भारतेन्दु हरिश्चंद्र का काव्य
इस पोस्ट का अध्ययन करने के बाद आप :
- भारतेंदु हरिश्चंद्र के काव्य से परिचित हो सकेंगे,
- उनके काव्य की विभिन्न विशेषताओं को जान सकेंगे,
- उनके काव्य में राष्ट्रीय जागरण की किस प्रकार अभिव्यक्ति हुई है, इसे रेखांकित कर सकेंगे।
आधुनिक हिंदी कविता का प्रारंभ उन्नीसवीं सदी में भारतेंदु हरिश्चंद्र से माना जाता है। इसके कई कारण हैं। भारतेंदु युग से पूर्व हिंदी की जिस कविता से हमारा परिचय होता है. उसे रीतिकाव्य के नाम से जाना जाता है। वह अपने स्वरुप और संरचना दोनों दृष्टियों से रूद़िबद्ध श्रृंगारपरक और सामंत वर्ग का अनुरंजन करने वाला काव्य था। दरबारों में, राजाओं और मनसबदारों की चाटुकारिता में, स्तुति में, उन्हें प्रसन्न करने, हँसाने, चमत्कृत करने और उनकी रंगरलियों को और मधुर बनाने के लिए काव्य के परंपरागत लक्षणों के आधार पर कविता का सृजन होता रहा। समाज के व्यापक भावबोध से कटी हुई इस कविता का ऐतिहासिक महत्व तो है किंतु उसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक चिंताओं के ऐसे कोई संदर्भ नहीं हैं, जिनसे उस कविता का कोई महत्व स्थापित हो सके। हालाँकि इस दौर में भी भक्ति, वीर, नीति काव्य की रचनाएँ होती रहीं, लेकिन मुख्य धारा रीतिबद्ध कविता की ही रही। तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक स्थिति भी कोई ऐसी नहीं रही, जिसमें कलाओं के उत्थान की गुंजाइश हो। यही वह समय भी है जब अंग्रेज़ मिशनरियाँ यहाँ आ कर अपने पाँव जमा रही थीं और ईस्ट इंडिया कम्पनी व्यापारिक मकसद लिए धीरे-चीरे अपना राज स्थापित कर रही थी। राजाओं और नवाबों को आपस में लड़वाकर तथा जनता को हर प्रकार से लूटकर वे भारत की धन-संपदा को यहाँ से ले जा रहे थे। देश को पूरी तरह असहाय और निर्धन बनाने की अंग्रेज़ों की साजिश के दबाव का ही विस्फोट सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम के रुप में सामने आताः है। सुनियोजित न होने के कारण यह विद्रोह हालाँकि सफल नहीं हुआ लेकिन, इसमें सभी वर्गों, सम्प्रदायों, भाषा-भाषियों ने एक साथ भाग लिया था। इस के बाद देश की बागडोर ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ से निकल कर ब्रिटिश संसद के हाथ में आ गई, जिसकी प्रधान महारानी विक्टोरिया थी।
रीतिकालीन कविता के विपरीत इस आधुनिक युग में हिंदी कविता विषय, रूप, भाव, भाषा के स्तर पर पुरानी केंचुल उतार कर नया रूप धारण करने का प्रयास करती है। कविता दरबारों से निकल कर सीचे जनता के साथ संबंध स्थापित करती है। इन सब प्रयासों में भारतेंदु हरिश्वंद्र एक अग्रणी साहित्यिक नेता की भूमिका निभाते हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने नाटक, निबंध, कविता आदि कई साहित्यिक दिधाओं को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हुए और पत्रकारिता द्वारा साहित्य और समाज के संबंधों को नये ढंग से समझने-समझाने का प्रयास किया। एक कवि के रूप में उनका व्यक्तित्व कितना वैविध्यमय, बहुआयामी और विकसनशील रहा है, इसकी पड़ताल हम उनके काव्य के अध्ययन के माध्यम से करेंगे।
भासतेंदु हरिश्वंद्र ने लगभग 70 के करीब काव्यग्रंथों की रचना की है, जिनमें एक ओर अपनी परंपरा का सम्मान करते हुए सूरदास, घनानंद, बिहारी, की परंपरा के अनुपालन में भक्ति, प्रेम, सौन्दर्य, श्रृंगार आदि की रचनाएँ हैं तो दूसरी ओर नयी परंपरा का निर्माण करते हुए अपने समय और युगं के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण वाली कविताएँ भी हैं। पारंपरिक कविताओं में भी परंपरा का अंधानुकरण नहीं है अपितु उसे भी समयानुसार बदलने की प्रवृत्ति दिखायी देती है। भारतेंदु के समय गद्य और पद्य की भाषा अलग-अलग थी। गद्य जहाँ खड़ी बोली में लिखा जाने लगा था वहाँ पद्य की भाषा अधिकांशतः ब्रज ही थी। भारतेंदु की काव्यभाषा, काव्यरूप पर विस्तार से चर्चा हम इस खंड की अगली इकाई में करेंगे। आइये देखें कि भारतेंदु का काव्य अपने समय और समाज का कैसे और किस रूप में साक्षात्कार कराता है।
भारतेंदु का भक्तिपरक काव्य
भारतेंदु की कविताओं का एक बड़ा अंश भक्तिपरक कविताओं का है। भारतेंदु ने काव्य की जिस सुदृढ़ परंपरा को विरासत में हासिल किया, उसमें विशाल भक्ति काव्य शामिल है। भक्ति साहित्य की इस परंपरा के साथ ही लोकसाहित्य और संगीत की परंपरा से भी वे बखूबी परिचित थे। किंतु उनका तत्कालीन इतिहास इस बात का भी गवाह था कि रीतिकाव्य के रूप में साहित्य और समाज का रिश्ता दम तोड़ रहा था। सामंती परिवार वैष्णव संस्कार और साहित्य-सृजन की पारिवारिक परंपरा का भी उन पर प्रभाव था। इसलिए अपने छोटे से जीवनकाल में उनकी काव्य-रचना का आरंभिक हिस्सा धार्मिक कविताओं के रूप में परंपरा पालन करते हुए सामने आता है। यद्यपि उनकी ऐसी कविताएं भी राष्ट्रीय जागरण की मूल प्रवृत्ति से किसी-न-किसी रूप में प्रभावित नज़र आती हैं।
