निबन्ध की विशेषताएँ

निबन्ध की विशेषताएँ

निबन्ध की चार प्रमुख विशेषताएँ हैं।-
(1) व्यक्तित्व का प्रकाशन
(2)संक्षिप्तता
(3)एकसूत्रता
(4)अन्विति का प्रभाव

(1)व्यक्तित्व का प्रकाशन :- निबन्धरचना का प्रथम लक्ष्य हैं- व्यक्तित्व का प्रकाशन। निबन्ध में निबन्धकार अपने सहज स्वाभाविक रूप से पाठक के सामने प्रकट होता है। वह पाठकों से मित्र की तरह खुलकर सहज संलाप करता है। यही कारण है कि मैदान की स्वच्छ हवा में कुछ देर टहलने से चित्त को जिस प्रसत्रता और उत्साह की प्राप्ति होती है, निबन्ध पढ़ने पर मन को वैसा ही आह्यद होता है। अतः निबन्ध की सर्वप्रथम विशेषता है- व्यक्तित्व का प्रकाशन।

(2)संक्षिप्तता :- निबन्ध की दूसरी विशेषता है- संक्षिप्तता। निबन्ध जितना छोटा होता है, जितना अधिक गठा होता है, उसमें उतनी ही सघन अनुभूतियाँ होती है और अनुभूतियों में गठाव-कसाव के कारण तीव्रता रहती है। फलतः निबन्ध का प्रभाव पाठक पर सर्वाधिक पड़ता है। निबन्ध की सफलता-श्रेष्ठता उसकी संक्षिप्तता है। शब्दों का व्यर्थ प्रयोग निबन्ध को निकृष्ट बनाता है।

(3)एकसूत्रता :-श्रेष्ठ और सरल निबन्ध की तीसरी विशेषता है- एकसूत्रता। कुछ लोगों के विचारानुसार निबन्ध में क्रम अथवा व्यवस्था की आवश्यकता नहीं। ऐसा कहना ठीक नहीं। निबन्ध में निबन्धकार स्वयं को अभिव्यक्त करता है; साथ ही उसमें भावों का आवेग भी रहता है। फिर भी, निबन्ध में वैयक्तिक विशेषता का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि निबन्धकार पागलों की तरह अर्थहीन, भावहीन प्रलाप करें, बल्कि सफल निबन्धकार में चिन्तन का प्रकाश रहता है।
आचार्य शुक्ल के शब्दों में, व्यक्तिगत विशेषता का मतलब यह नहीं कि उसके प्रदर्शन के लिए विचारों की श्रृंखला रखी ही न जाय या जानबूझकर उसे जगह-जगह से तोड़ दिया जाय; भावों की विचित्रता दिखाने के लिए अर्थयोजना की जाय, जो अनुभूति के प्रकृत या लोकसामान्य स्वरूप से कोई सम्बन्ध ही न रखे, अथवा भाषा से सरकसवालों की-सी कसरतें या हठयोगियों के-से आसन कराये जायँ, जिनका लक्ष्य तमाशा दिखाने के सिवा और कुछ न हो।”

(4)अन्विति का प्रभाव :--निबन्ध की अन्तिम विशेषता है- अन्विति का प्रभाव (Effect of Totality) । ”जिस प्रकार एक चित्र की अनेक असम्बद्ध रेखाएँ आपस में मिलकर एक सम्पूर्ण चित्र बना पाती है अथवा एक माला के अनेक पुष्प एकसूत्रता में ग्रथित होकर ही माला का सौन्दर्य ग्रहन करते हैं, उसी प्रकार निबन्ध के प्रत्येक विचारचिन्तन, प्रत्येक भाव तथा प्रत्येक आवेग आपस में अन्वित होकर सम्पूर्णता के प्रभाव की सृष्टि करते हैं।”

निबन्ध की शैली

लिखने के लिए दो बातों की आवश्यकता है- भाव और भाषा। दोनों समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। बिना संयत भाषा के अभिप्रेत भाव व्यक्त नहीं होता। लिखने के लिये जिस तरह परिमार्जित भाव की आवश्यकता है, उसी तरह परिमार्जित भाषा की भी। एक के अभाव में दूसरे का महत्त्व नहीं है। भाव और भाषा को समन्वित करने के ढंग को ‘शैली’ कहते है।

वस्तुतः जहाँ परिमार्जित भाव और परिमार्जित भाषा का मेल होता है, वहीं शैली बनती है। जहाँ दोनों में से किसी एक का अभाव हो, वहाँ शैली का कोई प्रश्र नहीं होता।
अच्छी शैली वह है, जो पाठक को प्रभावित करे। यह पाठक को शब्दों की उलझन में नहीं डालती।
बुरी शैली वह है, जो पाठक को शब्दों की भूलभुलैया में फँसाये रखती है। यहाँ पाठकों के लिए लेखक का अभिप्राय गौण हो जाता है और शब्दों की उलझन से निकलने के उद्योग में उसकी शक्ति का अपव्यय होता है।

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