हिंदी साहित्य का सिद्ध साहित्य

भारतीय साधना के इतिहास में ८ वीं शती में सिद्धों की सत्ता देखी जा सकती है। सिद्ध परम्परा का जन्म बौद्ध धर्म की घोर विकृति के फलस्वरूप माना जाता है।

हिन्दी साहित्य का आदिकाल
हिन्दी साहित्य का आदिकाल

हिंदी साहित्य का सिद्ध साहित्य

बौद्धधर्म विकृत होकर वज्रयान संप्रदाय के रूप में देश के पूरबी भागो में बहुत दिनों से चला आ रहा था । इन बौद्ध तान्त्रिको के बीच वामाचार अपनी चरम सीमा को पहुँचा। ये बिहार से लेकर आसाम तक फैले थे और सिद्ध कहलाते थे । इन तात्रिक योगियों को लोग अलौकिक-शक्ति-संपन्न समझते थे । ये अपनी सिद्धियों और विभूतियों के लिये प्रसिद्ध थे- राजशेखर ने ‘कर्पूरमंजरी’ में भैरवानंद के नाम से एक ऐसे ही सिद्ध योगी का समावेश किया है ।

चौरासी सिद्धों के नाम

चौरासी सिद्धों के नाम ये हैं-लूहिपा, लीलापा, विरूपा, डोभिपा, शवरीपा, सरहपा, कंकालीपा, मीनपा, गोरक्षपा, चौरंगीपा, वीणापा, शांतिपा, तंतिपा, चमरिपा, खडगपा, नागार्जुन, कण्हपा, कर्णरिपा, थगनपा, नारोपा, शीलपा, तिलोपा, छत्रपा, भद्रपा, दोखधिपा, अजोगिपा, कालपा, धोभीपा, कंकणपा, कमरिया, डेगिपा, भदेपा, तधेपा, कुक्कुरिपा, कुचिपा, धर्मपा, महिपा, अचिंतिपा, भल्लहपा, नतिनपा, भूसुकुपा, इद्रभूति, मेकोपा, कुठालिए, जालंधरपा, राहुलपा, धर्वरिपा, धोकरिपा, मेदिनीपा, पंकजपा, घंटापा, जोगीपा, चेलुकपा, गुडरिपा, लुचिकपा, निर्गुणपा, जयानंत, चर्पटीपा, चंपका, भिखनपा, भलिपा, कुमरिपा, चँवरिपा, मणिभद्रा ( योगिनी ), कनखलापा ( योगिनी ), झलकलपा, कंतालीपा, धहुरिपा, उधरिपा, कपालपा, किलपा, सागरपा, सर्वभक्षपा, नारायोधिपा, दारिकपा, पुतुलिपा, पनपा, कोकालिपा, अनंगपा, लक्ष्मीकरा ( योगिनी ) समुदपा, भलिपा ।

( ‘पा’ आदरार्थक ‘पाद’ शब्द है । इस सूची के नाम पूर्वापर कालानुक्रम से नही है । इनमें से कई एक समसामयिक थे । )

पंडिअ सअल सत्त बक्खाणइ । देहहि बुद्ध बसंत न जाणइ।
अमणागमण ण तेन बिखंडिअ । तोवि णिलज्ज भणइ हउँ पंडिअ ।।

जहि मन पवन ने संचरइ, रवि ससि नाहि पवेस ।
तहिं बट चित्त बिसाम करु, सरेहे कहिअ उवेस ।।
घोर अँधारे चँदमणि जिमि उज्जोअ करेइ ।
परम महासुह एखु कणे दुरिअ अशेष हरेइ ।।
जीवंतह जो नउ जर सो अजरामर होई ।
गुरु उपएसें बिमलमई सो पर घण्णा कोई ॥

दक्षिण मार्ग छोड़कर वाममार्ग-ग्रहण का उपदेश-

नाद न बिंदु न रवि न शशि मंडल । चिअराअ सहाबे मूकल ।
उजु रे उजु छाड़ि मा लेहु रे बंक । निअहि वोहि मा जादु रे रंक ।।

