गृह प्रवेश ( कविता ) सतीश जायसवाल हिंदी कक्षा 10 वीं पाठ 4.2
गृह प्रवेश ( कविता ) सतीश जायसवाल
गृह-प्रवेश
पहले लटकाई मैंने
धान की बालियों वाली झालर
दरवाजे की चौखट पर
फिर भेजा चिड़ियों को न्योता
गृह-प्रवेश का विधिवत।
चिड़ियों ने भी
न्योते को मान दिया,
आयीं, दाना चुगा!
और लौट गयीं
बाहर ही बाहर दरवाजे से
वैसे
समारोह के बाद जैसे
लौटते हैं
आमंत्रित अतिथि सभी।
छूट गया घर
सूने का सूना,
पहले से भी वीराना
किसी रंग-बिरंगे
और उमंग भरे
मेले से लौटने पर
एक आदमी जैसे!
थका-हारा और बिलकुल अकेला।
तब लटकाया मैंने एक आइना
भीतर
अन्त:पुर की दीवार पर!
आइने के कांच में झांका
तो एक से दो हुआ,
संतोष हुआ!
अपनी ही छाया ने समझाया
सूनापन कुछ तो दूर हुआ।
ऐसे ही
नींद में
सपनों का साथ जुड़ जाएगा
धीरे-धीरे घर भी
घर हो जाएगा।
सपने में
आवाज़ दे रही थी
चिड़िया,
जगा रही थी
सुबह सबेरे।
आइने पर खटखट
जैसे खटखटा रही थी
घर का दरवाजा।
किसी अतिथि की तरह
बाहर ही बाहर से
नहीं लौटी इस बार
चिड़िया,
अब अंत:पुर में
चिड़िया
कांच के आइने में
अपने को निहारती
श्रृंगार करती
और एक घर सजाती।
घर
धीरे-धीरे घर बन रहा था…
भिलाई
झिर-झिर बरसात में
भीगते खड़े
सड़क किनारे
सर झुकाए
पेड़ों का बदल जाना
छायाओं में
अपने सामने
घटित होना यह रूपांतरण,
टप-टप टपकती बूंदों में
झिलमिल रोशनियां
और रंग-बिरंगे बादलों के
जादू रचती
कारखाने की चिमनियां,
इधर सड़क
उधर सड़क
बीच में रास्ता काटती
रेल की पटरियां,
अभी-अभी बदली होंगी
पालियों वाली ड्यूटियां,
क्रॉसिंग वाले गेट पर
अटकी हुई
भीड़ की बेचैनियां,
दिया-बाती के ऐसे समय में
घर पहुंचने को बेचैन
वैसी भीड़ में
एक मैं क्यों ना हुआ
साइकल थामे
हैंडल पर लटकाए
सब्जियों वाला थैला,
मेरी हाथ-घड़ी में
क्यों ना हुआ
घर वापस लौटने का समय,
यों ही नहीं हुआ
बम्बई से कलकत्ता जाने वाली
एक डाउन डाक-गाड़ी का
गुजर जाना,
बिना किसी क्रूर समझदारी के
क्योंकर संभव होगा
एक वीतराग मन
कैसे होगी
एक आध्यात्मिक शाम …
अड़तीस बरस पुराना मन
थर-थर कांपती
सर्दियों की धूप
उतरा रही है
गली में
खिल रही है
सर्दियों की धूप,
सोन-सुनहरी धूल पर
पड़ रही है
गौरैया की परछाइयां
धूप में नहा रही है
मुग्ध हुई जा रही है
अपनी ही परछाईं पर
गौरैया,
मुंह से भाफ निकालती
धूप से कौतुक करती
वो लड़की
खेल रही है खेल
रास्ता चलते,
दुपट्टे में दबाये पीतल का गिलास
लौट रही है वो लड़की अपने घर
अली हुसैन की होटल से लेकर
सूखे टोस्ट और गरम चाय,
उस लड़की का नाम जुबैदा है
वो लड़की नहीं, पड़ोस का घर है
उस घर में गये
मुझे बरसों हुए,
में वहां जाना चाहता हूं
धूप तापना चाहता हूं,
वहां आसमान नहीं
एक आदमी का मन है
उस घर पर अब टाट का पर्दा है,
अड़तीस बरस पुराना
