रासो काव्य (Raso kavya)के प्रमुख कवि विशेषता व पंक्तियाँ के बारे में जानेंगे
रासो काव्य (Raso kavya)के प्रमुख कवि विशेषता व पंक्तियाँ
रासो साहित्य के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य:
- रासो काव्य में अधिकतर वीर-गाथाएं हीं हैं।
- पृथ्वीराजरासो प्रसिद्ध हिन्दी रासो काव्य है।
- रास साहित्य जैन परम्परा से संबंधित है तो रासो का संबंध अधिकांशत: वीर काव्य से, जो डिंगल भाषा में लिखा गया ।
रास और रासो शब्द की व्युत्पति
- 1. रास – नन्ददुलारे वाजपेयी
- 2. रासक – चन्द्रबली पाण्डेय , डॉ. दशरथ शर्मा , पंडित विश्वनाथ मिश्र , डॉ. माताप्रसाद गुप्त, हजारीप्रसाद द्विवेदी
- 3. रसिक – नरोत्तम स्वामी
- 4. राजसूय – गार्सा द तासी
- 5. राजयश – डॉ. हरप्रसाद शास्त्री
- 6. रसायण – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- 7. रहस्य – कविराज श्यामलदास , डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल
रासो साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ
- वीरगाथात्मक काव्य की इन रचनाओं में कवियों द्वारा अपने आश्रयदाताओं के शौर्य एवं ऐश्वर्य का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है।
- यह साहित्य मुख्यतः चारण कवियों द्वारा रचा गया।
- ऐतिहासिकता के साथ-साथ कवियों द्वारा अपनी कल्पना का समावेश भी किया गया है।
- अधिकांश रचनाएं संदिग्ध एवं अर्धप्रामाणिक मानी जाती हैं।
- युद्धप्रेम का वर्णन अधिक किया गया है।
- वीर रस व शृंगार रस की प्रधानता है।
- डिंगल और पिंगल शैली का प्रयोग हुआ है।
- इनमें विविध प्रकार की भाषाओं एवं अनेक प्रकार के छंदों का प्रयोग किया गया है।
- चारण कवियों की संकुचित मानसिकता का प्रयोग देखने को मिलता है।
प्रमुख रासो ग्रन्थ
पृथ्वीराज रासो | चंदबरदाई |
बीसलदेव रासो | नरपति नाल्ह |
परमाल रासो | जगनिक |
हम्मीर रासो | शार्ङ्धर |
खुमान रासो | दलपति विजय |
विजयपाल रासो | नल्लसिंह भाट |
बुद्धिरासो | जल्हण |
मुंज रासो | अज्ञात |
कलियुग रासो | रसिक गोविन्द |
कायम खाँ रासो | न्यामत खाँ जान कवि |
राम रासो | समय सुन्दर |
राणा रासो | दयाराम (दयाल कवि) |
रतनरासो | कुम्भकर्ण |
कुमारपाल रासो | देवप्रभ |
रासो काव्य (Raso kavya) के प्रमुख कवि
पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई) :
- रासो काव्य परंपरा का प्रतिनिधि व सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ,
- आदिकाल का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ,
- काव्य-रूप-प्रबंध, रस-वीर व श्रृंगार, अलंकार- अनुप्रास व यमक (चंदबरदाई के प्रिय),
- छंद- विविध छंद (लगभग 68),
- गुण-ओज व माधुर्य,
- भाषा-राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा,
- शैली-पिंगल।
- पृथ्वीराज रासो में चौहान शासक पृथ्वीराज के अनेक युद्धों और विवाहों का सजीव चित्रण हुआ है।
- पृथ्वीराज रासो एक अर्द्धप्रामाणिक रचना है।
परमाल रासो (जगनिक) :
- मूल रूप से उपलब्ध नहीं है लेकिन इसका एक अंश उपलब्ध है जिसे ‘आल्हा खंड’ कहा जाता है।
- इसका छंद आल्हा या वीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
संदेश रासक (अब्दुल रहमान) : एक विरह काव्य है।
रासो काव्य की पक्तियाँ
- बारह बरस लौं कूकर जीवै अरु तेरह लौं जिये सियार/बरस अठारह क्षत्रिय जीवै आगे जीवन को धिक्कार -जगनिक
- भल्ला हुआ जो मारिया बहिणी म्हारा कंतु/लज्जेजंतु वयस्सयहु जइ भग्गा घरु एंतु (अच्छा हुआ जो मेरा पति युद्ध में मारा गया; हे बहिन ! यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्काओं (सहेलियों) के सम्मुख लज्जित होती।) -हेमचंद्र
- बालचंद्र विज्जवि भाषा/दुनु नहीं लग्यै दुजन भाषा (जिस तरह बाल चंद्रमा निर्दोष है उसी तरह विद्यापति की भाषा; दोनों का दुर्जन उपहास नहीं कर सकते) -विद्यापति
- षटभाषा पुराणं च कुराणंग कथित मया (मैंने अपनी रचना षटभाषा में की है और इसकी प्रेरणा पुराण व कुरान दोनों से ली है) -चंदरबरदाई
- ‘मैंने एक बूंद चखी है और पाया है कि घाटियों में खोया हुआ पक्षी अब तक महानदी के विस्तार से अपरिचित था’ (संस्कृत साहित्य के संबंध में) -अमीर खुसरो
- पंडिअ सअल सत्य वक्खाणअ/देहहिं बुद्ध बसन्त न जाणअ। [पंडित सभी शास्त्रों का बखान करते हैं परन्तु देह में बसने वाले बुद्ध (ब्रह्म) को नहीं जानते।] -सरहपा
- जोइ जोइ पिण्डे सोई ब्रह्माण्डे (जो शरीर में है वही ब्रह्माण्ड में है) -गोरखनाथ