लूहिपा या लूइपा (संवत् ८३० के आसपास) के गीतो से कुछ उद्धरण-

काआ तरुवर पंच -बिडाल। चंचल चीए पइठो काल ।

दिट करिअ महासुह परिमाण । लूइ भणई गुरु पुंच्छिअ जाण ।।

भाव न होई, अभाव ण जाई । अइस संबोहे को पतिआइ

लुइ भणइ बट दुर्लक्ख बिणाण । तिअ धाए बिलसई, उह लागे णा ।

बिरूपा ( संक्त् ६०० के लगभग ) की वारुणी-प्रेरितं अतर्मुख साधना की पद्धति देखिए-

सहजे थिर करि वारुणी साध ।

अजरामर होइ दिट कांध ।

दशमि दुआरत चिह्न देखईआ ।

आइल गराहक अपणे बहिआ ।

चउशठि घडिए देट पसारा ।

पइठल गराहक नाहिं निसार ।

कण्हपा ( सं ०.९०० के उपरांत ) की बानी के कुछ खंड नीचे उद्धृत किए जाते हैं

एक्क ण किज्जइ मंत्र ण तंत । णिअ धरणी लइ केलि करंत ।
णिअ घर घरणी जाब ण मज्जइ । ताब किं पंचवर्ण बिहरिज्जइ ।
जिमि लोण बिलज्जइ पाण्डिएहि, तिमि घृरिणी लई चित्त ।
समरस जइ तखणे जइ पुषु ते सम नित्त ।।

वज्रयानियो की योग-तंत्र-साधना से सच्च तथा स्त्रियों का-विशेषतः डोमिनी, रजकी आदि का-अबाध सेवन एक आवश्यक अंग था ।

सिद्ध कण्हपा डोमिनी का आह्वान-गीत इस प्रकार गाते है-

नगर बाहिरै डोंबी तोहरि कुडिया छइ ।
छोइ जाई सो बार नाड़िया ।।

आलो डोंबि ! तोए सम करिब म साँग ।
निघिण कृण्ह कपाली जोइ लाग ।।
एक्क सो पदमा चौपहिं पाखुढी । तढ़ि चढि नाच डोंबी बापुडी ।।
हालो डोंबी! तो पुछमि सदभावे । अइससि जासि डॉबी काहरि नावे ।।

गंगा जउँना माझे रे बहइ नाई ।
ताहि बुधिलि मातंगि पोइआ लीले पार करेइ ।
बाहतु डोंबी, बाहुलो डोबी बाट त भइल उछारा ।
सद्गुरु पाअ पए जाइव पुणु जिणउरा ।।

काआ, नावड़ि खटि मन करिआल । सद्गुरु बअणे घर पतवाल ।
चीअ थिर करि गहु रे नाई ! अन्न उपाये पार ण जाई ।।

कापालिक जोगियो से बचे रहने का उपदेश घर में सास ननंद आदि देती ही रहती थी, पर वे आकर्षित होती ही थीं-जैसे कृष्ण की ओर गोपियों होती थी

राग देस मोह लाइअ छार । परम मोख – लवए मुत्तिहार ।
मारिअ सासु नणंद घरे शाली। माअ मारिया, कण्ह, भइल कबाली ।।

थोड़ा घट के भीतर का विहार देखिए—

नाडि शक्ति दिअ थरिअ खदे । अनंह, डमरू बाजइ’ बीर नादे ।
काण्ड कपाली जी पाठ अचारे । देह नअरी विहरइ एकारे ।।

इसी ढंग का कुक्कुरिपा-( सं० ९०० के उपरांत ) का एक गीत लीजिए-

ससुरी निंद गेल, बहुडी जागअ । कानैट चोर निलका गइ मागअ ।
दिवसइ बहुटी काढ़ई डरे भाअ । राति भइले कामरू जाय ।

रहस्य-मार्गियों की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार सिद्ध लोग अपनी बानी को ऐसी पहेली के रूप में भी रखते थे जिसे कोई विरला ही बूझ सकता है । सिद्ध तांतिपा की अटपटी बानी सुनिए-

बेंग संसार बाड़हिल जाअ। दुहिल दूध के बेटे समाअ ।।
बलद बिआएल गविआ बॉझे । पिटा दुहिए एतिना साँझे ।
जो सो बुज्झी सों धनि बुधी । जो सो, चोर सोइ साधी ।
निते निते पिआला पिहे षम जुझअ । ढूंढपाएर गीत विरले बुझअ ।।

