हिंदी साहित्य में नई कहानी युग

हिंदी साहित्य में नई कहानी युग का आगमन हो चुका है। इस नए युग में लेखकों ने अपनी कहानियों में नए और अनोखे मुद्दों को उठाने का साहस दिखाया है। पाठकों की मांग और समय की मांग के साथ-साथ, लेखकों ने अपनी कल्पना के रंग में नई दिशाएँ और नए संभावनाओं का अन्वेषण किया है।

नई कहानी युग में सामाजिक, राजनीतिक, और प्राकृतिक विषयों पर गहराई से विचार किया जा रहा है। यहाँ तक कि व्यक्तिगत अनुभवों और मनोवैज्ञानिक मुद्दों पर भी ध्यान दिया जा रहा है। नए लेखकों की उपस्थिति ने साहित्यिक स्तर पर विविधता को बढ़ाया है और पठनीयता में भी नये आयाम ले आया है।

कुछ लेखक नए और विपरीत दृष्टिकोणों को प्रस्तुत कर रहे हैं, जबकि कुछ अन्य अभिव्यक्ति के रूपों को नए तरीकों से खोज रहे हैं। यह साहित्यिक प्रयास समाज में गहरे अनुभवों को बयां करने का माध्यम बन रहा है और नए सोच के द्वार खोल रहा है।

इस नए कहानी युग का आगमन हिंदी साहित्य में एक नया उत्साह और उत्सव के रूप में देखा जा रहा है, जो लेखकों और पाठकों दोनों के लिए एक साथ साथ रोमांचक और प्रेरणादायक है।

कहानीकार अपने युग से प्रभावित होता है। बीसवीं शताब्दी के मध्य से हिंदी का कहानीकार दोहरी यातना से गुजर रहा था। एक ओर युद्ध की विभीषिका का आतंक और दूसरी ओर युगों से पराधीन देश को मिली आजादी और विभाजन। विभाजन के बाद भारत खून से लथपथ हो गया। पिछला सब कुछ भस्म हो गया। हत्याओं और नृशंसताओं का काफिला सबको घायल कर गया।

कालांतर में धीरे-धीरे देश ‘सहज’ होने लगा। आजादी के बाद नया माहौल बना। देश में उद्योग धंधों का विकास हुआ। रोजगार के नए-नए अवसर सामने आए। नौकरी करने के लिए लोग गाँवों से शहरों की ओर तेजी से निकलने लगे। शहर पहुँचकर उन्हें लगा कि यहाँ तो सब संवेदनहीन यंत्र हैं। ‘अकेलापन’ उनके भीतर नासूर बनने लगा। जिंदगी चीख लगने लगी। वे अंतर्मुखी होने लगे। धीरे-धीरे वे भी शहर की मशीन का एक पुर्जा बन गए। स्त्रियाँ भी नौकरी करने लगीं। घर की चारदीवारी को लाँघकर वे सामाजिक क्षेत्र में प्रवेश कर गई।
उन्होंने पुरुष के बराबर दर्जे की माँग की। अपने हक के लिए वे लड़ने लगीं। उनमें ‘प्रेम’ करने और अपने पैरों पर खड़े होने का साहस आया। अब वे परिवार पर बोझ नहीं रहीं बल्कि वे परिवार की ‘पालनहार’ बन गईं।
इस बदले हुए माहौल और वातावरण को नए कहानीकारों ने अपनी कहानी का विषय बनाया। असल में अब कहानीकार आपबीती ही सुनाने लगा। पहले का कहानीकार जगबीती सुनाता था अब कहानीकार आपबीती पर ज्यादा बल देने लगा।