यह शहर नहीं
एक आदमी है
इस शहर के भीतर
जुबैदा के घर की गली है,
सर्दियों की सुबह
और अली हुसैन की होटल है,
एक प्रेमिका का घर
और अरपा नदी है,
समंदर में खड़ा जहाज
और एक किराये का घर है,
यह शहर मेरा है
में यहीं रहूंगा,
सामने वाली छत पर
वह, जो लड़की दिखती है
सहेजती है गुलाब के पौधे
उस का नाम सुलभा नहीं, अरपा है
इस नदी के तल में
रंगीन पत्थरों की स्मृतियां हैं
जब कोई, इन रंगीन पत्थरों के बहाने
छेड़ता है नदी की स्मृतियों को
तो हंसती है अरपा,
सुलभा को हंसते
मैंने आज तक नहीं देखा
मैं उसके गुलाब छूना चाहता हूं
मैं उसका जूड़ा सजाना चाहता हूं,
उतरते क्वांर की दोपहर
सीझती धूप के रास्ते से होकर
जब मैं वापस लौटता हूं घर
तब, भड़कते हुए पित्त के दौरान
बखूबी बयान कर सकता हूं
औरत की गोद का तापमान
किस मौसम में नीम की छांह
और कब, अंगीठी की आंच होता है,
यह किराये का घर नहीं
समंदर में खड़ा जहाज है,
समंदरी आसमान पर रफ़्तार भरता
एक परिंदा
जब छाती भर हवा भर जाती है
तब चोंच में दबाये
तिनकों का संसार
इस जहाज पर उतरता है
परिंदा,
वह घर बनाने का मौसम होता है…
बरसात उदास
कैसी अजीब
यह बरसात की हवा
जैसी सूनी और सपाट
उदास यह बरसात
ना कोई झोंका
कि केशों को उलझाए
चेहरे पर
ना फुहारों में भीगता
कोई चेहरा ही
बस, कांपती हुई-सी
आयी और हो गयी
सीधे कमरे के भीतर
दिन भर के बाद
किसी कामकाजी स्त्री-सी
और पड़ गयी सीधे बिस्तरे पर
एक थकी-मांदी देह
पीठ कर के उस तरफ
जिधर कोई नहीं
एक अकेली दीवार के सिवा
और बाहर
बरसात उदास
अभी तक …
कमीज की बटन
कभी धूप
कभी बदली
मनमानी का खेल खेलती
झिर-झिर
जैसी यह बरसात
वैसी ही मनमानी को उतारू
अपने मन के आगे
असहाय मैं,
मैंने चाहा
खेलना खेल
वैसी ही मनमानी का
मन के साथ मिल कर
मन की तरह
बरसात के साथ होकर
बरसात की तरह,
जैसे रंग-रंगीले कपड़ों में
सज-धज कर निकलते हैं
उमंगों से भरे-भरे
गांव-गंवई के लोग
मेले-मड़ई के लिये
वैसे ही
मैंने भी चाहा
रंग-रंगीली कोई कमीज पहन कर
शाम-शाम निकल आना घर से
बाहर, खुली सड़क पर
और भीड़ के साथ होकर
उनकी उमंग में घुल-मिल जाना
लेकिन कितना दुखद है
एक इतनी छोटी-सी इच्छा का भी
अधूरी रह जाना,
कि पहिनने को निकाली गयी
एक रंग-रंगीली कमीज
शाम-शाम के मनचाहे समय को
बोझिल और उदास बना जाए
कमीज की टूटी बटन
आहत होते उस सुख की तरह
जो घर से बाहर आते हुए
पुरुष की छाती पर उगता है
और देर तक बना रहता है
वहीं का वहीं
जब टूटी बटन की जगह
नयी बटन टांक कर
दांतों से तोड़ती है
धागे का दूसरा सिरा
तरस खाती हुई स्त्री
अपने पुरुष पर,
फिर वहीं बनी रह जाती है
अटूट उपस्थिति बनकर
कमीज पर …
रात ड्यूटी वाली नर्स
रात दस से सुबह छह बजे तक
मरीजों की जतन के बाद
अस्पताल से बाहर निकली होगी