भारतेंदु की भक्तिपरक कविताओं को जब आप पढ़ेंगे तो पाएंगे कि उनकी कुछ कविताएं तो ईश्वर का गुणगान करने, उसके रूप-सौन्दर्य का वर्णन करने, धर्म की दार्शनिक मान्यताओं को नकारने या पुष्ट करने याली कविताएँ हैं, जैसे : भक्त सर्वरय (1870 ई0) जिसमें राधा और कृष्ण के प्रति भक्तिभाव की व्यंजना करते हुए पुराणों के अनुसार उनके चरणचिह्नों का वर्णन है। वैशाख माहात्म्य (1872 ई0)
जिसें वैशाख महीने के स्नान की महिमा का वर्णन है, या देवी छदम लीला (1873 ई0), प्रेम मालिका (187 ई0), प्रातः स्मरण मंगल पाठ (1873 ई0), दैन्य प्रलाप (1873 ई0), रानी छद्म लीला (1874 ई0) आदि कविताओं में राधा-कृष्ण के प्रेम का, प्रेम के महत्व का, ईश्वर के प्रति निवेदन का, राधाकृष्ण के मिलन का वर्णन किया गया है। इनमें और ऐसी ही अन्य कविताओं में एक प्रकार से भक्ति आंदोल्त की सगुणवादी परंपरा का ही अनुकरण दिखाई देता है। इन रचनाओं में भारतेंदु पारिवारिक संस्कारों और अंपने मत के अनुसार स्वयं को सगुण भक्ति के पक्ष में खड़ा करते हैं।
19वीं शताब्दी में बंगाल से सामाजिक, धार्मिक नवजागरण की जो लहर उठी उससे धार्मिक काय्य परंपरा, के अनुपालन पर कई प्रश्न लग गये। धार्मिक-सामाजिक सुधारवादी आंदोलन धर्म की रुढ़िवादिता, अंधविश्वास, धर्म द्वारा निर्देशित या प्रेरित सामाजिक कुरीतियों का जोरदार खण्डन करके समाज सुधार पर बल देने का कार्य कर रहा था। भारतेंदु हरिश्चंद पर भी इनका काफी गहरा प्रभाव पड़ा। अपनी अनेक यात्राओं में, बंगाल के इन समाजसुधारक नेताओं में से काफी के साथ भारतेदु का व्यक्तिंगत परिचय, दोस्ती और सम्पर्क भी रहा और अपनी मान्यताओं का विरोध करने वाली मान्यताओं के खिलाफ भी उन्होंने ज़ोरदार कविताएँ लिखीं। कुछ मान्यताओं को उन्होंने तर्क की कसौटी पर परखकर बदला भी। जैसे सगुणभक्ति के समर्थक होते हुए अद्वैतवाद का दर्शन भारतेंदु के गले से नीचे नहीं उतर पाया :
“अहं ब्रह्म सब मूरख भार्खे, ज्ञान गरूर बढ़ाए।
तनिक चोट के लगत उठत हैं, रोइ-रोइ करि हाय।।
जो तुम ब्रह्म चोट केहि लागी, रोइ तजी क्यां प्रान।
“हरिचंद” हांसी नाहीं है करनो ज्ञान-विधान।।
जो पै सबै ब्रह्म ही होय।
तो तुम जोरू जननी मानौ एक भाव सों दोय।।
ब्रहम ब्रह्म कहि काज न सरनो वृथा मरौ क्यों रोय।
“हरीचंद” इन बातन सों नहिं ब्रह्महिं पैहो कोय।!
इसी प्रकार अद्वैतवादियों की इस मान्यता का भी वे खण्डन करते हैं कि जगत माया है, मिथ्या है :
जहाँ अगर झूठा है तो फिर मतवालों को क्या है काम।
फिर मजहब में भला क्यों कसता है हर शख्स कलाम॥
बेद वगैरह भी तो जहाँ में हैं फिर क्या है इनसे काम।
इनके सिवा भी कहोगे जो कुछ सब झूठ है मुदाम॥
खुद झूठा जो होगा उसका कहना भी सब है झूठा।
रवामी दयानंद एवं उनके आर्य समाज द्वारा मूर्तिपूजा, ईश्वर के सगुण रूप का विरोध उन्हें नहीं जँचता था किंतु उनके सामाजिक सुधारों का वे समर्थन करते हैं। इसी प्रकार ब्रह््म समाज की धार्मिक मान्यताओं (मूर्तिपूजा का विरोध) के यदि वे विरोधी थे तो उनकी सामाजिक सुधार की मान्यताओं (ईश्वर जीद की भिन्नता, बलिप्रथा का विरोध, वेदों को अप्रामाणिक मानना/ईश्वरजन्य नहीं मानना) के पक्षधर भी थे। ब्रह्मसमाज के सामाजिक आंदोलन के भी वे पक्षधर थे। विधवा विवाह, विदेश गमन, अन्तर्जातीय विवाह आदि को इन्होंने अपनी स्वीकृति प्रदान की थी।
इनके अलावा भारतेंदु की विभिन्न धर्मों के बारे मे लिखी हुई कविताएँ हैं, जो जैन, सिक्ख, इस्लाम आदि धर्मों के महत्व को स्वीकार करती हैं। कुल मिलाकर देखें तो भारतेंदु इन कविताओं में देश और समाज की सम्पूर्ण उन्नति के लिए चिंतित और प्रयत्नशील दिखाई देते हैं।
कहा जाता है कि एक बार वे जैन मंदिर में चले गये तो समाज ने उन्हें नास्तिक करार दिया। इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप यह रचना लिखी गई :
बात कोउ मूरख की यह मानो।
हाथी मार तोहू नाहीं, जिन मंदिर में जानो।
जग में तेरे बिना और है दूजो कौन ठिकानो।
इसी प्रकार गुरुनानक के बारे में उन्होंने कहा :
बाबा नानक हरि-नाम दै पंथनदहिं उद्धार किय।
जग ऊंध नीच जन करि कृपा एक भाव अपनाइ लिए।
“कुरान” का उन्होंने हिंदी में अनुवाद भी किया और मुसलमानों के प्रति उन्होंने कहा :
पिरजादी बीबी रास्ती पद-रज नित सिर धारियै
इन मुसलमान हरि-जनन पै कोटिन हिंदु वारियै।
सभी धार्मिक मत मतान्तरों को आलोचनात्मक दृष्टि से परखने के बाद वे इसी नतीजे पर पहुँचे कि
सभी धर्मों की मूल दृष्टि एक ही है। मत मतान्तरों पर झगड़ने से कोई लाभ नहीं और सभी को अपने-
अपने मतों को मानते हुए दूसरे धर्मों का आदर करना चाहिए :
खंडन जग में काको कीजै।
सब मत अपने ही तो हैं इन को कहा उत्तर दीजै
इसलिए उन्होंने एक ऐसे मार्ग की कल्पना की, जिसमें आडम्बर रहित ईश्वर भक्ति का मार्ग सभी के