दृष्टि बदली तो कहानी का रंग-ढंग भी बदला। कहानी से घटनाएँ गायब होने लगीं, आरंभ और अंत तक का कोई सिलसिला नहीं रहा, सरलता के स्थान पर जटिलता आई, स्थूल का स्थान सूक्ष्म ने ले लिया, यथार्थ बिना किसी लाग लपेट के सामने आया। इस दौर में लिखी कहानियों ने ‘कहानी’ का दायरा विस्तृत किया। अब कहानियाँ संश्लिष्ट हो गईं और स्केच, निबंध, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, स्मृति, डायरी, लोक कथाओं आदि के रूप में लिखी जाने लगीं।
उपमाओं के स्थान पर प्रतीकों और बिबों का प्रयोग होने लगा। कहानीकार का भोगा हुआ सच उसकी कहानियों में पैबस्त हो गया। कहानी अतिआदर्शवाद तथा अतिभावुकता के कोहरे से निकलकर मनोविज्ञान, समाजविज्ञान, विज्ञान की ठोस आधारभूमि पर टिक गई। इसके अलावा इस युग की कहानियों में ‘संकट’ और ‘अंतर्विरोध’ को पकड़ने का प्रयत्न किया गया। इस
संकट और ‘अंतर्विरोध’ को सम्पूर्ण तीव्रता में ग्रहण कर इस युग के कहानीकारों ने सफल और सार्थक कहानियाँ लिखीं।
बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में कहानियाँ एकाएक महत्वपूर्ण हो उठीं और कहानियों की अनेक पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगीं। 1954 ई. में ‘कहानी’ पत्रिका का पुनर्प्रकाशन आरंभ हुआ। ‘नई कहानी’ के नाम से एक कहानी आंदोलन की शुरुआत हो गई। नए भावबोध की कहानियाँ होने के कारण इन्हें ‘नई कहानी’ का नाम दिया गया। यह एक साथ मूल्य-भंग और मूल्य-निर्माण की कहानियाँ हैं।
मार्कडेय, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, अमरकांत, भीष्म साहनी, फणीश्वरनाथ रेणु, निर्मल वर्मा, शेखर जोशी, शैलेश मटियानी, उषा प्रियंवदा, राजकमल चौधरी, हरिशंकर परसाई,धर्मवीर भारती, शिवप्रसाद सिंह, रामकुमार, रमेश बक्षी, कृष्ण बलदेव वैद, कृष्णा सोबती आदि इस युग और प्रवृत्ति के प्रमुख कहानीकार हैं।
इन कहानीकारों को ‘नए कहानीकार’ कहा जाता है। इन्होंने अलग-अलग ढंग से आधुनिक जीवन के ‘संकट’ को चित्रित किया है और इन सबकी प्रतिक्रिया अलग-अलग है। ‘नई कहानी’ के पुरोधा होने के बावजूद इनकी मानसिकता, विचार और कहानी कहने का ढंग एक जैसा नहीं है। ‘नई कहानी’ का नयापन कोई नारा नहीं है बल्कि नया जीवन-बोध और दृष्टि है। यह अपने आसपास की मिट्टी से उपजा बोध है। यह लेखक का भोगा हुआ यथार्थ है।
इसलिए ‘नई कहानी’ के लेखकों ने विषय के अनुसार अलग-अलग शिल्प अपनाया। प्रत्येक कहानीकार के व्यक्तित्व ने कहानी के रूप को प्रभावित किया।