- गगन मंडल मैं ऊँधा कूबा, वहाँ अमृत का बासा/सगुरा होइ सु भरि-भरि पीवै, निगुरा जाइ पियासा -गोरखनाथ
- काहे को बियाहे परदेस सुन बाबुल मोरे (गीत) -अमीर खुसरो
- बड़ी कठिन है डगर पनघट की (कव्वाली)-अमीर खुसरो
- छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके (पूर्वी अवधी में रचित कव्वाली) -अमीर खुसरो
- एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा/चारो ओर वह थाल फिरे, मोती उससे एक न गिरे (पहेली) -अमीर खुसरो
- नित मेरे घर आवत है रात गये फिर जावत है/फंसत अमावस गोरी के फंदा हे सखि साजन, ना सखि, चंदा (मुकरी/कहमुकरनी) -अमीर खुसरो
- खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय।
- आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय। ला पानी पिला।
- (ढकोसला) -अमीर खुसरो
- जेहाल मिसकीं मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ;/के ताब-ए-हिज्रा न दारम-ए-जां न लेहु काहे लगाय छतियाँ- प्रिय मेरे हाल से बेखबर मत रह, नजरों से दूर रहकर यूँ बातें न बनाओ कि मैं जुदाई को सहने की ताकत नहीं रखता, मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते (फारसी-हिन्दी मिश्रित गजल) -अमीर खुसरो
- गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस/चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस (अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु पर) -अमीर खुसरो
- [नोट : सूफी मत में आराध्य (भगवान, गुरु) को स्त्री तथा आराधक (भक्त, शिष्य) को पुरुष के तीर पर देखने की रचायत है।]
- खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वाकी धार।
- जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।। -अमीर खुसरो
- खुसरो पाती प्रेम की, बिरला बांचे कोय।
- वेद कुरआन पोथी पढ़े, बिना प्रेम का होय।। -अमीर खुसरो
- खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग।
- तन मेरो मन पीव को दोऊ भय एक रंग।। -अमीर खुसरो
- तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब
- (अर्थात मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ।) -अमीर खुसरो
- ”मैं हिन्दुस्तान की तूती (‘तूती-ए-हिन्दुस्तान’) हूँ। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो, तो हिंदवी में पूछो, मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा।” -अमीर खुसरो
- न लफ्जे हिंदवीस्त अज फारसी कम
- (अर्थात हिंदवी बोल फारसी से कम नहीं।) -अमीर खुसरो
- आध बदन ससि विहँसि देखावलि आध पिहिलि निज बाहू/कछु एक भाग बलाहक झाँपल किछुक गरासल राहू- नायिका ने अपना चेहरा हाथ से छिपा रखा है। कवि कहता है कि उसका चंद्रमुख आधा छिपा है और आधा दिख रहा है। ऐसा लगता है मानो चंद्रमा के एक भाग को बादल ने ढँक रखा है और आधा दिख रहा है (‘पदावली’ से) -विद्यापति
- ‘आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गये हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों को ‘गीत गोविन्द’ (जयदेव) के पदों में आध्यात्मिकता दिखती है वैसे ही ‘पदावली’ (विद्यापति) के पदों में।’ -रामचन्द्र शुक्ल
- प्राइव मुणि है वि भंतडी ते मणिअडा गणंति/अखइ निरामइ परम-पइ अज्जवि लउ न लहंति।- प्रायः मुनियों को भी भ्रांति हो जाती है, वे मनका गिनते है। अक्षय निरामय परम पद में आज भी लौ नहीं लगा पाते। -हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
- पिय-संगमि कउ निददडी पिअहो परोक्खहो केम/मइँ विन्निवि विन्नासिया निदद न एम्ब न-तेम्ब-प्रिय के संगम में नींद कहाँ ? प्रिय के परोक्ष में (सामने न रहने पर) नींद कहाँ ? मैं दोनों प्रकार से नष्ट हुई ? नींद न यों, न त्यों। -हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
- जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु/तसु हउँ कलजुगि दुल्लहहो बलि किज्जऊँ सुअणस्सु।- जो अपना गुण छिपाए, दूसरे का प्रकट करे, कलियुग में दुर्लभ सुजन पर मैं बलि जाउँ। -हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
- माधव हम परिनाम निरासा -विद्यापति
- कनक कदलि पर सिंह समारल ता पर मेरु समाने -विद्यापति
- जाहि मन पवन न संचरई
- रवि ससि नहीं पवेस -सरहपा
- अवधू रहिया हाटे वाटे रूप विरष की छाया।
- तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया।। -गोरखनाथ
- पुस्तक जल्हण हाथ दै चलि गज्जन नृप काज -चंदबरदाई
- मनहु कला सभसान कला सोलह सौ बन्निय -चंदरबरदाई