हिंदी भाषा विकास में सामाजिक संस्थाओं का योगदान

हिंदी के लिए धर्म/समाज सुधारकों का योगदान: धर्म/समाज सुधार की प्रायः सभी संस्थाओं ने हिन्दी के महत्व को भाँपा और हिन्दी की हिमायत की।

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हिंदी भाषा विकास में सामाजिक संस्थाओं का योगदान

ब्रह्म समाज (1828 ई०)

ब्रह्म समाज (1828 ई०) के संस्थापक राजा राममोहन राय ने कहा : ‘इस समग्र देश की एकता के लिए हिन्दी अनिवार्य है’ ।

‘भारतीय एकता कैसे हो’, जिसमें उन्होंने लिखा : ‘उपाय है सारे भारत में एक ही भाषा का व्यवहार। अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित है, उनमें हिन्दी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिन्दी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बनायी जाय, तो यह काम सहज ही और शीघ्र सम्पन्न हो सकता है’ ।

ब्रह्मसमाजी केशव चन्द्र सेन ने 1875 ई० में एक लेख लिखा

आर्य समाज (1875 ई०) 

आर्य समाज (1875 ई०) के संस्थापक दयानंद सरस्वती का कहना था कि ‘हिन्दी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है’। वे इस ‘आर्यभाषा’ को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिन्दी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, ‘मेरी आँखें उस दिन को देखना चाहती है जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जायँ।’

थियोसोफिकल सोसायटी (1875 ई०) 

थियोसोफिकल सोसायटी (1875 ई०) की संचालिका ऐनी बेसेंट ने कहा था : ‘भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिन्दी है। हिन्दी जाननेवाला आदमी संपूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिन्दी बोलनेवाले मिल सकते हैं।

उपर्युक्त धार्मिक/सामाजिक संस्थाओं के अतिरिक्त प्रार्थना समाज (स्थापना 1867 ई०, संस्थापक-आत्मारंग पाण्डुरंग), सनातन धर्म सभा (स्थापना 1895 ई०, संस्थापक-पं० दीनदयाल शर्मा), रामकृष्ण मिशन (स्थापना 1897 ई०, संस्थापक-विवेकानंद) आदि ने हिन्दी प्रचार में योग दिया।

इससे लगता है कि धर्म/समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिन्दी आवश्यक है।

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