डॉ. नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा की कहानी ‘परिंदे’ को पहली ‘नई कहानी’ और निर्मल वर्मा को पहला नया कहानीकार कहा है। नामवर जी का यह निर्णय सर्वमान्य नहीं है। ‘नई कहानी’ किसी फॉर्मूले या एक लीक पर नहीं लिखी गई। यह तो लेखक के नए आत्मबोध का व्यापक प्रस्फुटन है अतः इसमें बेहद विविधता है। मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव आदि ने टूटते हुए परिवार, महानगरीय अकेलेपन और आधुनिक जीवन की विडंबनाओं और विसंगतियों को अपनी कहानी का विषय बनाया है। राजेन्द्र यादव की ‘एक कमजोर लड़की की कहानी’, ‘टूटना’, ‘किनारे से किनारे तक’; कमलेश्वर की ‘राजा निरबंसिया’, ‘खोई हुई
दिशाएँ’; मोहन राकेश की ‘एक और जिंदगी’, ‘सुहागिनें’, ‘आखिरी सामान’ आदि कहानियों में प्रेम और दाम्पत्य जनित विभिन्न स्थितियों को चित्रित किया गया है। इन कहानियों में आधुनिक जीवन में नितांत निजी संबंधों में घर कर गई कुंठा, तनाव, अजनबीपन आदि की अभिव्यक्ति है। अमरकांत शोषित वर्ग के कथाकार हैं। उन्होंने निम्न-मध्यवर्गीय परिवार की वंचनाओं और विडंबनाओं को अपनी कहानियों में बहुत अच्छे ढंग से पिरोया है। इस लिहाज से ‘दोपहर का भोजन’, ‘डिप्टी कलक्टरी’, ‘सुख-दुख का साथ’ उल्लेखनीय कहानियाँ है।
भीष्म साहनी इस दौर के एक प्रमुख कहानीकार हैं। उन्होंने मध्यवर्गीय जीवन में घर कर गई दोहरेपन तथा निम्नवर्गीय समाज की विडंबनापूर्ण नियति को अपनी कहानियों में प्रमुखता से उकेरा है। उनकी ‘चीफ की दावत’ हिंदी की अविस्मरणीय कहानी है जिसमें उन्होंने परिवार के अंदर बुजुर्ग की उपेक्षा भरी स्थिति तथा मध्यवर्गीय कामकाजी वर्ग के चाटुकारिता की मानसिकता को बहुत ही सुंदर ढंग से चित्रित किया है। ‘पहला पाठ’ शीर्षक कहानी में उन्होंने आर्य समाजी मूल्य व्यवस्था के अंतर्विरोध को सामने लाया है। ‘तमगे’, ‘समाधि भाई राम सिंह’, ‘अमृतसर आ गया है’, ‘साग-मीट’, ‘पटरियाँ’ आदि उनकी महत्वपूर्ण कहानियाँ हैं। फणीश्वरनाथ रेणु, माकडेय, शिव प्रसाद सिंह और विवेकी राय ग्रामीण संवेदना के कथाकार हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु ने हिंदी कहानी में एक नई कोटि-आंचलिक कहानी को विकसित किया। इसका तात्पर्य यह है कि ये कहानियाँ जिस क्षेत्र-विशेष की है वहाँ की बोली-बानी, गीत-संगीत, मान्यताएँ, तीज-त्योहार और जीवन के ढब का कहानी में केंद्रीय स्थान होता है।
वस्तु के स्तर पर रेणु ने प्रेम और विस्थापन को प्रमुखता से अपना विषय बनाया है। ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’, ‘रसप्रिया’, ‘एक आदिम रात्रि की महक’ उनकी प्रसिद्ध प्रेम कहानियाँ हैं। ‘विघटन के क्षण’, ‘भित्तिचित्र की मयूरी’, ‘उच्चाटन’ आदि कहानियों में उन्होंने गाँव से होने वाले विस्थापन को अपना विषय बनाया है। मार्कडेय की कहानियों में योजनाओं के नाम पर की जा रही ठगी को प्रमुखता से रेखांकित किया गया है। इस लिहाज से ‘भूदान’, ‘आदर्श कुक्कुट गृह’ आदि उनकी महत्वपूर्ण कहानियाँ हैं। ‘हंसा जाई अकेला’ प्रेम संवेदना की कहानी है। ‘गुलरा के बाबा’ में