लिए सुलभ हो सके :
पियारौ पै ये केवल प्रेम में।
नांहिं ज्ञान में नांहिं ध्यान में, नांहिं करम कुल नेम में।
नांहिं भारत में नांहिं राभायन में नांहिं मनु में, नांहिं वेद में।
नांहि झगरे में, नांहिं युक्ति मे, नांहिं मतन के भेद में।
नांहि मंदिर में नाहिं पूजा में नांहिं घंटा की घोर में।
“हरीचंद” वह बंध्यो डोलत एक प्रीति के डोर में।
इस प्रकार आप देखेंगे कि भारतेंदु की धार्मिक कविताएँ धार्मिक काव्य की परम्परा को धार्मिक
समन्वयवाद या धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त की ओर विकसित करने का प्रयास करती हैं।
1.3 श्रृंगारपरक काव्य
परंपरा का अनुपालन करते हुए भारतेंदु ने प्रकृति सांदर्य, प्रेम सौंदर्य एवं श्रृंगारिक रचनाएँ भी लिखी हैं।
भक्ति के क्षेत्र में सूर और श्रृंगार के क्षेत्र में बिहारी उनके प्रिय कवि रहे हैं। बारहमासा, होली आदि पर
भी भारतेंदु की कविताएँ हैं। लेकिन रीतिबद्ध कवियों की भाँति उनकी प्रेम, सौंदर्य एवं श्रृंगारपरक
कविताएँ किन्हीं राजा, दरबार या मनसबदारों की चाकरी में नहीं लिखीं गयीं। उनकी ऐसी कविताओं
की संख्या भी अधिक नहीं है। ‘प्रेम सरोवर’ (1873 ई0), प्रेमाश्रु-वर्षण (1873 ई0), देवी छद्मलीला
(1873 ई0), वसंत होली (1874 ई0) तथा प्रेम तरंग (1877 ई0) आदि उनकी ये रचनाएँ ही इस
श्रेणी में आती हैं। दूसरी बात यह है कि ऐसी कविताओं में भारतेंदु हाथ-आजमाइश ज़रूर कसते हैं किंतु
उनकी रवच्छंदतावादी प्रवृत्ति यहाँ भी सक्रिय दिखती है। व्यक्तिगत जीवन में प्रेम के अतुल अनुभव ऐसी
कविताओं की प्रेरणा रहे हों, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। रीतिकालीन कविता की
परम्यश से विचलन के संकेत ऐसी कविताओं में भी लक्षित किये जा सकते हैं। लेकिन मुख्य बात यही
है कि भारतेंदु इन कविताओं में भी पूरे स्वछंद मस्त एवं लोकमन, लोकजन से नाता जोड़ने के प्रयास
में रत दिखाई पड़ते हैं।
रीतिमुक्त कवि घनानंद के कठिन प्रेम मार्ग (यह प्रेम को पंध कराल महा, तरवारि की धार पै धावनी
है) की तरह भारतेंदु का ‘प्रेमसरोवर’ भी बहुत गहरा है। इस रचना में प्रेममार्ग की कठिनाईयाँ, प्रेम की
परिभाषा और जीवन में उसके सार का भारतेंदु स्वछंद ढंग से निरूपण करते हैं :
प्रेम-सरोवर की यह तीरथ विधि परमान।
लोक वेद कों प्रथम ही देहु तिलांजलि दान।।
अति सूछम कोमल अतिहि अति पतरो अति दूर।
प्रेम कठिन सब सें सदा नित इक रस भरपूर।।
(भारतेंदु समप्र, पृ० 30)
इसी प्रकार पावस ऋतु के जीवंत चित्रण की पृष्ठभूमि में भारतेंदु राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं का, उनके
विरह-मिलन का चित्रण कसते हैं। ऐसा चित्रण रीतिकाल में खूब भिलता है। इस दृष्टि से इसमें कोई
नदीनता चाहे न हो किंतु ऐसे चित्रण में भी भारतेंदु की संवेदनशीलता छिपी नहीं रहती। चाहे पावस
ऋतु के विभिम्न चित्रण हो या राधा की स्मृति में कृष्ण से मिलन का चिश्रण हो या विरह का :
बात बिनु करत पिया बदनाम
कौन हेतु वह लाज हरे मम बिना बात बे-काम।
आजु गई हीं प्रात जमुन-तट आयौ तहँ घन स्याम।
पकरि मोहिं जल बीच हलोरयो तोरथो कर को दाम।
लरि कंकन को दियौ खरौटा मेरे मुख सुनु बाम।
‘हरिचंद’ जाते जामैं सब छिपै न प्रीति मुदाम।
(भारतेंदु समग्र, पृ० 32)
ऐसा प्रतीत होता है कि भास्तेंदु परंपरा से कन्नी काट कर आगे बढ़ना नहीं चाहते बल्कि उसे अपनाकर
उसमें से अच्छा-बुरा पहचान कर ही वह अपने समय से जुड़ना चाहते हैं। उनकी इन सभी रचनाओं को
इसी संदर्भ में देखा-परखा जाना चाहिए। उनकी ‘प्रेम तरंग’ (1877 ई0) रचना इस प्रक्रिया का बेहतर
उदाहरण है। इसमें ‘प्रणय-भावना’ की व्यंजना है किंतु एक ओर तो भारतेंदु राजस्थानी, पंजाबी,
गुजराती, उर्दू आदि भाषाओं का खुलकर प्रथोग करते हैं, दूसरी ओर लोकसंगीत की दुनिया की
विभिन्न राग-रागिनियों को आधार बनाकर प्रणय की अभिव्यंजना करते हैं। यह खुलापन
मुक्ति का यह एहसार, लोक को परम्परागत काव्य में मिलाना, विभिन्न भाषाओं के प्रयोग
(भारतेंदु समग्र, पृ0 219)
तिनको सब दुःख कुंअर छुड़ावो।
दासी की सब आस पुरावो।
बृटिश-सिंह के बदन कराला।
लखि न सकत भयभीत भुआला।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 220)
भारतेंदु की ऐसी कविताओं के आधार पर उन पर ब्रिटिश राज के प्रति वफादार रहने का आरोप भी
लगाया जाता रहा है। लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। डॉ0 शंभुनाथ सिंह प्रश्न करते हैं, “महात्मा गांधी
ने व्यक्तिगत व्यवहार के स्तर पर अंग्रेज़ों से कभी बिगाड़ नहीं किया और उनका अनेक अवसरों पर
सत्कार किया तो उन्नीसवीं शताब्दी के एक राजभक्त परिवार के सदस्य से यह आशा क्यों करनी
चाहिए कि वह उपनिवेशवाद विरोधी वैचारिक संघर्ष में सभी अंग्रेज़ों को एक ही नज़र से देखेगा और
