छन्द (Metres) की परिभाषा
(3) मात्रिक छन्द-
जिन छंदों में मात्राओं की संख्या, लघु-गुरु, यति-गति के आधार पर पदरचना होती है, उन्हें मात्रिक छन्द कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- मात्रा की गणना पर आधृत छन्द ‘मात्रिक छन्द’ कहलाता है।
मात्रिक छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या तो समान रहती है लेकिन लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
इसमें वार्णिक छन्द के विपरीत, वर्णों की संख्या भित्र हो सकती है और वार्णिक वृत्त के अनुसार यह गणबद्ध भी नहीं है, बल्कि यह गणपद्धति या वर्णसंख्या को छोड़कर केवल चरण की कुल मात्रासंख्या के आधार ही पर नियमित है। ‘दोहा’ और ‘चौपाई’ आदि छन्द ‘मात्रिक छन्द’ में गिने जाते है। ‘दोहा’ के प्रथम-तृतीय चरण में ९३ मात्राएँ और द्वितीय-चतुर्थ में ९९ मात्राएँ होती है। जैसे-
प्रथम चरण- श्री गुरु चरण सरोज रज – १३ मात्राएँ
द्वितीय चरण- निज मन मुकुर सुधार- ११ मात्राएँ
तृतीय चरण- बरनौं रघुबर विमल जस- १३ मात्राएँ
चतुर्थ चरण- जो दायक फल चार- ११ मात्राएँ
उपयुक्त दोहे के प्रथम चरण में ११ वर्ण और तृतीय चरण में १२ वर्ण है जबकि कुल मात्राएँ गिनने पर १३-१३ मात्राएँ ही दोनों चरणों में होती है। गण देखने पर पहले चरण में भगण, नगन, जगण और दो लघु तथा तीसरे चरण में सगण , नगण, नगण, नगण है। अतः ‘मात्रिक छन्द’ के चरणों में मात्रा का ही साम्य होता है, न कि वर्णों या गणों का।
प्रमुख मात्रिक छंद
(A) सम मात्रिक छंद : अहीर (11 मात्रा), तोमर (12 मात्रा), मानव (14 मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/पद्धटिका, चौपाई (सभी 16 मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों 19 मात्रा), राधिका (22 मात्रा), रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी 24 मात्रा), गीतिका (26 मात्रा), सरसी (27 मात्रा), सार (28 मात्रा), हरिगीतिका (28 मात्रा), ताटंक (30 मात्रा), वीर या आल्हा (31 मात्रा) ।
(B) अर्द्धसम मात्रिक छंद : बरवै (विषम चरण में- 12 मात्रा, सम चरण में- 7 मात्रा), दोहा (विषम- 13, सम- 11), सोरठा (दोहा का उल्टा), उल्लाला (विषम-15, सम-13)।
(C) विषम मात्रिक छंद : कुण्डलिया (दोहा +रोला), छप्पय (रोला +उल्लाला)।
(4) मुक्तछन्द-जिस समय छंद में वर्णिक या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णो की संख्या और क्रम समान हो और मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है।
उदाहरण- निराला की कविता ‘जूही की कली’ इत्यादि।
चरणों की अनियमित, असमान, स्वच्छन्द गति और भावानुकूल यतिविधान ही मुक्तछन्द की विशेषता है। इसका कोई नियम नहीं है। यह एक प्रकार का लयात्मक काव्य है, जिसमें पद्य का प्रवाह अपेक्षित है। निराला से लेकर ‘नयी कविता’ तक हिन्दी कविता में इसका अत्यधिक प्रयोग हुआ है।
इसमें न तो वर्णों की गणना होती है, न मात्राओं की। भाव-प्रवाह के आधार पर पदरचना होती है।