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काव्यशास्त्र
‘काव्यशास्त्र’ काव्य और साहित्य का दर्शन तथा विज्ञान है। यह काव्यकृतियों के विश्लेषण के आधार पर समय-समय पर उद्भावित सिद्धान्तों की ज्ञानराशि है। काव्यशास्त्र के लिए पुराने नाम ‘साहित्यशास्त्र’ तथा ‘अलंकारशास्त्र’ हैं और साहित्य के व्यापक रचनात्मक वाङ्मय को समेटने पर इसे ‘समीक्षाशास्त्र’ भी कहा जाने लगा। संस्कृत आलोचना के अनेक अभिधानों में अलंकारशास्त्र ही नितान्त लोकप्रिय अभिधान है। इसके प्राचीन नामों में ‘क्रियाकलाप’ (क्रिया काव्यग्रंथ; कल्प विधान) वात्स्यायन द्वारा निर्दिष्ट 64 कलाओं में से अन्यतम है। राजशेखर द्वारा उल्लिखित “साहित्य विद्या” नामकरण काव्य की भारतीय कल्पना के ऊपर आश्रित है, परन्तु ये नामकरण प्रसिद्ध नहीं हो सके।
कुन्तक संस्कृत काव्यशास्त्री
कुन्तक संस्कृत काव्यशास्त्री
कुंतक कश्मीर के निवासी थे तथा इन्हें 'वक्रोक्ति' संप्रदाय के प्रवर्तक माना जाता है। कुंतक का समय दशम शती का अंत तथा एकादश शती का आरंभ माना जाता है। इनकी प्रसिद्धि 'वक्रोक्तिजीवितम्' नामक ग्रंथ के कारण है। इसमें 4 उन्मेष है। कुंतक प्रतिभासंपन्न आचार्य थे।
sanskrit-aacharya
इन्होंने वक्रोक्ति को काव्य का!-->!-->!-->!-->!-->!-->!-->…
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मम्मट संस्कृत काव्यशास्त्री
आचार्य मम्मट संस्कृत काव्यशास्त्र के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में से एक समझे जाते हैं। वे अपने शास्त्रग्रंथ काव्यप्रकाश के कारण प्रसिद्ध हुए। कश्मीरी पंडितों की परंपरागत प्रसिद्धि के अनुसार वे नैषधीय चरित के रचयिता श्रीहर्ष के मामा थे।
sanskrit-aacharya
आचार्य मम्मट कश्मीर के एक पंडित परिवार में पैदा हुए थे। वे जैयट के पुत्र थे जिन्होंने!-->!-->!-->!-->!-->…
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क्षेमेंद्र संस्कृत काव्यशास्त्री
क्षेमेन्द्र का जन्म लगभग 1025 और मृत्यु 1066 में हुआ . संस्कृत के प्रतिभा संपन्न काश्मीरी महाकवि थे। ये विद्वान ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए सिंधु के प्रपौत्र, निम्नाशय के पौत्र और प्रकाशेंद्र के पुत्र थे। इन्होंने प्रसिद्ध आलोचक तथा तंत्रशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् अभिनवगुप्त!-->…
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रस सम्प्रदाय
रस संप्रदाय भारतीय काव्यशास्त्र का सिद्धांत है जिसका उपयोग नाट्यशास्त्र में किया जाता है । रस संप्रदाय की उत्पत्ति भरतमुनि के द्वारा 200 ईसवी पूर्व समय में की गई थी । इसीलिए रस संप्रदाय के प्रवर्तक के रूप में भरतमुनि को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । उन्हीं के द्वारा रस संप्रदाय की उत्पत्ति की गई थी ।
रस के प्रकार जैसे कि करुण रस , भयानक रस ,!-->!-->!-->…
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विश्वनाथ संस्कृत काव्यशास्त्री
आचार्य विश्वनाथ (पूरा नाम आचार्य विश्वनाथ महापात्र) संस्कृत काव्य शास्त्र के मर्मज्ञ और आचार्य थे। वे साहित्य दर्पण सहित अनेक साहित्यसम्बन्धी संस्कृत ग्रन्थों के रचयिता हैं। उन्होंने आचार्य मम्मट के ग्रंथ काव्य प्रकाश की टीका भी की है जिसका नाम "काव्यप्रकाश दर्पण" है।
sanskrit-aacharya
इनके पिता का नाम चंद्रशेखर और पितामह का नाम नारायणदास!-->!-->!-->!-->!-->…
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जगन्नाथ संस्कृत काव्यशास्त्री
जगन्नाथ संस्कृत काव्यशास्त्री पण्डितराज उच्च कोटि के कवि, समालोचक, साहित्यशास्त्रकार तथा वैयाकरण थे।
जन्म : 16 वीं शती के अन्तिम चरण में मृत्यु : 17 वीं शदी के तृतीय चरण में,तैलंग ब्राह्मणगोदावरी जिलांतर्गत मुंगुडु ग्राम के निवासी पिता का नाम "पेरुभट्ट" (पेरभट्ट) और माता का नाम लक्ष्मीपंडितराज जगन्नाथ औरंज़ेब के दरबारी थे पंडितराज!-->!-->!-->!-->!-->…
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शब्द शक्ति से तात्पर्य
भारतीय काव्यशास्त्र में शब्द-शक्तियों के विवेचन की एक सुदीर्घ और सुचिंतित परंपरा रही है। आचार्यों ने शब्द और अर्थ-चिंतन की परंपरा में दार्शनिकों के चिंतन के साथ-साथ व्याकरण के आचार्य चिंतन को प्रसंगानुसार ग्रहण किया है।
hindi vyakaran
भारतीय शब्द-शक्तियों के ढंग का क्रमबद्ध चिंतन पश्चिम में नहीं हुआ है। हाँ, वहाँ शब्द और अर्थ के विवेधन की एक!-->!-->!-->!-->!-->…
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काव्य लक्षण की विशेषताएँ
काव्य लक्षण की विशेषताएँ
काव्य लक्षण करते समय कहा गया है कि उसमें निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए -
काव्य लक्षण में अति-व्याप्ति या अव्याप्ति का दोष नहीं होना चाहिए। अति-व्याप्ति दोष से तात्पर्य है विषय का अनावश्यक अति-विस्तार जैसे 'काव्य का' लक्षण करना चाहते थे लेकिन कर दिया - 'संपूर्ण वाड्.मय का'। जैसे भामह का काव्य लक्षण है 'शब्द अर्थ के!-->!-->!-->!-->!-->…
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प्रतीक का शाब्दिक अर्थ
प्रतीक का शाब्दिक अर्थ है, “चिन्ह। प्रतीक शब्द की उत्पत्ति और अर्थ को स्पष्ट करते हुए, प्रो० क्षेम ने छायावाद के 'गौरव-चिन्ह' नामक अपने ग्रन्थ में प्रतीक शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है: "प्रतीक का अर्थ हुआ, वह वस्तु जो अपनी मूल वस्तु में पहुँचा सके अथवा वह मुख्य चिन्ह जो मूल का परिचायक हो।
हिन्दी साहित्यकोष के अनुसार: "प्रतीक शब्द का!-->!-->!-->…
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भारतीय संस्कृत काव्यशास्त्र ग्रन्थ
भारतीय संस्कृत काव्यशास्त्र ग्रन्थ
नाट्यशास्त्र (भरतमुनि, 2वीं सदी)
नाटकों के संबंध में शास्त्रीय जानकारी को नाट्यशास्त्र कहते हैं। इस!-->!-->!-->!-->!-->…
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