ग्रामीण जीवन के बदलते यथार्थ को दर्शाया गया है। शिव प्रसाद सिंह की ‘कर्मनाशा की हार’ में ग्रामीण जीवन की रूढ़ियों और संकीर्णताओं का चित्रण किया गया है। ‘अरूंधती’, ‘केवड़े का फूल’, ‘रेती’ आदि कहानियों में उन्होंने स्त्री के साथ होने वाले ज्यादतियों का चित्रण किया है। विवेकी राय ने अपनी कहानियों में आजादी के बाद उपेक्षित गाँवों को विषय बनाया है। शानी मध्यवर्ग और मुस्लिम जीवन का चित्र खींचते हैं। रांगेय राघव ने मध्यवर्ग, सत्ता-व्यवस्था, मजदूरों की स्थिति, बेरोजगारी तथा आम जन की पीड़ा को अपनी कहानियों में पिरोया, परंतु उनकी हिंदी कहानी में उनकी प्रतिष्ठा उनकी बेहद सराही गई कहानी ‘गदल’ के कारण है। इस कहानी में एक ओर प्रेम-संबंध की सूक्ष्म अभिव्यक्ति हुई है वहीं स्त्री के स्वाभिमान को बड़े ही संवेदनशील रूप से प्रस्तुत किया गया
है। ‘मृगतृष्णा’, ‘कुत्ते की दुम और शैतान’ आदि इनकी अन्य कहानियाँ हैं। शैलेश माटियानी की कहानी के दो आयाम हैं – एक ओर उन्होंने पहाड़ी जीवन से संबद्ध कई महत्वपूर्ण कहानियाँ लिखीं। ऐसी कहानियों में ‘रमौती’, ‘जिबूका’, ‘पोस्टमैन’, ‘कालिका अवतार’, ‘वह तू ही था’ आदि उल्लेखनीय हैं। ‘कालिक अवतार’ में इस समाज-विशेष के अंधविश्वास को विषय बनाया गया है। ‘जिबूका’ में यह दर्शाया गया है कि एक निम्न तबके का बच्चा पारिवारिक कुत्सा का कैसे शिकार होता है। पहाड़ी जीवन से अलग इन्होंने बंबई के निम्नवर्गीय तथा हाशिए के जीवन-यथार्थ को अपनी कहानियों में प्रमुखता से स्थान दिया है।
‘गंगाराम वल्द जमनादास’, ‘चिथड़े’, ‘सिने गीतकार’, पत्थर आदि ऐसी ही कहानियाँ हैं।
निर्मल वर्मा स्मृति-दंश, चीख और टेरर उभारने में माहिर हैं। हरिशंकर परसाई अपने व्यंग्य से कहानी को नया रूप देते हैं। उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी और कृष्णा सोबती अपनी कहानियों में आधुनिक महिलाओं की परेशानियों, समस्याओं और दुविधाओं का चित्रण करती हैं। उषा प्रियंवदा की प्रसिद्ध कहानी ‘वापसी’ में परिवार के अंदर बुजुर्ग की उपेक्षा का चित्रण किया गया है। उनकी ‘मछलियाँ’, ‘सागर पार संगीत’, ‘झूठा दर्पण’ आदि कहानियों में प्रेम संबंध को विविध रूपों में दर्शाया गया है। मन्नू भंडारी के ‘त्रिशंकु’ में प्रेम के संदर्भ में परंपरागत दृष्टिकोण तथा आधुनिक दृष्टिकोण के अंतद्वंद्व का चित्रण किया गया है। ‘रानी माँ का चबूतरा’ में स्त्री संघर्षशीलता और स्वाभिमान को उभारा गया है। ‘यही सच है’ तथा ‘ऊँचाई’ में प्रेम के संदर्भ में कहानीकार परंपरागत दृष्टिकोण को अस्वीकार करतीं हैं। साथ ही इन्होंने अपनी कहानियों में पुरानी पीढ़ी के अस्वीकार और नई पीढ़ी की परिवार के प्रति उदासीनता का भी चित्रांकन किया है।

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