इस समय वह
सुबह साढ़े सात वाली लोकल पकड़ कर
घर जाने के लिये
वैसे ही ढांक-मूंद कर छोटी-सी शॉल से
पूरी की पूरी अपने आप को ना जाने कैसे,
तीखी सर्द हवाओं वाली
उस, ओस पड़ती गीली रात में
माथे पर बिखर रही कुछ लटें काले केशों की
बिलकुल बादाम के बीज-सी
छब्बीस दिसंबर की रात को
वह मुझे मिली थी
नौ बज कर बीस वाली लोकल ट्रेन में,
मुझे नहीं मालूम
कौन-सा राग निर्धारित होता है
गीली रात के वैसे समय के लिये
संगीत की व्याकरण में
बस, कोई धुन थी, उठ रही थी
एक लय थी
ओस भीगी हवाओं को भेद रही थी
एक स्त्री-शरीर आलाप ले रहा था
रात के उस समय को बांधने वाला कोई राग,
क्या पता, कभी ऐसे ही हो, अकस्मात्
रात के उस समय को बांध रहा वह राग
रूपांतरित हो जाए प्रभाती की धुन में
अभी, यह जो झांक रही है लालिमा
आकाश के एक कोने से
मैंने डाले हैं चावल के दाने
सुबह की धूप अगोरती चिड़ियों को
पास बुलाने के लिये,
एक अकेले आदमी का मन
रच रहा कौतुक
सुबह की चाय पीते हुए
क्या पता अभी सुनायी पड़ने लगे वह धुन
निर्धारित होती है जो सुबह के इस समय के लिये,
अपने घर लौटती हुई वह नर्स
ऐसे ही किसी दिन निकले
सड़क नंबर तैंतीस के रास्ते से होकर
छोड़ कर अपनी बंधी-बंधाई लीक रोज़-रोज़ की,
मुझे नहीं मालूम उस का नाम
फिर भी मैंने उससे कहा था
दवा ले लेना अस्पताल पहुंच कर
नर्सों वाली अपनी यूनीफॉर्म पहिनने से पहले,
मुझे भरोसा है
उसने याद की होगी
एक अपरिचित की बात
सर्दी से लाल हो रही होगी उसकी नाक
छींकें थम चुकी होंगी फिर भी शायद,
सर्दी के इन दिनों सुबह के इस समय
तुलसी की पत्ती और काली मिर्च वाली चाय
अच्छी होती है,
किसे पता होता है
कौन चला आये सुबह-सुबह
चाय के समय,
रात भर जाग कर ड्यूटी देती है अस्पताल में
तब घर जाने के लिये कपड़े बदलती है एक नर्स
रात भर
किसी अकस्मात् का भरोसा संजोता है
एक मन
तब सुबह की अकेली चाय के साथ
जुड़ता है
बार-बार किसी आहट का भ्रम
बंगला नंबर 4-बी के लोहे वाले छोटे से गेट पर,
एक आलाप उठती है
मन को समुद्र बना जाती है
एक धुन गूंजती है
मन को नाविक बना जाती है,
कैसा होगा वह संसार
समुद्र के पार
अनदेखा
अनंत, अपार …
प्रेमिका का घर
जब कुछ नहीं चाहता मन
बस, एक साथी
सुख-दु:ख कहने को
या, कहीं पीछे छूट गया
कोई दिन
कोई अच्छी बात,
ऐसे में जब कभी
सांस खींच कर
चुप मार जाता होगा
गांव का गांव
तब तुम्हारे हाथ
क्या बात
बाकी रहती होगी
कहने, करने के लिये?
जब शहर से आने वाली
आखरी बस भी
गुजर जाती होगी
थरथराता हुआ अंधेरा छोड़ कर
अपने पीछे
तब सिरहाना तकिया देकर
सुनते हुए
झींगुरों का समूह-गान,
क्या इस बीच
तुमने ध्यान दिया
तुम्हारी छाती पर पड़ी
खुली, अधपढ़ी क़िताब
सांसों के साथ
एक मिनट में कितनी बार
ऊपर जाती है
नीचे आती है?