‘महासुखवाद’ का प्रवर्तन

बौद्ध धर्म ने जब तांत्रिक रूप धारण किया तब उसमें पाँच ध्यानी बुद्धों और उनकी शक्तियों के अतिरिक्त अनेक बोधिसत्वों की भावना की गई जो सृष्टि का परिचालन करते है । वज्रयान में आकर ‘महासुखवाद’ का प्रवर्तन हुआ । प्रज्ञा और उपाय के योग से इस ‘महासुखदशा की प्राप्ति मानी गई । इसे आनंद-स्वरूप ईश्वरत्व ही समझिए । निर्वाण के तीन अवयव ठहराए गए शून्य, विज्ञान और महासुख ।

उपनिषद् में तो ब्रह्मानंद के सुख के परिमाण का अंदाज कराने के लिये उसे सहवास-सुख से सौगुना कहा था पर वज्रयान में निर्वाण के सुख का स्वरूप ही सहवास-सुख के समान बताया गया । शक्तियो सहित देवताओं के ‘युगनद्ध’ स्वरूप की भावना चली और उनकी नग्न मूर्तियों सहवास की अनेक अश्लील मुद्राओं में बनने लगीं, जो कहीं कही अब भी मिलती हैं । रहस्य या गुह्य की प्रवृत्ति बढ़ती गई और ‘गुह्य समाज’ या ‘श्री समाज’ स्थान स्थान पर होने लगे । ऊँचे नीचे कई वर्षों की स्त्रियो को लेकर मद्यपान के साथ अनेक बीभत्स विधान वज्रयानियो की साधना के प्रधान अंग थे । सिद्धि प्राप्त करने के लिये किसी स्त्री का ( जिसे शक्ति, यौगिनी या महामुद्रा कहते थे ) योग या सेवन आवश्यक था।

रहस्यवादियों की सार्वभौम प्रवृत्ति के अनुसार ये सिद्ध लोग अपनी बानियों के सांकेतिक दूसरे अर्थ भी बताया करते थे, जैसे-

काआ तरुअर पंच बिड़ाल

(पंच विड़ाल- बौद्ध शास्त्रों में निरूपित पंच प्रतिबद्ध-आलस्य, हिंसा, काम, चिकित्सा और मोह। ध्यान देने की बात यह है कि विकारों की यही पॉच संख्या निर्गुण धारा के संतो और हिंदी के सूफी कवियो ने ली । हिदू शास्त्रों में विकारों की बंधी संख्या ६ हैं । )

गंगा जउँना माझे बहइ रे नाई ।

( इला पिंगला के बीच सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से शून्य देश की ओर यात्रा ) इसी से वे अपनी बानियों की भाषा को “संध्याभाषा” कहते थे ।

ऊपर उद्धृत थोड़े से वचनो से ही इसका पता लग सकता है कि इन सिद्धो द्वारा किस प्रकार के संस्कार जनता में इधर उधर बिखेरे गए थे। जनता की श्रद्धा शास्त्रज्ञ विद्वानो पर ले हटाकर अंतर्मुख साधनोवाले योगियो पर जमाने का प्रयत्न ‘सरह’ के इस वचन घट में ही बुद्ध है यह नहीं जानता, आवागमन को भी खंडित नहीं किया, तो भी निर्लज कहता है कि “मै पंडित हूँ” में स्पष्ट झलकता है। यहीं पर यह समझ रखना चाहिए कि योगमार्गी बौद्वो ने ईश्वरत्व की भावना कर ली थी-

अत्यात्मवेद्यो भगवान् उपमावर्जितः प्रभुः ।।

सर्वगः सर्वव्यापी च कर्ता हत्त जगत्पतिः ।।

श्रीमान् वजसत्त्वोऽसौ व्यक्तभाव-प्रकाशक ।।

व्यक्त भावानुगत तत्त्वसिद्धि⁠⁠⁠⁠ ( दारिकपा की शिष्या सहजयोगिनी चिता कृत )

