ति भी नहीं है, कारण है कि उक्त वाक्य लक्षणा की शर्त मुख्यार्थ में बाधा को पूरा नहीं करता क्योंकि यहाँ सूर्य का जो मुख्यार्थ है वह मौजूद है। साफ है कि इनमें पायी जानेवाली शब्द-शक्ति व्यंजना है।

(ii) एक पद्यबद्ध उदाहरण :
प्रभुहिं चितइ पुनि चितइ महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिजु-मीन-जुग, जनु विधुमंडल डोल।। 
– तुलसी

यहाँ धनुष-यज्ञ के प्रसंग में सीता की मनोदशा का चित्रण किया गया है। इस पद्य की पहली पंक्ति का वाच्यार्थ/अभिधेयार्थ यह है कि सीता पहले राम की ओर देखती है और फिर धरती की ओर। इससे उनके चपल नेत्र शोभित हो रहे हैं। किन्तु व्यंजनार्थ यह है कि सीता के मन में इस समय उत्सुकता, हर्ष, लज्जा आदि के भाव क्षण-क्षण में प्रकट हो रहे हैं। राम को देखकर उत्सुकता और हर्ष का भाव उत्पन्न होता है, साथ ही दूसरों की उपस्थिति का ध्यान कर उनके मन में तुरंत लज्जा भी आ जाती है, और वे धरती की ओर देखने लगती है। पर हर्ष और उत्सुकता के वशीभूत होने से वे अपने को रोक नहीं पाती और फिर राम की और देखती है, किन्तु लज्जावश फिर धरती की ओर देखने लगती है। इस प्रकार यह चक्र कुछ समय तक चलता रहता है।
स्पष्ट है कि उक्त पद्य की पहली पंक्ति से हमें हर्ष, उत्सुकता, लज्जा आदि भावों की जो प्रतीति होती है वह न तो अभिधा शक्ति से होती है और न लक्षणा शक्ति से, बल्कि होती है व्यंजना शक्ति से।

(iii) एक और पद्यबद्ध उदाहरण :
चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।। 
-कबीर

यहाँ चलती चक्की को देखकर कबीरदास के दुःखी होने की बात कही गई है। उसके द्वारा यह अर्थ व्यंजित होता है कि संसार चक्की के समान है जिसके जन्म और मृत्यु रूपी दो पार्टों के बीच आदमी पिसता रहता है।

व्यंजना के भेद

व्यंजना के दो भेद है-
(1) शाब्दी व्यंजना
(2) आर्थी व्यंजना।

(1) शाब्दी व्यंजना- शब्द पर आधारित व्यंजना को ‘शाब्दी व्यंजना’ कहते है।

(2)आर्थी व्यंजना- अर्थ पर आधारित व्यंजना को ‘आर्थी व्यंजना’ कहते हैं।

शब्द दो प्रकार के होते है- एकार्थक एवं अनेकार्थक। जिन शब्दों का केवल एक ही अर्थ होता है, उन्हें ‘एकार्थक शब्द’ कहते हैं। जैसे- पुस्तक, दवा इत्यादि।
जिन शब्दों के एक से अधिक अर्थ होते हैं, उन्हें ‘अनेकार्थक शब्द’ कहते है।
जैसे- कलम [अर्थ- (1) लेखनी (2) पेड़-पौधे की टहनी (3) कलमकार की कूची (4) चित्र-शैली (जैसे- पटना कलम) आदि], पानी (अर्थ- (1) जल (2) चमक (3) प्रतिष्ठा आदि) इत्यादि।
अनेकार्थक शब्दों पर टिकी व्यंजना को ‘शाब्दी व्यंजना’ तथा एकार्थक शब्दों पर टिकी व्यंजना को ‘आर्थी व्यंजना’ कहते हैं।

व्यंजना के भेद

भेदलक्षण/पहचान-चिह्नपरिभाषा एवं उदाहरण
(1) शाब्दी व्यंजनाअनेकार्थक शब्दों का प्रयोगजहाँ अनेकार्थक शब्दों का प्रयोग हो, वहाँ ‘शाब्दी व्यंजना’ होती है। अनेकार्थक शब्द के अर्थ का निश्चय 14 आधारों में से किसी एक या अधिक आधार पर किया जाता है- संयोग, असंयोग, साहचर्य, विरोध, अर्थ, प्रकरण, लिंग, अन्य-सन्निधि (वक्ता व श्रोता के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति की उपस्थिति), सामर्थ्य, औचित्य, देश, काल, व्यक्ति और काकु (स्वर विकार) ।
शाब्दी व्यंजना के दो भेद हैं-
अभिधामूला एवं लक्षणामूला।
(i) अभिधामूला शाब्दी व्यंजनाअभिधात्मक शब्द पर आश्रित (निर्भर)अभिधात्मक शब्द पर आश्रित (निर्भर) शाब्दी व्यंजना ‘अभिधामूला शाब्दी व्यंजना’ कहलाती है।
उदाहरण : चिर जीवो जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के वीर।। 
-बिहारी
बिहारी के इस दोहे का अभिधेयार्थ है- राधा कृष्ण की यह जोड़ी चिरजीवी हो। इनका गहरा प्रेम क्यों न जुड़े ? दोनों में कौन किससे घटकर है ? ये वृषभानुजा (वृषभानु + जा = वृषभानु की जाया/बेटी = राधा) है और वे हलधर (बलराम) के वीर भाई यानी कृष्ण।
किन्तु ‘वृषभानुजा’ एवं ‘हलधर के वीर’ शब्द अनेकार्थक है, अतः उनसे दूसरा और तीसरा अर्थ भी ध्वनित होता है। दूसरे अर्थ में ये वृषभ + अनुजा =बैल की बहन यानी ‘गाय’ है और वे हलधर = बैल के वीर =भाई यानी ‘साँड़’ है। तीसरे अर्थ में ये ‘वृष राशि में उत्पन्न’ है और वे ‘शेषनाग के अवतार’ ।
इस दोहे में ‘वृषभानुजा’ के स्थान पर ‘राधा’ एवं ‘हलधर’ के स्थान पर ‘बलराम’ शब्द का प्रयोग कर दिया जाये तो यह व्यंग्यार्थ नष्ट हो जायेगा।
(ii) लक्षणामूला शाब्दी व्यंजनालाक्षणिक शब्द पर आश्रित (निर्भर)लाक्षणिक शब्द पर आश्रित व्यंजना ‘लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना’ कहलाती है।
उदाहरण : फली सकल मनकामना, लूट्यौ अगणित चैन।
आजु अँचे हरि रूप सखि, भये प्रफुल्लित नैन।।