हो सकता है
बिस्तरा छोड़ अब तुम
झुक जाओ
लिखने वाली मेज पर
और लिखने लगो गिनती,
लेकिन इस बार
खिड़की पर
ठहरा हुआ अंधेरा
तुम्हारा ध्यान बंटा जाए
या कि मेज पर धरा
किरासीन लैम्प
उस की मंद रोशनी से होकर
पड़ रही परछाईं
सामने वाली दीवार पर
जो तुम्हारी अपनी है
कितनी अकेली लगने लगे
और तुम्हारा मन करे
कोई छू ले,
पहले हां
फिर नहीं
फिर यों ही
किसी की
तुम लेने लगो आहट
उधर
बाहर
जहां, सचमुच
कोई नहीं
या ऐसी ही
कुछ ऊल-जलूल बातें
कुछ हुईं
कुछ नहीं
किसी से कहने को
मन करे,
लिखो
फिर काट दो
ऐसे में
टिकट लगा एक लिफाफा
पास हो …
गोरखा पहरेदार
वह, जो पहरे पर तैनात
रात भर
डंडा ठकठकाते, सीटी फूंकते
घूमता है, एक गोरखा पहरेदार
हाथ में लिये
एक बड़ी-सी टॉर्च
अकेला, सूनी सड़क पर
ताकि एकबारगी
सूनी ना पड़ जाए बस्ती
और बस्ती में कोई घर
छूट जाए, एकदम एक अकेला
अकेला जागता है रात भर
यहां, गोरखा पहरेदार
और वहां, उसका घर
उसके अपने देस में
साल के ग्यारह महीने,
उसके यहां
पच्चीस पाख की लम्बी रातें
और दो पाख के छोटे दिन होते हैं
जब साल में दो बार
वह लौटता है
परदेस से अपने घर
पंद्रह-पंद्रह दिनों के लिये
अपने देस,
इस बार
जब लौटेगा
अपने घर
गोरखा पहरेदार,
वहां चमक रहा होगा
एक नया सूरज,
फिर भी उसके घर
होगी, वही पुरानी सुबह
पंद्रह दिनों की,
इस बार
जब फिर लौटेगा
अपने देस से परदेस
फिर होगी
वही लम्बी रात
एक पाख कम, छह माह की
वहां भी
यहां भी,
जब वहां उग रहा था
एक नया सूर्य
तब यहां पहरे पर था
वह गोरखा पहरेदार
डंडा ठकठकाते, सीटी फूंकते
घूमता रात भर
और हाथ में लिये
एक बड़ी-सी टार्च
अकेला, सूनी सड़क पर …
सुबह के आठ बजे
करवट लिये सोया एक आदमी
वापस खींचता है अपनी तरफ
बीती रात का कोई सपनीला प्रहर
उस व्यतीत रात के अंधेरे में चेहरा धंसा कर
वह कर रहा है भरपूर सुबह का बहिष्कार,
बिस्तरे भर हाथ घुमा-घुमा
वह ढूंढ रहा है कोई निशान अपने लिये
कहीं कुछ नहीं,
फर्श की धूल पर सिगरेट की टोंटियां
धूप की नदी में तैरती मछलियां,
कब की मैली पड़ चुकी मसहरी के भीतर
बे-नहाए शरीर का चरेर पसीना
और निष्प्रयोजन दिनों का उतरता महीना,
खाली है कमरा
खाली है मन
एक अकेले आदमी का घर है,
इस समय सुबह के आठ बजे हैं
और खाली कमरे के भीतर
राग प्रभाती की धुन नहीं
आकाशवाणी का समाचार बुलेटिन है,
एक पुराना कैलेण्डर है
दीवार पर लटका है
एक सूखा पत्ता है
फर्श पर पड़ा है
क्या पता कितने दिन हुए
यहां कोई आया-गया नहीं,
धुंधलाये शीशे वाला आइना है
इस पर साबुन का झाग लगा चेहरा जड़ा है
यह आदमी वही है
जो कल भी यहां था,
आइने पर पड़ रही है
किसी देह की छाया-सी
अभी-अभी नहा कर निकली है
राजा रवि वर्मा की नायिका है
भरी-भरी किसी नदी-सी
उसके केश अभी गीले हैं …
पालतू तोते की मौत
फिर सोचो
घर बंद करने से पहले
बाहर
कुछ छूट तो नहीं गया,
नहीं याद आया ना
खिड़की के नीचे टंगा पिंजड़ा
एक तीखा बोलने वाला तोता,
तुम्हें तोता पसंद था
उसका तीखा बोलना नहीं,
इसका यह मतलब तो नहीं
कि हड़बड़ी के बहाने
एक निरीह प्राणी को
बिल्ली के हवाले कर आओ,
अब तो तुम्हारा पालतू पंछी
भूल चुका होगा
आकाश का रास्ता
और पंखों को डोलाना,
फिर कहो
कैसे कर पायेगा वह
बिल्ली का सामना?