उनसे मानवीय रिश्ते तोड़ लेगा।” (भारतेंदु और भारतीय नवजागरण, पृष्ठ 27) लेकिन मूल सवाल यह
भी नहीं है। मूल सयाल यह है कि 1857 के राष्ट्रीय संग्राम के होने के बावजूद भारतेंदु महारानी
विक्टोरिया के प्रति और ब्रिटिश लार्ड आदि क्रे प्रति सहानुभूति, सम्मान प्रदर्शन क्यों करते रहे। इसका
जबाब 1857 से पूर्व अंग्रेज़ी राज और 1857 के बाद के अंग्रेज़ी राज के फर्क को रेखांकित करने पर
इसी ओर इंगित करते हैं कि भारतेंदु अपने समय के दबावों को न केवल महसूस कर रहे थे बल्कि
उसे किस तरह वाणी दी जाए, परंपरा को कैसे लोकजन, लोकमन से जोड़ा जाए, काव्य की कौन सी
दिशा निर्धारित की जाए, इस ओर भी सचेत रूप से सक्रिय थे।
1.4 आधुनिक कविताएँ
1.4.1 राजभक्ति
आधुनिक कविताओं में भारतेंदु की उन सभी कविताओं को लिया जा सकता है जो उन्होंने ब्रिटिश
शासनाध्यक्षों, ब्रिटिश राज और देशभक्ति के बारे में लिखी हैं। भारतेंदु ने प्रथम कविता महारानी
विक्टोरिया के प्रति एलबर्ट की मृत्यु पर 1861 ई0 में लिखकर उनके प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की
है। इसी प्रकार महारानी के द्वितीय पुत्र ड्यूक ऑफ एडिनबरा के 1869 में भारत आगमन पर “श्री
राजकुमार सु्वागत पत्र” लिखकर भारतेंदु अपना हर्ष प्रकट करते हैं :
जाके दरस-हित सदा नैना मरत पियास।
सो मुख-चंद बिलोकिहैं पूरी सब मन आस।
नैन बिछाए आपु हित आवहु या मग होय।
कमल-पाँवड़े ये किए अति कोमल पद जोए।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 189)
1870 मेंज डधूक ऑफ एडिनबरा के बनारस आने पर और 1871 में प्रिंस ऑफ वेल्स के बीमार पड़ने
पर 1874 में प्रिंस के रूसी राजकुमारी के साथ विवाह होने पर तथा 1875 में भारत आने पर भारतेंदु ने
उनके सम्मान में कविताएं लिखी हैं :
“स्वागत स्वागत धन्य तुम भावी राजधिराज।
भई सनाथा भूमि यह परसि चरन तुम आज।
राजकुंअर आओ इते दरसाओ मुख चंद।
बरसाओ हम पर सुधा बाढ़यौ परम आनंद।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 216)
यही नहीं “प्रिंस ऑव वेल्स” को भारत का दुःख जानने के लिए आया हुआ मानकर वह उनके सामने
भारत की पीड़ा को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं :
भरे नेत्र अंसुअन जल-धारा।
लै उसास यह बचन उचारा।
क्यों आवत इत नृपति-कुमारा।
भास्त में छायो अधियारा।
मिल सकता है। 1857 से पूर्व अंग्रेज़ों की नीति भारत को सिर्फ लूटने खसोटने की रही थी। उनकी
निगाह में सभी शोषण के पात्र थे। जमींदार, नवाब, किसान, स्त्री-पुरुष सभी समुदाय के लोगों में
उनके लिए कोई भेदभाव नहीं था। लेकिन राष्ट्रीय संग्राम के बाद ब्रिटिश हुकूमत के आते ही अंग्रेज़ों
की नीति में गहरा अंतर आ गया। 1858 के अपने घोषणापत्र में महारानी ने जो लम्बे चौड़े वायदे किए
थे, उन्हें पढ़कर कोई यह नहीं कह सकता था कि ब्रिटिश राज यहाँ लूट-खसोट के मकसद से पाँव
जमा रहा है। घोषणापत्र में यह भी कहा गया था, “हमारी यह इच्छा है कि जहाँ तक संभव हो सके,
बिना किसी जाति, धर्म विभेद के हमारी प्रजा नौकरी के उन पदों पर नियुक्त हो सके, जिनके पालन
की योग्यता। उनमें अपनी शिक्षा, योग्यता और ईमानदारी के कारण हो।” (आधुनिक भारतीय इतिहास
एवं संस्कृति से उद्धृत, पृष्ठ 521) महारानी ने भारतीयों के धार्मिक विश्वासों में हस्तक्षेप न करने का भी
आश्वासन दिया था।
संभवतः यही कारण है कि भारतेंदु महारानी विक्टोरिया के प्रति इतना सम्मान, प्रद्शित करते हैं और
भारत के कल्याण की उससे अपेक्षा कस्ते हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि उस समय तक देश की
राजनीतिक हालत ऐसी हो चुकी थी कि नवाबों, राजाओं, सामंतदारों की आलसी, शोषणपरक प्रवृत्तियों
से प्रजा बेहाल थी। सामाजिक बुराइयों, धार्मिक अंधविश्वासों से समाज पतन की ओर अग्रसर था। ऐसे
में ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा ज्ञान-विज्ञान, नयी तकनीक, नये प्रशासन की तरकीबें और स्वच्छ प्रशासन
के आश्वासन निश्चय ही मन को लुभाने वाले थे। भारतेंदु ने लार्ड लारेंस, (1864-1869), लार्ड मेयो
(1869-1872ई0), लार्ड रिपन (1880-1884) के प्रति लेख, कविताएँ लिखकर जो अपनी श्रद्धांजलि
प्रकंट की है. वह अकासथ नहीं थी। लार्ड लारेंस ने देश की आर्थिक उन्नति के लिए बहुत कुछ किया।
किसानों के हितों की सुरक्षा के लिए 1868 में पंजाब टेनेन्सी एक्ट और अवध टेनेन्सी एक्ट पास
करवाया, जिसे इतिहासकारों ने भी “लाभकारी एवं परोपकारी विधान” माना है। यह बात दीगर है कि
ब्रिटिश सत्ता के ये सभी सुधार अपने पैर जमाने की चालबाज तरकीबों का ही एक दिखावटी हिस्सा थे।
लार्ड मेयो ने भी अपने अल्पशासनकाल में देशी राजाओं और प्रजा का आदर अर्जित करने के लिए
अनेक कदम उठाए। सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार मिटाने की व्यवस्था भी मेयो ने की थी। लार्ड रिपन