इसी प्रकार जहाँ रवि, शशि, पवन आदि की गति नहीं वहाँ चित्त को विश्राम कराने का दावा, ऋजु’ ( सीधे, दक्षिण ) मार्ग छोडकर ‘बंक’ (टेढ़ा, वाम ) मार्ग ग्रहण करने का उपदेश भी है । सिद्ध कण्हपा कहते हैं कि जब तक अपनी गृहिणी का उपभोग न करेगा तब तक पंचवर्ण की स्त्रियों के साथ विहार क्या करेगा ?’ । वज्रयान में ‘महासुह’ ( महासुख ) वह दशा बतलाई गई है जिसमे साधक शून्य में इस प्रकार विलीन हो जाता है जिस प्रकार नमक पानी में । इस दशा का प्रतीक खड़ा करने के लिये ‘युगनद्ध’ ( स्त्री-पुरुष का आलिंगनबद्ध जोड़ा ) की भावना की गई ।

कण्हपा का यह वचन कि

“जिमि लौण बिलिज्जइ पाणिएहि तिमि घरणी लई चित्त”

इसी सिद्धांत का द्योतक है ।

कहने की आवश्यकता नहीं कि कौल, कापालिक आदि इन्हीं वज्रयानियों से निकले । कैसा ही शुद्ध और सात्विक धर्म हो, ‘गुह्य’ और ‘रहस्य के प्रवेश से वह किस प्रकार विकृत और पाखंडपूर्ण हो जाता हैं, वज्रयान इसका प्रमाण है।

सिद्ध के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य:

  • सिद्धों का सम्बन्ध बौद्ध धर्म की वज्रयानी शाखा से है।
  • ये भारत के पूर्वी भाग में सक्रिय थे।
  • इनकी संख्या 84 मानी जाती है जिनमें सरहप्पा, शबरप्पा, लुइप्पा, डोम्भिप्पा, कुक्कुरिप्पा ((कणहपा))आदि मुख्य हैं।

प्रथम सिद्ध कवि

  • सरहप्पा प्रथम सिद्ध कवि थे।
  • राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें हिन्दी का प्रथम कवि माना तथा सर्वसम्मती से इन्हें हिन्दी का प्रथम कवि स्वीकार किया गया,
  • इन्होंने जातिवाद और वाह्याचारों पर प्रहार किया।
  • देहवाद का महिमा मण्डन किया और सहज साधना पर बल दिया।
  • ये महासुखवाद द्वारा ईश्वरत्व की प्राप्ति पर बल देते हैं।

सिद्ध साहित्य

  • बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य देश भाषा (जनभाषा) में लिखा गया वही सिद्ध साहित्य कहलाता है।
  • यह साहित्य बिहार से लेकर असम तक फैला था।
  • सिद्धों की भाषा में ‘उलटबासी’ शैली का पूर्व रुप देखने को मिलता है।
  • इनकी भाषा को संध्या भाषा कहा गया है, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सिद्ध साहित्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि, “जो जनता तात्कालिक नरेशों की स्वेच्छाचारिता, पराजय त्रस्त होकर निराशा के गर्त में गिरी हुई थी, उनके लिए इन सिद्धों की वाणी ने संजीवनी का कार्य किया।
  • साधना अवस्था से निकली सिद्धों की वाणी ‘चरिया गीत / चर्यागीत’ कहलाती है।

सिद्ध साहित्य(SIDDH SAHITYA) के 3 श्रेणी:

(१) नीति या आचार संबंधित साहित्य
(२) उपदेश परक साहित्य
(३) साधना सम्बन्धी या रहस्यवादी साहित्य

सिद्ध साहित्य की प्रमुख विशेषताएं

सिद्ध साहित्य अपनी प्रवृत्ति और प्रभाव के कारण हिन्दी साहित्य में विशेष महत्व रखता है। इन सिद्धों ने अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन करने वाले साधनापरक साहित्य का निर्माण किया। सिद्ध-साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ इस प्रकार है :-