क्या फिर भी
तुम्हारे मन में
घर लौटने का खयाल नहीं आता
या, बे-आवाज़ घर का डर
तुम्हें भी सालता है …
आदमी की जगह
वहां कोई नहीं रहता
जहां मैं रहता हूं,
क्या कहीं कोई रह सकता है
जहां कोई नहीं रहता,
एक जगह है
जहां कोई नहीं रहता
एक आदमी है
वहां रहता है,
कैसे कोई रहता होगा वहां
जहां कोई नहीं रहता
जैसे एक आदमी
रहता है वहां,
सचमुच कोई नहीं
रहता वहां
हां, सचमुच
एक अकेले उसके सिवाय,
कैसा होगा वह, ऐसा
एक आदमी का अकेले होना
जैसे उस आदमी का होना
पूरे का पूरा, किसी टूट-फूट के बिना,
कितना अजीब होगा
ऐसे किसी आदमी का होना
हां, ऐसा ही है
एक आदमी का होना,
फिर भी है एक आदमी ऐसा
और एक जगह आदमी के होने की
आदमी के होने से है होना
किसी जगह का होना….
इच्छाएं
नासमझ होती हैं इच्छाएं
और ज़िद्दी भी कभी-कभी,
हार जाता हूं
क्या करूं उनका,
घर से निकलता हूं
तो, खिड़कियां-दरवाजे लगाकर
अकेले कमरे में छोड़कर,
कोई भरोसा नहीं
कब-कहां मचल जाएं
बाज़ार में
और बिखर जाएं
सारे जतन
इतने दिन
दबाये रखने के,
हां, अब साथ हो लेता है
एक डर भी कभी-कभार,
ऐसा हो, उस किसी दिन
शाम हो जाये रास्ते में
और मैं लौट ना पाऊं
ना बाकी कोई रास्ता
लौट पाने का,
क्या होगा ऐसे में
दिया-बत्ती के समय
सूने उस घर में
अकेली छूट गयीं बेबस इच्छाओं का,
नासमझ और ज़िद्दी भी हुईं
तो क्या हुआ,
कोमल होती हैं इच्छाएं
अंधेरे में डूब जाएंगी…
चूहा और आदमी
बाहर उजाला
भीतर अंधेरा,
एक घर है
चमक रहा है
उजाले में
उजाला दूर है,
दरवाजे पर ताला
दीवारों पर जाला
घर के भीतर
अंधेरे का बसेरा है
सूना सन्नाटा है,
एक चूहा है
कुतर रहा है
धीरे-धीरे ग्रस रहा है
आदमी को समय….
बचपन के खेल
वहां कहीं बच्चे होंगे
खेल रहे होंगे खेल,
खेल-खेल में
घर बनाने और गिराने के खेल,
मेरा भी मन हुआ
बचपन के पास जाने का
और खेलने का
बचपन के खेल ,
लेकिन बचपन
मेरे पास नहीं था
और घर बनाना भी तो नहीं होता
बचपन का कोई खेल…