ने अपने शासंनकाल के दौरान सुधार के जितने कार्य किए उन्हीं के कारण उन्हें इतनी प्रशंसा मिली।
भारतेंदु ने “रिपनाष्टक” लिखकर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की :
जय-जय रिपन उदार जयति भारत-हितकारी
जयति सत्य-पथ-पथिक जयति जन-शोक-बिदारी
जय मुद्रा-स्वाधीन-करन सालम दुख-नाशन
भृत्य-वृत्ति-प्रद जय पीड़ित-जन दया-प्रकाशन
(भारतेंदु समग्र, पृ0 257)
भास्तेंदु लार्ड रिपन और पूर्ववर्ती सभी लार्ड शासकों में अंतर करते हैं और बताते हैं कि क्यों रिपन सभी
लार्डों से अधिक सम्मानीय, प्रसिद्ध और प्रशंसनीय है :
जदपि बाहुबल क्लाइव जीत्यौ सगरो भारत।
जदपि और लाटनहू को जन नाम उचारत।
जदपि हेसटिंग्स आदि साथ धन लै गए भारी।
जदपि लिटन दरबार कियो सजि बड़ी तयारी।
पै हम हिंदुन के हीय की भक्ति न काहू संग गई।
सो केवल तुम्हरे संग रिपन छाया सी साथिन भई।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 258)
ध्यान देने की बात है कि भारतेंदु अंधराजभक्त नहीं थे। लार्ड हेसटिंग्स, लार्ड लिटन के प्रति उनकी
आलोचनात्मक टिप्पणियाँ इस बात की गवाह हैं। लार्ड हेसटिंग्ज ‘द्वारा धन लूट कर ले जाना, लार्ड
लिटन के शासन के दौरान 50 लाख से भी अधिक लोगों की अकाल में मृत्यु होना तथा उसके
कुशासन की अनेक त्रुटियों की भासतेंदु ने कटु आलोचना की है:
स्ट्रैची डिजरैली लिटन चितय नीति के जाल
फंसि भारत जरजर भयो काबुल युद्ध अकाल
सुजस मिलै अंगरेज कों होय रूस की रोक
बढ़े ब्रिटिश वाणिज्य पै हम कों केवल सोक।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 251)
1.4.2 देशभक्ति
1858 से 1881 तक यानि कि लार्ड रिपन के शासन शुरू होने तक भारतेंदु की राजनीति समझ इस
प्रकार की थी कि वे जनता के दुखों, पीड़ाओं, बदहाली आदि को कभी प्रिंस ऑव वेल्स के द्वारा, कभी
लार्ड के द्वारा महारानी तक पहुँचाने का अनुनय विनय करते रहे और महारानी को जनता का हितरक्षक
मानते रहे। डॉ0 शिवकुमार मिश्र के शब्दों में,”जहाँ तक भारतेंदु की राष्ट्रभक्ति का सवाल है वह भी
काफी अर्से तक ऐसी राष्ट्रभक्ति है, जिसमें देश-दशा के प्रति पीड़ा, देशवासियों की दुर्गति पर क्षोभ
और अवसाद, देशोद्धार की वास्तविक चिंता, देश के रुढ़ि-जर्जर स्वरूप पर खेद और आक्रोश, अपनी
परंपरा पर गर्व, अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को पाने की ललक तथा प्रगति के नये रास्तों पर देश को ले
जाने की चिंता, पराधीनता तथा आर्थिक शोषण से उसकी मुक्ति की प्रबल आकांक्षा और उसके लिए
किए गए प्रयास आदि तो हैं, परन्तु यह सब राजराजेश्वरी के संरक्षण में हो सकेगा इस बात का भोला
विश्वास भी है।” (भारतेंदु और भारतीय नवजागरण, पृष्ठ 63)। बाद में उपनिवेशी साम्राज्यवाद की
सुधारवादी नीति की कलई उनके सामने उतरती गई। वे इस बात को समझ गये कि साम्राज्यवाद
सामंतवाद के साथ हाथ मिलाकर वही पुराना लूट खसोट का खेल खेल रहा है और जनता की
वास्तविक तकलीफों को दूर करने का उसका इरादा पाकसाफ नहीं है। वे यह भी देख रहे थे कि
अंग्रेज़ी सत्ता ने जनता और अपने बीच ऐसे लोगों की एक जमात को प्रश्नय देकर खरीद लिया है जो
अंग्रेज़ी सत्ता के न्यायिक होने का बिगुल बजाती रहे और बदले में लूट का एक हिस्सा हासिल करती
रहे। इसलिए 1881 में रचित उनकी कविता “विजय वल्लरी” और 1884 में रचित “विजयनी विजय
बैजयन्ती” में भासत के दुख कष्टों का तो खूब वर्णन है किंतु कहीं पर भी महारानी तक इन दुःखों को
पहुँचाने का आह्वान नही है। “विजय वल्लरी” अफगान युद्ध समाप्त होने पर और “विजयिनी विजय
बैजयन्ती” मिस्र विजय के बाद लिखी गई, लेकिन दोनों कविताओं का मूल लक्ष्य राजभक्ति प्रदर्शन
नहीं, बल्कि राजभक्ति को औजार बनाकर अंग्रेज़ों के शोषण अत्याचार को उद्घाटित करना तथा
वीरतापूर्ण भारतीय संघर्ष की ऐतिहासिक परम्परा को उजागर करते हुए “अण्डरग्राउण्ड” रूप से
भारतवासियों को ललकारना है। ये वस्तुतः औपनिवेशिक सुधारवाद से मोहभंग की कविताएँ हैं।”
(भारतेंदु और भारतीय नवजागरण, डॉ0 शंभुनाथ, पृष्ठ 31) “विजय वल्लरी” में भास्तेंदु ने अफगान युद्ध
में भारतीय सैनिकों की वीरता पर हर्ष व्यक्त किया है, किंतु ऐसे युद्ध अग्रेज़ क्यों लड़ते हैं, इससे किसे
लाभ होता है, इसका भी स्पष्टीकरण वे देते हैं :
ये तो समुझत व्यर्थ सब यह रोटी उतपात।
भास्त कोष बिनास कों, हिय अति ही अकुलात।
ईति भीति दुष्काल सों पीड़ित कर को सोग।
ताहू पै धन-नास की यह बिनु काज कुयोग।
स्ट्रेची डिजरैली लिटन चितय नीति के जाल।
फसि भारत जरजर भयो काबुल युद्ध-अकाल।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 251)
भारतेंदु की यही बदली हुई समझ “नये जमाने की मुकरी” में दिखाई देती है, जिसकी रचना उन्होंने
1884 में की थी :
भीतर-भीतर सब रस चूसै।
हँसि-हँसि के तन मन धन मूसै।
जाहिर बातन में अति तेज
क्यों सखि सज्जन, नहीं अंगरेज!
