रस (Sentiments) की परिभाषा
रस | स्थायी भाव | उदाहरण |
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(1) शृंगार रस | रति/प्रेम | (i) संयोग शृंगार : बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय। (संभोग श्रृंगार): सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। (बिहारी) (ii) वियोग श्रृंगार : निसिदिन बरसत नयन हमारे (विप्रलंभ श्रृंगार): सदा रहित पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे।।(सूरदास) |
(2) हास्य रस | हास | तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप, साज मिले पंद्रह मिनट, घंटा भर आलाप। घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता, धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता। (काका हाथरसी) |
(3) करुण रस | शोक | सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सीलु बलु तेजु बखानी।। करहिं विलाप अनेक प्रकारा।। परिहिं भूमि तल बारहिं बारा।। (तुलसीदास) |
(4) वीर रस | उत्साह | वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो। सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो। तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं।। (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी) |
(5) रौद्र रस | क्रोध | श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे। सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे। संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े। करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े।। (मैथिली शरण गुप्त) |
(6) भयानक रस | भय | उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी। चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों-सी।। (जयशंकर प्रसाद) |
(7) बीभत्स रस | जुगुप्सा/घृणा | सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत। खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत।। गीध जांघि को खोदि-खोदि कै मांस उपारत। स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत।। (भारतेन्दु) |
(8) अदभुत रस | विस्मय/आश्चर्य | आखिल भुवन चर-अचर सब, हरि मुख में लखि मातु। चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु।। (सेनापति) |
(9) शांत रस | शम/निर्वेद (वैराग्य/वीतराग) | मन रे तन कागद का पुतला। लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना।। (कबीर) |
(10) वत्सल रस | वात्सल्य रति | किलकत कान्ह घुटरुवन आवत। मनिमय कनक नंद के आंगन बिम्ब पकरिवे घावत।। (सूरदास) |
(11) भक्ति रस | भगवद विषयक रति/अनुराग | राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे। घोर भव नीर-निधि, नाम निज नाव रे।। (तुलसीदास) |
नोट:
(1) शृंगार रस को ‘रसराज/ रसपति’ कहा जाता है।
(2) नाटक में 8 ही रस माने जाते है क्योंकि वहां शांत को रस में नहीं गिना जाता। भरत मुनि ने रसों की संख्या 8 माना है।
(3) भरत मुनि ने केवल 8 रसों की चर्चा की है, पर आचार्य अभिन्नगुप्त (950-1020 ई०) ने ‘नवमोऽपि शान्तो रसः कहकर 9 रसों को काव्य में स्वीकार किया है।
(4) श्रृंगार रस के व्यापक दायरे में वत्सल रस व भक्ति रस आ जाते हैं इसलिए रसों की संख्या 9 ही मानना ज्यादा उपयुक्त है।