१) जीवन की सहजता और स्वाभाविकता मे दृढ विश्वास :-

सिद्ध कवियों ने जीवन की सहजता और स्वाभाविकता में दृढविश्वास व्यक्त किया है। अन्य धर्म के अनुयायियों ने जीवन पर कई प्रतिबन्ध लगाकर जीवन को कृत्रिम बनाया था। विशेषकर कनक कामिनी को साधना मार्ग की बाधाएँ मानी थी। विभिन्न कर्मकाण्ड़ों से साधना मार्ग को भी कृत्रिम बनाया था। सिद्धों ने इन सभी कृत्रिमताओं का विरोध कर जीवन की सहजता और स्वाभाविकता पर बल दिया। उनके मतानुसार सहज सुख से ही महासुख की प्राप्ति होती है। इसलिए सिद्धों ने सहज मार्ग का प्रचार किया। सहज मार्ग के अनुसार प्रत्येक नारी प्रज्ञा और प्रत्येक नर करूणा (उपाय) का प्रतीक है, इसलिए नर-नारी मिलन प्रज्ञा और करूणानिवृत्ति और प्रवृत्ति का मिलन है. दोनों को अभेदता ही ‘महासुख’ की स्थिति है।

२) गुरू महिमा का प्रतिपादन :-

सिद्धोंने गुरू-महिमा का पर्याप्त वर्णन किया है। सिद्धों के अनुसार गुरू का स्थान वेद और शास्त्रों से भी ऊँचा है। सरह्या से कहा है कि गुरू की कृपा से ही सहजानन्द की प्राप्ति होती है। गुरू के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। जिसने गुरूपदेश का अमृतपान नहीं किया, वहशास्त्रों की मरूभूमि में प्यास से व्याकुल होकर मग जाएगा।-

”गुरू उवएसि अमिरस धावण पीएड जे ही।
बहु सत्यत्य मरू स्थलहि तिसिय मरियड ते ही।।

३) बाह्याडम्बरों पाखण्ड़ों की कटु आलोचना :-

सिद्धों ने पुरानी रूढ़ियों परम्पराओं और बाह्य आडम्बरों, पाखण्डों का जमकर विरोध किया है। इसिलिए इन्होंने वेदों, पुराणों, शास्त्रों की खुलकर निंदा की है।

“ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से तब पैदा हुए थे, अब तो वे भी वैसे ही पैदा होते हैं, जैसे अन्य लोग। तो फिर ब्राह्मणत्व कहाँ रहा? यदि कहा कि संस्कारों से ब्राह्मणत्व होता है तो चाण्डाल को अच्छे संस्कार देकर ब्राह्मण को नंदी बना देते? यदि आग में घी डालने से मुक्ति मिलती है तो सबको क्यों नहीं डालने देते? होम करने से मुक्ति मिलती है यह पता नहीं लेकिन धुआँ लगने से आँखों को कष्ट जरूर होता है।”

वर्ण व्यवस्था,ऊँच-नीच और ब्राह्मण धर्मों के कर्मकाण्डों पर प्रहार करते हुए सरहपा ने कहा है –

”यदि नंगे रहने से मुक्ति हो जाए तो सियार, कुत्तों को भी मुक्ति अवश्य होनी चाहिए। केश बढ़ाने से यदि मुक्ति हो सके तो मयुर उसके सबसे बड़े अधिकारी है। यदि कंध भोजन से मुक्ति हो तो हाथी, घोड़ों को मुक्ति पहले होनी चाहिए।”

दिगम्बर साधुओं को लक्ष्य करते हुए सरहपा कहते हैं

इसतरह इन सिद्धों ने वेद, पुराण और पण्डितों की कटु आलोचना की है .

४) तत्कालीन जीवन में आशावादी संचार :-

“जो जनता नरेशों की स्वैच्छाचारिता, पराजय या पतन से त्रस्त होकर निराशावाद के गर्त में गिरी हुई थी, उसके लिए इन सिद्धों की वाणी ने संजीवनी का कार्य किया। … जीवन की भयानक वास्तविकता की अग्नि से निकालकर मनुष्य को महासुख के शीतल सरोवर में अवगाहन कराने का महत्वपूर्ण कार्य इन्होंने किया।” आगे चलकर सिद्धों में स्वैराचार फैल गया, जिसका बूरा असर जन-जीवन पर पड़ गया।

सिद्ध साहित्य का मुल्यांकन करते हुए डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदीजी

५) रहस्यात्मक अनुभूति :-

सिद्धों ने प्रज्ञा और उपाय (करूणा) के मिलनोपरान्त प्राप्त महासुख का वर्णनऔर विवेचन अनेक रुपकों के माध्यम से किया है। नौका, वीणा, चूहा, हिरण आदि रूपकों का प्रयोग इन्होंने रहस्यानुभूति की व्याख्या के लिए किया है। रवि, शशि, कमल, कुलिश, प्राण,
अवधूत आदि तांत्रिक शब्दों का प्रयोग भी इसी व्याख्या के लिए हुआ है। डॉ. धर्मवीर भारती ने अपने शोध ग्रन्थ ‘सिद्ध साहित्य में सिद्धों की शब्दावली की दार्शनिक व्याख्या कर उसके आध्यात्मिक पक्ष को स्पष्ट किया है।

६) श्रृंगार और शांत रस :-

सिद्ध कवियों की रचना में श्रृंगार और शांत रस का सुन्दर प्रयोग हुआ है। कहीं कहीं पर उत्थान श्रृंगार चित्रण मिलता है। अलौकिक आनन्द की प्राप्ति का वर्णन करते समय ऐसा हुआ है।

७) जनभाषा का प्रयोग :-

सिद्धों की रचनाओं में संस्कृत तथा अपभ्रंश मिश्रित देशी भाषा का प्रयोग मिलता है। डॉ. रामकुमार वर्मा इनकी भाषा को जन समुदाय की भाषा मानते है। जनभाषा को अपनाने के बावजूद जहाँ वे अपनी सहज साधना की व्याख्या करते हैं, वहाँ उनकी भाषा क्लिष्ट
बन जाती है। सिद्धों की भाषा को हरीप्रसाद शास्त्री ने ‘संधा-भाषा’ कहा है। साँझ के समय जिस प्रकार चीजें कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट दिखाई देती है, उसी प्रकार यह भाषा कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट अर्थ-बोध देती है। यही मत अधिक प्रचलित है।

८) छन्द प्रयोग :-

सिद्धों की अधिकांश रचना चर्या गीतो में हुई है, तथापि इसमें दोहा, चौपाई जैसे लोकप्रिय छन्द भी प्रयुक्त हुए है। सिद्धों के लिए दोहा बहुत ही प्रिय छन्द रहा है। उनकी रचनाओं में कहीं कहीं सोरठा और छप्पय का भी प्रयोग पाया जाता है।

९) साहित्य के आदि रूप की प्रामाणिक सामग्री :-

सिद्ध साहित्य का महत्व इस बात में बहुत अधिक है कि उससे हमारे साहित्य के आदि रूप की सामग्री प्रामाणिक ढंग से प्राप्त होती है। चारण कालीन साहित्य तो केवल तत्कालीन राजनीतिक जीवन की प्रतिछाया है। लेकिन सिद्ध साहित्य शताब्दियों से आनेवाली
धर्मिक और सांस्कृतिक विचारधारा का एक सही दस्तावेज है।

प्रमुख सिद्ध कवि व उनकी रचनाएँ

  • सरहपा (769 ई.)- दोहाकोष
  • लुइपा (773 ई. लगभग) — लुइपादगीतिका
  • शबरपा (780 ई.) — चर्यापद , महामुद्रावज्रगीति , वज्रयोगिनीसाधना
  • कण्हपा (820 ई. लगभग)– चर्याचर्यविनिश्चय। कण्हपादगीतिका
  • डोंभिपा (840 ई. लगभग)– डोंबिगीतिका, योगचर्या, अक्षरद्विकोपदेश
  • भूसुकपा– बोधिचर्यावतार
  • आर्यदेवपा — कावेरीगीतिका
  • कंवणपा — चर्यागीतिका
  • कंबलपा — असंबंध-सर्ग दृष्टि
  • गुंडरीपा — चर्यागीति
  • जयनन्दीपा — तर्क मुदँगर कारिका
  • जालंधरपा — वियुक्त मंजरी गीति, हुँकार चित्त , भावना क्रम
  • दारिकपा — महागुह्य तत्त्वोपदेश
  • धामपा — सुगत दृष्टिगीतिकाचर्या
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