(भारतेंदु समप्र, पृ0 256)
उपनिवेशी सुधारवाद की पोल इस मुकरी में पूरी तरह खुल कर सामने आ जाती है। अंगरेज़ अब लड़ाई
झगड़े से नहीं, हँसकर, चालबाजियाँ करके लूटने में लगे हैं।
1.4.3 राष्ट्रीय चेतना
इसी प्रकार “विजयनी विजय वैजयन्ती” कविता को लिया जा सकता है जो लिखी तो मिस्र विजय के
उपलक्ष्य में है किन्तु प्रकारान्तर से औपनिवेशिक़ अंग्रेज़ी राज की चालबाजियों, झूठे आश्वासनों को
नंगा करती चलती है। मिस्त्र विजय का अभिनन्दन करते-करते अचानक भारत का ऐतिहासिक गौरव,
भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव की याद और भासत की वर्तमान दुर्दशा का वे वर्णन करने लगते हैं। वे अब
कोई ऐसा मौका नहीं खोना चाहते, जिसमें भासत की वास्तविक सथिति, उसके लिए जिम्मेवारी आदि
प्रश्नों को सामने न लाएं। मिस्त्र विजय का विजयोत्सव मनाने के लिए “बनारस इंस्टीटयूट” की एक
विशेष सभा 22 सितम्बर, [882 को बनारस के टाउन हॉल में हुई थी, वहीं भरी सभा में भारतेंदु ने एक
कविता का पाठ किया था। इस कविता में भारतेंदु ने अपनी समझ इस प्रकार व्यक्त की:
जो भारत जग में रह्यौ सब सों उत्तम देस।
ताही भारत में रह्यौ अब नहिं सुख को लेस।”
अर्थात् अंग्रेज़ राज या ब्रिटिश राज में भारत की यह हालत हो गई है कि सुख का लेश मात्र भी नहीं
बचा
(भारतेंदु समग्र, पृ0 254)
(भारतेंदु समग्र पृ0 255)
हाय।
सोय भारत भूमि भई सब भाँति दुखारी।
रह््यो न एकहु बीर सहस्रन कोस मंझारी।
होत सिंह को नाद जौन भारत-बन मांही।
तौंह अब ससक सियार स्वान खर आदि लखाहीं
जँह झूसी उज्जैन अवघ कन्नौज रहे वर।
तह अब रोवत सिवा चहूँ दिसि लखियत खँडहर।
इसी कवित्ता में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बारे में भारतेन्दु अपनी समझ का भी परिचय देते हैं। 1857
के संग्राम के बारे में भारतेंदु ने इससे पहले कोई टिप्पणी नहीं की थी :
कठिन सिपाही द्रोह-अनल जा जल-बल नासी।
जिन भय सिर न हिलाइ सकत कहुँ भारतवासी।
सिपाही विद्रोह को भारतेंदु गलत नहीं कठिन मानते हैं। इस बारे में डॉ0 शंभुनाथ टिप्पणी करते हैं: “इन
पंक्तियों को, लगता है, भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने समय के औपनिवेशिक आतंकवाद को पूरी तरह
जीकर लिखा है। उन्होंने सिपाही द्रोह को गलत नहीं कहा, बल्कि बतलाया कि यह कितना कतिम
काम था! इसके प्रतिशोध में अंग्रेज़ी सेना ने देश के जन-बल का इतनी निर्ममता से नाश किया कि
अब भय से भारतवासी कहीं सिर नहीं उठा सकते। भारतेंदु कार्ल मार्क्स के समकालीन थे। 1857 के
प्रति उनका नजरिया भी क्रांतिकारी था। मार्क्स ने इस विद्रोह को “राष्ट्रीय कहकर मर्यादा दी, भारतेंदु
ने कठिन कहकर दी।” (भारतेंदु और भारतीय नवजागरण, पृ0 24)
देश की तत्कालीन दुर्दशा का भी भारतेंदु ने यथार्थ चित्रण किया है, साथ ही उसके कारणों का
खुलासा भी वे करते चलते हैं। अतीत के वर्णन के साथ यह वे भी बताते चलते हैं कि उनका इतिहास
कितना गौरवशाली था। “प्रबोधिनी” कविता में उन्होंने लिखा :
गयो राज धन तेज रोष बल ज्ञान नसाई।
बुद्धि थीरता श्री उछाह सूरता बिलाई।
आलस कायरपनों निरुद्यमता अब छाई।
रही मूढ़ता बैर परस्पर कलह लराई।
सीखत कोउ न कला, उदर भरि जीवत केवल।
पसु समान सब अन्न खात पीअत गंगा-जल।
धन बिदेस चलि जात तऊ जिय होत न चंचल।
जड़ समान ह्वै रहत अकिल हत रचि न सकल कल।
जीवत बिदेस की वस्तु लै ता बिनु कछु नहिं करि सकत।
(देशवासियों ने राज-पाट, धन के साथ-साथ ज्ञान और शक्ति भी.खो दी है। बुद्धि, वीरता, उत्साह,
समृद्धि की सूरत दूर-दूर तक दिखाई गहीं पड़ती। आलस, कायरपन का ही साम्राज्य चहुँओर दिखाई
पड़ता है। मूर्खता, दुश्मनी, आपसी फूट में देश डूबा हुआ है। देशयासी कोई कला नहीं
सीखते, पशुओं की भांति केवल उदरपूर्ति में लगे रहते हैं। सारा धन विदेश जा रहा है और
(भारतेंदु समग्र, पृ0 211)
किसी को कोई चिंता नहीं है। विदेशी माल इस्तेमाल किए बिना मानो इनका कोई काम ही नहीं हो
सकता।)
भारतेंदु की नज़र में भारत की ऐसी दशा का सबसे बड़ा कारण आक्रमणकारी अंग्रेज़ हैं. दूसरा कारण
जनता की रुढ़िवादिता, धर्माधता और सामाजिक रुदियां हैं, तीसरा कारण आलस्य, अपव्यय, झूठी
शान-शौकत और चौथा कारण है उनकी कायर प्रवृत्ति। देशवासियों को ये कारण बताकर अपनी
कविताओं में वे उन्हें फटकार भी लगाते हैं और सुधरने का आह्वान भी करते हैं। देश की उन्नति के
लिए सब कुछ भूलकर, ऊंच-नीच, जाति छोड़कर एक होने की प्रेरणा भी देते हैं। भारत की तात्कालिक
दुर्दशा का भी भारतेंदु ने खुलकर अपनी कविताओं में यथार्थ चित्रण किया है।
इस प्रकार यदि देखा जाए तो ब्रिटिश राज पर विश्वास से आरंभ करके भारतेंदु की राजनीतिक समझ
औपनिवेशिक सुधारवाद, साम्राज्यवाद और सामंतवाद की चालाकियों को समझने में और उन्हें नंगा
करने में सक्रिय हुई है। इसलिए भारतेंदु की कविताएँ यदि एक ओर राजभक्ति का भ्रम पैदा करती हैं
तो दूसरे ही क्षण देश की दुर्दशा के कारणों का खुलासा करते हुए राष्ट्रीय एकता के लिए जनता को
एकजुट होने का आहवान भी करती हैं।
1.5 समाज सुधार और नवजागरण
पश्चिमी सभ्यता के साथ पहले सम्पर्क में आने के कारण पश्चिमी बंगाल में नए विचारों का प्रादुर्माय भी
पहले ही हो गया। मध्यकालीन भारतीय समाज की रुढ़िवादिता, संकीर्णता, अंधविश्वासी चेतना को
पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान के आलोक में झकझोर कर जगाने का काम बंगाल में राजा राममोहन राय,