इस उदाहरण में लक्षणा के ‘फली’ का अर्थ है- पूर्ण हुई, ‘लूटयौ’ का अर्थ है- प्राप्त किया और ‘अँचै’ का अर्थ है- देखा। किन्तु व्यंजना से संपूर्ण पद का व्यंग्यार्थ है- प्रियतम के दर्शन से अत्यधिक आनंद प्राप्त किया।
(2) आर्थी व्यंजनाएकार्थक शब्दों का प्रयोगजहाँ एकार्थक शब्दों का प्रयोग हो, वहाँ ‘आर्थी व्यंजना’ होती है।
एकार्थक शब्दों के अर्थ का निश्चय 10 आधारों में से किसी एक या अधिक आधार पर किया जाता है- वक्ता (कहनेवाला), बोधव्य (सुननेवाला), काकु (स्वर विकार), वाक्य, वाच्य, अन्य-सन्निधि (कहनेवाले) और सुननेवाले के अलावा किसी तीसरे शख्स की मौजूदगी), प्रकरण (प्रसंग), देश, काल एवं चेष्टा।
उदाहरण : (i) काकु का उदाहरण-
मैं सुकुमारि, नाथ वन जोगू।
तुमहिं उचित तप, मो कहँ भोगू।। 
-तुलसीसीता, राम से कहती है कि मैं सुकुमारी हूँ और आप वन जाने के योग्य हैं; आपके लिए तप का रास्ता उचित है और मुझे भोग के रास्ते पर चलने को कह रहे हैं। यहाँ सीता के कहने के विशेष प्रकार यानी स्वर विकार (काकु) के कारण यह ध्वनित हो रहा है कि मैं ही सुकुमारी नहीं हूँ, आप भी सुकुमार हैं। आप वन जाने के योग्य हैं तो मैं भी वन जाने के योग्य हूँ। मैं राजकुमारी हूँ तो आप भी राजकुमार हैं। अतः मेरा भी वन जाना उचित है। चूँकि इसमें प्रयुक्त सभी शब्द एकार्थक हैं इसलिए आर्थी व्यंजना हैं।(ii) अन्य सन्निधि का उदाहरण : एक लड़की किसी लड़के से प्रेम करती है। उससे मिलने को व्याकुल है, पर उसे कोई खबर भी नहीं भिजवा सकती। अचानक एक दिन वह लड़का दिख गया, पर उस समय लड़की की सखी मौजूद थी। लड़की ने होशियारी के साथ अपनी सखी से कहा- ”क्या बताऊँ सखी, दिन भर काम में जुटी रहती हूँ। सिर्फ शाम को थोड़ी फुरसत मिलती है तब कहीं नदी किनारे पानी लाने जाती हूँ, पर उस समय कोई चिड़िया का पूत भी नहीं होता। क्या करूँ, लाचार हूँ।”
इस साधारण वाक्य का अर्थ उस लड़के के नजदीक रहने (अन्य-सन्निधि) से यह हो जाता है कि तुम शाम को नदी किनारे मिलो।(iii) चेष्टा का उदाहरण :
कोटि मनोज लजावन हारे।
सुमुखि कहहु को अहहिं तुम्हारे।।
सुनि स्नेहमय मंजुल बानी।
संकुचि सीय मन मँह मुसकानी।।
 -तुलसीतुलसी के इस चौपाई का मुख्यार्थ है- वनवास के समय राम, सीता एवं लक्ष्मण के दिव्य रूप को देखकर वन की स्त्रियों में सीता से राम की ओर संकेत कर परिचय पूछा तो उनकी स्निग्ध भोली वाणी सुनकर सीता ने संकोच के साथ मुस्कुरा दिया।
किन्तु इस चौपाई को व्यंग्यार्थ है- सीता ने कुछ बोलकर उनके (वन के स्त्रियों के) प्रश्न का उत्तर नहीं दिया पर उनकी संकोच भरी मुस्कान ने बता दिया कि ‘ये मेरे पति हैं।’
चूँकि इस चौपाई में प्रयुक्त सभी शब्द एकार्थक है इसलिए इसमें आर्थी व्यंजना है और आर्थी व्यंजना का आधार आंगिक चेष्टा (संकोच भरी मुस्कान) है।

व्यंजना का महत्त्व : काव्य सौंदर्य के बोध में व्यंजना शब्द शक्ति का विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यंजना शब्द-शक्ति काव्य में अर्थ की गहराई, सघनता और विस्तार लाता है। काव्यशास्त्रियों ने सर्वश्रेष्ठ काव्य की सत्ता वहीं स्वीकार की है जहाँ रस व्यंग्य (व्यंजित) हो। रीतिकालीन कवि और आचार्य प्रतापसाहि के शब्दों में-

व्यंग्य जीव है कवित में शब्द अर्थ गति अंग।
सोई उत्तर काव्य है वरणै व्यंग्य प्रसंग।।

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