ईश्वरचंद विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, रामकृष्णपरमहंस, स्वामी विवेकानन्द सरीखे
विद्वानों ने अपने हाथ में लिया था। 1828 ई0 में ही बंगाल में ब्रह््म समाज की स्थापना हो चुकी थी।
बाल-विवाह पर रोक, विधवा विवाह की अनुमति, नारी शिक्षा, अंधविश्वासों का नकार आदि सामाजिक
क्रांति के स्वर वहाँ गूँजने लगे थे। भारतेंदु यात्रा के शौकीन थे। अपने छोटे से जीवन में उन्होंने देश के
विभिन्न भागों की अनेकों यात्राएं की थीं। बंगाल की यात्राओं का लाभ उन्हें वहाँ समाज सुधार की
प्रगति देखकर मिला, जिसका खुले मन से स्वीकार कर हिंदी प्रदेश में वे यह ज्योति ले आए और
खुलकर सामाजिक सुधारों का झंडा उठा लिया।
अपनी स्वतंत्र कविताओं के अलावा नाटकों के लिए लिखी गई कविताओं में भी समाज सुधार के
उनके विचार अभिय्यक्त हुए हैं।
सामंती संस्कारों के चलते भारतेंदु स्वयं रसिक मिज़ाज के थे, उनकी दो प्रेमिकाएं थीं किंतु नारी के
प्रति उनके दृष्टिकोण में बंगाल के नवजागरण मूलक सुधार आंदोलनों का व्यापक प्रभाव था। वे नारी
शिक्षा के हिमायती थे, वेश्यागमन के खिलाफ थे, नारी को पुरुष के बराबर मानने के पक्षघर थे।
स्त्रीपयोगी पत्रिका “बालाबोधिनी” का प्रकाशन भी उन्होंने शुरु किया था, जिसके मुखपृष्ठ पर लिखा
रहता था :
जो हरि सोई राधिका जो शिव सोई शक्ति।
जो नारी सोई पुरुष यामैं कछु न विभक्ति।
भारतेंदु ईश्वरचंद विद्यासागर के भी सम्पर्क में आए थे जिन्होंने विधवा विवाह के पक्ष में पौराणिक ग्रंथों
से काफी सुबूत जुटाए थे। भारतेंदु स्वयं विधवा विवाह के समर्थक हो गये थे। “वैदिकी हिंसा हिंसा न
भवति” में बंगाली पात्र द्वारा उच्चरित यह श्लोक विद्यासागर से ही प्रेरित था :
नष्टे मृते प्रवजिते क्लीवे च पतिते पतो।
पंच स्वायत्सु नारीणां पतिरुयो विधीयते।।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 31।)
अर्थान पति के नष्ट हो जाने, मर जाने, लापता हो जाने, नपुंसक हो जाने और पतित हो जाने पर, इन
पॉच प्रकार की विपत्तियों में पड़ी स्त्रियों के लिए दूसरे पति का विधान है।
“नये जमाने की मुकरी” में भी भारतेन्दु विद्यासागर की प्रशंसा करते हैं:
सुंदर बानी कहि समुझावै।
बिधवागन सों नेह बढ़ावै।
दयानिधान परम गुन-आगर।
सखि सज्जन नहिं विद्यासागर।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 256)
इसी प्रकार “भारत दुर्दशा” में एक पात्र द्वारा भारतेन्दु कहलवाते हैं कि धर्म ने समाज की दुर्दशा कैसे
की
रचि बहुविधि के वाक्य पुरानन माँहि घुसाए।
शैव शाक्त वैष्णव अनेक मत प्रगटि चलाए।।
जाति अनेकन करी,नीच अरु ऊंच बनायो।
खान-पान संबंध सबन सों बरजि छुड़ायो। !-
जन्मपत्र विधि मिले व्याह नहिं होन देत अब।
बालकपन में व्याहि प्रीतिबल नास कियो सब।।
करि कुलान के बहुत ब्याह बल बीरज मारयो।
बिधवा व्याह निषेध कियो विभिचार प्रचारयो।।
रोकि बिलायतगमन कूपमंडूक बनायो।
औरन को संसर्ग छुड़ाइ प्रचार धटायो।
बहु देवी देवता भूत प्रेतादि पुजाई।
ईश्वर सो सब बिमुख किए हिंदू घबराई।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 462)
छुआछूत, बाल विवाह, जन्मपत्री देखकर विवाह करना, विदेश गमन पर रोक, मूर्तिपूजा आदि ढकोसले,
अंधविश्वासों का भारतेंदु खुलकर विरोध करते हैं जिन्होंने समाज को रुढ़िवादी बनाकर पतन में धकेल
दिया है।
समाज की रुद़िवादिता का विरोध करते हुए भारतेंदु शिक्षा और अपनी भाषा के प्रति उदासीनता, के
लिए भी चिंता व्यक्त करते हैं। अंग्रेज़ी का मकसद अंग्रेज़ी शिक्षा द्वारा ऐसे लोगों की जमात खड़ी करनी
था जो प्रशासन में उन्हें सहयोग दे सकें। इस संदर्भ में निशनरियों द्वारा स्थापित स्कूल, लार्डे बेटिंग,
मैटकाफ, राजाराममोहन राय इत्यादि के समर्थन के बाद 1835 में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी बना दिया
गया और 1852 में बंगाल, बम्बई, कलकत्ता प्रेसीडेन्सियों में लगभग 10,000 विद्यार्थी अंग्रेज़ी की शिक्षा
ग्रहण कर रहे थे। भारतेंदु नवजागरण की इस प्रवृत्ति के पक्षधर थे और चाहते थे कि लोग अंग्रेज़ी सीख
कर विश्व के ज्ञान-विज्ञान से परिचित हों:
लखहु न अँगरेजन करी उन्नति भाषा नाँहि।
सब विद्या के ग्रंथ अंगरेजिन माँह लखहिं।।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 228)
अंग्रेज़ी के साथ वह निजभाषा उन्नति का भी जोरशोर से पक्ष लेते हैं। “हिंदी की उन्नति पर
व्याख्यायन” कविता की ये पंक्तियाँ आपने भी अवश्य पढ़ी सुनी होंगी :
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल।।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 228)
अंग्रेज़ी पदने के पक्षधर होते हुए भी वे इस बात को स्पष्ट करते हैं कि अंग्रेज़ी के साध-साथ अपनी
भाषाओं का ज्ञान होना भी आवश्यक है :
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा ज्ञान बिन रहत हीन के हीन।।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 228)
इस कविता में भारतेंदु तरह-तरह के उदाहरण देकर समझाते हैं कि भाषाओं को सीखना
देश के लिए, समाज के लिए, व्यक्ष्ति के लिए, विश्व के जान-विज्ञान, तकनीक को
हासिल करने के लिए बहुत ज़रुरी है। यदि अंग्रेज़ी का ज्ञान न हो तो :
नहीं कछु जानत तार में खबर कौन बिधि जात।
रेल चलत केहि भाँति सों कल है काको नाँव।
तोप चलावत किमि सबै जारि सकल जो गाँव
वस्त्र बनत केहि भांति सों कागज़ केहि बिधि होत।
काहि कबाइद कहत हैं बांधित किमि जल-सोत।
उतरत फोटोग्राफ किमि छिन मँह छाया रूप।
होय मनुष्यहि क्यों भये हम गुलाम ये भूप।।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 229)
1.6 साहित्य-क्षेत्र में भारतेन्दु के योगदान का महत्व
भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र मात्र एक कवि और कुशल गद्यकार ही नहीं थे, एक युग प्रवर्तक साहित्यकार भी
थे। इनके इर्द-गिर्द कवियों और लेखकों का एक बहुत बड़ा समुदाय एकत्र हो गया था, जिसे ‘भारतेन्दु
मंडल’ के नाम से अभिहित किया जाता है। इस दृष्टि से बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र,
अम्बिकादत्त व्यास, ठाकुर जगमोहन सिंह, राधाकृष्ण गोस्वामी, बद्रीनारायण चौचरी, लाला श्रीनिवास
दास आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतेन्दु के साथ ही इनके मण्डल के अधिकांश लेखकों की अपनी
पत्रिकाऐँ थीं। इन सबके माध्यम से भारतेन्दु ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के साथ ही नवजागरण और
समाजसुधार का एक व्यापक अनियान चलाया था। पत्र-बत्रिकाओं में उठाए जाने वाले मुद्दों, इनमें
आयोजित बहसों के माध्यम से जनजागरण की भावना का प्रचार-प्रसार होता था। धार्मिक अंध-
विश्वास, सामाजिक रूढ़िवादिता, छुआ-छूत, ऊँच-नीच की भावना के विरोध और पारस्परिक मेल-
मिलाप, समानता और स्वतंत्रता की भावना के महत्व को भारतेन्दु और उनके मण्डल के लेखक पूरे
तालमेल के साथ अपने लेखन और अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से प्रचारित-प्रसारित करते थे।
भारतेन्दु की सामाजिक प्रतिबद्धता इतनी गहरी थी कि वे अपनी पत्रिकाओं में विभिन्न स्थानों की बोली
में कविता के तमाम सारे ऐसे विषयों की सूची प्रकाशित करते े जिन पर स्थानीय लोग कविताएँ
लिखकर लोगों में वितरित करें। इस प्रकार की स्थनाँ वे स्वयं छापते थे। इनके विषय होते थे – नारी
शिक्षा का महत्व, बच्चों का सुचारु रूप से पालन-पोषण, अंधविश्वास और रूदियों के दोष का वर्णन
आदि। अपने इन कार्यों के माध्यम से भारतेन्दु ने जनहित में एक व्यापक आन्दोलन का सूत्रपात किया
था। अपनी कविताओं के साथ ही उन्होंने अपने नाटकों में पहेली-मुकरी, कजली, विरहा, चांचर, चैता,
खेमटा, विदेशिया आदि लोकगीतों की शैली का प्रयोग कर जनजागरण का एक व्यापक अभियान छेड़ा
था। ये सारे कार्य उनके साहित्यिक योगदान के साध ही सामाजिक विकास में उनकी महत्वपूर्ण
भूमिका को रेखांकित करते हैं।
1.7 सारांश
संक्षेप में अब यदि हम आकलन करें तो देखते हैं कि भारतेंदु एक कवि के रूप में एक ओर तो अपनी
परंपरा से जुड़ने का प्रयास करते हैं तो दूसरी ओर काव्य को जनता के साथ भी जोड़ना चाहते हैं। यह
काम शिल्प के स्तर पर वे लोकराग, लोकसंगीत, लोकछंदों को अपना कर करते हैं तो विषय-वस्तु के
स्तर पर समाज और जनजीवन के तमाम दुख दर्दों को अपनी कविता का विषय बनाकर। राष्ट्रीय
नवजागरण के जितने भी आयाम हो सकते हैं – राष्ट्रभक्ति, देशप्रेम, समाजसुधार – वे सब भारतेंदु की
कविता का विषय बनते हैं। अपने काव्य विकास के दौर में वे अंग्रेज़ी राज की साम्राज्यवादी,
उपनिवेशवादी मानसिकता को भी समझते हैं और खुलकर उसके विरोध में भी खड़े होते हैं। विशेष कर
“भारत दुर्दशा” में आई उनकी कविताएँ और “हिंदी भाषा” पर उनका काव्य-व्याख्यान इस दृष्टि से
उल्लेखनीय है। हालाँकि आरंभ में वे ब्रजभाषा की मधुरता, सहजता और काव्य का पारंपरिक माध्यम
होने के कारण यह सोच पाने में भी कठिनाई अनुभव करते रहे कि काव्य की भाषा जक़ी बोली भी हो
सकती है किंतु अन्य भारतीय भाषाओं में उर्दू, गुजराती, पंजाबी, बंगाली, अंग्रेज़ी में भी कविताएँ लिख
कर वे अपने देश प्रेम, भावाओं के प्रति राष्ट्रीय दृष्टि का भी परिचय देते चलते हैं।
कुछ विद्वानों को भारतेंदु की राजनक्ति की कविताओं को देखकर हमेशा उन्हें स्वीकार करने में परेशानी
का अनुभव होता रहा किंतु विश्लेषण करने पर और ऐतिहासिक, सामयिक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने
पर, उनकी सार्थकता या स्वाभाविकता स्वतः जाहिर हो जाती है।
दरअसल पुनर्जागरण के ऐसे समय में जब देश, समाज एक ओर अपनी ही धर्माधता, रुढ़िवादिता,
साहित्य की समाजविमुख परंपर से लड़ने के लिए तैयार हो रहा हो और दूसरी ओर साम्राज्यवादी,
आक्रमणकारी शक्तियों से मुकाबला करने को भी तैयार होना चाहता हो तो किसी भी रचनाकार को
गहरे आत्मसंघर्ष, अन्तर्विरोधों का सामना करना पड़ सकता है। उनके इन अन्तर्विरोधों, आत्मसंघर्ष को
यदि सही परिप्रेक्ष्य मे रखकर न देखा जाए तो निष्कर्ष गलत भी निकल सकते हैं। भारतेदु का साहित्य,
विशेषकर उनका काव्य इन अन्तर्विरोधों को अपनी रचना-प्रक्रिया का अंग बनाकर सृर्जन के घरातल पर
आता है। इसलिए उनके काव्य की मुख्य विशेषताओं को राष्ट्रीय नवजागरण की प्रवृत्तियों के रूप में ही
देखा समझा जाना चाहिए।
प्रश्न
भारतेन्दु की भक्तिपरक कविताओं की मूलभूत विशेषताओं को स्पष्ट करें।
भारतेन्दु की राजभक्ति और देशभक्ति की कविताओं की तुलना करते हुए सिद्ध करें कि वे
मूलत: देशभक्त थे न कि राजभक्त।
समाज सुधार की दृष्टि से भारतेन्दु की कविताओं के महत्व पर प्रकाश ढालें।
‘भारतेन्दु की कविताओं में नवजागरण और राष्ट्रीय थेतना का समुचित समावेश हुआ है’ इस
कथन की सोदाहरण व्याख्या करें।
एक कवि और समाज सुधारक के रूप में भारतेन्दु के महत्व पर प्रकाश डालें।
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